कौवे अशोक असफल द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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कौवे

रिटायर्ड मास्टर सुदामालाल अड़सठ की उम्र में सरपंच बन गये तो जीवन में फिर से एक नया जोश भर गया। सुराज पर बाल गंगाधर तिलक के विचार उनके भीतर अठखेलियाँ कर उठे। उन्हें लग रहा था कि वे गाँधी जी के पंचायती राज के सपनों के वाहक बन गये हैं!
उनकी दिनचर्या अब बहुत व्यस्त हो गयी थी। पौ-फटे उठ जाते और दिन निकलने तक दिशा-मैदान से फारिग होकर नहा-धो लेते। लगे हाथ आध-पौन घंटा कोई न कोई पोथी बाँचते। फिर नाश्ता-पानी करके पुरा के स्कूल पर निकल जाते। अब तक कारीगर-मजूर आ चुके होते थे। सो, वहाँ का काम लगवाकर वे अगले पुरा पर निकल जाते । वहाँ काम अकसर उन्हें चालू हालत में मिलता, क्योंकि उनका सेक्रेट्री इसी पुरा का था। तब वे देखभाल कर तीसरे पुरा पर चले जाते। अब तक दोपहर हो चुकी होती। इस पुरा पर कारीगर-मजूर सुस्ताते हुए-पानी-पेशाब, बीड़ी धौंकते या रोटी खाते हुए मिलते... सुदामालाल मुआयना करते, पूछताछ करते और आगे का काम लगवाकर यहाँ घंटा-दो घंटा बिताकर लौट पड़ते... वापसी में बीच के पुरा पर आकर वे सेक्रेट्री को शाला भवनों हेतु कम पड़ गये मटेरियल की सूची देते और पहले पुरा पर होते हुए, जहाँ काम अब तक बन्द हो चुका होता- गाँव लौट आते ।
बूढ़े हाड़ तो थे ही! शाम को थके-मांदे आते, सो ब्यालू भी ठीक से गले न उतरती। बैठकी में जाकर पड़ रहते और सोते-सोते कराहते । ... किन्तु भुरारा होते ही टक्क से उठ जाते और फिर उसी पुरानी धुनाबुनी में लग जाते।
उनकी हालत देख-देख बेचारी मास्टरनी भीतर ही भीतर घुलती जाती । पास-पड़ोसिनों से कहतीं तो उल्टा मजाक उड़ता... एक-दो बार बेटे से फोन पर कहा, “लल्ला ! जे तुम्हाए बापू तो बहुत चक्कड़ में फंस गये हैं- बेटा, जिका इल्लिति लगवाइ दई बुढ़ापे में तुमने उनें?..."
"बापू। हं-हं-हं...” बेटा व्यंग्य से हँसता, फिर झुंझलाता, “उनकौ तो दिमाग खराब हे गओ है अम्मा! राजकाज है-जे, चलते ही रहते हैं... इन्हें बिटिया " के ब्याह की तरह कोई नहीं करता ! पर उन्हें कौन समझाये...'
बेटे का यह ताना सुनकर मास्टरनी की अक्ल और भी हैरान हो जाती... और वे खुद को दिलासा दे लेतीं, कि, “जाके जोन सुभाव, जाइंगे जीते! नीम न मीठो होइ, सींच चाहे गुड़-घी ते!! बाप सेर, तो बेटा सवा सेर है..."
उन दिनों जब भारत छोड़ो आन्दोलन में अपनी कच्ची उम्र के कारण आजादी की लड़ाई में नहीं कूद पाये थे सुदामालाल, तो मन में एक मलाल-सा रह गया था। पुष्प की अभिलाषा उसके भीतर ही घुटकर रह गयी थी। और गाँधीजी की हत्या पर फूट-फूटकर रोये थे वे, कि हा! यह जीवन निस्सार गया। माटी का कर्ज नहीं चुका पाया।

मिडिल पास करते ही गृहस्थी का बोझ आ पड़ा था सिर पर मोटा खाना, मोटा पहनना । देहात की जिन्दगी। खेती-गृहस्थी में फंस गये... फिर चार-छह साल बाद, देश के नवजागरण काल में यह उमंग उठी मन में कि अपने अशिक्षित समाज को शिक्षित बनाने में कुछ योगदान करें! सो मध्यभारत के समय में ही शिक्षा विभाग में अध्यापक बन गये।
उस वक्त नौकरी कैरियर का पर्याय नहीं थी। रोजी-रोटी के लिए इतनी मारा-मारी भी न थी। और न पगार का कोई भारी लालच ! उन्हें मात्र चौदह रुपये मासिक मिलते... पर पूरे सेवा-भाव से, पूरी लगन और मेहनत से अपनी देहाती शाला में शिक्षा दान करते थे। ...तब से अब तक जमाने ने इतने रंग बदले हैं कि वे हर बार हतप्रभ हुए हैं !....
चीन द्वारा पंचशील के सिद्धान्तों की धज्जियाँ उड़ाना ! ताशकन्द समझौता और शास्त्री जी का निधन! इमरजेंसी पर जे.पी. की विजय का मोहभंग और बन्दरबाँट! इंदिरा जी की हत्या और देशव्यापी लूटपाट! मिस्टर क्लीन और बोफोर्स ! मंडल, कमंडल और अन्तहीन घोटालों का सिलसिला.... थक गये वे, ऊब गये अखबारों से और सुन-सुनकर खबरें कान पक गये उनके और नवें दशक में सेवानिवृत्त होकर अपने घर-गाँव में जा घुसे सुदामालाल। अब तो नाती-पोतों को खिलाते हुए, धर्मग्रन्थों का पारायण करते-करते परलोक सुधारना था। इहलीला समेटनी थी। लेकिन राजनीति तो किसी आदमखोर बाघ की तरह गाँव में भी घुस आयी थी। कि जिसने लोकतन्त्र की खाल ओढ़कर अपने खूनी पंजे सब ओर फैला रखे थे। सीट चाहे आरक्षित हो या अनारक्षित, जातियाँ इतनी बैलेंस्ड हो चुकी थीं कि उनके मुकाबले चरित्र, योग्यता, सिद्धान्त, नीति और नियम सब खाक हो गये थे। मनुष्य मर गया था, केवल उसकी जाति रह गयी थी।
और ऐसा नहीं कि सुदामालाल इस बात से अनभिज्ञ थे या इस चौथेपन में सत्ता की लोलुपता ने ग्रस लिया था उन्हें! बात यह थी कि आदमी अपनी औलाद से ही हारता है... सो वे भी अपने बेटे के आगे झुक गये थे। वह अपनी थर्डग्रेड की सरकारी नौकरी छोड़कर जिला कचहरी में वकालत करने लगा था। यूँ सरयू शरण कोई काबिल वकील भी न था । न वकालत ही कुछ खास चलती थी उसकी। पर वह शुरू से ही तिकड़मी और जुगाडू मनोवृत्ति का आदमी था । इसलिए कालेज के जमाने से ही क्षेत्रीय राजनीति में खासा दखल होने लगा था उसका। जातियों के गणित में वह इतना माहिर हो गया था कि बड़े-बड़े अनुभवी राजनैतिक पंडित तक उसके फार्मूले के कायल हो जाते... फिर पिता कैसे पार पाते उससे ! अन्ततः उन्हें भी उसने जातीय समीकरण का मोहरा बनाकर पंचायती राज व्यवस्था के अन्तर्गत सरपंच चुनवा दिया।
अंततः सुदामालाल ने भी सोच लिया कि गंगाजी में शुभ और अशुभ सब एक संग बहता है। यह तासीर तो सिर्फ गंगाजल में ही है कि उसमें मिलकर मल-मूत्र भी पवित्र हो जाता है। उसका मैल छँटकर स्वतः किनारे लग जाता है, और वह शुद्ध होकर सुरसरि की पावन धार बन जाता है।
देखेंगे इस भ्रष्ट राज को भी। निबटेंगे इससे भी। तब नहीं आहुति दे पाये थे, अब देंगे! अपने होने का प्रमाण देंगे.... जिस काम के लिए वे आये हैं, उसे दूसरे पर छोड़कर नहीं जायेंगे।
भाग्यवश उनके कार्यकाल तक ग्राम पंचायत को पर्याप्त वित्तीय अधिकार भी मिल गये थे और उसके अन्तर्गत कुछ नवीन पद भी सृजित हो गये थे। सर्वप्रथम इन्हीं की पूर्ति हेतु विज्ञप्ति निकालकर आवेदन-पत्र आमन्त्रित कर लिये थे उन्होंने ।
तब एक रात जिले से उनके बेटे का फोन आया कि 'अमुक-अमुक को अमुक-अमुक पर रखे जाने का प्रस्ताव भेजें!' उन्होंने चुपचाप सुन लिया, और इस कान सुनकर उस कान निकाल दिया। वे किसी मुख्यमंत्री की तरह रिमोट से ऑपरेट होने वाले नहीं थे। उन्होंने वही किया जो न्यायोचित था, नियमानुसार था.....
उनकी इस मनमानी से बेटा खीज गया। एक रात फोन पर बोला, "बापू! तुम सठिआइ गये हो का?"
इस प्रहार से वे विचलित न हुए। धीरज के साथ बोले, “विकास, तुम गिनती भूल रहे हो... हम सठिया तो दस साल पहिले ही गये थे, अब तो सत्तर के करीब हैं, अबहूँ बिगाड़ के डर से ईमान की बात नई कहेंगे!"
बेटे ने फोन पटक दिया। इन बुढ़ऊ को क्या समझाना जो जमाने की हवा से सौ बरस पीछे हैं!
पर सुदामालाल को सन्तोष न हुआ, वे उस बेटे को आज भी समझाना चाहते थे, जो वकील है, जिला स्तरीय आधुनिकतम राजनीति में पारंगत है... वैसे ही, जैसे, उसे पढ़ाई के दिनों में आदर्शवाद का पाठ पढ़ाया करते थे सो उन्होंने उसी रात बेटे को एक काव्यात्मक पत्र लिखा :
जिस चिड़िया ने उड़ना जाना और न गाना / सूरज की पहली किरणों के साथ चहकना / भूखी जो सो जाये, ऐसी चिड़िया तुम मुझको बतलाना..... घुटनों चलकर देहरी का उपहास उड़ाया हो ना जिसने / मुझको वह बच्चा दिखलाना... वह धरती जो बीज को अपनी कोख में रखकर जाये मुकर, हो तो उसका पता बताना....'
सुदामालाल की यह चिट्ठी पाकर बेटा समझ गया कि बूढ़े तोतों को पढ़ाना सम्भव नहीं है... इस कुढ़न के मारे उसने पिता से सम्पर्क तोड़ लिया। वे उसके लिए झक्की और निरे खोटे सिक्के साबित हो गये थे।

....और जिस गाँव-समाज के लिए सुदामालाल यह वैर-विरोध मोल ले रहे थे, उसमें भी उनकी कोई अच्छी छवि नहीं बन रही थी। अधिकांश लोगों की प्रतिक्रिया होती :
“देखो! म्हास्टर को कैसी माया लगी है जा बुढ़ापे में... "अरे खाइवे को मिल रओ है-हो!"
"नई... म्हास्टर हैं तो ईमानदार आदिमी...."
"ईमानदार तो अब भगवानऊ नई रहे। नरसिंग राव की नाई इनकी ऊ पोलें खुलेंगी- जांच-फांच होइगी तब! इस्कूलन में निरो रेत चुपरवाइ रहे हैं!"
ऐसा तो नहीं, सुदामालाल तक ये चर्चाएँ न आती हों! आतीं। पर वे बर्दाश्त कर लेते। जानते थे कि मन वो दर्पण है जिसमें हरेक को दुनिया अपनी सरीखी दिखती है। और फिर वे किसी वाहवाही या रिटर्न या परलोक सुधार की गरज से यह काम नहीं कर रहे थे। उन्होंने तो जैसे, शिक्षा दान दिया था वैसे ही अपना पदैन कर्तव्य मानकर अपनी आत्मा की आवाज पर कह रहे थे।
कभी-कभी वे अपने मन को यों भी समझा लेते कि पहले की तरह आज के भारत का जब कोई आदर्श ही नहीं है, तब लोग श्रद्धा और विश्वास किस पर और कैसे करें? नेताओं के लिए जनता अब महज फसल होकर रह गयी है। राज्य की योजनाओं में लूट का लोभ इस कदर जोड़ा गया है कि नीचे तक का आदमी एक भ्रष्ट मानसिकता से भरकर कतई निष्क्रिय हो गया है। सरकारी हंडी का स्वाद ऐसा चख लिया है सबने, कि क्या कहें? बड़े-बड़े काश्तकार गरीबी रेखा के नीचे नाम लिखाये हैं। हवेलीदार इन्द्रा आवास के अनुदान पचा रहे हैं। एक भैंसिया दस-दस ठौर बिक रही है आई.आर.डी.पी. में। अमीर से अमीर आदमी भी अपने स्वजनों की मौत पर राष्ट्रीय परिवार सहायता का बीमा हड़प रहा है... और खाते-कमाते लोग वृद्धावस्था पेन्शन के लिए मूड़ चीर रहे हैं! इस चाहत में ही सरकारी अमले की जेब भरती है। खादी का जन हितैषी और जन-सेवक होने का ढोंग पूरा होता है।
क्या करें सुदामालाल ! किस-किस से जूझें! जिसे रोकें, जिसका प्रस्ताव न करें, जिसका फार्म अग्रेषित न करे- वही-वही उन्हें बेईमान का तमगा दिये फिरता है... और फिर गैरों को दोष देने से क्या फायदा, जब अपना सगा बेटा ही हृदय की बात न समझे, बाप की भावनाओं की कदर न करे... वे रुआंसे हो आते।
जिला योजना समिति की बैठक हुई और उन्हें दो बड़े काम और मिल गये थे। गाँव से तीनों पुरों के लिए पहुँच मार्ग मिले विधायक निधि से तथा सांसद निधि से गाँव के लिए खरंजा स्वीकृत हो गया था। तब लोगों के तमगों की परवाह न कर सचिव से कहकर सब फाइलें बनवालीं उन्होंने और जनपद से जाकर किस्तें ले आये।

....अब उनकी ग्राम पंचायत में व्यापक पैमाने पर विकास कार्य चल उठे थे। रोज-ब-रोज ट्रक आने लगे। जगह-जगह गिट्टी, मुरम खंडे और बजरी पड़ने लगी। सुदामालाल मशीन बने जा रहे थे।
शाला भवनों में निर्माण कार्य उन्होंने दीवाल स्तर तक पूर्ण करा दिया था, छतें पड़ना शेष थीं। पैसा जो मिला था, उससे ज्यादा लगा दिया था अपनी गांठ तक से... यही कहा था प्रोजेक्ट अफसर ने कि शेष राशि अगले बजट से निकाल देंगे। आप काम करवा दे!!
लेकिन, अब काम तो हो चुका, मूल्यांकन नहीं हो रहा है..... वे भड़भड़ा रहे थे।
"आप देख लेते साब!" वे पहली बार लगभग गिड़गिड़ाये डी.पी.सी. के. आगे।
वह मुस्कुराया, "हम कोई टेक्नीकल आदमी नहीं हैं, सरपंच साहब! मूल्यांकन तो सब इंजीनियर ही करेगा..."
उन्होंने चेम्बर में इधर-उधर देखा- दीवारें मुँह फाड़ रही थीं, गोया परसेन्टेज माँग रही थीं... उन्हें घबराहट होने लगी।
याद आया कि पिछली बार जब वे विधायक और सांसद निधि से स्वीकृत कार्यों की राशि लेने जनपद कार्यालय गये थे, तब सी.ई.ओ., अकाउन्टेंट और उपयंत्री की नजरों ने किस तरह तलाशा था उन्हें! फिर उपयंत्री तो अपने मोटर साइकिल से उनके पीछे बैंक तक जा पहुँचा था।
वे उन सबका आशय समझ रहे थे, लेकिन परसेन्टेज पर समझौता नहीं कर सकते थे। इसके लिए नहीं बने थे सरपंच! पर अब समझ में आ रहा है कि अब पहुँच मार्गों और खरंजे वाली अगली किस्तें भी आसानी से मिलने वाली नहीं हैं। गिट्टी, मुरम, बजरी और खंडे जो पिछले भुगतान से ज्यादा डलवा लिये हैं उन्होंने, उसका क्या होगा! खेती बेचेंगे क्या ?... बेटा खा लेगा उन्हें!
अनायास उन्होंने अपना बैग सचिव को पकड़ा दिया। हल्की बूंदाबांदी शुरू हो गयी थी। माघ की महावट! उस पर हवा खुल गयी...ठंड हड्डियों में धँस रही है। बूढ़े हाड़ काँप रहे हैं।

डी.पी.सी. के यहाँ इतनी देर हो गयी कि आखिरी बस निकल गयी। बेटे के यहाँ गये नहीं थे पिछले तीन-चार साल से, सो हिम्मत न पड़ी। अन्यमनस्क से सचिव से बोले, "चलो, कोई धरमशाला देख लो !”
"हओ!" कहकर उसने परम आज्ञाकारी बालक की तरह रिक्शा ले लिया।
और वे उसका सहारा लेकर किंकर्तव्यविमूढ़ से रिक्शे पर बैठ गये। और उनके भीतर गूंज उठी एक बात:
'सोने दो मुझको / निद्रा के सागर में / अपनी नाव डुबाने दो। बहुत रो चुका / बहुत गा चुका / सब कुछ तो नीलाम कर चुका। बहुत मर चुका में जीकर / अब मर-मरकर मत जीने दो! मुझको सोने दो....'
मास्टर सुदामालाल का बेटा सरयू शरण अवसर पाकर एक प्रमुख राजनैतिक दल के जिला स्तरीय युवा मोर्चा का अध्यक्ष बन बैठा था। वह अब प्रशासन के कुशल मीडियेटरों की तरह अपने लोगों के काम करवाता रहता और शेष जनता को किसी न किसी आंचलिक मुद्दे पर बतर्ज आन्दोलन (रैली-धरना) गरम किये रखता। अब उसे एक अपनी ग्राम पंचायत से ठेंगा नहीं बदलना था। उसे कार्यक्षेत्र का विस्तार तो वैसे भी जनपद पंचायतों से लेकर जिला स्तरीय सहकारी समितियों, को-ऑपरेटिव बैंकों तक फैल गया था। वह बाकायदा स्थानीय अखबारों में छाया रहता है। सभी जाने-माने हलों मे तूती बोलती थी उसकी। पिता की अपटेकी पर अगर वह खफा न होता तो डी.पी.सी. राजीव गाँधी शिक्षा मिशन और सी.ई.ओ. जनपद पंचायत की क्या मजाल थी जो सुदामालाल के चैक रोक लेते। उपयंत्री और ए.ई. आर. ई. एस. के तो पुरखे तक नाचते हुए मूल्यांकन दर्ज करते फिरते.... उसी के दबदबे से तो उस पिछड़ी ग्राम पंचायत में डी. पी. ई. पी. के इकट्ठे तीन शाला भवन और सांसद तथा विधायक फंड से खरंजा और पहुँचमार्ग स्वीकृत हुए... जानते थे सुदामालाल, सब जानते थे!
भूखे-प्यासे धर्मशाला के कमरे में उन्होंने कोरी आँखों भोर की और बैरंग अपने गाँव लौट आये। अधूरे पड़े निर्माण कार्यों में अब उनकी कोई खास दिलचस्पी नहीं रह गयी थी। मटेरियल उनकी आँखों में शूलों की तरह चुभ रहा था। बाजार की उधारी से उनका दिल दहशतजदां हो उठा था। उन्हें रातों में नींद न आती। गोया उनकी कमर टट गयी हो!
मास्टरनी इस सबका सबब पूछतीं। मास्टर सुदामालाल टाल जाते। उन्हें क्या कथा बताते ! बूढ़ी डोकरी, जिसका जीवन चूल्हे-चक्की की भेंट चढ़ा हो ! धुएँ से जिसकी आँखें दर्पण की तरह धुंधला गयी हों उसे क्या वे इस जमाने के पेच समझाते ? वह तो वैसे भी अपने बुढ़ापे और कमजोर नजर से दुखी थीं। मोटी-मोटी चीजें दिख जातीं, पर बारीक टटोलनी पड़ती। धक्के खाती गिरती पड़ती किसी तरह जीवन नैया खै रही थीं।
और खुद सुदामालाल की हालत ही कहाँ अच्छी थी! दाँत कबके जवाब दे गये थे। भोजन में अधिकांश भाग दलिया खिचड़ी का होता। एक-आध रोटी दाल-भाजी और दूध में मींजकर निगल लेते। बस, इतने से ही गाड़ी चलती रहती. . तिस पर अब यह सदामा और उन्हें खुद पर झुझलाहट होती कि कैसी मति मारी गयी थी, जो अब इस युग में लोक-सेवक बनने चले थे।
कभी-कभी वे गहराई से विचार करते और पाते कि यह युग तो उनके युग के मापदंडों, संस्कारों और सिद्धान्तों का एकदम विलोम है। राम का मर्यादा पुरुषोत्तम चरित्र अब अनुकरणीय कहाँ रहा? अब तो बिल क्लिंटन के अनुयायियों का युग है। जहाँ राजा असत्य भाषी और चरित्रहीन होकर भी महाभियोग से बच जाता है... क्योंकि जनता को अब राजा से चरित्र, धर्म और नैतिकता की अपेक्षा नहीं, पैसे की है। हथियार, शक्ति और लूट की है। गोकि जनता लूट की हामी है, लूट में भागीदारी चाहती है। लद गया जमाना सुदामालाल का... वे घर में मृतप्रायः पड़े रहते।

प्रदेश सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने जा रही थी। सो अब जनप्रतिनिधियों को अपना वोट बैंक बनाने की पड़ी थी। पंच, डेलीगेट से लेकर एम.एल.ए. और सांसद तक बेतरह सक्रिय हो उठे थे। आनन-फानन निर्माण कार्य पूर्ण कराने पर जोर दिया जाने लगा। फलस्वरूप सुदामालाल के नाम ब्लॉक, जिला योजना मंडल और राजीव गाँधी शिक्षा मिशन के नोटिस आने लगे लिखा होता :
'अमुक-अमुक कार्य हेतु इतनी इतनी राशि आपको इतने इतने समय पूर्व चैक क्रमांक फलां-फलां से प्रदाय की गयी है। आपके कार्यों की प्रगति सन्तोषजनक नहीं है। कृपया, तत्काल निर्माण कार्य पूर्ण कवाकर मूल्यांकन करावें, अन्यथा आपके विरुद्ध पंचायत राज अधिनियम फलां-फलां के तहत कार्यवाही संचालित कर वसूली की जावेगी?'
सुदामालाल बेटे को बताने के रहे, न कमेटी को! वे सब उन्हें खिल्ली उड़ाने और फजीता करने को आमादा दिख रहे थे। अब वे अक्सर अपने अकेले में अब्दुल रहीम खानखाना द्वारा कही गयी पते की बात बड़ी पीड़ा के साथ दुहरातेः "रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय, सुनि इठिलैहैं लोग सब बाट न लैहें कोय!" और निराशा के गहरे समुन्दर में डूब जाते।
उनकी हालत दिन-ब-दिन पुराने रोगियों जैसी होती जा रही थी। इसका इल्म सिर्फ उनके सचिव को था। पर इस राज को वह भी ज्यादा दिन तक छुपाकर न रख सका। क्योंकि उसे भी अपने भविष्य का खयाल था! और धीरे-धीरे कमेटी को खबर हो गयी कि गाड़ी गड्डे में है! तब उस जिम्मेदार ग्राम पंचायत की एक बैठक बुलायी गयी, जिसमें वस्तुस्थिति पर गहराई से विचार किया गया। फलस्वरूप सभी पंचों ने एक स्वर में आय-व्यय का लेखा प्रस्तुत करने को कहाँ सचिव ने बैलेंस सीट रख दी- आय से अधिक था व्यय !
“कहाँ से आया?” चिमगोइयाँ चल उठीं।
“उधार आया!...” सुदामालाल ने खांसते हुए जवाब दिया।
“किस-किस से?" पूछने वालों ने पूछा।
“बिल्डिंग मटेरियल फर्म से... ईंट-भट्टे से पत्थर टाल से और रेत खदान ठेकेदार से।" सचिव ने ब्यौरा दिया।
"तो अब भुगतो!” सामूहिक उपहास उड़ाया जाने लगा । फिर बात में से बात निकलने लगी :
“अरे, नीकीतरियां मूल्याकन करवाई देउ और पैसा निकारि के जहाँ के तहाँ रफा-रफा करौ...”
"हरीचन्द बनें काम नई चलिहे दा! गांठ खोलो और पुटरिया बांधो!..."
"हओ, जुग की माँग है।"
“और का! उल्टी धार में तो अच्छे-अच्छे नई पैरि पाये ? तुम का औतार हो, हो तो आदिमी!"
सुदामालाल ने सारे जहर के घूंट पिये चुपचाप ... वक्त की बात है। उनकी पीढ़ी आज उन्हीं को उपदेश दे रही है! सब उल्टा सुल्टा हो गया। जो उन्होंने सिखाया था जीवन भर, उसी को उल्टा करके अब उन्हें परोसा जा रहा है... यही सन्मार्ग है, सद्गति है, युगीन सत्य है! मुहर लगायी जा रही है ... क्या करें सुदामालाल ? संखिया मिल जाय कहीं तो होम दें अपने प्राण !

लेकिन प्राण होमना इतना आसान कहाँ है, हर किसी के लिए! उन्हें रोज-ब-रोज कुचिया-कुचिया कर लोगों ने सचिव के साथ फिर पहुँचवा दिया ब्लॉक ऑफिस...
सी.ई.ओ. ने बाअदब चुटीले व्यंग्य में कहाँ, “वाह महाराज, आज तो सूर्य बड़े दिनों से उदय हुआ !”
सुदामालाल खिसियाकर रह गये। लगभग घिधियाकर बोले, “किस्तें निकाल दें साब... काम हो जायं... नई हमाई सफेदी में दाग लगतु हे अब!" वे रुआंसे थे।
“नई महाराज,” सी.ई.ओ. ने चश्मे के पीछे से करुणा भरी आँखों से घूरा उन्हें, "कैसी बातें करते हो आप?पूरा जनपद चिल्लाता है कि आप जैसा सच्चा और ईमानदार सरपंच नई है....."
फिर वह बड़े नाटकीय ढंग से दोनों हाथ जोड़कर बोला, “पर महाराज, एक बात आप भी मान लें, निवेदन है, कोई जोर-जबरजस्ती नहीं आप सरीखे सज्जन पुरुष से," उसने बगल के पीकदान में तम्बाखू उगली, "हाँ! तो कह रहा था, " जैसे खुद से कहा उसने, बायें हाथ की उँगलियों से माथा टटोलते हुए, "याद आया!” कुर्सी के अंदर ही उसके हत्थे पकड़ उचककर बोला वह, "ऐसा करें, मूल्यांकन करवा दें," और समझाने लगा, “राजकाज हैं! तिली में से ई तेल निकालो महाराज... अपने लिए नहीं, समझ गये न!" उसने तथास्तु की मुद्रा में दायाँ पंजा हिलाया।
समझ गये सुदामालाल! सिर पीटकर निकल आये चेम्बर से अब ढूंढेंगे आर.ई.एस. कार्यालय में जाकर उपयंत्री को और 'गू' की दावत देंगे!
उन्होंने घृणा सेथूक दिया। बूढ़े हाथ-पाँव काँप रहे थे।
वे सचिव के साथ सड़क पर आ गये। तय था कि उपयंत्री को पकड़ने जिला मुख्यालय जायेंगे... लेकिन, तभी एक बस निकली, उनके गाँव जाने वाली. तो उनके भीतर जैसे चीख-पुकार मच गयी :
“नहीं सुदामालाल ! अब आखिर में क्या पाप-पंक में सनोगे ! इतना मोह क्यों जीवन का और सम्पत्ति का... लग गयी जनहित में लग गयी समझो। उधारियाँ हो जायेंगी चुकता, हो जायेगी जमीन कुर्क ! हो जाने दो, और हँसेगी जनता। बेईमान करार देगा सारा समाज! सो वही सही। अपने तई तो बेदाग बचे रहेगो ? अपनी आत्मा तो बचा सकोगे!"
और इसी कोलाधमना में वे बस में चढ़ गये। पीछे से चिल्लाता हुआ सचिव भी चढ़ आया कि दा! ये तो गाँव की बस है... पर वे भहराकर गिर पड़े एक सीट पर। और फिर उठे नहीं। जैसे, मूर्च्छा लग गयी हो।
सचिव थककर बगल में बैठ गया। बस ने हौरन दिया और घरघरा कर छूट पड़ी।
गाँव लौटकर तीन-चार दिन तक उन्होंने किसी से बात नहीं की। अपनी बैठकी में भीतर से सांकल देकर पड़े रहे। क्लेश में डूबी मास्टरनी ने बेटे को फोन किया। जवाब मिला, “बहुत व्यस्त हूँ। हरी लकड़ी को झुकाया जा सकता है, अम्मा! अपने सतजुगी बापू से जूझैं कि अपना और तुम्हारे पोतों का भविष्य देखूं ?"
"तो भी एक बार आ जाते, लल्ला! उनका भी जी भड़भड़ाता होगा तुम्हारे लिए, हम लोग तो उठाऊ डेरा हैं, फिर तुम समझो..." अम्मा रो पड़ीं। लाइन कट गयी थी।
अभी किसी खास लाभ के पद पर नहीं था सरयू शरण कोठी नहीं बनवा पाया था। पर जीप और फोन मेन्टेन करता था। उसके व्यवसाय के लिए निहायत जरूरी सुविधाएँ थीं ये। हाँ, पॉलिटिक्स को बिजनेस ही मानता था वह उसका खयाल था कि सेवा भाव वाली पॉलिटिक्स तो गाँधी जी के साथ ही मर गयी थी. . कुछ दिनों और, नेहरू- शास्त्री के युग तक प्रतिष्ठा भाव वाली पॉलिटिक्स चली. लेकिन फिर उसके बाद जो पॉलिटिक्स प्योर बिजनेस हो गयी है। और अब तो फकत विश्व आर्थिक बाजार की चेरी है पॉलिटिक्स... आज जो पुरानी पॉलिटिक्स की बात करे, सो निपट अंधा बहरा और मूरख ठहरा .... सो, अपनी पॉलिटिक्स को जमाने वह आये दिन जिले भर में जीप से दौरा किया करता और राजधानी तक फोन से सम्पर्क । तब उसे एक दिन फोन पर ही एक सूचना मिली कि तत्काल अपने गाँव-घर चला आये, अपने पिता की अर्थी को कन्धा देने.....
'क्या!' अवाक् हर गया सरयू शरण पिता का बूढ़ा चेहरा उसकी आँखों में छाकर रह गया। उसे धक्का-सा लगा.... पिता तो पिता थे, उसे इतनी जिद नहीं करनी थी... देख आता एक बार मदद कर देता उनकी शायद बच जाते थे! मरने को तो मरते... पर उसे इस कदर मलाल तो न होता!
'तो क्या, यह हत्या है? मैं जिम्मेदार हूँ इसके लिए!'
उसे भयानक डिप्रेशन होने लगा। अपनी आँखों को काले चश्मे में छुपा लिया उसने। जीप निकाली और सपरिवार गाँव की ओर दौड़ लिया।
सुदामालाल ने जीवन भर जोड़ा कुछ नहीं था। सिवा गुजर-बसर के और अगर कुछ कमाया था तो वह जाति-बिरादरी और ग्राम समाज में व्यवहार था। जीवन भर व्यवहार कमाया था उन्होंने। वही मरकर काम आया। उनकी मौत की सूचना आसपास के देहाती एरिया में बिजली के करंट की तरह फैल गयी थी। लोग हकबकाये और मुँह बाये दौड़े चले आये थे। और जब तक बेटे की जीप वहाँ पहुँच, अर्थी उठने के लिए तैयार रखी मिली थी। द्वार पर लोगों का मेला-सा जुड़ा था। अलग-अलग पाँतों में बैठे लोग सुदामालाल के जीवन को याद कर रहे थे। जिसके पास जो भी संस्मरण था, उसे वह व्यक्ति चित्र की तरह सुना रहा था।

मरने के बाद वे इतने फेमस जायेंगे, यह तो जीते-जी उन्हें 'भी खबर न थी... अलबत्ता, स्कूल टाइम के बाद घर पर निःशुल्क शिक्षा-दान और पंच-पंचायतों के अलावा और कुछ ऐसा सेवा या धर्म का कारज तो लिया नहीं था उन्होंने जो राजनेताओं-सी ख्याति दे जाता... हाँ! उनकी मृत्यु के साथ यह खबर जरूर जुड़ी थी कि तगादा वसूली की दहशत में दिल का दौरा पड़ा था उन्हें!
ईंट-भट्टा, पत्थर टाल, फर्म- बिल्डिंग मेटेरियल और रेत खदान ठेकेदार के कारिंदे उनके दरवाजे के चक्कर काट गये थे। इस शर्म के कारण मास्टर सुदामालाल के प्राण चुल्लू भर पानी में डूब मरने के लिए तड़प उठे थे। वे दिशा-मैदान भी तारों की छाँव में हो आते!... गरज यह कि महीने भर तक किसी को अपना काला चेहरा नहीं दिखलाया था उन्होंने और तब एक रात अचानक तड़प-तड़पकर शान्त हो गये थे वे...
लेकिन, उनका पार्थिव शरीर पंचतत्व में विलीन होते ही फिजां बदलने लगी। उपस्थित जनसमुदाय उनकी ईमानदारी और निष्ठा का बखान करते-करते राजनैतिक चर्चाओं में मगन होने लगा था। गोया, मरघट ज्ञान मरघट में ही छूट गया हो !
फिर बेशक एक रिवाज के तहत शवयात्रा में शामिल सारे लोग वापसी में उनके दरवाजे पर तक आये। सभी ने एक-एक करके नीम के पानी से आचमन करते हुए सरयू शरण वे विदाई ली। पर उनके चेहरों पर अब विषाद की रेखाएँ न थीं। एक सामान्य रीति का निर्वाह भर था...
उसी मौके पर सफेद कुर्ते, पायजामे और साफी से लैस घुटी चांद वाले सरयू शरण ने हाथ जोड़-जोड़कर चार छह मौज्जिज लोगों से कहा, “दादा ! अब जो कुछ हो, बड़े-बूढ़े आप ही लोग हो..."
तभी एक चंट से बुजुर्ग ने बात को बीच में लपक लिया, “हाँ-हाँ, वकील साहब, काहे की फिकिर करत हो... वैसे तुम समरथ हो! फिर हम तो हैं ही!" सरयू ने सिर झुकाकर घमंड से उसका अहसान माना और कुछ कहना चाहा, तभी एक अन्य बुजुर्ग को उसके नोटिस में आने के लिए जैसे मचल ही पड़ा “खैर, हम तो जाई घार (इलाके) के हैं, आपके संग तो पूरा जिला है! अपुन तो आजकल के चमकते सितारे हो..."
इन दोनों की उचकन (पहल) से एक अन्य सफेद चेहरे वाले सबसे कांइयाँ बुजुर्ग की देह में आग लग रही थी। पर वह मौके की नजाकत देख भरसक सहजता से बोला, “वो तो ठीक है, वकील साब का मतलब है कि अगिले रावरंग की कुछ मिस्कुट हो, अपन लोग परसों, शुद्धता के बाद बैठें! काये-वकील साब, ठीक कहीं!” उसने घूमकर सरयू शरण की आँखों में झांका।
इस पर वह लयबद्ध गर्दन हिलाता हुआ धीमे से बुदबुदाया, “ठीक है चाचा, जो कहो, आपको सब अख्तियार है।"
हजार से ऊपर इकट्ठा लोग पलांश में लोप हो गये थे। वहाँ नीम अँधेरा और नीम शान्ति छा गयी थी। बूढ़ी मास्टरनी बहू की गोद में औंधी पड़ी थी। विलाप करते-करते गला बैठ गया था उनका। सो अब वे भी शान्त थीं। कभी-कभार कोई कुत्ता जरूर भौंक उठता था। और सरयू शरण को धोखा-सा होता कि खादी का कुर्ता-पायजामा पहने, उस पर नेहरूकट सदरी डाटे, सिर पर बाकायदा गाँधी टोपी रखे बापू खरामा खरामा इधर से उधर टहल रहे हैं! कहीं कुछ नहीं घटा है। सब कुछ तो बदस्तूर है...
उसने दाग दिया था, इसलिए उसे उसी स्थान पर सोना था जहाँ प्राण छूटे बापू के । बैठकी के फर्श पर इस बात से उसे अपने भीतर ही भीतर थे दहशत-सी हो रही थी। जाने क्यों उसके भीतर यह अपराध-बोध और भी गहरा उठा था कि वह उनका हत्यारा है! 'कहीं उनके भूत ने तो आकर नहीं जकड़ लिया था उसे!'
उसकी नींद उड़ रही थी ।
फिर जागते-जागते उसे यह खयाल आया कि बापू की ख्याति कम न थी । खबर पड़ते ही आसपास के गाँवों के कितने ही लोग दौड़े चले आये !...

आते क्यों नहीं! अधिकांश तो उनके विद्यार्थी रहे होंगे। जीवन भर आसपास के स्कूलों में ही रहे थे वे... इलाके भर की तीन-चार पीढ़ियों को पढ़ाया है उन्होंने। और वे पढ़ाते भी कितने प्यार से थे! झूम-झूमकर, गा-गाकर :
“चिड़िया मुझे बनादे राम, छोटे पंख लगादे राम।
बागों में उड़ जाऊँगी। खूब फलों को खाऊँगी।
बैठ डाल पर गाऊँगी। चूँ-चूँ मौज उड़ाऊँगी...”
भावुक हो उठा, 'उसने कद्र हीं जानी अपने पिता की। उसका हृदय इतना पत्थर और वह ऐसा मशीन मानव कैसे हो गया, वह खुद नहीं वह जानता...'
जागते-जागते उसे पेशाब की सुध हो आयी थी। तब किवाड़ खोलकर वह चबूतरे से नीचे उतरा और टेलीफोन टॉवर के करीब बैठकर पेशाब करने लगा। ऊपर भरा-पूरा चंदा चमक रहा था। पेशाब करते-करते ऊपर को को अचानक चन्द्रमा में सुदामालाल की तस्वीर दिख उठी। उसने दुःख भरी साँस छोड़ी और उठ खड़ा हुआ। तभी सामने पीपल का भारी पेड़ दिख गया। यह पिता के हाथ का रोपा हुआ था। मानो कल की बात है... ये कतार में खड़े नीम और शीशम के पेड़ भी तो उन्होंने ही लगाये थे ! जानवरों से रक्षा के लिए कितना ऊँचा घरुआ बनाना पड़ता था। कितनी मेहनत-मशक्कत, रोज-रोज की देखभाल और हरदम कैसे समझाते थे उसे, 'तुम अपने जीवन में कम से कम पच्चीस पेड़ लगाना सरयू !... तुम्हारा तो नाम ही नदी के नाम पर है। जानते हो, भगवान राम ने भी सराहा था सरयू को.... नदी के किनारे तो वैसे भी पेड़ उग आते हैं! जानते हो, ये पेड़-पौधे मनुष्य के भाई-बन्धु होते हैं...'
इस तरह सुदामालाल के खयालों में सरयू ऐसा खोया कि बाहर की दुनिया बिसर गयी। वह और भी देर बापू के खयालों में खोया रह सकता था, पर भीतर बैठक में टेलीफोन की घंटी बज उठी थी।
'इतनी रात गये कौन होगा! यहाँ गाँव में किसका फोन आ गया...' सोचते हुए उसने चोंगा उठाया तो उधर से एक खरखरा-सा प्रौढ़ स्वर उभरा, “हल्लो, सरजू-हम रामविलास बोल रहे हैं.. "
"कौन!" फिर उसने स्वर पहचाना, श्याम के चाचा हैं! शुद्धता के बाद बैठने को कह रहे थे.... "बोलो चाचा!"
“जि - कही, इस्नान-ध्यान, संझा-आरती, भोजन-पानी से निबटे हैं अब! सोची, तुमसे कछू सलाह करें!"
“हाँ-हाँ! कहो चाचा..."
“कहें क्या भई वकील साब, अगर तुम पे बन जाय तो शुद्धता के बाद गरुड़ पुराण बचवाई देउ!"
"वो कोई बड़ी बात नहीं," कहकर वह एक क्षण को अचकचाया, "चाचा, इतने लम्बे टाइम तक रुकना ... आप तो जानते हैं हमारी व्यस्तता! अन्त्येष्टि यहाँ न हुई होती तो त्रयोदशी संस्कार भी हम वहीं से करते...."
“अरे, सिर्री हो का!" उधर से मानो डाँट पड़ी, "जगह मत छोड़ना तेरहवी तक। तुम्हारी जड़ें यहाँ हैं। गरुड़ पुराण जासें रखवाओ कि वाके बहाने बैठक-उठक बनी रहेगी। और अपनो और मास्टर को पूरो बौहार समेटिलेउ जा कारज में ... कल चुनाव है। मास्टर की बात ओर ती! तुम्हाओ भविष्य जई पंचाइत तक नई है। समझे कछू !”

सरयू शरण का दिमाग जैसे झन्ना गया। बापू के गम का नशा एकदम हिरन हो गया। और वह झटके से होश में आ गया, जैसे! अब वह वृहद मृत्यु भोज की रूपरेखा उसके दिमाग में आकर लेती जा रही थी, जो अप्रत्यक्ष रूप से चुनावी समर का बिगुल होगा ।
“थैंक्यू मिस्टर राम विलास, थैंक्यू!” उसके मुँह से बरबस निकल पड़ा...
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