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भ्रम - भाग-5

पांचवा भाग "भ्रम"
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"सर रास्ते में कुछ लोग खड़े हैं बस रोकने को कह रहे हैं।" बस ड्राइवर ने बस की स्पीड कम करते हुए टीचर से कहा।
"हां! भाई तो रोको। उनके ऊपर थोड़े ही चढ़ानी है।" टीचर ने मजाक करते हुए कहा।
"ओके! सर!" बस ड्राइवर ने आदेश का पालन करते हुए कहा।
टीचर और कुछ स्टूडेंट्स बस से बाहर निकले।
"बस यहां से आगे नहीं जायेगी।" बस को रोकने वाले आदमियों में से इक आदमी ने कहा।
"बस आगे क्यों नही जायेगी भाई?" टीचर ने बड़ी विनम्रता से पूछा।
"क्योकि इसके आगे खाई है?" उन चारों में से इक ने कहा।
"क्या मजाक कर रहे हो भाई? मैं यहां पहले भी अपने और स्टूडेंट्स को लेकर आ चुका हूँ।" टीचर हँसते हुए बोले।
"यहां का राज आपको मालूम नहीं हैं। शायद तभी आपको हँसी आ रही है।" सामने वाला आदमी बोला।
"अच्छा! तब आप ही बता दीजिए।" टीचर ने कहा।
"देखिए उन बातों को खुलेआम नहीं कर सकते है। हम सब यही पास के रहने वाले लोग है और हम यहां के लोगो को आगाह करने हर पांचवे साल में आ जाते है। यह वही 5 वां साल है..जो उस जगह को खतरों से भर देता है जिस जगह आप सब जा रहे है।" उनमें से इक आदमी बोला।
"और खाई?" इक स्टूडेंट ने पूछा।
"हम पहले वह बातें बताते है जो संभव हों। लेकिन आपको पहले से इस जगह के बारे में पता है इसलिए आप सबको खाई के नाम से नही रोक सका। यहां ज्यादा लोग आते नही है और इस जगह के बारे में जानते भी नहीं इसलिए उन्हें झूठ बोल कर बचाने के प्रयास करते है और अगर कोई इस झूठ से न माने तब यह राज वाली बात कहते है जो मान गया तो ठीक वरना किसी की मौत को कौन रोक सकता है।" उनमें से एक बोला।
"ये सब नौटंकी मत कीजिये भाईसाहब हमें देर हो रही है जाने दीजिए और हां यह सब अफवाहें फैलाना बंद कीजिए।" टीचर ऐसा बोल कर बस की और बढ़े और जितने स्टूडेंट्स उनके साथ बस से उतरे थे वह भी बस में चढ़ गये।"
बस स्टार्ट हुई
"एक बार फिर सोच लीजिये बाबूजी।" उन्ही चार लोगों में से एक ने तेज आवाज लगाते हुए कहा और बस आगे बढ़ गई।
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"तुम कौन हो?" घबराई हुई सेजू ने नदी के पानी की ओर देखते हुए पूछा।
"मैं यहां की रानी हूँ "मीनपरी" लेकिन मेरे साथ छल हुआ है, मैं यहां पर 2 हजार सालों से इसी भयानक रूप में जीवन जी रही हूँ। मुझे किसी की मदद की जरूरत है मगर यहां कोई ऐसा नही जो मेरी मदद करे।" नदी के अंदर से बोलती एक भयानक दिखने वाली बड़ी सी मछली ने कहा..जिसका आधाशरीर मछली की तरह था और आधा किसी परी की तरह जिनके पंख होते हैं।
"कैसा छल हुआ है तुम्हारे साथ?" सेजू ने उस डरावनी मछली की आंखों में देखते हुए पूछा।
"यह एक नगर है छोटा सा जिसे तुम देख रही हो, जहां तुम हो। मैं इसी नगर की रानी हूँ। मैं भी एक मनुष्य हूँ मगर मेरे साथ छल करके मुझे यह भयानक मछली का रूप दे दिया गया है। मैं मेरी पूरी कहानी तुम्हें नहीं सुना सकती इसके लिए तुम्हे आगे बढ़ना होगा और सुभासा से मिलना होगा। उसे सब पता है कि मेरे साथ क्या हुआ और किसने किया, लेकिन वो मेरी मदद नही कर सकता क्योंकि वो नियमो का पक्का है..उसके सरदार ने नियम बनाये है कि उसके सरदार से बिना पूछे कुछ नही करना है किसी मरते की मदद भी नही। लेकिन हां! वो एक अच्छा इंसान है। तुम अगर मेरी मदद कर सकती हो तो उससे मिलो वो तुम्हे सरदार से मिला देगा, सरदार बहुत बेकार इंसान है तुम उससे राज उगलवा सकती हो।" मीनपरी बोलती गई।
"मतलब सरदार को भी सब पता है? और मैं कैसे उगलवा सकती हूँ राज?" सेजू के मन से डर जरा कम हुआ।
"हां! सरदार को सब पता है और तुम उससे कैसे राज उगलवाओगी यह तुम्हे खुद सोचना है।
अब मैं चलती हूँ। मैं यहां ज्यादा देर नही रुक सकती। तुम मेरी मदद कर सको तो जरूर करना।" मीनपरी ने कहा और नदी के भीतर कहीं खो गई।
सेजू मीनपरी की बाते सुनकर यकीन नही कर पा रही थी कि किसी के साथ ऐसा भी हो सकता है मगर उसके साथ जो हो रहा था क्या वो भी किसी के साथ हो सकता था? नही!
इसलिए सेजू ने उसकी बात को मानने में ज्यादा समय नही लिया।
सेजू के मन से उस खूबसूरत नगर का मोह निकल चुका था। उसके जहन में अब बस यह चल रहा था कि वह किस रास्ते जाए जहां उसे सुभासा मिलेगा। सेजू नदी के किनारे से उठ कर अब उन खूबसूरत पहाड़ियों की ओर बढ़ने लगी।
आकाश में पक्षी उड़ रहे थे। उनकी आवाजे बड़ी मनोरम थीं। सेजू ने अचानक से आकाश की ओर देखा और वह देखती ही रही "कितना सुंदर खेल चल रहा है इन रंगबिरंगे पाखियों का, काश! यही मुझे मेरी मंजिल पर ले जाते, यहां और कौन है जो मुझे सुभासा तक पहुचायेगा। अब अगर मैं यहां आ ही गई हूं तो किसी की मददगार ही बन जाऊँ।" पक्षियों को देखते हुए सेजू मन में विचार कर रही थी।
सेजू फिर पहाड़ी की ओर बढ़ने लगी। अब रास्ते में कहीं बड़े कहीं छोटे पत्थर सेजू को मिल रहे थे। पर्वत पर चढ़ते हुए सेजू के कदम बहक रहे थे मगर वह संभल जाती थी। सेजू कुछ देर चलने के बाद उसी पहाड़ी पर बैठ गई और वही बैठ कर पूरे नगर को कुछ सोचती हुई देखती रही।
तभी उसके पीछे से इंसानों की आवाजें आयीं..सेजू का ध्यान आवाजों की और आकर्षित हुआ। उसने यहां वहां देखा, उसे कुछ नही समझ आया कि ऐसी पहाड़ी पर इंसान कहाँ से बोल रहे हैं वो भी इतने सारे। दूर-दूर तक कहीं कोई दिखता भी नहीं।
सेजू अपना दुपट्टा सिर से हटाती हुई उठी और उसे कमर से बांध कर आगे बढ़ने लगी। आवाज को महसूस करती हुई सेजू पहाड़ी पर गिरती-पड़ती चलती रही।
"ये कहाँ फस गई हूं मैं? ओ! गॉड मुझे मेरे घर पहुँचा दीजिये। मुझे किसी की कोई मदद नही करनी है।" सेजू अपने माथे से पसीना पोछते हुए बोली।
"क्या कहा..50 रुपया? अपने बाप का माल समझते हो क्या?"
"ये कैसी बातें करता है? जरा अच्छे से बोलो भाई?"
सेजू ने सुना और पीछे मुड़ी और उसने देखा पहाड़ी में बीच से दरार है। एक पतली सी गली बनी हुई है। लग रहा है जैसे वह पहाड़ खुद ही बीच मे से बट गया है किसी दरवाजे की तरह।और वहीं से यह आवाजें आ रहीं थीं।
सेजू के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी। वह जो माहौल देख रही थी वह बिल्कुल उसकी दुनिया से मिलता जुलता था। एक पल को तो सेजू को यही लगा जैसे वह अपनी ही दुनिया को देख रही थी। उसने बिना देर किए हुए उस दरार की तरफ तेजी से कदम बढ़ाए।

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"ऊऊऊऊ...हमारी मंजिल आ गई.." कुछ स्टूडेंट्स बस से उतरते हुए उल्लास के साथ बोले।
"ये! सेजू माता उठ जा..इसको अभी ही सोना था।" समर सेजू का और अपना बैग उठाते हुए बोला।
"अरे! ये क्या ये तो सो गई।" देवीना सेजू को देखकर बोली।
"चलो इसे सोने देते हैं। आ जायेगी नींद खुलते ही।" पीकू ने मजाक करते हुए कहा।
"अरे! उठा न इसे देवू! दिखता नहीं मैंने बैग्स लिए हुए हैं हाथ में।" समर देवीना से बोला।
देवीना ने सेजू को जोर से झंझकोर दिया।
"हाँ! हां! मैं सेजू ही हूँ।" सेजू हड़बड़ाकर उठती हुई कुछ बेहोशी की हालात में बोली।
"क्या?" पीकू और देवीना ने साथ मे चौकते हुए कहा।
"अरे! कोई सपना देख रही होगी। तुम लोग भी। चल सेजू हम पहुँच गये।" समर ने देवीना ओर पीकू को समझाने के साथ-साथ सेजू को बस से उतरने के लिए कहा।
"चलिए! आप लोग भी आ जाइये बाहर! जल्दी कीजिये!" बस ड्राइवर ने बस के बाहर से झांकते हुए सेजू, समर, पीकू और देवीना को बस से बाहर आने के लिए कहा।
पीकू और समर आगे निकले और सेजू को देवीना उसका हाथ पकड़कर बाहर ला रही थी।
पीकू, समर और देवीना ने देखा कि सभी स्टूडेंट्स उस जगह तो बड़ी बेकरारी से देख रहे है। वाकई बहुत ही दिलकश जगह थी। चारो दिशाएं पलाश के खूबसूरत वृक्षों ने घेर रखी थी। उसके लाल और नारंगी पुष्प धरती पर फेल गये थे। ऐसा नही था कि केवल पलाश ने ही उस जगह में चार चाँद टांके थे, दूर तक नजर जाने पर बड़े - बड़े वृक्षों की हरियाली झांकती दिखाई देती थी। पेड़ो के इर्द-गिर्द मंडराते पक्षीयों की आवाजें पूरे माहौल में मिश्री घोल रही थी। कहीं कहीं जमीन पर दूब भी दिखाई पड़ती थी, उसकी कोमलता आंखों को छू जाती थी। आज सभी को लग रहा था जैसे उनने स्वर्ग का रास्ता देख लिया है...आसमान में सांझ उतर आयी थी कहीं गुलाबी कहीं नीला कहीं नारंगी कहीं लाल...लग रहा था जैसे किसी चित्रकार ने अपने सारे रंग आसमां पर उड़ेल दिए हो। कदम दर कदम सभी की आंखे आकर्षण के जाल से घिरती ही जा रहीं थी। कुछ दूरी पर तालाब था जिसका जल आईने की तरह साफ था..तालाब में बीचों-बीच कमल खिले तो उसके किनारे से जरा सी दूरी पर जलकुंभी तालाब की शोभा बढ़ा रहा था। तालाब के किनारों की जमीन खूबसूरत फूलों के पौधों से भरी हुई थी..जिनपर तितलियों ने डेरा डाल रखा था, उनके कोमल पंखों पर ईश्वर द्वारा की गई कलाकारी सबको किसी सोच में डाल रही थी। फूलों की सुगंध ने वातावरण को ऐसे महका दिया था मानों किसी ने चारों दिशाओं में इत्र छिड़क दिया हो।
"तो आप सब अब कैसा फील कर रहे हैं अपनी मंजिल पर पहुँच कर???" टीचर ने सामने खड़े सभी स्टूडेंट्स से बहुत उल्लास के साथ पूछा।
"सर, मैं तो इस जगह की दीवानी हो गईं हूँ। अब मैं कॉलेज के बाद यहां अपना छोटा सा घर बनाउंगी।" एक लड़की ने खुशी से फूलते हुए कहा।
उसकी बात सुन कर सभी स्टूडेंट्स और टीचर्स हँस पड़े। माहौल में अब हँसी का गुब्बारा भी फुट गया था।
"इनसे मिलिए!" अपने आजू-बाजू खड़े चार सिक्योरिटी गार्ड्स की और इशारा करते हुए "यह हमारी सुरक्षा करेंगे। जब हम यहां की और भी जगहों पर घूमेंगे तब यह हमारे साथ होंगे। और हां! जब तक हम यहां रहेंगे तब तक यह भी यहीं हमारे साथ रहेंगे।" टीचर ने सभी स्टूडेंट्स को सूचित करते हुए कहा।
"हमने तंबू गडवा दिया है अब आप सब अपने-अपने तंबू में रेस्ट करेंगे और फिर उसके बाद शाम को 7 बजे यहां इक्कठा होंगे। ठीक है तो आप सब अपने अपने तंबू ढूंढ लीजिये।" टीचर ने सभी स्टूडेंट्स से कहा।
"ओके! सर!" सब जोर से बोले। और तंबुओं की ओर बढ़ने लगे।
"छः तंबू हैं टोटल। 5 तंबू में स्टूडेंट्स रहेंगे और एक मे हमारे टीचर्स। हमारा ग्रुप एक तंबू में रहेगा लेकिन हम तो चार ही हैं यार! हर ग्रुप में 6 लोग होने थे।" पीकू तंबू की ओर बढ़ता हुआ अपने साथ चल रहे साथियों से बोला।
"हां! 2 और कौन है?" समर सोचते हुए बोला।
"यह सब बाद में सोचना पहले इन देवी जी को नींद आ रही है इन्हें तंबू में ले जाके सुला दिया जाए।" देवीना सेजू को पकड़े हुए बोली। सेजू नींद के नशे में थी।
तंबुओं को बाहर से देखने पर लग रहा था वे भीतर से काफी छोटे होंगे।
"ये है हमारी खोली।" समर एक तंबू के सामने खड़ा होकर बोला।
"ये..यह क्या है गाइस! हम यहां कैसे रह सकते हैं?" देवीना चिंतित होकर बोली।
"अरे! अंदर चलोगी देवी जी!" पीकू देवीना के सामने हाथ जोड़ते हुए बोला।"
पीकू ने तंबू के अंदर सबसे पहले प्रवेश किया और फिर बारी-बारी से समर और देवीना भी आये। सेजू देवीना के साथ ही अंदर आई। तंबू के अंदर खिड़कियां भी थी जो बाहर के नजारे दिखा रहीं थीं। यहां इलेक्ट्रिक लालटेन लटकी हुई थीं। तंबू बड़ा था और दो भागों में एक पर्दे की सहायता से बटा हुआ था। जमीन पर हरे रंग की चटाइयाँ बिछी हुई थी। तंबू के अंदर का तापमान बाहर के तापमान से ज्यादा था।
"ओऊऊ...वाओ... ये तो बहुत बड़ा है और इसमें तो पर्दे भी हैं।" देवीना आश्चर्य के साथ खुश होते हुए बोली।
"और क्या आपको क्या लगा था मैडम ऐसे ही लड़के और लड़कियों को साथ मे रहने दे रहे हैं।" पीकू देवीना से बोला।
"अरे! साथ में कहां। तुम लोग यहां हम लोग वहां। ये कितना मजेदार है। हम साथ भी रहेंगे और हमे कोई प्रॉब्लम भी नही होगी इक दूसरे से।" देवीना वहीं पडी एक चटाई पर बैठकर बोली।
"हाँ! मुझे तेरी ये कचकच नही सुनाई देगी।" समर देवीना से बोला।
"वो तो देगी।" देवीना बोली और हँसने लगी।
"इसको मैं हमारी जगह पर सुला कर आती हूँ।" देवीना सेजू को उठाती हुई बोली।
"ऐसे भी कोई सोता है क्या?" समर सेजू की तरफ़ देखकर बोला।
"हमे क्या यार! मैं फ्रेश होकर सोऊंगा।" पीकू ने अपने बैग से कुछ कपड़े निकालते हुए कहा।
समर ने अपने जूते निकाल कर इक बाजू रख दिये और अपने बैग्स को सलीके से रख दिया। पीकू ने भी सारे सामान और बिस्तरबंद से बिस्तर निकालकर चटाई पर सजा कर रख दिये थे।
शाम के साढ़े छः बजे,
"हे हे...तुम..तुम कौन हो मैडम?" देवीना हड़बड़ा कर उठी और अपने पास बैठी इक लड़की से बोली।
"क्या हुआ देवू।" सेजू ने अपनी आंखें खोलते ही अपने बैड से थोड़ी सी दूरी पर बैठी देवीना की तरफ देखते हुए पूछा।
"मैं भी अब तुम लोगो के साथ रहूँगी।" देवीना के पास बैठी लड़की अपना चश्मा पहिनते हुए बोली।
"लेकिन तुम हो कौन तुम्हे कॉलेज में तो कभी नही देखा।"
"मैं हूँ गौरवी, गौरवी राय! और मैं..." गौरवी आगे कुछ बताने ही जाती है कि
"देवू और सेजू अब उठ जाओ! हमे बाहर चलना है।" पीकू की आवाज आयी।
"ओके! तो मैं चलती हूँ। तुम लोग भी जल्दी आना।" गौरवी उठकर अपनी कमर पर दोनो हाथ रखकर खड़ी होकर बोली।
देवीना उसे आश्चर्य से देखती रही।

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सेजू पहाड़ी की दरार से निकलने की कोशिशें कर रही थी..उस दरार में पहाड़ से कई नुकीले भाग निकले हुए थे। सेजू बड़ी सावधानी से आगे बढ़ रही थी। सेजू उस पार पहुँचने ही वाली थी कि तभी पहाड़ो में कंपन होने लगा और दोनों पहाड़ इक दूसरे की और सरकने लगे। सेजू ने अपना इक पैर बाहर निकाल लिया था मगर दूसरा पैर अंदर ही फस गया था और टस से मस होने का नाम नही ले रहा था आज तो सेजू को लग रहा था कि उसके पैर को हलाल होने से कोई नही रोक सकता। माहौल बिल्कुल ऐसा था जैसे सामने से कोई ट्रेन दौड़ी आ रही है और हमारा पैर उसी के ट्रेक में फस गया है और निकलने की कोई उम्मीद नही दिख रही। सेजू की सांसे फूली जा रहीं थीं। ऐसी भयानक घटनाएं उसके साथ उसकी दुनिया मे तो कभी न हुई थीं। उसने उन पलों में अपने सभी भगवानों से मदद की गुहार लगा ली थी और अब दरार बिल्कुल खत्म होने को थी कि तभी किसी ने सेजू को बाहर ही ओर खींच लिया।
दरार खत्म हो चुकी थी उस पार वह पहाड़ एक दीवार में बदल गया था। आजू-बाजू सब्जियों की दुकानें लगी हुई थी। ख़ूब शोर-शराबा! ख़ूब बड़ा बाजार था। क़ई तरह की दुकाने उस जगह के बाजार होने का सबूत दे रहीं थीं। वहां का माहौल हमारी दुनिया के पुराने समय से मिलान कर रहा था। लग रहा था जैसे सेजू भारत के बीते वक़्त में आ पहुँची थी। मगर वहां के लोगो का पहनावा बिल्कुल अलग था। आदमियों के सिर पर अलग तरह की टोपियां थीं बदन पर फ्रॉक की तरह के वस्त्र पैरों में अजीब ढंग का पायजामा।
औरतों की साड़ी पहिनने का ढंग विचित्र था। वे पूरी तरह से साड़ी से ढकी हुई थीं उनका चेहरा, हाथ में पंजे और पैर के पंजे बस दिखाई दे रहे थे।
"तुम कौन हो?"
"मैं कौन हूँ? अरे! पूछना तो मुझे चाहिए कि तुम कौन हो? और तुम क्या किसी दूसरी दुनिया की हो, ये तुम्हारे शरीर पर किस तरह के कपड़े है? और इतनी गोरी-गोरी...इतनी सुंदर लड़की तो मैंने कभी बिना घूंघट के यहां नही देखी।"
"तुम मुझे इस तरह से घूरना बंद करोगे? मैं तुम्हे सब कुछ क्यों बताऊं अपने बारे में? तुम पहले अपना इंट्रो दो?"
"कैसा इंट्रो..?"
"अपने बारे में बताओ?"
"मैं क्यों बताऊं? तुम पता नहीं कौन हो मुझे गायब करके अपने साथ ले गई तो मैं क्या करूंगा।"
तभी किसी ने आवाज दी..."जयंत... इधर आ।"
"हाँ! आ रहा हूँ।" जयंत से तेज आवाज में कहा।
"चलो मेरे साथ। वरना तुम्हे कोई भी राजा के यहां ले जाएगा। तुम्हारा अजीब हुलिया देखकर।"
सेजू जयंत के साथ चल दी।
"राजा ने हमे बुलवाया है आज दरबार पर। वहां कोई कार्यक्रम है। शायद साज सजावट की जिम्मेदारी हमे मिलने वाली है।"
फूलों की मालाएं बुनते हुए निकेत बोला।
"पहले इस लड़की को देख! इसे राजा के हवाले करना मतलब..एक महीने तक बिना कोई काम किये ऐश की जिंदगी गुजारना।" जयंत ने कुछ सोच कर मुस्कुराते हुए कहा।
"क्या? क्या कहा तुमने?" सेजू, जयंत की बात सुन कर घबराई
"अरे! पगले इससे विआह कर ले, जो जिंदगी बन जायेगी तेरी।" निकेत सेजू को घूरते हुए बोला।
"तुम लोग पागल तो नहीं हो गए? क्या बोल रहे हो?
अब ये क्या नयी मुसीबत पीछे लग गई।"
"हा हा हा हा.." जयंत और निकेत दोनों सेजू की बात सुनकर हँसे।
सेजू के बहुत मना करने पर भी जयंत उसे अपने घर ले गया।
"अब ये तो पानी पीओ और ये फल चट करो। फिर मुझे अपनी सारी कहानी बताओ। मैं सब जानता हूँ तुम इस दुनिया की नहीं हो। उस दीवार में तुम कैसे अटकी? उस दीवार के पीछे तो कोई भयानक जंगल है और वहां जाने की कोई हिम्मत नही करता। बताओ सबकुछ..शायद मैं तुम्हारी मदद कर सकूं।"
"तुम्हे कैसे पता की मुझे किसी की मदद की जरूरत है?"
"यहां कई बार ऐसे लोग आए है जिनको किसी की मदद करनी थी मगर जब उनको यहां के राजा के पास ले जाया जाता था तो उसको किसी की मदद करने लायक ही नही छोड़ा जाता था।"
"लेकिन तुम मेरी मदद क्यों करना चाहते हो?"
"क्योकि हमारा राजा बहुत दुष्ट है। और मैं उससे नफरत करता हूँ। वह किसी भी भोले भाले आदमी की जिंदगी खराब कर देता है। और मुझे पता है तुम्हारे साथ भी वही होगा। अगर तुमने चालाकी से काम नहीं लिया तो।"
"ठीक है मैं तुमपर विश्वास कर लेती हूं। क्योंकि मुझे तो वैसे भी नही पता कि मैं कभी अपने घर लौट भी पाऊँगी या नहीं।"
"बताओ अब जल्दी।"
सेजू जयंत के पूछने पर उसे वह सब बता देती है जो उसके साथ हुआ। और वह उसे मीनपरी के बारे में भी बताती है।
"हा हा हा...मीनपरी???" जयंत ठहाका लगाते हुए बोला।
"तुम हँस क्यों रहे हो?" सेजू ने पूछा।
"क्योकि तुम किसी भ्रम में जी रही हो। हा.. हा.. हा" जयंत बोलकर फिर जोर से हँसा।
"मतलब क्या है तुम्हारा?" सेजू ने पूछा।
"तुम्हे पता है तुम किधर हो??" जयंत ने सेजू की आंखों में आंखे डालकर पूछा।
"नहीं!" सेजू ने डरते हुए कहा।
"तुम ऐसा करो! तुम मीनपरी की मदद करो। मैं तुम्हारी मदद करता हूँ।" जयंत ने एक पोटली खोलते हुए कहा।
"ये क्या दे रहे हो मुझे।"
"यह मेरी माँ की साड़ी है। वो अभी दो-तीन दिन के लिए बाहर गयीं है। वरना वो तुम्हे अपनी कोई चीज नहीं छूने देतीं।" जयंत ने साड़ी सेजू की ओर फेंककर कहा।
"और सुनों! तुमने बाहर कुछ औरतों को देखा होगा। उन्ही की तरह इस साड़ी को पहिनना है। मैं आता हूँ। तुम तैयार रहो।" जयंत इतना कहकर कमरे से बाहर निकल गया।
सेजू को समझ नही आ रहा था कि उसे जयंत पर विश्वास करना चाहिए या नहीं और दूसरी तरफ वह यह भी सोच रही थी कि विश्वास नही करेगी तो और वह क्या कर सकती है। सेजू ने साड़ी को यहां की औरतों की तरह पहननें की क़ई कोशिशें की लेकिन नाकाम...
सेजू ने साड़ी को गुस्से में फेका और खाट पर बेफ्रिकी के आंख बंद करके लेट गई।
दरवाजे पर दस्तक हुई..
"कौन है?"
"मैं हूँ तुम्हारा जयंत।"
सेजू को जयंत की बात में 'तुम्हारा' सुन कर गुस्सा लगी।
"हो गई क्या तैयार?" जयंत ने बाहर से ही पूछा।
"नहीं!" सेजू ने चिल्लाकर कहा।
"क्या पागलपन है, तुम्हे इस भ्रम से निकलना है या नहीं?" जयंत ने बाहर से ही झल्लाते हुए पूछा।
"मैं क्या करूँ मुझे नहीं आती साड़ी पहननी।" सेजू ने कहा।
"ठीक है तो मैं अंदर आ रहा हूँ फिर।" जयंत दरवाजा ढकेलते हुए बोला।
"अरे! मजाक भी सूझ रहा है तुमको तो इस भ्रम में भी। कमाल की लड़की हो भाई।" जयंत ने सेजू की तरफ देख कर कहा।
"क्या मतलब?" सेजू ने अचरज के साथ पूछा।
"कुछ नहीं चलो अब हम राजा के द्वार चलेंगे। वहां तुम्हे मीनपरी के बारे में पता लगाना है और मैं उसमे तुम्हारी मदद करूंगा। लेकिन खबरदार तुम्हे चालाक रहना पड़ेगा। वहां के लोगो को अपने लोगो और दूसरे लोगो मे अंतर समझने में वक़्त नही लगता।" जयंत ने सेजू को सावधान करते हुए कहा।
सेजू बिना कुछ बोले खड़ी हो गई और जयंत के साथ चलने लगी।
रास्ते मे सभी जयंत और सेजू को घूर रहे थे।
"ये भाई जयंत..शादी कर ली है क्या? हम लोगो को नही बताया।" रास्ते मे इक आदमी ने कहा।
"अब पता चल गया न! जाओ जा कर लड्डू बांटो।" जयंत की यह बात सुन कर वह आदमी मुँह फुलाकर आगे बढ़ गया।
"सुनों! तुम्हारे पैर तो नही दुखने लगे। हम 1 घण्टे से पैदल चल रहे हैं।"
"नहीं! मुझे आदत लग गई है।" सेजू ने कहा।
जयंत सेजू की बात सुनकर हँसा।
सेजू यह देख कर कुछ सोचने लगी।
अब जहां सेजू और जयंत थे वह गली बहुत सुंदर तरीके से सजाई गई थी। बहुत ही स्वच्छ जगह थी। गली के अगले-बगल सुंदर - सुंदर फूलों के पेड़ लगे हुए थे। और पेड़ो के नीचे छोटे-छोटे पौधे रखे हुए थे। जो गमले में लगाये गए थे। गमलों की आकृतियां बड़ी अनोखी थीं। उस गली के आस-पास के लोग बड़े ही सभ्य और धनपति दिखाई पड़ रहे थे।
"यह कौनसी जगह है जयंत?" सेजू ने अपने चारों ओर के वातावरण को देखते हुए पूछा।
"यह राजा के द्वार तक पहुँचाने वाली गली है। यहां कोई गरीब आदमी नही दिखाई देता। देता है तो राजा के जुल्म सहता हुआ।" जयंत धीरे स्वर में बोला।
"तो तुम क्या बहुत बड़े आदमी हो?" सेजू ने जयंत को अच्छे से देखते हुए कहा।
"नहीं लेकिन मैं काम का आदमी हूँ उनके, इसलिए मुझे आज नहीं रोका जा रहा वरना मुझे यहां कदम भी नहीं रखने देते।" जयंत ने मुँह बनाते हुए कहा।
"ये कौन हो तुम दोनों?" वहां के एक आदमी ने पूछा जिसकी कदकाठी किसी सैनिक की तरह थी।
"हुजूर...मुझे राजा जी ने बुलवाया है, यह आमंत्रण पत्रिका देखिए आप।"
"ठीक है जाओ।" पत्रिका को वापिस करते हुए वह आदमी बोला।
आगे आते ही सेजू को इक कुंड दिखाई दिया। जयंत आगे बढ़ रहा था। सेजू उसके पीछे चल रही थी। सेजू ने कुंड में झांका और जोर से बोली..." ओ..ओ..यह क्या???"
जयंत ने सेजू की आवाज सुनी और उसके पास दौड़ा.."क्या हुआ?" जयंत भी कुंड में झांकता हुआ सेजू से बोला।
"मैंने यह साड़ी कब पहनी?" सेजू ने खुदको देखने की कोशिश करते हुए पूछा।
"अरे! अब ज्यादा नाटक मत करो! भ्रमित लड़की। और आगे बढ़ो।"
"मगर..."
"कुछ अगर-मगर नहीं...चलो।" जयंत सेजू का हाथ पकड़ कर ले जाते हुए बोला।
"यह कितना आलीशान महल है..इसकी ऊँचाई तो देखो..बाप रे! यहां ऐसा किसी का घर नही देखा।"
"पागल हो क्या तुम पूरी? घर मे और महल में अंतर नहीं जानतीं।" जयंत चिढ कर बोला।
"ओ वाओ... हाथी...." सेजू ने आश्चर्य से आँखे बड़ी करते हुए कहा। "यह कितना प्यारा है..छोटा सा, और इसे किसने फूलों से सजाया है इतना सुंदर..."
"इसकी मां ने!" जयंत ने कहा।
"क्या?" सेजू चौकी।
"अरे! इस तरह से तो इंसान ही सजा सकते हैं ना इसकी मां तो ऐसे सजा नही पाएगी।" जयंत ने सेजू को तिरछी निगाहों से देखते हुए कहा।
सेजू ने कुछ नही कहा और बस उसी हाथी के बच्चे को प्यार भरी निगाह से देखती रही।
"चलो! जल्दी जाओ अंदर वरना कचरे में फेंक दिए जाओगे।" द्वार पर खड़ा इक सैनिक जयंत को देखकर हँसते हुए बोला।
"तुझे तो मैं देख लूंगा।" जयंत ने उस सैनिक से कहा और सेजू का हाथ पकड़ कर द्वार के अंदर चला गया।
अंदर का नजारा देख कर सेजू खुदको रोक नही पाई और झूमते हुए जोर से बोली..."ग्रेट..ग्रेट..ग्रेट...यह सब मैं क्या देख रही हूं? मुझे मेरी आँखों पर भरोसा नही हो रहा। आखिर मैं इस दुनिया मे पहले क्यों नहीं आयी।" सेजू के चेहरे पर हर्ष फूटा पड़ रहा था।
"ये कौन पागल लड़की है? महल में इस तरह से कैसे चिल्ला रही है। इसे अभी के अभी बाहर किया जाए।" एक औरत चांदी के गहनों से लदी हुई। खूबसूरत लहंगा चोली में जच रही थी। उसने दुपट्टा सलीके से ओढ़ रखा था।
उस औरत की बात सुनकर दो सैनिक सेजू की ओर बढ़े।
"मुआफ़ी हुजूर...यह मेरी पत्नी है। यहां पहली बार आई है तो बावली हो गई यहां की खूबसूरती देख कर। आइंदा ऐसा न होगा हुजूर। मैं इसे समझा दूंगा।" जयंत उस औरत के सामने घुटने टेककर हाथ जोड़ता हुआ गिड़गिड़ाया।
"आइंदा ऐसा हुआ तो जबान काट लुंगी इसकी। चल जा ले जा इसे।" वह औरत सेजू को गुस्से में घूरते हुए बोली।
"शुक्रिया हुजूर!" जयंत ने उस औरत के सामने सिर झुकाते हुए कहा।
"तुम्हारा दिमाग सही है लड़की? तुम्हारी वजह से मेरी जान भी जायेगी। कम से कम खुदके नही तो मुझ भले आदमी का तो ख्याल करो।" जयंत सेजू को डांटते हुए धीरे स्वर में बोला।
सेजू ने जयंत को मुस्कुराते हुए देखा।
"क्या हुआ ऐसे बेशर्मो की तरह मुस्कुरा क्यों रही हो? मैं डांट रहा हूँ कोई असर नही पड़ता तुम्हे! बड़ी अजीब हो।" जयंत ने मुँह बनाते हुए कहा।
"तुम्हे देख कर अपने दोस्तों की याद आ जाती है।" सेजू ने समर, पीकू और देवीना को याद करते हुए कहा।
"ओह.. ऐसा!" जयंत ने कहा।
"राजा जी से मिलना है भाईसाहब!" जयंत ने एक बड़े से दरवाजे के आगे खड़े होकर इक आदमी से कहा।
"राजा जी की बदकिस्मती! उन्हें भी गधों को बाप कहना पड़ता है। जाओ अंदर।" जयंत को व्यंग्यात्मक ढंग से घूरते हुए दरवाजा खोल कर कहा।
जयंत ने जैसे बेइज्जती का घुट पी लिया था।
"चलो!" जयंत ने सेजू से कहा।
"राजा जी की जय हो!" जयंत राजा के कदमो के आगे लेट कर बोला।
"प्रणाम राजा जी।" सेजू ने दोनों हाथ जोड़ कर राजा से कहा।
"अरे! इस घूंघट के पीछे से इतनी मीठी आवाज किसकी आयी।" राजा ने जयंत को नजरअंदाज करते हुए सेजू की ओर देखकर पूछा।
"राजा जी यह मेरी पत्नी है।" जयंत ने हाथ जोड़ते हुए कहा।
"इनका घूंघट तो हटाओ जरा!" राजा ने सेजू की तरफ देखकर जयंत से कहा।
जयंत गुस्से से लाल हुआ जा रहा था। मगर वह कर भी क्या सकता था।
सेजू ने खुद ही अपना घूंघट गिरा दिया।
राजा सेजू को देखता ही रह गया। उसने फिर कुछ नही कहा।
"राजा जी मेरा काम क्या है?" जयंत ने हाथ जोड़े हुए राजा से पूछा।
"तुम्हारा काम है इस पूरे महल को फूलों से सजाने का। तुमने पिछली बार हमारा मन बहुत खुश कर दिया था। इसलिए आज फिर तुमको मौका दे रहें हैं।" राजा ने जयंत से कहा। "
"और तुम्हारी पत्नी को क्या काम करना आता है बताओ।" राजा ने सेजू की तरफ देख कर पूछा।
"मालिक! यह श्रृंगार बहुत अच्छा कर लेती है। आप चाहें तो इसे रानी जी का श्रृंगार करने..."
"तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया? हमारी रानी जी का श्रृंगार ये दो कौड़ी की लड़की करेगी।" राजा के द्वार में बैठे इक मंत्री ने क्रोधित होकर जयंत से कहा।
"अरे! मंत्री जी कैसी बातें करते हैं..इतनी कोमल फूल सी लड़की हमारी रानी जी को बहुत भाएगी।
"दासी...।" राजा ने मंत्री को चुप कराते हुए दासी को आवाज दी।
"जाओ इसे अच्छे कपड़े दो पहिनने के लिए और अच्छे से शुद्धिकरण कराओ इसका। फिर रानी जी के कक्ष में भेजो इसे।" राजा ने दासी को आदेश देते हुए कहा।
जयंत और सेजू ने एक दूसरे की तरफ़ देखा और मुस्कुराये। जैसे उनका कोई काम सफल होने जा रहा हो।
क्रमशः...


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