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भ्रम - भाग-10


प्रिया ने दोनों को नदी में धकेल दिया। "नहीं..नहीं..बचा लो हमें! बचाओ हमें..बचाओ.." दीपक ओर काजल दोनों ही तैरने की कोशिशें कर रहे थे मगर.. लग रहा था जैसे कोई नीचे से खींच रहा था।
"बेवकूफो..अब तो तुम्हे भगवान भी नहीं बचा सकता, आखिर तुम लोग ने पाप किया है मेरे साथ..इसकी सजा तो तुम्हे मिलनी ही थी, और मेरे हाथों ही मिलनी थी।" दीपक और काजल नदी में नीचे धसते जा रहे थे और वह आदमी उन दोनों को देखकर खुशी से गुब्बारा हुआ जा रहा था। उसके शब्द शब्द में प्रसन्नता झलक रही थी।
वहां बंधे हुए सभी लोगो के दिमाग मे एक ही बात चल रही थी कि नदी में कोई इस तरह कैसे धस सकता है। उन दोनों की चींख पुकार हृदय चीर देने जैसी थी। सबकी रूहें वह दृश्य देखकर कँपकँपा उठी थीं। सब बोलने को तरस रहे थे..'ऐसा मत करो..बख़्श दो उन्हें' मगर बेबसी का अर्थ क्या होता है आज वह सभी बखूबी जान गए थे। अपनी ही आंखों से अपने ही दोस्तो को बेकसूर और इतनी ज़िल्लतों से मरता देखना..उन अभागों का नसीब था।
"स्वाहा...." उस आदमी ने दीपक और काजल के नदी में पूरी तरह धस जाने के बाद अपनी आँखें बंद करके बड़ी ही शांति से कहा। "अब किसकी बारी है..???" इतना कहकर वह आदमी सबकी सूरते तकने लगा; जैसे खाने के लिये कोई ताजा फल तलाश रहा हो। "हाँ! वो.. वो मेरे भाई..रॉय और सनम.." वह आदमी दो लड़को की और उंगली से इशारा करके बोला। प्रिया ने फिर वही किया जो दीपक और काजल के साथ किया था। रॉय और सनम के मुँह से भी अब पट्टी हटा दी गई थी। "तू .ये जो कुछ भी कर रहा है..ठीक नहीं कर रहा है..समर! तुझे अल्लाह कभी माफ नहीं करेगा।" सनम की आंखों में; सामने खड़े आदमी (समर) के लिए घृणा झलक रही थी। अगर सनम के हाथ अभी बंधे न होते तो वह शायद समर को ही मौत के घाट उतार देता।
"जो तुम लोगो ने मेरे साथ किया..वह नहीं याद?? तुम जैसे लोग अपनी गलती भी नहीं मानना चाहते..छी!
फेंक दो इन बेईमानों को भी इस दलदली नदी में। इनका मरना ही बेहतर है।" समर की आंखों में खून उतर आया था।
प्रिया ने जैसे ही दोनों को नदी में ढकेला.. नदी का पानी और पानी के नीचे का कीचड़ उस गुफा की जमीन पर फैल गया। कुछ देर में सनम और रॉय भी तड़प तड़प कर नदी में ही गुम चुके थे। वक़्त के साथ साथ लगभग सभी स्टूडेंट्स समर की क्रोधाग्नि में भस्म हो चुके थे। बचे थे तो बस पीकू, देवीना और सेजू।
"मुझे सच मुच..दुख हो रहा है। तूम लोगो को मैं मारना नहीं चाहता! बिल्कुल नहीं; मुझे आज भी यकीन नहीं होता कि तुम लोग मुझे मरता छोड़ कर भागे थे, आज तक नहीं!
और सेजू तुम भी..?? मैंने तो तुम्हारा हर मोड़ पर साथ दिया था न! हर कहीं..तुम्हे मैंने कभी अकेला नहीं छोड़ा था। मेरी सबसे अच्छी दोस्त होकर भी तुमने मेरे साथ ऐसा किया। मुझे यकीन नहीं होता..!" जैसे समर का हृदय सचमुच भर आया था। उनके शब्द शब्द में करुणा भरी हुई थी। जैसे वह फूट-फूट कर रो लेना चाहता था।

"देवीना! समर जिंदा नहीं है।" देवीना के कान में लगे ब्लूटूथ में से आवाज आयी। "यह उसकी आत्मा है..और कुछ ही समय में मैं इसका अंत कर दूंगी। जैसे ही तुम्हारा मुँह खोला जायेगा ब्लूटूथ में से एक मंत्र सुनाई देगा तुम्हे, तुम्हे उसी को दोहराना है..! इससे समर की आत्मा की शक्ति कमजोर पड़ने लगेगी और उसके द्वारा प्रकट की गई यह नदी भी धीरे-धीरे समाप्त होती जाएगी।" देवीना की आंखों से आँसू झरने लगे थे। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर समर मरा कब..?? और वह हम सबको अपनी मौत का जिम्मेदार क्यों बता रहा है। वह समर की आत्मा को बिना शांति दिलाएं खत्म नहीं करना चाहती थी..वह चाहती थी कि समर को पता लगे कि उनके दोस्तों को तो यही नहीं पता था कि समर मरा भी है..। सेजू और पीकू भी मन ही मन तड़प रहे थे..यह उनके साथ क्या हो रहा है और क्यों उन्हें कुछ भी समझ नही आ रहा था। हमेशा हँसते रहने वाला समर आज इतना कठोर कैसे बन गया था कि उसने अपने इतने सारे दोस्तो को इतनी दर्दनाक मौत अपने ही हाथों से दे दी; और अब वह अपने जिगरी दोस्तो के साथ भी यही करने वाला था।
गुफा का प्रकाश बदलता ही जा रहा था..गहरा नीला प्रकाश..हल्के नीले रंग में परिवर्तित हो रहा था। वक़्त अपनी गति से निकलता जा रहा था।
"तुम लोगो को भी मरना ही होगा! आखिर.. तुम लोगो ने मुझसे मेरी जिंदगी छीनी है। मेरी.. मां के लिए मैं कुछ नहीं कर पाया..कुछ भी नहीं।" समर गरज पड़ा था। "इन तीनों के मुँह से पट्टियां हटाओ प्रिया!" गरजते हुए समर ने प्रिया को आदेश दिया।
प्रिया ने सबसे पहले पीकू के मुँह से पट्टी खोली.."मेरे भाई! बता तो सही हमने क्या जुर्म किया है?? फिर तू जैसी मौत देगा..मंजूर मेरे भाई..तू कब मरा?? कैसे मरा..?? तू मर गया है हमे तो अब भी यकीन नहीं होता..यार!" बोलते बोलते पीकू बुरी तरह रो पड़ा।
"इस ढोंग का अब कोई फायदा नहीं! बचने के लिए बातें मत बना..मैं तुझे किसी कीमत पर नहीं छोडूंगा, किसी भी कीमत पर नहीं...मुझे मरता छोड़कर तुम लोग भागे और मेरा हमशक्ल ढूंढ कर मेरी मां को दे दिया। वाह.. क्या खेल रचा..मेरे मासूम दोस्तों ने वाह!"
"हमशक्ल???" सेजू चौककर बोली..प्रिया सेजू के मुँह से भी पट्टी हटा चुकी थी।
"कितनी भोली हो न सेजू! अभी भी..भोली हो??? तुम भोला बनने का ढोंग खूब जानती हो..कहानियों की दुनिया मे उलझी हुई तुम..विलेन का रोल भी निभा गयीं..और अब हिरोइन बनने की कोशिश भी करने लगीं..सच में कमाल की कलाकार हो तुम!
अगर मैं तुम्हे जिंदा छोड़ दूं तो..वाकई तुम बहुत बड़ी स्टोरी राइटर बनोगी..बहुत बड़ी। मगर अफसोस.. मैं तुम्हें मौत की नींद सुलाने वाला हूँ।" समर ने सेजू से कहा। "अब इन धोखेबाजों को भी इस नर्क में डूबा दो..मैं इन्हें अब और ज़िन्दा नहीं देखना चाहता..दे दो इन्हें जिंदगी से छुटकारा।"
समर के इतना कहते ही देवीना के कान में लगे ब्लूटूथ में एक मंत्र गूंजने लगा। देवीना ने बिना किसी झिझक से मंत्र दोहराना शुरू किया। यह देखकर समर, पिकू और सेजू तीनो चौक पड़े। जैसे जैसे देवीना मंत्र का उच्चारण कर रही थी वैसे ही समर खुदको कमजोर महसूस कर रहा था। वह बार बार बोल रहा था..."चुप..चुप हो जाओ..चुप हो जाओ देवीना.चुप..." बोलते हुए समर बुरी तरह अपने सिर को दबाए हुए था जैसे उनका सिर फटने वाला हो। देवीना ने खुदको कठोर कर लिया, उनकी आंखों में नमी थी मगर..उसे अपने बाकी दो दोस्तों को भी नही खोना था..और समर के भ्रम को भी दूर करना था। 15 मिनट तक मंत्र उच्चारण के बाद वह नदी धीरे धीरे विलीन हो गई, और समर लगभग बेहोश था। वह जमीन पर बिछ चुका था।
"मनीष..वो पवित्र जल ले जाओ.." प्रिया ने कहा।
मनीष गुफा से निकल कर बाहर गया, एक मिनट में ही एक छोटी सी कांच की शीशी ले आया। प्रिया ने उसे हाथ मे ले लिया और वह कोई मंत्र पढ़ने लगी। तभी देवीना चीखीं.."नहीं!" देवीना कि आवाज से प्रिया का ध्यान भंग हुआ। "प्रिया! अभी नहीं! पहले मुझे जानना है कि समर कैसे मरा..और वह हमें अपनी मौत का जिम्मेदार क्यों समझता है..रुक जाओ प्लीज..प्रिया!" देवीना बहुत उदास थी उसने प्रिया से कहा। सेजू और पीहू की हालत भी खराब थी। वो आज जो देख रहे थे शायद उन्होंने इसकी कभी कल्पना भी नहीं कि थी।
"ठीक है! तुम तीनो के पास सिर्फ 3 मिनट हैं..इसके बाद समर की आत्मा को मुक्ति देना बहुत जरूरी हैं वरना वह हम सबके लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकता है।" प्रिया ने तीनों से कहा।
देवीना, सेजू और पिकू..तीनो समर के पास जा कर बैठे और उन्होंने उससे पूछना शुरू किया.."समर! तुम्हारे साथ क्या हुआ था प्लीज हमे बता दो! हम इस रहस्य के साथ नहीं जी पायेंगे! हमारा यकीन मानो हमे तुम्हारी मौत की कोई खबर नहीं थी..और हमशक्ल! हमे किसी हमशक्ल के बारे में नहीं पता समर..प्लीज बता दो।"
प्रिया ने समर के सिर पर एक पंख घूमाया और समर में जैसे जान आ गई मगर इतनी की वह कुछ बोल सके। समर ने आंखे खोली और कहना शुरू किया...
"तीन साल पहले जब हम इसी ट्रिप की तरह एक ट्रिप पर गये थे। वहां मैं, तुम, पीकू, सेजू...और जितनो को मैं अभी तुम लोगो के सामने ही मार चुका हूं; वो सब भी थे। हमारे टीचर प्रोफेसर मिस्टर गर्ग हमारे साथ गये थे..वह हमें ट्रिप की दूसरी सुबह किला घुमाने ले गए थे। जिसके पास यह नदी थी..दलदली नदी! जिसमे ऊपर से नदी की तरह पानी बहता था और नीचे बहुत कीचड़..मतलब दलदल। हममें से किसी को नहीं पता था कि उस नदी के नीचे दलदल है..पता था तो सिर्फ मिस्टर गर्ग को।
किला देखने के बाद हम सब नदी देखने गए..जो कि बहुत खूबसूरत थी। उसमें कमल खिले हुए थे और पानी बहुत साफ नजर आ रहा था। जब तुम सब उस पानी में खेल रहे थे तब मैं नदी के दूसरे किनारे पर लगे पेड़ के पास गया था..क्योकि वह पेड़ बहुत ही आकर्षक था..तुम सबने उसकी तारीफ भी की थी मगर तुम लोग वहां गये नहीं थे मेरे कहने पर भी नहीं। मैं उस पेड़ की एक मजबूत डाली पर बैठ कर तुम सबको और नदी को देख रहा था। तभी प्रोफेसर आये और तुम लोगो को चलने को कह दिया। तुम लोगो ने अपने बैग्स उठाये और आगे बढ़ने लगे। मैंने जैसे ही तुम लोगो को जाते देखा एक जोरदार आवाज लगाई; और उस डाली से उतरने की कोशिश करने लगा..तभी मेरा पैर फिसला और.. मैं उस दलदली नदी में गिर गया।"
"मैंने मुड़ कर देखा था..समर..मगर मुझे याद नहीं था कि तू उस किनारे गया है.." पीकू ने समर से रुआंसी आवाज में कहा।
"मैंने ख़ूब आवाजे लगाई..रोकने के लिए..जब तुम लोगो ने नदी के इतने पास होकर भी नहीं सुना तो मैंने तैरना शुरू किया..थोड़ी देर तक तैरता रहा..और तुम लोगो को आवाजे देता रहा मगर तुम लोग लगातार बिना पीछे देखे आगे बढ़ते रहे; और जब में तैरता हुआ नदी के बीचों बीच पहुँचा मेरे पैर कीचड़ में फस गये। मैं लगातार उस कीचड़ में धंसने लगा। मैं चींख चींख पर मर गया मगर..मेरे दोस्तों..तुमने एक न सुनी!"
अब बस तुम लोगो के पास एक मिनट का टाइम है।
"समर! हम सबका यकीन मानो हम लोग बिल्कुल भूल गए थे कि तू हमारे साथ नहीं है, और तेरी आवाज सिर्फ एक बार सुनाई दी थी जो कि मुझे समझ नहीं आयी थी कि वह तेरी आवाज है..और इसके बाद तेरी कोई आवाज नहीं आयी। लेकिन तूँ सच कह रहा है भाई..हम लोग जिंदगी के लायक नहीं है अब..तेरे जैसा दोस्त खोकर क्या करेंगे।" कहते हुई पीकू की आंखों से मोटे मोटे आंसू गिरने लगे थे।
"समर! योर राइट! तुमने मेरा हमेशा ध्यान रखा..स्कूल लाइफ से अब तक..मगर उस दिन मैं भूल गई कि तुम हमारे साथ नहीं हो। मैं बहुत बुरी हूँ.. समर! अगर मैं भी तुम्हारी तरह तुम्हारा ध्यान रखती तो..आज तुम्हारे जैसे दोस्त को नहीं खोती।" सेजू बोलते बोलते रो पड़ी।
"हमें बताया गया था कि तुम निकल चुके हो..ट्रिप से तो फिर हमने तुम्हे फिर नही ढूंढा हमें बताया गया था..की तुम्हे किसी काम से वापस जाना पड़ा था।" देवीना ने बहुत उदास होकर कहा।
"जब दूसरे दिन सेजू और दीपक उस नदी के पास दोबारा आये थे! तब मैं मर चुका था..मैंने सेजू को नदी में खींचने की कोशिश की थी..मगर दीपक ने उसे बचा लिया था। मुझे उसी दिन से तुम सबसे नफरत हो गई थी।
अब मेरा वक़्त आ गया है..मैं जा रहा हूँ! मेरी मां का ख्याल रखना और हाँ अगर वो बहरूपिया..सच मुच मेरे जैसा हो तो उसे मेरी मां से कभी दूर मत करना और मेरी मां को कभी मत बताना की मैं मर चुका हूं। मैंने बाकी के दोस्तो के साथ जो कुछ भी किया..उसकी सजा मुझे भगवान दे देगा।" इतना कहते ही समर हवा में विलीन हो गया। सेजू फूट-फूट कर रो पड़ी। देवीन और पीकू के आंसू बरस पड़े थे। प्रिया ने कांच की शीशी से फिर थोड़ा पानी लिया और मंत्र पड़कर उसी जगह पर मार दिया जहां समर की आत्मा पहले थी। इतना करते ही उस गुफा में मिस्टर गर्ग और जिन लोगो को नदी में डूबा दिया गया था वे सब वहां प्रकट हो गए। उन सबको देखकर पीकू, देवीना और सेजू चौक पड़े और खुश भी हुए, हालांकि अभी समर को खो देने का दुख खत्म नहीं हुआ था। बाकी सब स्टूडेंट्स भी खुदको जिंदा देख खुश हो रहे थे।
"सुबह हो चुकी है..अब हमें यहां से जल्द से जल्द निकलना चाहिए।" मनीष ने सबसे कहा।
सभी लोग कुएं से बाहर आ गए; जहां प्रकृति खिल रही थी, पक्षियों का करलव भोर का स्वागत कर रहा था; और सभी स्टूडेंट्स का भी।
"आपको अपने जाल में फंसा कर समर ने यह सारा खेल रचा था प्रोफेसर.. उसने आपको अपने बस में कर लिया था।" मनीष प्रोफेसर के साथ साथ चलते हुए बोला।
"तुम लोग नहीं होते आज..तो शायद कोई नहीं बचता हम सब में से।" प्रोफेसर ने प्रिया और मनीष से कहा उनकी आंखें पसीजी हुई थीं।
"अभी कहानी खत्म नहीं हुई है, मनीष..समर के हमशक्ल का क्या राज है, यह जानना भी अभी बाकी है; और इसके बारे में हमें प्रोफेसर ही बता सकतें हैं!" प्रोफेसर की तरफ देखते हुए प्रिया ने कहा।
"जितना मैं जानता हूँ.. सब कुछ बताऊंगा।" प्रोफेसर बोले।

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रानी, सेजू और मोहिनी अब महल में वापिस आ चुके थे। उस कबूतर को अपने नन्ही हथेलियों में लिए मोहिनी बड़ी प्रसन्न हो रही थी..."देखो! पक्षी..अब अगर तुम भी हमें छोड़कर गये तो, हमसे बुरा न कोई है और न कोई होगा।" अपनी 5 साल की बेटी की बातें सुनकर रानी की हँसी छूट गई; मगर सेजू बड़ी उदास थी उस कबूतर के लिए..बिल्कुल साफ मन की सेजू किसी के भी दर्द को भली तरह जानती भी, उस मासूम कबूतर की जगह कोई फूल भी होता जिसे उसके पौधे से अलग कर दिया जाता तो भी सेजू इतनी ही दुखी होती जितना कि अभी थी। "मां! आप हँस रहीं हैं?? हम बिल्कुल सच कहतें हैं..हमें बड़ी खराब गुस्सा लगती है, आप हमारी बातों को बच्चा समझ कर मजाक में मत लीजिये..अन्यथा आप बाद में पश्चाताप के आँसू भी रो सकतीं हैं।" मोहिनी बिल्कुल बड़ो की तरह बोली। "अरे! राजकुमारी..मां से इस तरह बात नहीं कि जाती.. यह गलत बात होती है राजकुमारी!" सेजू ने मोहिनी को समझाया। "अच्छा सेजू! अब नहीं करेंगे। अरे! जरा यहां तो आओ..देखो इसकी आंखे कितनी प्यारी हैं सेजू..बिल्कुल हमारी तरह; है न??" मोहिनी की आंखों वाली बात पर तो अब सेजू को भी हँसी आ गयी थी। "अब तुम भी हँस रही हो; क्या हमारी आँखे इसकी तरह प्यारी प्यारी नहीं हैं।" मोहिनी मुँह लटका कर बोली।
"हाँ! हाँ! बिल्कुल इसी की तरह हैं राजकुमारी!" सेजू ने मोहिनी के गालों को सहलाते हुए कहा। "सच्ची न!" मोहिनी खुशी से उछल पड़ी। "ये पगली..पगली ही रहेगी।" रानी ने मोहिनी के गाल दबाते हुए कहा और मोहिनी के कक्ष से बाहर निकल गई।
मोहिनी ने कबूतर को पिजरे में बंद कर दिया और अपने बिस्तर पर आराम से आंखे बंद करके लेट गई। प्यारे होठो पर प्यारी मुस्कान थी। सेजू कुछ देर तक मोहिनी को निहारती रही और अचानक उसे बीती बातें याद आ गईं..रानी का उसके साथ घटी कहानी को बता देना, मोहिनी का कहना कि वह मीनपरी की कहानी पढ़ चुकी है। सेजू का यह सोच कर फिर सिर चकराने लगा था, मगर वह कब तक खुद को इस तरह तड़पाती रहती, हाथ पर हाथ धरे रहने से उसे कुछ हासिल नहीं होने वाला था; प्रयास से ही दुनिया चल रही है..और प्रयास से ही सेजू अपने भ्रम से जीतेगी।
सेजू ने मोहिनी के सोते ही सभी खिड़की दरवाज़े अच्छे से बंद किये। इसके पहले उसने सभी जगह देख लिया कि कहीं कोई आ तो नहीं रहा..जब परिणाम उसके हक में आया तो उसने मोहिनी के कक्ष की तलाशी शुरू कर दी। सबसे पहले एक बड़ा सा बक्सा जिसका ताला खुला हुआ था। यह काम भी सेजू ने मोहिनी को तैयार करते हुए कर दिया था..जिससे बाद में उसे ज्यादा परेशान न होना पड़े। सेजू ने बड़ी सावधानी से मोहिनी के कपड़े और जेबर निकाले.. और हर इक बक्से को अच्छे से देखा। मगर उसे कहीं कुछ उसके काम का नहीं मिला, बड़े बख्से को ज्यों का त्यों रख कर उसने अब मोहिनी के खिलौनों में तलाशी जारी की; और वहां भी उसके काम का कुछ न मिला..
सेजू को पूरे कक्ष को छानने में हीं एक घण्टा बीत गया था..और अब मोहिनी की नींद भी टूटने को थी, सेजू ने एक गुलदस्ते में झांक कर देखा तो एक अजीब सी गुड़िया रखी दिखाई दी। उसने उसे निकालने के लिए अपना हाथ उस बड़े से गुलदस्ते में डाल दिया; तभी..."सेजू!" मोहिनी ने अंगड़ाई लेते हुए कहा; और सेजू ने झटपट अपना हाथ उस गुलदस्ते से आजाद किया। "हां! मोहिनी.. उठ गईं तुम??" सेजू हड़बड़ा कर बोली।
"हां! लेकिन तुम क्या कर रही हो??"
"मैं..मैं वो...सफाई कर रही थी..रानी जी ने कहा था..आपका कमरा थोड़ा साफ कर दूं..इसलिए।"
"अरे! हमारा कमरा तो रोज ही साफ किया जाता है...तुम इस वक़्त..खैर! इधर आओ!" मोहिनी ने सेजू को हाथ से इशारा करते हुए बुलाया।
"हां!" सेजू मोहिनी के पास जाकर बोली।
"कान जरा पास में लाओगी..तो कुछ मजेदार बात बताऊं।" मोहिनी ने धीरे से कहा।
सेजू जाकर मोहिनी के पास बैठ गई..और अपना कान आगे कर लिए।
"तुमको..मीनपरी का पता लगाना है न!" मोहिनी ने सेजू के कान में फुसफुसाते हुए कहा।
सेजू फिर ठिठक गई..और सहमते हुए बोली.."हाँ!"
"तो चलो! मेरे साथ..." मोहिनी पलंग से उतरते हुए बोली।
"कहाँ!" सेजू ने पूछा।
"अरे! चलो भी.." मोहिनी सेजू का हाथ पकड़े कर खींचते हुए बोली..और आगे बढ़ गई।
"अरे! अरे..यह तो रानी जी का कमरा है न!" सेजू ने कहा।
"कमरा नहीं! कक्ष..मेरी मां का कक्ष है..और पिता जी का भी.." मोहिनी से आगे बढ़ते हुए कहा।
"लेकिन हम वहां क्यों जा रहे हैं मोहिनी..??"
"क्योंकि.. मां.. और पिता जी आज महल में नहीं हैं, और तुम्हारा काम मैं आसान करवा रही हूं!" मोहिनी ने कक्ष के द्वार के भीतर कदम रखकर कहा; दरबाजा सैनिकों द्वारा खोल दिया गया था।
"सेजू द्वार बंद कर दो।" कक्ष के अंदर पहुँचते ही मोहिनी ने कहा।
"चलो! अब हम अपना कार्य प्रारंभ करतें हैं..तुम जाओ जाकर वह बक्से देखो। हम यहां देखतें हैं.." मोहिनी ने सेजू को इशारा करते हुए कहा।
"लेकिन.. मोहिनी!"
"अगर तुम चाहती हो..जानना तो यह जरुरीं है सेजू!"
"हां! मैं वही कह रहीं हूँ.. की हमे ढूंढना क्या है??"
"किताब..या वह चीज जिसमें मीनपरी का कोई चित्र आदि मिले।" मोहिनी पलंग के नीचे घुसते हुए बोली।
"अरे! अरे! ये क्या कर रही हो चोट लग जायेगी..बेबी!" सेजू ने चिंता जाहिर करते हुए कहा।
"बेबी!" पलंग के नीचे से सिर निकाल कर मोहिनी जिज्ञासु होकर बोली।
"बेबी! का मतलब.. बच्ची!"
"बच्ची!"
"बच्ची..मतलब..??"
"मतलब...मोहिनी!"
"मोहिनी..."
"अरे! मेरी मां गलती हो गई...करो जो करना है बस संभल कर करना।" सेजू ने मोहिनी के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा। फिर मोहिनी और सेजू दोनों ही सीआईडी की तरह खोजबीन में जुट गईं। आधा घण्टा बीत गया था..अभी भी दोनों ही अपने काम में पागलों की तरह जुटी हुईं थीं। "कुछ मिला सेजू!" मोहिनी की हालत खराब हो चुकी थी। बाल बिखरे हुए..और कपड़े बिगड़ गए थे।
"हां!...मोहिनी.."
सेजू आगे कुछ बोलती उसके पहले ही..."ये क्या हुलिया बना रखा है आप दोनों ने, अपना! और यहां क्या..."
"मां!..हम कुछ लेने आये थे। अब जाते हैं.." मोहिनी सेजू का हाथ पकड़ कर कक्ष से भागी।
"अरे!..रुको!" रानी ने उन्हें रोकने की कोशिश की मगर दोनों हवा हो चुकी थीं।
दोपहर के बारह बजने को थे..सेजू महल के बगीचे में जयंत की राह तकते हुए, झूले पर झूल रही थी; उसकी आँखें.. बगीचे में लगे एक लाल रंग के खूबसूरत फूल पर गड़ी हुई थीं, चहरे पर गंभीरता के भाव उभरे हुए थे..तितलियो का फूलों पर मंडराना और पक्षियों से बसेरों से उनकी मीठी आवाजों का आना, माहौल में आंनद घोल रहा था। इसी आनंदमयी संसार में एक और आवाज उभरी.."सेजू!" बेशक यह आवाज जयंत की ही थी, सेजू की आंखे यकायक फूल से हट कर जयंत पर रुकीं.."मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रही थी; जयंत!
मैंने आज राजा के कमरे की तलाशी ले ली हैं; बड़ी मुश्किल से यह कर पाई हूं।" सेजू ने झूले पर जयंत के लिए जगह बनाते हुए कहा। "नहीं! तुम्ही बैठो...और पहले यह बताओ कि तुमने यह किया कैसे..?? और राजा के कमरे में तुम्हे कोई अपने काम की चीज मिल पायीं या नहीं?" जयंत झूले के पास लगे एक पेड़ के तने से टिकटें हुए बोला।
"हाँ! मिली..."
"क्या..?? कहाँ है वो!" जयंत ने उत्साहित होकर पूछा।
"मुझे उस चीज पर विश्वास नहीं होता जयंत!" सेजू उसी फूल पर निगाहे गड़ाए हुए बोली।
"क्यों?? ऐसा क्या है उसमें..."
"अभी वह किताब मोहिनी ने नहीं देखी है..वरना वह मुझे खुद ही राजा से मरवा देती।" सेजू ने गंभीर होकर कहा।
"क्या मतलब?? ऐसा क्या है उसमें..बताओ!" जयंत परेशान होते हुए बोला।
"यह अच्छा हुआ कि वह किताब उसके पढ़ने से पहले ही मैंने पढ़ ली..वैसे उसे उतना नहीं आता..मगर उस किताब में जो तस्वीरें हैं वह देखकर..वह..!"
"उफ्फ...कितना सस्पेन्स बनाती हो तुम; बताओगी..वह किताब कहाँ है???"
"वह तुम यहाँ नहीं देख सकते..उसे तुम अंधेरे में ही पढ़ सकते हो, गहरे अंधेरे में।"
"क्या..किताब अंधेरे में...है कहाँ"
"वो अभी तुम्हे दिखाई भी नहीं देगी। मैंने जैसे ही वह बक्सा खोला..जिसमे राजा की क़ई सारी किताबें थी। उसमें एक मुझे चमकती हुई किताब मिली..जिसे मैंने पढा। उसी बक्से में खोलकर पढा..थोड़ा ही पढ़ पाई, तभी मोहिनी ने आवाज दे दी और जैसे ही वह किताब लेकर मेंने बक्से से मुँह निकाला। रानी जी आ गई। मगर..जैसे ही हम मोहिनी के कमरे में पहुँचे वह किताब मेरे हाथों में दिखाई तक नहीं दी। मैंने शुक्र मनाया की यह मोहिनी को नही पता चल सका कि मुझे कोई किताब मिल गई है। हालांकि उसने मुझसे कहा..की तुम तो कह रह थी हां!
मगर मैंने जैसे तैसे कोई बहाना बनाया और साबित कर दिया कि मुझे कुछ नहीं मिला। वरना आज तो..मैं हलाल ही हो जाती।
लेकिन जयंत मुझे एक बात समझ नहीं आती की.. राजा को रानी के बारे में सब पता होते हुए भी..."
"क्या सब..तुम सब अपनी बातें किये जा रही हो सेजू! मुझे बताओ तो सही की किताब में आखिर लिखा क्या है??" जयंत चिड़चिड़ाते हुए बोला।
"किताब में लिखा है जयंत... की रानी एक बुरी औरत है..एक मायावी औरत जिसने मीनपरी मतलब राजा की पहली रानी पर गलत इल्जाम लगाकर मीनपरी बनने की सजा करवा दी थी; राजा के द्वारा ही, और राजा की पहली पत्नी का नाम "मीन" था..जिसका मतलब होता है मछली, उसके नाम के हिसाब से उनका आधा शरीर मछली का और आधा किसी परी की तरह कर दिया था; और उन्हें एक नदी में सालों पहले छोड़ दिया गया था।" सेजू लगातार बोलती गई।
"हां! फिर तो यह सोचने वाली बात है कि राजा सब जानते हुए भी रानी के साथ क्यों रह रहा है??" जयंत ने कहा।
"वही मुझे समझ नहीं आ रहा जयंत..और मुझे तो इसी बात पर यकीन नहीं हो रहा कि रानी बुरी भी हो सकतीं हैं..क्योकि उनका व्यवहार तो, हां! मगर उनने कल जो किया..रात में मेरी कहानी को आगे बता कर वह शायद कोई मायावी ही कर सकता है। लेकिन अगर रानी मेरे बारे में सब जानतीं हैं तो..वह मेरे खिलाफ़ कुछ करतीं क्यों नहीं!"
"यह सब बहुत बड़ा राज लग रहा है सेजू! मेरा तो खुद ही दिमाग काम नहीं कर रहा।" जयंत सेजू के पास झूले पर बैठता हुआ माथा पकड़ कर बोला।
"और वो मीनपरी.. उसने मुझसे कहा था कि; राजा एक बुरा आदमी है..और सुभासा मेरी मदद कर सकता है मगर वह राजा का ईमानदार मंत्री है, वह उसकी बुराइयां जानते हुए भी अपनी वफादारी नहीं छोड़ सकता, अगर वह ऐसा है तो मेरी मदद कैसे करेगा..मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा।
सच कहूँ! जयंत! तो मुझे ऐसा लगता है कि अभी के अभी यह मैदान छोड़ कर भाग जाऊँ..मगर मेरे पास तो कोई रास्ता ही नहीं है।" सेजू की बेबसी उसके शब्दो के साथ पर चेहरे पर भी साफ नजर आ रही थी।
"नहीं सेजू! अगर तुम सच मुच यहां से निकलना चाहती हो तो तुम्हे यह सब करना ही होगा..तुम्हारा रास्ता यहीं से निकलेगा सेजू!" जयंत सेजू की हिम्मत बांधते हुए बोला।
"अच्छा! तुम्हे बड़ा पता है..तुम कौन हो, जरा बताओ..?? तुम भी कुछ कम रहस्यमयी नहीं लगते मुझे। इतनी बड़ी बड़ी बातें फेंकते हो..'तुम्हारा रास्ता यहीं से निकलेगा और तुमको यह करना ही पड़ेगा' तुम ख़ूब जानते हो..बताओ बताओ कौन हो तुम" सेजू खड़ी होकर जयंत की ओर झुकते हुए बोली उसकी आँखों मे आँखे डाले हुए, आंखों में शक से भाव उभरे हुए थे, चेहरा गंभीरता से भरा हुआ था।
क्रमशः....


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