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सहमति

जेठ रखवाली के लिए आ गए थे। क्योंकि- पति को कम्पनी ने अमेरिका भेज दिया था। मुसीबत ये नहीं कि यहां मैं अकेली कैसे रहती! शहर की सुरक्षित मल्टी, आसपास अच्छे लोग...। फिर उन्हें भी इतनी फुरसत कहां कि खेती-बाड़ी, बीमार मां, भाई और अपना क्लीनिक छोड़ यहां इतने दिनों रह लेते! संदीप ने भी ऐसा कुछ खास आग्रह न किया था। कहा जरूर कि सहूलियत मुताबिक आप बीच में एक-दो बार हो आएं द्वादशी के पास। वैसे तो कोई बात नहीं है, पर लोगों को यह न लगे कि निपट अकेली रह रही है!
और यूं तो मैं कोई बच्ची नहीं, पी.जी. के बाद एक जाब ओरिएंटेड कोर्स भी कर रही थी। इसलिए कि कहीं भाग्य से संदीप यूएसए में जम गए तो मैं भी वहां कोई छोटा-मोटा जाब ले हाथ बंटा लूंगी!
यह शहर भी नया नहीं, दो साल हो गए रहते...। परदेश तो अच्छे बोले का है। चार अच्छे मित्र हों तो फिर काहे के अकेले! काफी गर्ल्स स्टुडेंट और टीचर्स से मेल मुलाकात थी। एक काॅल पर कोई भी आधी रात को आ जाता...।
इस सबके बावजूद वे इतने दिनों के लिए साथ रहने आ गए तो, इसी की बदौलत कि मैं सख्ती से मना नहीं कर सकी...।
ससुराल से बस का साधन न था। गांव के रेलवे स्टेशन से मीटर गेज ट्रेन में बैठकर उनके साथ लखनऊ आ गई। तीन दिन में घर घूरा हो गया था। लगकर सफाई की, तब तक वे सब्जीभाजी ले आए। नहा-धोकर रसोई में जुट गई। इतनी फुरसत न मिली कि संदीप से बात कर लेती। दरअसल, शर्म के साथ-साथ डर भी लग रहा था कि बताते ही पता नहीं क्या विस्फोट हो जाए। सामने होते तो ठीक से अपना पक्ष रख पाती। असमंजस में डूबी हाॅल में उनका बिस्तर लगा, अपने बेडरूम में आ गई। आते ही सिटकनी चढ़ा ली और बिस्तर में दुबक गहरी सांसें भरने लगी। जबकि पहले हमलोग कभी भी बेडरूम की सिटकनी नहीं लगाते थे। क्योंकि घर में कोई तीसरा न था। पर अब उनके आ जाने से जैसे गैर मर्द का खतरा उत्पन्न हो गया था!
...
शादी करीब तीन साल पहले हुई थी। ससुराल सीतापुर के पास के एक गांव में, जहां मेरी सास अपने दो बेटों के साथ रहती हैं। देवर को बचपन में ही दौरे पड़ने की बीमारी लग गई थी, तब से वह अपाहिज की जिन्दगी जी रहा है! दौरे के वक्त उसको तुरंत इंजेक्शन देना पड़ता है, जिसके लिए एक नर्स हमेशा उसके साथ रहती है। चल फिर नहीं पाता, इसलिए उसे हमेशा बिस्तर पर ही रहना पड़ता है। सास को भी घुटनों की परेशानी की वजह से ज्यादातर व्हील चेयर और बेड पर ही रहना पड़ता है।
जेठ ने जनरल फिजिशियन और गायनाकोलाॅजी-चिकित्सा कोर्स किया था। पर वे गांव में रहकर ही सबकी देखभाल करते हैं। गांव कीे औरतों की डिलीवरी भी उन्हीं के क्लिनिक में होती, जिसके लिए एक और नर्स रखी हुई थी। दूर-दराज के गांवों में उनका काफी नाम था...। लोगों को पक्का भरोसा हो गया था कि उनके इलाज से तो बाँझों को भी बच्चा हो जाता है!
लोग उनको दूसरा भगवान मानते और बहुत इज्जत करते। एक चीज जो उन्हें और भी महान बनाती, वो ये कि घर में दो-दो अपाहिजों के चलते उन्होंने शादी नहीं की! जबकि 45 के होकर अभी भी वे 25 साल के लड़कों को कुश्ती में हरा देते हैं। दिखने में भी डाॅक्टर कम, पहलवान ज्यादा लगते हैं! डॉक्टर्स जहां अपनी सफेद यूनिफॉर्म में हाथों में एप्रिन, गले में आला डाले घूमते; वे सादे कुरते, पैजामे में कंधे पर कपड़े का झोला लटकाए रखते हैं। चेहरे-मोहरे से भी न तो चिकित्सक नजर आते हैं और न ठेठ किसान। पर दोनों फन में माहिर...। यही विलक्षणता उन्हें एक अनोखी हीरोइज्म प्रदान करती है।
एक बात और, वो ये कि वे सभी को हरदम बेटा बेटा ही बोलते। झौंक में कईएक बार मां तक को बेटा कह देते...। उनके प्रेम, अपनत्व भोलेपन और कतर्व्य परायणता पर हम सब न्योछावर थे...। शादी के बारे में उनका कहना था कि कोई भी पत्नी दो-दो अपाहिजों को नही झेल सकती! वंश चलाने संदीप की बीबी आ तो गई!
उनकी इस बात से मेरे पति हमेशा कायल रहते और खुद को उनसे छोटा समझते...। कहते, मैं तो अपने स्वार्थ में नौकरी के लिए शहर में रह मजे कर रहा हूं, भैया गांव में खटकर सच्चा फर्ज निभा रहे हैं!
मैं भी जेठ जी के इस योगदान पर बहुत गर्व अनुभव करती थी, क्योंकि एकाध दिन के लिए गांव जाती तो सास और देवर की तीमारदारी में इतनी पच जाती कि लौटकर बीमार पड़ जाती। देवर की बीमारी के चलते मुझे ही नहीं, सारे घर को इंजेक्शन लगाना सीखना पड़ा था। जेठ जी द्वारा हमारे घर के हर शख्स को यह सिखाया गया था कि पता नहीं कब जरूरत आन पड़े! मरीज को तुरंत इंजेक्शन न देने पर कोई भी दुघर्टना घट सकती है...।

संदीप तो इसी कारण हर हफ्ते गांव जाते और बड़े भाई का खेती में हाथ बंटाते तो छोटे भाई और माँ की सेवा भी दिल लगाकर करते। मैं भी कभी-कभी साथ जाती, पर कभी एक रात से ज्यादा नहीं रुकती!
कारण यह कि गांव की जिंदगी बड़ी कठोर थी। मेरा माइका सीतापुर शहर में था। पिता तो मुझे गांव में ब्याहना ही नहीं चाहते थे। पर जेठ ही देखने गए, उन्होंने वादा किया कि आपकी बेटी कभी गांव में नहीं रहेगी। रहेगी शहरों में संदीप के साथ-साथ, जहां-जहां वह नौकरी पर जाएगा। भाई की बीबी नहीं, यह मेरी छोटी बहन बनकर रहेगी। मैं इसे हमेशा, बेटा कहूंगा...।
उनकी ऐसी बातें सुन मेरी मम्मी और पापा तो इतने प्रभावित हो गए कि संदीप को देखे बिना ही रिश्ता तय कर दिया। तब खुद मैंने भी उन्हीं में संदीप का अक्स देख लिया था। मैं तो उन्हें उसी दिन से भैया मानने और कहने लगी थी। लगा ही नहीं कि ससुराल जा रही हूं। लगा, खास भाई नहीं था सो परमात्मा ने छप्पर फाड़ कर दे दिया...।
घर में सब मुझे बहुत प्यार करते थे। घर की इकलौती बहू जो ठहरी। जेठ तो मुझे द्वादश बेटा कहते...। उनके मुख से कभी दूसरा शब्द ही नहीं फूटता। मैं भी उनको सदा भैया कहकर ही बुलाती! भैया ही समझती। एक राखी के त्योहार पर राखी नहीं बांधती तो क्या!
साल में एक बार पिताजी की पुण्यतिथि पर घर के सभी रिश्तेदारों को बुलाया जाता और पूरे गांव को भोज दिया जाता था। मेरे लिए ये दूसरा मौका था! पहली बार मैं नई नवेली दुल्हन थी और चुपचाप बिस्तर पर ही बैठी रही थी। लेकिन इस बार सारा काम मेरे जिम्मे था! जबकि शहर में खाली समय रहने और जाब की चाहत के चलते मैंने एक बहुत महंगा कोर्स ज्वाइन कर लिया था। प्रतिदिन तीन घंटे की क्लास थी। छुट्टी एडजस्ट करना मुश्किल था। फिर भी जाना था! उधर संदीप की ट्रेनिंग चल रही थी और ट्रेनिंग के बाद उनको महीने भर के लिए अमेरिका जाना था! हालात् ऐसे कि गांव की नर्स एक हफ्ते की छुट्टी पर थी, जिसकी वजह से भैया भी देवर के कारण गांव से लेने नहीं आ सकते थे! अंत में ये फैसला हुआ कि संदीप मुझे गांव छोड़ कर उसी रात लौट आएंगे! और भैया मुझे तीन दिन के बाद वापस लखनऊ छोड़ जाएंगे।
सुबह हमलोग पहुंचे और मैं काम में लग गई!
शाम को गांव को खाना खिलाने के बाद संदीप को रात की ट्रेन से दिल्ली निकल जाना था...। मैं पूरे दिन कामकाज में लगी रही थी। इससे मेरा पूरा बदन टूट चुका था। लगता था कि अब बेहोश हो जाऊँगी! मुझे दो बार चक्कर-से भी आए। पर संदीप को नहीं बताया क्योंकि वे परेशान हो जाते! जेठ डाॅक्टर थे। उन्हें अपनी समस्या बता दी। और उन्होंने बीपी लेने के बाद मुझे दो सफेद और दो गुलाबी टेबलेट्स दे दीं! सफेद वाली रोज रात और गुलाबी दिन में खाने के लिए!
घर में मेहमानों के कारण मुझे किचन के ऊपर का कमरा दिया गया था जो आँगन के दूसरी तरफ था। ऊपर दो कमरे थे। एक में जेठ और देवर को रखा गया था। और जेठ के न होने पर मैं इंजेक्शन दे सकती थी, इसलिए मुझे उनके बगल वाले कमरे में ही रखा गया था...।

संदीप के जाते ही मैं अपने कमरे में आ गई। देवर दूसरे कमरे में सो रहा था। उस दिन मैंने गुलाबी साटन की साड़ी और उसके काले बाडर्र से मैच करता ब्लाउज पहन रखा था। सास ने कहा भी था, बहुत सुंदर लग रही है...। जेठ की नजर पड़ी तो मां से बोले, उड़ के भाग रही है... आज तो नजर डाल देना इसकी! पति ने भी जोड़ा, आज तुम्हें सचमुच ही कोई उड़ा न ले जाए!
सिर में दर्द और हल्के-हल्के चक्करों के बावजूद प्रशंसा से अंदर तक मैं इतनी फूल गई कि जेठ के सामने ही पति से बोली, देखना, नहीं तो अमेरिका से लौटो तो पता चले, हाथों के तोते उड़ गए...!
सास ने कहा, ज्यादा ख्याली पुलाव न पकाओ, बहू हो, बहू की तरह रहो! इस पर जेठ ने झट से उन्हें आड़े हाथों ले लिया, कौन कहता है, बहू है! बेटा है मेरा, बेटा! पति वहीं खड़े थे। मजाक बनाते हुए बोले, हां-हां, ये आपका बेटा है और मैं बहू!
सुनकर सास खिलखिला कर हँस पड़ीं। तकलीफ के कारण उनके चेहरे पर जब तब ही हँसी आती थी। कुछ देर के लिए मेरे भी चक्कर थम गए, सिर हल्का हो गया था।
संदीप के चले जाने से विरह में व्यथित और थकान से चूर ऊपर आकर मैंने सोचा कि दवा खाकर थोड़ी देर लेटती हूं, फिर नाईट ड्रेस पहन लूंगी! क्योंकि मुझे पता था कि साड़ी में सोने से वह मिचुड़ जाएगी! पर दवा खाकर बिस्तर पर पड़ते ही कब नींद आ गई, पता नहीं चला!
करीब पांच बजे सुबह नींद खुली तो कुछ अजीब सा लगा... साड़ी कमर तक उठी थी और ब्लाउज के अंदर ब्रा ढीली पड़ी थी!
साड़ी और आँचल सम्भाल जल्दी से मैं बाथरूम भागी। पर वहां पैंटी उतारते ही चौक गई, क्योंकि वह उल्टी पिन्ही थी! मैंने जिन्दगी में कभी उल्टी पैंटी नही पहनी थी! ब्लाउज उतारा तो देखा कि ब्रा का सिर्फ एक हुक लगा है वो भी गलत जगह!
इसका मतलब था, किसी ने मेरा ब्लाउज और ब्रा खोली, पैंटी उतारी और वापस पहना दी!
मेरे तो होश उड़ गए!
कौन हो सकता है...? किसी ननद ने किया है या किसी मर्द ने! ताज्जुब इस बात का था कि मुझे पता नहीं चला!
किसी तरह इसी टेंशन में फ्रेश होकर नीचे उतरी, घर के कामकाज के लिए!

अंदर से बहुत डर गई थी। जिन्दगी में पहली बार मेरे साथ ऐसा धोखा हुआ था! किसी से कुछ पूछना या बोलना डूब मरने वाली बात थी। एक क्षण को सोचा कि अभी तो दिल्ली पहुंचे होंगे, मोबाइल पर उन्हें बताऊं! पर अगले ही क्षण लगा कि अभी तो क्या, मैं तो जिन्दगी भर उन्हें यह हादसा बताने का दुस्साहस नहीं कर पाऊंगी!
किचन से चाय लेकर निकली तो देखा, जेठ खेत से वापस आ गए थे! उन्होंने पूछा कि तबियत कैसी है, दवा टाइम पर ले रही हो या नहीं! मैंने हां में सिर हिलाकर झुका लिया और आगे बढ़ गई। दिल में अजीब सी घबराहट हो रही थी... कौन है वो, जिसने मेरे अंगों से ऐसा खेल खेला! औरत के नाते यह तो मैं दावे कह सकती थी कि मेरे साथ सेक्स नहीं हुआ। यह भी कि किसी पुरुष ने छुआ होता तो यहां तक पहुंचने के बाद छोड़ता नहीं! तो क्या चुड़ैल ननदों ने मेरे साथ ऐसा घृणित मजाक किया! कर भी सकती हैं... खास ही नहीं; चचेरी, ममेरी, फुफेरी, मौसेरी सभी तो हैं। घर भरा है। अवसर क्या है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं... खोइये पर उतारूं हैं। दिनभर हँसी-मजाक और स्वांग! गनीमत जो उन्होंने छाछ में गोबर घोल साड़ी में नहीं भर दिया...।
किसी भी काम में मेरा पूरा मन नहीं लग रहा था। सोच यहीं केंद्रित था कि मैं इतनी बेहोश कैसे हो सकती हूं? कि...मुझे पता नहीं चला! आज कोई पुरुष हाथ मार देता तो कहीं की नहीं रहती!
दिन भर रिश्तेदारों के साथ बातें होती रहीं। बहनोई लोग मुझी में रुचि ले रहे थे। इसी से बचती हूं। पर इस दिन तो आना ही पड़ता है। इकलौती बहू जो ठहरी। ससुर जी का दिन! इस दिन के लिए तो जेठ महीनों से तैयारी करते हैं। जैसे, ताजिए जिस रात गाड़े जाते हैं उसके अगले दिन से ही नए बनने लगते हैं...। उनकी जिंदगी यही है। इसी बहाने सबको इकट्ठा कर लेते हैं। बहन-बहनोई, बुआ-फूफा, मामा-मामी और दुनिया भर के रिश्तेदार...। ससुर जी तो कुछ कर ही नहीं पाए थे। असमय ही सभी को छोड़कर चले गए। जेठ ने ही चारों बुआओं को भात भरे। तीनों बहनों के हाथ पीले किए। उन्हें पछ दिए। वे सब उन पर जान छिड़कती हैं। श्वसुर की तो चर्चा भी नहीं करतीं! भैया से हिलने-मिलने ही आ जाती हैं इतनी दूर-दूर से।
सो, दिन में एक मिनट भी आराम करने का मौका नहीं मिला। हाथ-पांव बुरी तरह टूट रहे थे। सिर दर्द से फटा जा रहा था, सो अलग। कोई और चिकित्सीय मदद लेती, पर वे कोई सीरियस डिलीवरी कराने पड़ोस के एक गांव में चले गए थे। उनकी वापसी का कुछ पता न था। बोल कर गए थे कि रात को शायद आ भी न सकें!
देवर का मुझे ख्याल रखना होगा...।
पर शाम होते-होते मुझे बहुत ज्यादा थकान होने लगी। खाना मैंने शाम को ही खाया था, इसलिए रात को खाने की इच्छा न थी। सास ने कहा, थोड़ा रेस्ट कर लो, फिर खाना खा के ऊपर चली जाना। मैंने कह दिया, अब मैं रूम में जा रही हूं सोने के लिए, पेट भरा है, अभी तो खाया है! अन्नू की गोंगों सुन पड़े तो जगा देना...। थकान के मारे मरी जा रही हूं...मां!
उन्होंने कहा, जा! जरूरत आन पड़ी तो इंजेक्शन मैं किसी से भी लगवा दूंगी।

रूम में आकर आज मैंने बाकायदा कपड़े बदले और दवा खाकर बिस्तर पर लेट गई। कल कुण्डी नहीं लगाई थी, आज लगा ली और निश्चिंत हो सो गई। पर नींद में भी दिमाग में कल की बातें चलने लगीं। एक सपना आया जिसमें कोई कह रहा थाः
एक था भगवान, एक शैतान! दोनों में झगड़ा हुआ तो बहुत हुआ नुकसान! दोनों ने मिलकर निकाला समस्या का समाधान! एक खिलौना बनाया जिसका नाम रखा इंसान! शैतान ने अपनी ताकतें दीं- छल, क्रोध, घमण्ड और जलन! भगवान ने अपने अंश दिए- प्रेम, दया, क्षमा और सम्मान! तब भगवान से मुस्कराकर बोला शैतान! न तेरा नुकसान न मेरा नुकसान! मैं जीतूं या तू... हारेगा इंसान!
सोकर उठी तो पहले जैसा ताव न रहा। मुझे देखते ही सास ने कहा, मेहमानों की आज विदाई होगी। नाश्ते के झंझट में नहीं पड़ना, सीधा खाना बना लेना। खाने में भी दाल-भात नहीं, दो सूखी सब्जियां और पूड़ियां तल देना। वही खा लेंगे, वही बांध ले जाएंगे।
सुनकर अपने काम में जुट गई। एक-एक कर दोपहर तक सब लोग विदा हो गए तब खाने के बाद अपना बैग लगाते हुए सास से बोली, मम्मी, आज मुझे भी जाना है। कोर्स पिछड़ रहा है। तीन दिन का गैप हो गया!
उन्होंने कहा, हां! चली जा। निश्चिंत होकर जा...। कुलदीप ने मेरे और अन्नू के लिए कोई नई नर्स बुला ली है। क्लिनिक तो वो पुरानी वाली संभाल ही लेगी। जब तक संदीप नहीं आ जाता, वह तेरे साथ ही रहेगा।
-तब तक क्यों!? मैं बौखला गई, छोड़कर चले आयें, बस!
-अरे तब तक न सही, आठ-दस दिन तो! वो क्या अकेला छोड़ेगा तुझे!! आखिर जिम्मेदारी तो उसी की है ना!!!
सुनकर मुझे सांप सूंघ गया। प्रस्ताव उगलते बन रहा था, न निगलते। सिर झुकाए मैं उनके पीछे चल पड़ी।
...
अतीत में घुसे-घुसे जाने कब मुझे गहरी नींद आ गई! फिर होश नहीं रहा कि कौन हूं, कहां पड़ी हूं...।
गई रात सपना आया कि संदीप अमेरिका से लौट आये हैं और बगल में चिपट कर लेट गए हैं!
गई रात की कच्ची टूटती नींद में हाथ समूचे वदन पर सांप-सा रेंग रहा था...। और उसे कोई जल्दी नहीं थी क्योंकि यह हाथ संदीप का ही था। दूसरे किसी हाथ में इतना साहस कहाँ?
लेकिन जब चेहरा चेहरे से सटा तो दाढ़ी चुभने से पता चला कि यह तो कोई गैर है!
अर्द्धबेहोशी में भी कलेजा भय से धक-धक उठा, भैयाऽ! और कमरे में हल्की रोशनी तो थी, पर उनके आगे अपने आपको अब आंखें मूँद कर ही छुपाया जा सकता था...।
गेट चौकस मूँद कर सोई थी लेकिन वे फिर भी आ गए तो शायद, इसी चूक की बदौलत कि बाथरूम की कुंडी बेडरूम की ओर से लगाने की आदत न थी। वन बीएचके में वह इधर-उधर दोनों ओर से इस्तेमाल होने के लिए ही दो दरवाजों वाला था!
डर से वदन जब रह-रह कर काँप उठा तो उन्हें शक हो गया कि जाग गई हूं! थोड़ी देर के लिए हाथ शिथिल पड़ गया! और मैं समझी, बला टल गई! नींद का स्वांग किए मरी-सी पड़ी रही।
गैर मर्द के ख्याल से ही मन घृणा से भर गया था। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे साथ कभी ऐसा भी हो सकता है! सोच रही थी, अब मैं संदीप के सामने किस मुंह से जाऊंगी...। पश्चाताप हृदय को छलनी किए दे रहा था। ऐसा लग रहा था कि मैं संदीप को धोखा दे रही हूं! लेकिन मैं कर भी क्या सकती थी? उस दिन जब गांव में पहली बार इन्होंने और अब तो यकीन हो गया कि हां इन्होंने ही, नींद की गोली देकर मेरा वदन टटोला तब तो मुझे पता भी नहीं चला! अब अगर झटक भी दूँ तो दाग तो लग ही चुका दामन पर। शोर होगा, पड़ोसी जान जाएंगे, सब ओर बदनामी फैल जाएगी सो अलग...।
इसी सदमे थी कि ओठ उन्होंने ओठों पर रख दिए! तब लगा कि अब अगर जल्दी से कोई कदम नहीं उठाया तो अनर्थ हो जाएगा! पूरी हिम्मत जुटाकर मैंने आंख खोल दी, थोड़ी-सी, क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि मुझे उनका सामना करना पड़े!और वे बस इतने उत्पात पर ही अपना मुँह काला कर जाएं यहां से!
पर उनकी हिम्मत तो हिमालय से भी ऊंची थी! अब तो उन्होंने मेरे उरोज भी अपनी गिरफ्त में ले लिए थे! लगा कि अब भी नहीं झटक पाई तो सवर्नाश हो जाएगा! निश्चय कर वदन को मैंने सख्ती से इस तरह घुमाया, जैसे करवट ले रही हूं! लेकिन मेरी कोशिश के उलट उन्होंने मुझे कसकर दबोच लिया!
बड़ी शक्ति थी उस बंधन में! मैं रोने को हो आई। स्थित काबू से बाहर हुई जा रही थी। लग रहा था कि अब किसी भी क्षण ऊपर आ जाएंगे! संदीप के साथ मैं मरते दम तक बेवफाई नहीं कर सकती थी। हठात चीख पड़ी, ‘‘भैऽया, आपऽऽऽ!’’
लेकिन मेरी चीख में इतना जोर नहीं था कि वह पर्दे-सी पतली दीवारों या वेंटिलेशन के पार किसी अड़ोसी, पड़ोसी तक पहुंच पाती! और फिर उन्होंने भी तो झटके से अपना हाथ मेरे मुंह पर रख लिया था जिससे आवाज रूम के अंदर ही दब कर रह गई थी!

मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि वे मेरे साथ ऐसी नीचता भी कर सकते हैं! हैरानी की बात ये कि मेरे जागने के बाद भी उन्हें कोई डर या पछतावा नहीं था! मेरा मुंह अपनी हथेली से उन्होंने पूरा का पूरा बंद कर रखा था!
आंखें आंसुओं से भर गई थीं। आंसू ग्लानि के, पश्चाताप के और भरोसा तोड़ने के लिए बह रहे थे। पर उन्हें कोई गम न था, बोले, 'देखो द्वादश, अगर तुम चिल्लाओ नहीं तो मैं तुम्हारे मुंह पर से अपना हाथ हटा लूं! क्योंकि मैं तुम्हें रुलाना नहीं चाहता। याद करो, जब तुम्हारी विदाई हो रही थी और तुम जार-जार रो रही थीं, मैंने गोद में लेकर कार में बिठाने से पहले चुप कराने तुम्हें चूम लिया था!'
वाकया मुझे याद आ गया। पर तब बड़े भाई से भी दुगना प्यार उमड़ पड़ा था और मैं उनके सीने से लग हिचकियां भरते भरते हँसने लगी थी। पर इस वक्त मेरा मुंह अपमान से लाल पड़ गया था। हाथ के दबाब के कारण मुंह में दर्द भी हो रहा था। और मैंने आंखों से ही सहमति दी कि- 'नहीं', तो भी उन्होंने पक्का किया, चिल्लाओगी तो नहीं? तब जैसेतैसे गर्दन हिला मैंने 'ना' कहा, पर उन्होंने तब भी पूछा, प्रॉमिस? और हाथ थोड़ा ढीला किया तो मैंने रुंधे कंठ से कह दिया, 'प्रॉमिस!'
इस पर हाथ तो उन्होंने मुंह से हटा लिया पर वदन, वदन से दबाए रहे! तब परिस्थिति-वश मैं दबी जुबान गिड़गिड़ाने लगी,, 'भैया, आप ये क्या कर रहें हैं... मैं आपके छोटे भाई की बीबी हूं, आप मेरे लिए पिता समान हैं! प्लीज, आप ऐसा मत कीजिए मेरे साथ! मुझे छोड़ दीजिए... मैं कभी किसी से नहीं कहूंगी कि आपने मेरे साथ क्या किया...।'
मगर वे दम लगाकर ऊपर आ गए और हाँफते हुए कहने लगे, 'ए...ई! हम एक चिकित्सक के अनुभव से बता सकते हैं.. वीर्य-सृजन से पुरुष को असहनीय तनाव होता है...हम पर पागलपन छाता जा रहा है, क्या करें...!'
-भोग लो...' रुँधे कंठ से मैं रोने लगी, 'क्या बिगाड़ लूंगी! इधर-उधर कहूंगी तो सब यही बोलेंगे कि बहू में ही खोट होगी, नहीं तो जिस आदमी ने परिवार की भलाई के लिए ब्याह नहीं किया, बाप मरने के बाद भाइयों को बेटा, बहनों को बेटी माना...वो छोटे भाई की बीबी के साथ ऐसा पाप करेगा!'
पर इस ताने पर भी कामांध जेठ की आँख न खुली। वे मुझे नष्ट करके ही माने...।
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