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भ्रम - भाग 1



भाग - 1

'तुम उस कमरे के पास क्या कर रही हो? पता है न, वहां क्या है?
भूल कर भी वहां कदम मत रखना समझी तुम? वरना यह तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा। मेरी बात मानने में ही भलाई है, याद रहे।'

अंधेरे डरावने कमरे के बाहर खड़ी इक पतली दुबली सी औरत
"सेजू" को पूरी शिद्दत से डांट रही थी। हाव-भाव मे कोई कमी नहीं। आँखे बड़ी-बड़ी और उन्हें भी जैसे बाहर निकाल कर रखने की कोशिश में थी। आवाज में रोष ऐसा की आस-पास की दीवालों पर घूमती हुई छिपकलियां भी दौड़ लगाकर भाग जाएं।
हाथ लकड़ी से, कंधों पर लटक रहे थे। लाल साड़ी पर काला शॉल ख़ूब जंच रहा था पर गुस्से भरी भयंकर शक्ल पर बिल्कुल नहीं।
खैर अब तो काले शॉल वाली लाल साड़ी में लिपटी क्रोधित आत्मा वहां से हिलती-डुलती निकल चुकी थी।
पर बची थी सेजू, हाँ बस सेजू ही क्योकि छिपकलियां तो पहले ही जान बचा कर दौड़ पड़ी थी। पर कह नहीं सकते यहां वहां से अभी भी झांक रही हों।

'सेजू' के चहरे पर 'कमलाबती' के प्रदर्शन से कोई भय नही नजर आया। लग रहा था जैसे वह कोई सिनेमा देख कर खड़ी हुई है।

"ये कमलाबती है तो यार गजब की चीज। क्या बोलती है, वाह! लगता है जैसे किसी हॉरर मूवी वाली डरावनी हवेली की चोकीदारनी हो। बबाल है रे बाबा..ये कम्मोबाई तो। इसका कैरेक्टर मेरी कहानी में थोड़ा..अरे थोड़ा नहीं रे पगली..जमकर धूम मचा सकता है।
तो देर किस बात की है फिर? सेजू साहिबा...चलिए इनका गृहप्रवेश भी करा देते हैं...देरी में।" सेजू आँखे चलाती हुई और तरह-तरह के चहरे बनाती हुई खुद मे ही बड़बड़ाये जा रही थी।

■■■
"देरी करने की आदत ही है न तुम्हारी 'पिकू'! मैं कबसे तुम्हारा वैट कर रही हूँ इस टूटी-फूटी, धूल भरी सड़क पर, मेरे सारे मेकअप पर ये डस्ट टूटी पड़ रही है पर तुम हो की…" देवीना कुछ आगे बोल ही रही थी कि किसी ने अचानक से पूछा

"पढ़ी-लिखी हो?" सामने का इक दांत उड़नछू था। शक्ल पर कालिख सी पुती थी। कपड़े जैसे महीनों से न धुले थे। बालो को किसी चिड़िया का गंदा सा घोंसला भी कह सकते थे। जूते में से पैर की पाँचो उंगलियां किसी बिल से, दुबककर झांकतें हुए चूहें जैसी दिख रही थी, तो दूसरे पैर की उंगलियां नही झांक पा रही थी क्योंकि उनके लिए जूते में कोई दरवाजे ही न थे।

"हाँ, हूँ। लेकिन आप क्यों पूछ रहे हैं?" देवीना ने उसकी दशा से ज्यादा अपनी अच्छी नजर और सच्चे दिल पर ध्यान धरते हुए। बड़े सम्मान के साथ पूछा।

"बीच रस्ते में खड़ी हो, और पढ़ी-लिखी बनती हो। हटो सामने से मेरा 'कुमार' आ रहा है उसे तुम्हारे जैसे अजीब इंसानों को देखकर गुस्सा लगती है। जाओ उस पेड़ के पास जाकर छुप जाओ..वरना मैं नही जानता। गुस्सा खराब है 'कुमार' का।"

"कौन कुमार?"

"अरे! वो आ रहा है जाओ जल्दी, जल्दी भागो..।" देवीना के पूछते ही 'देव' की नजर किसी परछाई पर गयी और वो घबराकर हड़बड़ाते हुए कहता गया।

"कम सुनती हो क्या..जाओ न मेरी मां।"

देवीना को कुछ समझ नही आ रहा था कि यह आदमी कर क्या रहा है, कह क्या रहा है वह बस जल्दी में जा कर इक पेड़ के पीछे खड़ी हो गयी और देखती रही।

"अरे! मेरे कुमार! आ जाओ प्यारे...आओ मेरे गले आ लगो। तुम्ही तो हो मेरे सबकुछ..तुम बिन इस अभागे का है ही कौन।
आओ यहाँ कोई अजीब इंसान नही है बस मैं हूँ और तुम..अब हम दोनों मिल कर पहाड़ी के उस पार नदिया की गोद मे खेलेंगे कुछ देर बाद फिर बालू की हल्की गरमाहट में समा जायेंगे। कुछ बुनेंगे सपने, वो जिनका नही कोई अस्तित्व कुछ बुनेंगे वो जो ये अजीब दुनिया वाले तोड़ देते हैं। लेकिन न, हम रोयेंगे नहीं। जरा नहीं रोयेंगे..ये दुनिया तो चाहती ही है हमे रुलाना। हम क्यों इस बुरी दुनिया के बुरे इरादे मुकम्मल होने दें भला..आओ मेरे प्यारे-मेरे दुलारे साथी।"

पेड़ के पीछे से देख रही देवीना हैरान थी की "ये पागल दिखता है पर बाते किसी दुखी और अनुभवी सी कर रहा है। ये है क्या आखिर। अरे! और ये उसका साथी, कुमार, दुलारा, प्यारा कौन है?"

देवीना इस सब के बीच पिकू को तो भूल ही गयी थी। बस वह 'देव' की हरकतों और बातों में उलझ चुकी थी। देव वही पागल जैसा दिखने वाला आदमी था। तभी देवीना के बाएं हाथ में अचानक इक कपकपी दौड़ी..और देवीना का ध्यान अपने फोन पर जा टिका जो की उसके बायें हाथ मे ही थमा हुआ था। देवीना को जैसे होश आया और उसके चेहरे पर कुछ चिंता के भाव उभरे। देवीना अपने फोन को कान से चिपकाती हुई धीमी आवाज में कहना शुरू करती है- "ओह! सॉरी माय डियर, एक्चुअली मुझें यहाँ इक अजीब सा इंसान मिल गया है। वह बहुत अजीब है। मुझें उसे देख कर कुछ ठीक नहीं लग रहा और इस सड़क पर भी कोई नहीं हम दोनों के अलावा। वो अपने किसी 'कुमार' के आने की बात कर रहा है, और उसे बड़े प्यार से बुला रहा है। मैं इक पेड़ के पीछे खड़ी-खड़ी तमाशा देख रही हूँ। तुम जल्दी आओगे? प्लीज!"

"ओ माय गॉड, देवू! मैं नही आ रहा हां! मुझें बड़ा डर लग रहा है ये सब सुन कर ही। तूँ इक काम कर वहां से चुपचाप निकल ले और फिर मुझें होटल 'कलर' में ही मिल। सॉरी…" फोन के दूसरी ओर से पीकू बोला।

"Ok.. तुमसे न अब मिलना ही नही मुझे। तुम इतने...छोड़ो अच्छा हुआ मुझें पता चला कि तुम मुझें कभी भी ऐसी सिचुएशन में अकेला छोड़ सकते हो। बाय गुड बाय!" और पटाक से फोन कॉल काट देती है। उसकी नजर यकायक सूखे पत्तों और गिट्टी-पत्थरों से भरी सड़क पर दौड़ पड़ती है। जहाँ सड़क के अगल-बगल बड़े-बड़े घने पेड़ों की दीवारें सी खड़ी थी और उस सड़क पर कोई मटमैले से रंग के शॉल में लिपटा हुआ बड़े कदमों से मगर कम तेजी से बढ़ता चला आ रहा था। उसने खुदको उस शॉल में ऐसे समेटा था कि सिर का इक बाल तक नही दिखाई देता था, हाँ आँखे शायद लगी हुई थी उसके चेहरे पर जो उसके करीब आने पर दिखाई देने लगी थी। हाँ मगर अभी फासला था। देवीना खुदको उसकी आँखों से बचाती हुई पेड़ के पीछे बड़ी सावधानी से छुपकर देखती जाती है।

"कुमार कहाँ है मेरा? साहिब! वो कहीं दिख नहीं रहा। आया नही क्या वो साथ?" देव साहिब को अकेला आता देख पूछता है।

"क्या? ये भी कुमार नहीं है। क्या नोटंकी है यार ये सब। मैं कैसे निकलूं यहाँ से, इक पागल दिख रहा है पूरा और इक डरावना भूत। अभी बाहर निकलती हूँ तो पता नही क्या करेंगे ये दोनों इडियट।" देवीना खुद ही खुद में बड़बड़ाती है। तभी...

"देव! तूँ तो भूल जा अब अपने कुमार को। उसे तो मैं कच्चा चबा कर खाने वाला हूँ। उसे बगीचे के पास वाले कुँए में उल्टा लटका कर आ रहा हूँ। अभी भूख नहीं है तो शाम को आराम से जा कर खाऊंगा। चल जब तक तूँ मेरे साथ पहाड़ी के उस पार वाली नदी की गोद मे खेलने चल।" कड़क और भारी आवाज में साहिब बोलता जाता है।

"ये साहिब ऐसा मत करो, वो ही मेरे जीने की आखरी उम्मीद है। ऐसा मत करो।" लग रहा था जैसे यहाँ किसी बॉलीबुड फ़िल्म की माँ अपने बेटे की जान की भीख मांग रही थी। यह सब देख कर अब देवीना को डर नहीं गुस्सा लग रही थी। वह अब पेड़ के पीछे से बाहर आ ही रही थी कि..

"तो कोई दूसरा शिकार ला मेरे लिए।" साहिब देव के कंधे पर हाथ पटकते हुए कहता है।
यह सुन कर देवीना सपाक से फिर पेड़ के पीछे भाग जाती है। और...

"अरे रे! कहाँ फस गयीं मैं इन अजूबों के बीच।" चिंता अपना रंग देवीना के चेहरे पर बखूबी दिखा रही थी।

"क्या? दूसरा शिकार? मगर मैं कहाँ से लाऊँ?" देव परेशानी भरे स्वर में सवाल करता जाता है।

"वो तूँ जान। मुझें बस अपने भोजन से मतलब, अब चाहे तेरा कुमार हो, या पेड़ के पीछे छुपी वो लड़की।"

साहिब की ये बात सुनकर तो जैसे देवीना के होश ही उड़ गए। और अब वो कोई हरकत नहीं कर रही थी। जैसे वह गति, हलचल क्या होती है सब भूल गयी हो। बस इक मूर्ति की तरह जम कर रह गयी थी। तभी देवीना का फोन फिर कपकपाया और देवीना को जैसे पता ही नही था कि अब उसे करना क्या है। बस वह जैसी खड़ी थी वैसी ही खड़ी रही। अब उसके कान किसी के कदमों को अपनी ओर बढ़ता महसूस कर रहे थे। देवीना की देह भले ही किसी दीवार सी निक्रिय हो गयी थी लेकिन उसके दिल की धड़कनें जैसे किसी सुपरफास्ट ट्रेन सी दौड़ रहीं थीं। देवीना की आँखे अब किसी बड़ी सी परछाई को देख रही थी। अब उसका क्या हाल था वह शायद वहीं जानती होगी।

"मेरा भोजन बनोगी देवू?"

यह प्रश्न सुनते ही देवीना ने अपनी आँखें बंद कर ली। कुछ देर की खामोशी के बाद देवीना को जैसे कुछ याद आ गया था। और उसने तपाक से अपनी पलके आँखों से उठायी।

"यह आवाज…? देवू…?" देवीना बेहद दबी आवाज में खुदसे बोली। और उसने झटके से अपनी गर्दन घुमा दी।

"बनोगी न मेरा..भोजन देवू?"

देवीना के चहरे पर साफ नजर आ रहा था कि उसे कोई झटका लगा था। और गुस्से के बादल भी अब घिरकर आते दिखाई देने लगे थे। देवीना जैसे बहुत तेज चीखना या कुछ कहना चाह रही थी। मगर उसे समझ नही आ रहा था कि वो बोले क्या। अब उसके सब्र की सीमा समस्त हो चुकी थी और उसने अपने दोनों हाथों से साहिब से लिपटा शॉल निकाल फेका था, उसने अपनी दबी हुई आवाज पर जीत पा ली थी।

"कितने बद्तमीज इंसान हो तुम। तुम्हें पता भी है मैं कैसा महसूस कर रही हूँ इस वक़्त और कैसा महसूस कर रही थी उस वक़्त जब तुम और ये..ये तुम्हारा देव..अजीब-अजीब बाते कर रहे थे।
क्या इरादा है तुम्हारा हां.. बोलो मुझें सचमुच कच्चा खाना चाहते हो? मुझें हार्टअटैक देना चाहते थे? बोलो..?"

यह सब देवीना इक ही सांस में कह गयी। मगर उसका गला रुंधा हुआ लग रहा था। उसके भीतर जैसे कोई रुआँसा भरी हुई थी। आँखों से आँसू गिरे तो नहीं थे। मगर उसकी आँखें खारे पानी से भर चुकी थी। और अपनी पूरी ताकत के साथ अपने शब्दों को पिरोये जा रही थी।

■■■

"अरे! यार इन लोगो ने तो बड़ी देर कर दी। अभी तक तो आ जाना चाहिए था।" सेजू अपनी वॉच देखते हुए थोड़े चिंतित स्वर में कहती है।

"लो! आ गए...अरे! यार कब से वैट कर रहें है हम सब तुम दोनों का। कहाँ थे? अब तक।" समर देवीना और पिकू को आता देखकर पूछता है।

देवीना के चेहरे पर जैसे कोई भाव नही थे। वह बिल्कुल सख्त दिख रही थी। उसके साथ पिकू भी कुछ शर्मिंदा दिखाई पड़ रहा था। वो दोनों खाने की टेबल के पास रखी कुर्सियो पर बैठ चुके थे।

"ओये। देवू यह कौन है तुम दोनों के साथ। कहो न बैठने को इसे भी।" सेजू देवीना से धीमी आवाज में कहती है।

"बैठ न भाई। ये देव है मेरे चाचा जी का लड़का। भोपाल कुछ दिन घूमने आया है। मेरे साथ ही रहेगा।" पिकू, देव का सबसे परिचय कराते हुए उससे बैठने को कहता है।

"हेलो" देव बैठते हुए बोलता है।

सेजू और समर भी देव को हेलो बोलते है। और दोनों महसूस करते है जैसे देवू, पिकू और समर के साथ कुछ हुआ हो। वे दोनों उनकी खामोशी में किसी बीती घटना की अनुभूति कर पा रहे थे।

"कुछ हुआ है क्या..तुम लोगो के साथ।" सेजू बहुत ही गंभीरता और जिज्ञासा भरे लहजे से पूछती है।

देवीना तो जैसे मौन व्रत रखें हुए थी और देव भी शांत बैठा हुआ था। कुछ पल की खामोशी के बाद पिकू सहमता हुआ बोला

"यार! मुझसे इक गलती हो गयी सेजू, समर।"

"क्या…? कैसी गलती..??" सेजू उलझन भरे लहजे में पूछती है।

समर भी पिकू की तरफ आशा भरी नजर से देख रहा था।

"यार मैंने न आज देवू के साथ इक मजाक किया। जिससे वह बहुत दुखी हो गयी है। मुझें सच मे बहुत बुरा लग रहा है ऐसा करके।" पिकू शर्मिंदगी के साथ देवीना की तरफ देखते हुए उदास मन से कहता है।

"ऐसा क्या मजाक कर लिया भाई..??" समर देवीना और पिकू की तरफ देखकर बोला।

पिकू कुछ कहता कि इसके पहले सेजू की माँ सबके लिए चाय और नाश्ता लेकर आ गयी। सेजू की माँ ने अपनी लंबी सी चोटी में इक लाल गुलाब का फूल सजा रखा था। पांच फुट के तंदुरुस्त देह पर नीले रंग की सलवार और हल्के गुलाबी रंग की कुर्ती जच रही थी। नीले रंग के दुपट्टे को दोनों कंधो पर पूरा खुला हुआ बिछाया गया था। नाश्ते की ट्रे को टेबल पर जमाती हुई सेजू की माँ सपना बोलीं…

"कितने दिन बाद आ रहे हो। अपनी इस माँ की भी खबर ले लिया करो कभी। लो चाय पीओ..पानी यहीं पहले से रखा था। पी लिया होगा?" अब सपना वहीं पास में रखी इक कुर्सी पर बैठ जाती है और वहां बैठे समर, देवीना, और पिकू को इक सरल मुस्कान के साथ ममता भरी आँखों से देखती है। जैसे उन्हें मन ही मन दुलार रही थी। तभी उसी सहजता से सपना देव की ओर देख कर पूछती है…

"अरे! बेटा तुमसे तो शायद मैं पहली बार मिल रही हूँ। है न सेजू?
अरे! मैं भी क्या सेजू से कंफर्म कर रही हूँ। मैं कहाँ अपने बच्चों से इक बार मिल कर उन्हें भूलती हूँ।
हाँ, तो बेटा मैं हूँ सपना, तुम अपना नाम बताओ अब मुझें।"

"आंटी जी"

देवू के इतना कहते ही समर उसे बीच मे रोकते हुए कहता है..

"अरे! देव भाई.. हम सब माँ ही कहते है। तुम भी यह सुख पा सकते हो।"

"हाँ, ये सुख ही है मेरे लिए...माँ मेरा नाम देव है। मैं पिकू के चाचा का लड़का हूँ। कटनी में, मैं अपनी फैमिली के साथ रहता हूँ और अपनी स्टडी भी वहीं से पूरी कर रहा हूँ। अब भोपाल आया हूँ, कुछ महीने यहीं पिकू के साथ रुकूँगा।" देव सपना की ओर देखता हुआ कहता है।
यहाँ देव की आँखों मे और उसके लहजे में सपना के प्रति आदर भाव पूरी निष्ठा से तैर रहा था। देव जैसे महसूस कर रहा था कि उसने बहुत दिनों बाद खुदको इस ममत्व में बैठा पाया है। जैसे उसे लग रहा था। कि वो अपनी सारी परेशानियां, मन की उथलन-पुथलन सब कुछ भूल रहा था।

"अरे! वाह! देव...तुम्हें पता है मेरा इक स्टूडेंट था उसका नाम भी देव था। और वो बिल्कुल देखने मे तुम्हारे जैसा ही शांत और सरल लगता था। बहुत प्यारा बच्चा था। हाँ, मगर वह जितना सीधा दिखाई देता था। उसका मन उतना ही उलझा हुआ था। वह कभी-कभी बहुत बड़ी-बड़ी गलतियां कर देता था और उन्हें मानने के लिए भी तैयार नहीं होता था। तब वह इक सरल बच्चे सा नही किसी शैतान सा लगता था। कोई यकीन नही कर पाता था कि यह वही सीधा-साधा 'देव मसीह' ही है।"

सपना किसी अतीत को जैसे अपनी आँखों से देख रही थी और इक एकाग्रता के साथ देव को बता रही थी। तभी सेजू, सपना की उस एकाग्रता को भंग करते हुए कहती है…

"माँ…आप मुझें तो नही बताती कभी यह सब। आपको पता है न मुझें इन सब बातों में कितना इंटरेस्ट है। आखिर मैं इक राइटर हूँ, ठीक है अभी मुझें दुनिया नहीं जानती लेकिन मैं तो जानती हूँ न खुदको और यार आप भी तो जानती हो न माँ! मुझें इक कामयाब राइटर बनना है। जिसे सारी दुनिया जाने..सारी दुनिया।
मुझें ये पेड़, पत्ते, फूल, हवाएं, जमीन, आसमान, राते, शामे, नींदे, ख़्वाब, सब कुछ सब कुछ सपोर्ट करता है। लेकिन आप न मुझें सपोर्ट नहीं करती।"

सेजू अपनी माँ से शिकायत करते हुए जैसे कुछ पल के लिए सचमुच अपनी सपनो की किसी दुनिया मे निकल गयी थी। उसकी बातों में जितनी मासूमियत थी। उतना जज़्बा भी साफ नजर आ रहा था अपने लक्ष्य को लेकर।
देव यहाँ सेजू को एकटक घूरे जा रहा था। जैसे वह सेजू को किसी किताब सा पढ़ने बैठा हो।

"मैं कब सपोर्ट नहीं करती हूँ तुझें बोल..?" सेजू की माँ सेजू की शिकायत पर प्रतिक्रिया देती हुई।

"अरे! सपना तुम इधर आओगी जरा…!" कमलाबती सपना को किसी कमरे से आवाज देती हुई बोली।

"जी मौसी! चलो तुम लोग अपनी बातें करो, और ये चाय नाश्ता फटाफट खत्म कर दो। मैं आती हूँ। ठीक है!" सपना कमलाबती की आवाज का जबाब देते हुए सेजू और उसके दोस्तों से कहकर चली जाती है।

"यार! सेजू जल्दी बता अब क्यों बुलाया है तूने हम लोगो को। मेरा मूड खराब है आज। मैं जल्द से जल्द अपने घर जाना चाहती हूँ अब।" देवीना, सपना के जाते ही सेजू से थकी हुई परेशान आवाज में कहती है।

"हाँ! यार बात तो बहुत कमाल की है..पर पहले यह बताओ की क्या मजाक किया तुमने देवीना के साथ पिकू, जो वो इतनी ज्यादा परेशान है।" सेजू पिकू को डांटते हुए पूछती है।

"वो सब अभी छोड़ो प्लीज..तुम अपनी बात कहो सेजू। क्या कमाल की बात है जो तुम्हे हम सबको बतानी है।"

देव सेजू से बड़ी जिज्ञासा के साथ कहता है।

"ठीक है पर उसके लिए..हम सबको गार्डन में चलना पड़ेगा। ओके?"

"क्या यार सेजू ऐसा भी क्या है अब..जो गार्डन में चल कर बताओगी।" समर सेजू से चिढ़ता हुआ कहता है।

"यार! बहुत ही अजीब और मजेदार बात है। तुम लोग सुनोगे तो..अच्छा चलो पहले गार्डन में।"
सेजू अपनी डायरी को टेबल से उठाती कर गार्डन की ओर बढ़ती हुई कहती है।

"हाँ! अब बताइये कौन सी अजीब और मजेदार बात है..सेजू जी!
हम सब व्याकुल है, आपकी अजीब और मजेदार बात सुनने के लिए!" समर ने मजाकिया लहजे में कहा।

"तो बात ये है मेरे प्रिय मित्रों कि...मेरे घर मे, मेरी मम्मी की, इक मौसी आयीं हैं।" सेजू बहुत आराम-आराम से बताती है।

"जी आयी हैं, तो?" समर सेजू की नकल करते हुए बोलता है।

"यार समर, प्लीज मुझे डिस्टर्ब मत कर। बोलने दे मुझे।" सेजू परेशान होकर कहती है।

"हां! सॉरी..बोलो बोलो" समर कहता है।

"तो तुम लोगो को पता है...मुझें अपने ही घर की, अपने ही..सोचो..सोचो अपने ही घर की..इतनी जरूरी बात नही पता थी। मतलब जरूरी...अरे! यार जरूरी ही समझो।"

"सेजू यार तूँ जल्दी बता, पहेलियां मत बुझा समझी।" देवीना चिड़चिड़ाती हुई कहती है।

"हाँ यार वही तो बता रही हूँ, तुम लोग..

ठीक है..पता है मेरे घर मे इक कमरा है जिसके बारे में मुझे कल रात को पता चला। 23 सालों में।" सेजू कहती है।

"क्या..?" देवीना चौकते हुए

"तूँ अब रहने दे हाँ! सेजू, हमे सब पता है तूँ अब कहानियां मत बना। इतने भी बुद्धू नहीं हैं हम लोग।" समर सेजू को समझाते हुए कहता है।

"यार! मुझे पता ही था तुम लोग यही समझोगे कि मैं कहानी सुना रही हूँ। लेकिन यही सच है कड़वा सच…!" सेजू बच्चों की तरह मुँह बनाते हुये कहती है।

"हाँ! ठीक है। क्या है उस कमरे में ऐसा..और हाँ! ऐसी किस जगह बना है वो कमरा की तूने इतने सालों में कल देखा पहली बार?"

समर सेजू की तरफ देखता हुआ..पूछता है। यहाँ पिकू चुपचाप खड़ा हुआ सब सुनता जाता हैं। मगर देव की चुप्पी में वह बात नही दिखती जो पिकू के चेहरे पर नजर आ रही थी।
देवीना जैसे अब तक सेजू की बातों पर यकीन नहीं कर पा रही थी। और वह सेजू का चेहरा देखे जा रही थी। जैसे वह सेजू को पढ़ने की कोशिश कर रही थी। उसे शायद लग रहा था कि वह उसके चेहरे से उसकी बात में कितनी सच्चाई या झूठ है सब जान लेगी।

अब सेजू समर का जबाब देती हुई..

"वही यार मुझें समझ नहीं आ रहा कि ऐसा कैसे हो सकता है। पता है? मैं कल अपने कमरे में बैठ कर इक हॉरर स्टोरी पढ़ रही थी। करीब रात के बारह, साढ़े बाहर..बज रहे होंगे। तभी मैंने देखा की मेरे कमरे की खिड़की के बाहर, जहां से घर के पीछे वाला हिस्सा दिखता है। कोई किसी से बात कर रहा था।"

"हैं सच मे?" समर हँसते हुए बोला

"तूँ न समर चुप कर प्लीज।" परेशानी के साथ सेजू ने कहा।

"फिर, फिर क्या हुआ..सेजू!" देवीना ने गंभीरता से पूछा।

"तो क्या हुआ कि..मैं तो यार डर गई। इक तो पहले ही से कहानी बहुत डरावनी लग रही थी। और उसी पर अचानक से..।"

सेजू अपनी बात कर ही रही थी कि..देव का फोन बजा।

"रुको! सेजू! मैं आता हूँ। तुम अभी कुछ मत बताना। ओके?"

देव इतना कह कर अपने फ्रेंड ग्रुप से कुछ दूर चला जाता है।

"इक बात बता यार पिकू। ये तेरे चाचा का लड़का भी कोई स्टोरी राइटर है क्या? इसे बड़ा इंटरेस्ट आ रहा है। इस पगली सेजू की फालतू बातों में।"

समर की बात पर चिड़चिड़ाती हुई सेजू.." ओये! हेलो! मैं न कुछ बोल नही रही तुझसे तो तूँ कुछ ज्यादा ही।"

"हाँ! सेजू बताओ फिर क्या हुआ?" सेजू के गुस्से से यहां देव समर को बचा लेता है।

"फिर मुझें डर लगा..और मेरी हिम्मत ही नही हुई कुछ पूछने की।
जैसे- वहां कौन है? या देखने की खिड़की के पास जा कर।"
सेजू कहती है।

"देख लो! इन्हें! इनको भी डर लगता है। जो रात-रात भर भूतों की कहानियां पढती हैं।" समर सेजू पर सवाल उठाता हुआ "सच बता यार सेजू! तूँ सच मे पढ़ती है न भूतों की कहानियां रात में? क्योंकि तुझें डर भी लगता है और रात में पढ़ती भी है। अजीब है यह बात मेरे लिए तो।"

"जी हाँ! पढ़ती हूँ! और मुझें डर भी लगता है। लेकिन यार तभी तो मजा आता है कहानी पढ़ने का। जब तक वह कहानी हम पर असर न दिखाए..कहानी पढ़ने का, सुनने का क्या मजा बताओ?"
सेजू हवा में खोई हुई आसमान की तरफ देख कर, चहरे पर इक मुस्कान लिए हुए कहती है।

"कितना रुकना पड़ेगा यार! तुम्हारी बात पूरी होने में सेजू! जो भी हुआ। जैसे हुआ और तुम हम लोगो को यह बताना क्यों चाहती हो? क्या वजह है। यह जल्दी जल्दी बता दो न प्लीज।" देवीना सेजू से रिक्वेस्ट करते हुए कहती है।

"इस समर की वजह से मैं अपनी बात कह ही नहीं पा रही। बीच-बीच मे मेंढक की तरह कुंद रहा है।" सेजू समर पर खीझती हुई कहती है।

"सॉरी..सॉरी..अब तुम कर ही डालो अपनी बात पूरी। अब मैं कुछ नही कहूंगा बीच मे।" समर मुँह बनाता हुआ.."ठीक?"

"ठीक! तब मैं डर के मारे अपना मुँह चादर से ढक कर सोने की कोशिश करने लगी लेकिन कुछ देर बाद मुझें मम्मी की मौसी जी की आवाज आयीं। वह किसी से फोन पर कह रही थी कि 'मैं यहाँ से अब अपनी चीज लेकर ही जाऊँगी। सबसे पहले तो उसे उस कमरे की चाबी चाहिए। जिसका मुझें कोई ठिकाना नही पता कि वो कहाँ है? और कैसे मिलेगी?'' फिर कुछ देर रुक कर बोली, शायद सामने वाले ने कुछ कहाँ होगा उतनी देर में ''मैं उस कमरे के ताले का पता कर लूं पहले और उस कमरे को देख लूँ बाहर से ही। फिर तुम्हें कुछ बताऊंगी कि उस चाबी को कैसे ढूंढ सकते हैं या किस तरह की चाबी उस ताले की हो सकती है।'' इसके बाद उन्होंने कॉल कट कर दी। और फिर मैं चुपचाप से उठी और उनको छुप कर देखा कि वो कहाँ जा रही हैं? वो मेरे कमरे के पास वाली दीवार के पास खड़ी हो गयी और उनपर बने चित्रों को देखती रही बहुत देर तक। मैंने सोचा ये क्या यहीं खड़ी रहेंगी सारी रात इन्ही को देखती रहेंगी? फिर मैं सोने जाने लगी लेकिन फिर तुरंत वह सबसे लास्ट वाले कमरे के पास पहुच गयीं। मैं रुक गयी।
उस कमरे में बहुत जरूरी चीजें रखी है। मोम बताती है मेरी। कहती है वहां मत जाया करो तुम। मैं किसी दिन खुद ही वह जरूरी चीजे तुम्हे दिखा दूंगी कमरा खोल कर।"

सेजू अपनी बातों में मग्न थी। देव जिन्हें गंभीरता से सुन रहा था।
समर को जैसे कोई रुचि नहीं थी। उसकी रुचि पेड़ो पर टंगी पत्तियों में ज्यादा नजर आ रही थी। देवीना और पिकू चुपचाप सेजू को सुन रहे थे।

"मैंने देखा कि वह उस कमरे में अंदर झाँकने की कोशिश कर रही थीं। फिर मुझें शक हुआ। कि कहीं इनका इरादा कुछ.."

"चोरी!" सेजू की बात काटते हुए देव कहता है।

"हाँ! चोरी.. मुझें तो यह चोर लगती है यार। इनकी शक्ल भी कुछ चोरों जैसी ही है।" सेजू कहती है।

"तो अब तुम चाहती हो कि हम सब इन्हें पकड़ कर पुलिस के हवाले करें। हैं न?" समर ने कहाँ

"अरे! नही रे! चोरी तो मैं इन्हें करने दूँगी नहीं।" सेजू बोली।

"तो इस कमरे के बारे में तो तुम्हें पता था पहले से, तो फिर कल तुम्हें किस नये कमरे के बारे में पता चला और कैसे? यह भी तो बताओ..।" देव ने सेजू से कहा।

"अरे! हाँ! मैं भी न.." सेजू अपने माथे पर हाथ मारते हुए बोली। " जरूरी बात तो बताना भूल ही गयी..।"..। तो सुनो..क्या हुआ कि.."

"सेजल…" किसी ने पीछे से आवाज दी। सभी उस आवाज की तरफ मुड़ गए।

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क्रमशः

लेखिका - सुरभि गोली


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