ताश का आशियाना - भाग 15 Rajshree द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ताश का आशियाना - भाग 15

"मुझे बहुत भूख लगी है।" रागिनी अपने मुंह का पाउट बनाते हुए बोली।
"घर जाकर खा लेना।" सिद्धार्थ ने बस एक रुखासा जवाब दिया, जो रागिणी को बिल्कुल पसंद नही आया।
"कंजूस मैने तुम्हारे 3200 बचाए और तुम मुझे ब्रेकफास्ट तक नही करा सकते।"
सिद्धार्थ उसे what the fuck लुक से देखने लगा।
रागिनी सिर्फ सिद्धार्थ का हाथ पकड़ हाथो में लेकर हिलाने लगी।
"प्लीज!!"
"ठीक है।"
"या!!" रागिनी ख़ुशी से खील उठी।
सिद्धार्थ सिर्फ उसे देख मुस्करा दिया।
दोनो ने नत्थूलाल की दुकान पर आलु कचोरी खाई।
बिस्लरी की पानी की बोतल हाथ में पकड़ दुकान से
बाहार निकले।
"कहा जा रही हो?" सिद्धार्थ ने बिना किसी भाव के पूछ लिया।
"घर यहाँ से बस 30 मिनिट की दूरी पर है। "रागिनी ने बिना सोचे जवाब दे दिया।
"पैसे है, तुम्हारे पास?" सिद्धार्थ ने बड़े सलीके से पूछा।
रागिनी ने अपना सिर खुजा शर्म के मारे गर्दन नीचे करली।
"फिर छोड़ दू घर?" यह ऑफर कम सिद्धार्थ के मुंह से व्यंग्य ज्यादा लग रहा था।
"तुम इतना बोल रहे हो तो ठीक है।" रागिनी मूर्खतापूर्वक हंस दी।
सिद्धार्थ रस्ता पार कर आगे बढ़ चूका था।
लेकिन रागिनी ट्रैफिक के कारण पैर आगे बढ़ाने से खिचकिचा रही थी, आख़िरकार सिद्धार्थ ने पीछे मुड़कर देखा। रागिनी की उलझन देख सिद्धार्थ वापस आया।
सिद्धार्थ ने इस बार रास्ता क्रॉस करते समय रागिनी का हाथ सीधे हाथो में ले लिया।
रागिनी का सारा ध्यान सिर्फ अभी उस हाथ पर था। उसकी गरमाहट, एक कठोरता में कोमलता का संगम उसके पुरे शरीर में कंपन दौड़ रहा था।
आखिरकार सिद्धार्थ ने रागिनी का हाथ छोड दिया तब उसे कुछ छुटने का नहीं बल्कि टुटने का अहसास हुआ। पर वो यह जानती थी की यह बहुत खतरनाक था,अगर आगे जाकर इससे कुछ नही मिला तो यह बात उसे पागल करने के लिए काफी थी।
उसके चेहरे के भाव कुछ वक्त के लिए बदल चुके थे।
वो एक जगह स्तब्ध हो सिर्फ सिद्धार्थ को देख रही थी। जैसे उसे किसी भविष्य का पूर्वानुमान हो चूका था।
लेकिन जैसे सिद्धार्थ रागिनी को देखने लिए पीछे मुड़ा। और रागिनी को जब एक ही जगह खड़ा देखा तो पाया,
"यही रहने का ईरादा है।"
सिद्धार्थ ने इरिटेट होकर पुछा।
रागिनी का भ्रम टुटा। उसके मुखमंडल अचानक बदल गया, वही हंसी–मजाक के अंदाज में।
"तुम यह गलियो में, मुझे कहा लेकर जा रहे हो।"
"कही मेरे साथ कुछ ऐसा वैसा करने तो इरादा तो नही है ना तुम्हारा?"
सिद्धार्थ ने एक बार फिर ऐसे ठंडे से आवाज में जवाब दिया की रागिनी पूरी सिकुड़ गई।
"तुम्हे साथ चलना है तो चलो, नही तो यहां से जा सकती हो।"
"अब यहाँ आ ही गयी हु तो वापस कैसे जाऊंगी?"
रागिनी ने गुस्से से कहा, वो सिद्धार्थ के इस जवाब से अपमानित महसूस कर रही थी।
लेकिन सिद्धार्थ के कानों पर तो जू भी नही रेंग रही थी।
वो बस दाई-बाई गलियों से निकल एक दुकान के पास पहुंचा।
"STYLISH MAN SALOON" ऐसा ही कुछ नाम था दुकान का, बोर्ड के कार्नर लेफ्ट में रणवीर कपूर की फोटो लगी हुई थी।
अंदर नाई की कुर्सी पर एक आदमी आँखे बंद कर लेटा हुआ था। नाई बड़े सलीके से उसकी दाढ़ी कर रहा था।
आजकल की भाषा में कहा जाए तो, बार्बर।
पुरे दुकान को नीला कलर लगाया हुआ था, जिसमें दाई तरफ तरह-तरह के भगवान लगे हुए थे और उसी के बाजु में कुबेर धन चक्र लगा हुआ था।
जहा वो आदमी बैठा हुआ था वही किसी लंबे ठुके हुए स्टैंड पर एक रेडियो रखा हुआ था जिस पर गाने लगे हुए थे।
सिद्धार्थ को देखते ही नाई चहक उठा।
"अरे क्या भाई कैसे हो, कल गाड़ी लगा दिए और आए ही नही रात भर, कहा थे कल रात?"
"और यह देवीजी कोन है?" नाई मजाकिया स्वभाव में पूछ उठा।
रागिनी आजू-बाजू के परिसर को देख थोड़ा संभ्रम में थी।
सिद्धार्थ कुछ जवाब देने जाए उससे पहले ही उसके दोस्त ने अपना ही अनुमान लगा लिया।
"अरे! भाभीजी,मिलवाया नही तुमेने यार?"
"क्या बताएं भाभीजी, चाचीजी कितना पीछे लगी थी इसके की शादी करले, शादी करले। बस अब करली है, तो तुम्हे समझेगा मेरा दुख।" बिना रुके बस वो बड़बड़ा रहा था।
"वो यह मेरा..." रागिनी कुछ बोलने जाती उससे पहले ही,
"अरे आप खड़े क्यों है, यहा बैठ जाइए। बढ़िया सी चाय मंगवाते है, आपके लिए।"
"नहीं सिर्फ में अपनी बाइक लेने आया हू, मुझे सिर्फ घर जाना है।"
"चलो ठीक है। कभी दोनों मिलकर आइएगा हमारे घर, मेरी पत्नी बहुत अच्छा लिट्टी-चोखा बनाती है खाके दिल खुश हो जाएगा।"
" वो..."
सिद्धार्थ को कुछ बोलने ही नही दे रहा था उसका दोस्त।
"अरे! मैं तो खुदका इट्रोडक्शन तो देना भूल ही गया। माइसेल्फ केशव कुमार मिश्रा, प्यार से सब हमे केशू बुलाते है।"
रागिनी सिर्फ एक मंद हंसी हस दी।
"मेरा नाम रागिनी रागिनी भारद्वाज, और हम दोनो शादी-शुदा नही है।"
"अरे मैं भी कितना बकलोल हू।"
दोनो जब बातचीत करने में लगे थे वही दूसरी तरफ सिद्धार्थ नीचे झुक छोटी- बड़ी ड्रॉवर्स में अपनी बाइक की चाबी ढुंढ रहा था।
जैसी ही चाबी मिली, वो पीछे का दरवाजा खोल बाहर निकल गया।
"सिद्धार्थ कभी किसी लड़की के साथ नही दिखा, एक वक्त के लिए हमें लगा उसका हार्टब्रेक होने के बाद टेस्ट तो नही चेंज हो गया।"
रागिनी इस बात पर ठहाका लगा दी।
"लेकिन आज आप दोनो को देख, थोड़ा भ्रम दूर हुआ।"
और कुछ बोले उससे पहले बाइक की हॉर्न की आवाज सुनाई दी।
"ठीक है, चलते है भैया।"
" लेकिन आना जरूर भाभी अब तो हमे पूरा यकीन है, आप ही हमारी भाभी बनेगी।"
सिद्धार्थ सिर्फ मुंह सड़ा उसे देख रहा था वही रागिनी मन में ही मुस्करा रही थी।
रागिनी बाइक पर बैठ गई गाड़ी थोड़ा दूर जाने पर "तुम्हारा दोस्त बहुत बातूनी है, और मन का साफ भी।"
"हा... बाते करते हुए यह भी भूल जाता है की आगे वाले की भी turn है बात बोलने की।" इस बात पर रागिनी जोरसे ठहाका लगा दी। अब उसका हाथ अनजाने में ही सही सिद्धार्थ के कंधे पर ठहर चुका था।
जब ख्याल आया तो,‌ सिद्धार्थ ने उसे इस बात के लिए कुछ नही कहा यह बात समझ उसके मन में एक अजीब सी इच्छा जागने लगी जो शायद ही बया करना मुश्किल था पर महसूस करना आसान।

बाइक घर पोहचते ही।
"इतने बड़े घर में रहती हो तुम?"
"हा तो?" रागिनी अपराधबोध (offended)हो पूछने लगी।
"कुछ नही,मैं चलता हूं।" सिद्धार्थ स्पष्ट रूप से बोल उठा।
रागिनी का दिमाग सिद्धार्थ के इस जवाब पर थोड़ा ठिठका।
"अंदर नही आओगे?" रागिनी ने सवाल दागा।
सिद्धार्थ ने कुछ सोचा फिर युही जवाब दे दिया- "नही।"
सिद्धार्थ की गाड़ी वहा से निकल चुकी थी।
रागिनी सिर्फ उसे कुछ समय के लिए देखते रही।
फिर अंदर चली गई।
"कहा थी रात भर?"
रागिनी बिना कुछ जवाब दिए वहा से जाने लगी।
"भैया कुछ पूछ रहे है, उसका जवाब दिए बगैर तुम नही जा सकती।" श्रीकांत अपने भाई का पक्ष लेते हुए बोल उठा।
"आपको मेरी फिकर करने की कोई जरूरत नही है, I am fine by myself."
"रागिनी क्या तुम्हे यही संस्कार दिए है, हमने?" – वैशाली झल्ला उठी।
"आप ने मुझे संस्कार दिए है?मुझे तो कुछ याद नहीं आ रहा। आपने तो शायद ही अछूत की तरह घर से बाहर फेका दिया था ना 15 साल पहले।"
"वही शायद हमारी सबसे बड़ी गलती थी, तुम्हे देवकी के पास भेजना पता नही उसने तुम्हे क्या सीखा के भेज दिया।" प्रताप गुस्से से तमतमा रहा था।
"आप उन्हें बीच में मत लाओ, आप लोगो के लिए में एक बोझ बन चुकी थी आपके so called luxurious life के लिए चलता फिरता श्राप।"
"और आप मेरे संस्कारों के बारे में बात नाही करे तो अच्छा है, क्योंकि मुझे लोगो की हैसियत देखकर नही बल्कि नियत देखकर बात करना सिखाया है।"
श्रीकांत के गुस्से की अब चरमसिमा पार हो चुकी थी।
श्रीकांत रागिनी पर हाथ उठाने जाता तभी दादाजी बोल उठे।
"श्रीकांत!!" श्रीकांत रुक गया।
"हिम्मत भी मत करना, उसपर हाथ उठाने की।
घड़े को कुम्हार को दे पूरा बनने पर सिर्फ उसे गर्म करने से उसे अपनी रचना नहीं बताई जा सकती। तो जो हो रहा है, उसे शांति से झेलो।"
"करुणा महल में यह सब नाटक देख नहीं सकता मैं, जब तक जिंदा हु मुझे सुकून से जीने दो।" इतना कह वो वहा से चले गए।
सब शांत हो गया, श्रीकांत का पेट अपमान से ही भर चूका था।
प्रताप ने भी खाने का निवाला थाली में ही पटक दिया।
दोनो औरते भी कुछ न कह सकी।
बस वैशाली अपनी फूटी किस्मत पर रोने लगी और गौरी उसे सँभाल रही थी।
रागिनी ने रूम में जाते ही दरवाजा धड़ाम से बंद कर दिया और अपने आक्रोश और आसुओं की आवाज तकिए को सुनाने लगी। वो भी बहुत अंतर्मुखी था बिचारा सब सुन लिया उसने और किसी को बाहर कुछ पता भी नही चलने दिया।

सिद्धार्थ घर पोहच चुका था।
"कल रात कहा थे?" सिद्धार्थ के पिता जो अख़बार पढ़ रहे थे। उन्होंने अपना चश्मा नीचे रखते हुए पूछा।
"दोस्त के घर था।"
"तुम्हारा ऐसा कौनसा दोस्त है, जिसे मैं नही जानता? एक ही तो है।"
"हर बार टोंट मारना जरूरी है?"
"नही लेकिन घर से बिना बताए जाना, फ़ोन भी ना उठाना तुम्हे लोगो की परवाह नही, लेकिन लोगो को तो तुम्हारी होती है ना।"
"क्या होती है?"
"नासपीटे! परवाह।"
"आपको कबसे मेरी परवाह होने लगी?"
"बदतमीज़!! मैं तुम्हारी माँ की बात कर रहा था और विदेश जाकर बाप से कैसे बात करते है भूल गया?"
सिद्धार्थ ने बिना कुछ जवाब दिए अपने रूम में जाकर दरवाजा बंद कर दिया।
"यह गंगा भी इस बोझ को मेरे गले बांध पता नही कहा मर गई।"