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मेरी प्रिय कहानियां

(एक)
मकान

....कि एक औरत थी। एक ऐसी औरत, जो दुर्भाग्य की चादर ओढ़कर इस धरती पर आई। कि जिसने मां के दूध की मिठास नहीं चखी- उसकी मादकता नहीं जानी। एक आंचल में छिपकर दुनियां का सर्वोत्तम आनंद नहीं उठाया। हां! उसकी मां उसे जनते ही मर गई थी। और मां के साए के बगैर भी वह पली-बढ़ी, पिता के कठोर अनुशासन में। ऐसा बहुतों के साथ होता है,उसके साथ भी हुआ। किशोरी हुई और पलक झपकते ही युवती। पिता ने खाते-पीते घर में ब्याह दी। पति हिन्दुस्तानी फौज में एक अदद सिपाही था। महीने भर की छुट्टी ले आया ब्याह रचाने। पर पन्द्रह दिन बाद ही उस नवपरिणीता की भीगी पलकें पोंछकर चलता बना। और ऐसा गया कि फिर नहीं लौटा.... वे 1962 के दिन थे।
तो, मां के साए से महरूम औरत अब पति के साए से भी महरूम हो गई थी। इसे भी वह झेल लेती, शायद! लेकिन बात उड़ने लगी.... और उड़ते-उड़ते पूरे गांव में मधुमक्खी-सी चिमट गई कि उसे गर्भ रह गया है! जाने, लाल जोड़ा पहनने के बाद कि पहले!
राजदार तो चला गया। लोगों की जुबान कौन सिले? जुबान बाहर वालों की सिली जा सकती है। लेकिन घर में सास-ननद की उपेक्षा और ताने-टहूकों का क्या जवाब था उसके पास? कैसे समझा पाती कि वह किस नामालूम विपत्ति की शिकार हो गई?.... पिता के नियंत्रण ने कभी सहेलियों के बीच भी एकांत के क्षण नहीं गुजरने दिये थे। पर, इस बात पर यहां कोई यकीन नहीं करेगा। सच तो लोग स्वीकारते नहीं हैं,जान चुकी थी वह। उसने अपने पिता को मिन्नतों भरा खत लिखा। लिखा कि तुम्हें भी विश्वास न हो तो हलाल कर दीजो.... पर मुझे इस कैद से छुड़ा लो! मैं अपनी मां की कोख से जन्मी, यही अपराध था मेरा।.... अब इस अपराध की और कितनी सजा दोगे मुझे?...’
पर कुछ भी हो और कैसा भी खत गया हो,उसका पिता एक भारतीय बाप था...जो लड़की के जन्म का साथी होता है, भाग्य का नहीं! सातवें फेरे के बाद उसका भार सर्वथा उतर जाता है। बेटी जियो तो अपने भाग, मरो तो अपने भाग! तो उस औरत ने प्रसव तक का समय गर्दन झुकाए-झुकाए काटा कि कहीं चांद-तारों ने भी भेद भरी मुस्कान बिखेर दी तो क्या कर लेगी वह!
बुरा या भला कैसा भी हो, समय तो हमेशा पर लगा के उड़ा किया है। औरत अपने प्यार, समपर्ण या रिवाज की सौगात सहेजे शहीद कॉलोनी के क्वार्टर में आ बसी। मायके ने उसे छोड़ा, वह ससुराल छोड़ आई थी। पति की विरासत, पेंशन और क्वार्टर उसकी नाव खे सकते थे। वह आश्वस्त थी। फिर भी एक लक्ष्य चिडि़या की आंख उसके आगे थी...। सो, बेटे को ज्यादा से ज्यादा सपूत बनाने के लिये उसने सिलाई सीखी, बुनाई सीखी और अपनी जवानी को ताक पर रखकर मजदूरों की भांति कठोर श्रम किया। इतना कि उसका बेटा एक अच्छे स्कूल में पढ़ सका। बहुत ऊंची दस्तकारी सीख सका। और जवान होकर उसके पति-सा सुर्खरू और कद्दावर मर्द बन सका।.... उसकी रगों में निस्संदेह अपने बाप का खून था। पर उस खून को पकी किन्दूरी-सी रंगत और यान के इंजन-सी तेजी उस मेहनतकश औरत की जवान उम्र ने दी थी। कि वह उसे सहेजते-सहेजते लगभग चुक गई थी। मगर औरत के चेहरे पर अब संतुष्टि का घृत चमकता था। वह अपने बेटे को आंचल में छिपाकर सोती तो इतनी शांत होती मानो सांझ का संकेत पाकर बरगद के नमूदार पत्ते यकायक निस्पंद हो गये हैं। कि बेटे को पोर-पोर ढंक लिया है उन्होंने, जिससे वह धरती की धड़कन तक न सुन सके! सितारों की पदचाप से कहीं उसके सतरंगी सपने न टूट जाएं! हवा की नजर न लग जाय उसे...।
गुजरे क्षणों का व्यूह कभी भावी सुख बनकर आता है और आदमी भूल जाता है कि दुख कैसा था? वह था ही नहीं। वह जो भी था भ्रम था। सच आज है, उसके सामने खड़ा है- सुनहरा चमकदार! औरत ने अपनी सहेली की एक बिटिया, बेटे के लिए चुन ली थी। अलबत्ता, उन दोनों की छाया उसे अंगुल अंगुल ढंक लेगी, और वह भूल जाएगी कि वह वही औरत है, जिसे बचपन में माँ की गोद नसीब नहीं हुई और जवानी में पति का प्यार। वह अपने पोते-पोतियों के माध्यम से अपना बचपन जियेगी। अब घड़ी आ गई है। वह आत्मविभोर-सी पके अमरुदों का गुच्छा देखती रहती। यह पेड़ उसके बेटे की उम्र का था। एक दिन उसने मन की बात कह दी। कह दी कि मुझे एक बहू की सख्त जरुरत है।... तुम्हारी पढ़ाई-वढ़ाई पूरी हुई, अब कोई काम देखो। मेरी जगह लो...और मैं तुम्हारी लूँगी।’
बेटे नेे कंधे से झूलती अपनी माँ को परे सरका दिया। शायद! संकोचवश। प्रोढ़ा के सौम्य चेहरे पर लाज की हल्की लाली उतर आयी। उसे लगा कि उसकी उम्र अचानक कई वर्ष पीछे खिसक गई है। और उस बिन्दु पर जाकर ठहर गई है, जहाँ उसने पहली और आखिरी बार एडियाँ रचीं थीं।... वह आत्मविस्मृत सी अपना ही चेहरा हथेलियों में लिए खड़ी रही। बेटा अपने काम से निकल गया। औरत का मन पूरे वेग से हुमक उठा। उसने सहस्रों बार दोहराया, ‘बैठो-बैठो कौशिल्या की गोद... रामचंदर दूल्हा बनो।...’ गोया, उसे अपनी सहेली की लड़की बहू के रूप में दिख रही थी।
सांझ गई, रात ढली और फिर अगले दिन का नया सूरज उसके आंगन में लाठी टेके खड़ा था। औरत ने रात के सपने में बार-बार एक ही दृश्य देखा कि इसी पौष में अचानक एक सहालग निकल आया है। दौड़ी-दौड़ी वह सहेली से कह आयी है। शहीद कालोनी के क्वार्टर में पहली बार ढोलक की थाप गूंज उठी है... और वह किसी ब्याहुली सी ठुमक-ठुमक कर नाची है रात भर...!
मगर वह सपना था। हकीकत में तो उसका अपना बेटा उसके सामने खड़ा था और बेटे से सटी खड़ी थी एक हाईफाई लड़की... जिसके कंधे से झूलता काला बटुआ, विदेशियों-सी पोशाक और छोरों से छोटे-छोटे बाल देख औरत हतप्रभ रह गई। और बेटे ने धीमे किन्तु निर्णायक लहजे में आशीर्वाद मांग लिया! ....कि रूबी तुम्हारी बहू है, मां! हमने कल कोर्ट मेरिज कर ली है।... शाम की फ्लाइट से हमें गोवा जाना है। क्योंकि- रूबी का प्रशिक्षण भी पूरा हो चुका है...और इनके मां-बाप से आशीर्वाद भी लेने।....’
इतना कह बेटा तो चुप हो गया। और कहता भी क्या, और किससे? उसकी मां, यानी वह औरत जो भाग्य की डोरी से लटकी अब तक कठपुतली सी नाचती रही थी, अचानक जड़ हो गई। फिर भी बेटे के जाते-जाते उसका पल्लू आंसुओं से भीग गया। वही आंसू जो उसने अपनी मां की मृत्यु पर नहीं बहा पाए, पति की वरदी लौट आने पर भी जिन्हें सहेजे रही...आज काम आ गये थे। उसका सारा धैर्य और शक्ति जिन आंसुओं में कैद थी, आज बह गए...। बेटे ने पैर पकड़ कर समझाई कि इस शहर में मेरी प्रगति रुक जाएगी, मां! हम पर रहम करो। हमें अपना दाना चुगने दो। हमें एक नया उद्यान खोजने का अवसर दो! पैरों में मोह की जंजीर मत बांधो। कितने ही लोग हैंे दुनिया में.... अपना मन रमाने के लिये कोई किराएदार रख लेना।’
बात आई-गई हो गई। सहसा बीस बरस बाद औरत फिर एक बार निपट अकेली पड़ गई थी। उसका बूढ़ा खून खांसी की तरह रुक-रुक कर चलने लगा था। अब उसके पास जेठ के दिन और पौष की रातें थीं। और था इस खाली समय को भरने अतीत का लेखा-जोखा! मां-बाप,पति और बेटे द्वारा सौंपी गई निर्मम यादें। उसकी क्यारी के फूल मुरझा गये थे। गोकि उन्हें सींचना छोड़ दिया था उसने। शहतूत का पेड़ चांदनी रात में भी विराट दाने-सा रूप धरकर उसे कंपा देता। इस बार फरे अमरूद बहुत कसैले थे।
और इन सबसे घबराकर जब वह अपनी डोर ईश्वर से बांधने हरिद्वार जाने वाली थी,तो उसके दरवाजे ने सहसा आवाज दी, ‘माताजी, किवाड़ खोलो...’
उसने आंखें फाड़ कर महसूस किया कि वह जाग रही है। उसने गर्दन झटक कर विश्वास जगाया कि वह दिवास्वप्न नहीं देख रही है। और उसने बढ़कर चिटकनी उतार दी। एक पल को तो रोमांचित हो उठी कि बेटा सामने खड़ा है! फिर बूढ़ी आंखों को खुद पर रहम आया.... पसोपेश में पड़ी वह खड़ी रही। अगर कुछ कहती तो गला भर्रा जाता। आगन्तुक ने विनम्रता से पूछा, ‘आपका मकान खाली है? मैंने सुना था।...’
औरत खामोश खड़ी रही। सिर्फ ना में गर्दन हिला दी। युवक गलत खबर पाने का अफसोस जाहिर करके चला गया। तब वह सोचती रही कि जिन्हें मकान दिया था, वे छोड़कर चले गए.... तुम यह बीरान मकान लेकर क्या करोगे बेटा? कितने दिन रहोगे इसमें! ईंट-पत्थर का ही नहीं, मेरे तो हाड़-मांस का भी मकान खाली है। पर, यह किसी को रास नहीं आया। ईश्वर ने इसे निर्जन खण्डहर रहने के लिए ही बनाया था, शायद!
कहने को तो कह दिया और युवक चला भी गया। लेकिन औरत को उस रात नींद नहीं आई। वह बराबर सोचती रही कि हरिद्वार जाकर भी मन रमेगा?.... उन अपरिचितों के बीच भला कब तक खुद को गुमराह करेगी।.... जिन्दगी कोई पल भर का सवाल नहीं है। न जाने कितनी लंबी उम्र काटना पड़े। इस तरह भला भटकने से सुख मिलता होता तो सारी दुनिया भटक गई होती। कुछ भी हो, उसे मन मार के यहीं रहना होगा! जब मौत के ही दिन पूरे करने हैं, तो क्या उत्तर और क्या दक्षिण! नहीं,अब वह कहीं नहीं जाएगी!
एक निश्चय हुआ और जैसे, उधार-सी जिंदगी शुरू हुई। औरत बाजार से जरूरत का सामान खरीद रही थी। जिस दुकान से सामान खरीद रही थी उसी दुकान की गद्दी पर बैठा एक युवक गर्दन झुकाए डेस्क पर फैले बही-खातों में बुरी तरह भिड़ा था। औरत ध्यान से देखती रही। वह पहचान गई थी कि जिसे उसने मकान नहीं दिया था, ये वही लड़का है।
थोड़ी देर बाद युवक ने आंखें उठाईं। वह चौंका, ‘माताजी आप....’ पर आगे नहीं बोल पाया। औरत ने बात काट दी, ‘तुम्हें मकान मिल गया बेटा?’
‘अभी नहीं....’
‘फिर कहां रहते हो?’
‘होस्टल में.... वह दूर पड़ता है, फिर रात की बंदिश भी है। पार्ट टाइम जॉब करता हूं... ट्यूशन भी! आपका मकान खाली हो गया, क्या?’
औरत फिर एक बार खामोश रह गई। काश, उसका अपना बेटा भी इसी लड़के की तरह कुछ भी करके अपने देश में ही,उसके पास बना रहता।....
‘मकान खाली हो गया?’ लड़के ने उत्साहहीन स्वर में फिर पूछा।
औरत अचकचाई। पर भीतर का सच अनायास चेहरे पर आ गया कि मकान खाली हुए एक युग बीत गया.... कौन है,जो उसे आबाद करे!’
और अगले दिन, अपनी छोटी-सी गृहस्थी- सिर्फ एक बिस्तरबंद और किताबों का झोला लेकर लड़का उसके मकान में आ बसा!
एक खिड़क में रहते-रहते दो जानवर भी अपना मरखहापन छोड़ देते हैं, तिस पर वे इंसान थे। ऐसे इंसान जो अतृप्त थे। कि उनका स्नेह घट सूख जरूर गया था, पर उखटा नहीं था। औरत उसका भोजन बना देती और अपने हाथ से परोसकर खिलाती तो युवक को लगता कि अम्मा ने उसमें अपना हृदय उंड़ेल दिया है।... तभी इसमें इतनी मिठास है! वह आत्मविस्मृत-सा सोचता, हो न हो यही औरत मेरी सगी मां हो! इस जन्म की न सही, पिछले की...। लेकिन इस राज को वह राज ही बनाए रखेगा। और अब संयोग से मां मिल गई है,तो उसका दामन नहीं छोड़ेगा किसी कीमत पर।....
महीने पर उसने डरते-झिझकते अम्मा की हथेली पर कुछ रुपये रखे। मकान किराया। औरत ने प्रश्नसूचक नजरों से देखा। फिर हँसकर बोली, ‘इतने से काम नहीं चलेगा.... घर खर्च कैसे चलाती हूं, मुझसे पूछो?...’
लड़का अपनी पहल पर शरम से नज़रें चुराने लगा। पॉकेट से कुछ और रुपये निकाले। अपनी हिचक छुपाने चढ़े स्वर में बोला, ‘अभी इतने रख लो, फिर और कमाऊंगा तब दूंगा।’
‘इन्हें तू ही रख,’ औरत ने बात पलट दी, ‘पेंशन बंधी है मुझे तो।’
लड़का हार गया उसकी हेकड़ी के आगे। ममता के आगे कौन नहीं हारा! औरत के चेहरे पर रौनक वापस आने लगी। उसके आंगन के पीले-पीले अमरूदों पर लाल-लाल चित्तियां पड़ने लगीं। गुलाब का चेहरा पुरजोर गुलाबी होकर उसके हृदय-सा दमकने लगा। शहतूत फिर लद गया, नन्हें-नन्हें, खट्टे-मीठे फलों से।.... और औरत बड़ी करुणा से प्रार्थना करने लगी अपने विधाता से कि अब कोई उससे यह लड़का न छीने, भले ही उसकी उम्र की एक-दो दहाई हटा दे...’
हां, वह लड़का भी बड़ा अजीब था। गरमियों की छुट्टियों में भी अपने घर नहीं लौटा। मां-बाप न सही, चचा-ताऊ तो होंगे! आखिर कोई न कोई तो होगा! लेकिन नहीं,और हर्गिज नहीं। वह अम्मा का साथ एक पल को न छोड़ता। कैसी विचित्र बात थी कि उसने अम्मा के साथ बड़ी-पापड़ बनबाए। सारी-सारी दोपहरी बिना पलकें झपकाए रंग बिरंगी दरियां बुनवाईं।... अपने साथ गेेंहू बिनवाते और रोटियां तक सिंकवाते देख औरत ने बनावटी रोष से टोका, ‘‘तुझे तो लड़की होना चाहिए था... किसी का घर तो मढ़ता।’
लड़का मुस्कराकर टाल गया।
‘मेरा इतना ही ख्याल है तो बहू क्यों नहीं ले आता?...’
औरत ने एक बार फिर डरते-डरते अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी। लेकिन लड़का फिर मुस्कराकर टाल गया। कुछ रोज के अंतराल के बाद औरत ने फिर कहा, और लड़का फिर टाल गया। आखिर जब वह हाथ धोकर पीछे ही पड़ गई तो उसने लड़कियों की तरह मुंह छिपाकर लाज से भीगी कांपती आवाज में कहा, ‘तुम कोई लड़की तो ढ़ूंढ़ो।...’
और औरत के चेहरे की रंगत बदल गई... कि उस पर लाल-पीले टेसू और सेमल के फूल खिल गए। उसका दिल बल्लियों उछलने लगा... कि उसमें ढोल-तांसे और मृदंग बज उठे! वह चादर ओढ़कर दौड़ी-दौड़ी फिर गई एक बार अपनी सहेली के घर और अपनी बहू को अंक में भर कर बेहोश होने लगी। शहीद कालोनी का वह क्वार्टर बंदनवारों से सज गया। देखते-देखते वह बहू-बेटे की हो गई। उसने अपुर्व हिलोरें ले-लेकर फिर गाया वह गीत, ‘बैठो-बैठो कौशिल्या की गोद... रामचंदर दूल्हा बनो।...’
औरत! भूल गई...कि कभी वह बिन माँ की बच्ची थी। कि उसका पति सिर्फ एक रात का मेहमान बनकर इस दुनिया से उठ गया था। कि उसका बेटा राजगद्दी के लोभ में उसकी कुटिया तज गया था।... वह अपने मुँह बोले बेटे और बहू की बलैयां लेती थकती नहीं थी। उसकी क्यारी के मुरझाए फूल फिर से प्राकृतिक रंगों का बाना धरकर पराग बिखेर उठे थे। स्वर्ग के सारे सुख उतर आये थे उसके आंगन में। बेटा सपूत था। जो भी कमा कर लाता, उसकी हथेली पर धर देता। बहू लक्ष्मी थी। घर यत्न से संभालती और दिनारंभ सास की चरणवंदना से करती थी।
अब औरत की एक ही तमन्ना शेष थी कि जल्दी से पोते का मुँह देखे और अपना बिसरा बचपन दोहराये। जीवन का आखिरी मकसद और संपूर्ण जीवन की मधुर साध इसी अलभ्य फल को पाने की होती है। यौवन ढलने के बाद ममता के फिर नये अंकुर फूटते हैं। कैसी विडम्बना है भाग्य की? औरत इसी मुराद को पाने अगणित कल्पनाएं जुटाने लगी।
...और तब एक दिन उसके अपने बेटे का खत आया। लिखा था, ‘प्यारी अम्मा! तुम्हें जानकर खुशी होगी कि हम तुम्हारे पास लौटकर आ रहे हैं।... समुद्र का जल स्तर अचानक बढ़ने लगा है... शहर खाली कराया जा रहा है... धंधे-रोजगार चौपट हो गए हैं... अगर तुमने किराएदार रख लिया हो, तो उसे निकाल देना।...’
पत्र की इबारत पढ़ते ही उसे गश आ गया। औरत अपने पलंग पर ढह गई। गोया,अचानक उसके शहतूत की पत्ती-पत्ती झर गई थी।
उस सुबह सूरज की सुनहरी किरणें उसके आंगन में नहीं फैली थीं... उसके क्वार्टर के भीतर और बाहर जमा लोगों के चेहरों पर हैरत, आंखों में आंसू थे। और शहीद कॉलोनी का वह क्वार्टर उसके मुँह बोले बेटे और बहू की करुण सिसकियों से गूंज रहा था।
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(दो)
इस्तीफा

इजलास में ज्योंही दाखिल हुआ, मुलाजिम उठकर खड़े हो गए। आसंदी पर बैठा तो रीडर ने पेश होने वाले मुकद्दमों की फाइलें डाइज पर लाकर रख दीं। सबसे ऊपर ट्रेफिक मैन द्वारा काटे गए एक चालान की फाइल थी। केस था- एक साइकिल सवार पर जुर्माने का। मैंने मुस्कराकर गर्दन हिलाई कि यह भी खूब है! तभी सरकारी वकील ने आकर अभिवादन किया। मैंने विहंसते हुए कहा, पीपी साब! यह भी कोई मुकद्दमा है?' इस पर वह भी हं-हं-हं कर हंसने लगा।
-ठीक है, पेश करो!' मैंने रीडर से कहा।
चपरासी गैलरी में जाकर हांक लगाने लगा- नारायण राव हाजिर हो ऽ... '
इस बीच मैंने काले कोट वाले पीपी से पूछा- कोई एक्सीडेंट किया है, इसने?'
-नहीं जजसाब!'
-फिर?'
-बिना ब्रेक की साइकिल चला रहा था, चौराहे से गुजरा तो ट्रेफिक मैन ने पकड़ लिया।'
-बस!' मेरे मुंह से निकला। तब तक मुल्जिम नारायण राव कठघरे में आकर खड़ा हो गया। मैंने एक उड़ती-सी नजर डाली, कमीज-पायजामा धारी वह एक साधारण आदमी था। नजरें झुकाकर मैं फाइल पढ़ने लगा। मुल्जिम का पेशा पढ़ते ही झटका-सा लगा! नजरें उठाकर उस पर गड़ा दीं और अचानक फट पड़ा:
-शर्म नहीं आती ऽ... अध्यापक होकर कायदे का पालन नहीं करते? बिना ब्रेक की साइकिल चलाते हो... विद्यार्थियों को क्या कायदा सिखाते होगे? टयूशन खोरी करते होगे... पीढि़यों को बरबाद कर रहे हो...।'
अध्यापक नारायण राव जो कि पहले बेफिक्र खड़ा था, बात सुनते ही सहम गया। मैंने रीडर से कहा, एक मोटी-सी नोटबुक मंगाओ!'
ट्रेफिक मैन की गवाही जरूरी नहीं समझी। वह भीगी बिल्ली बना खड़ा था। पीपी भी मेरे तेवर देख सतर्क हो गया। वैसे भी शोर था कि नए जजसाब सख्त हैं। नया खून है, नया जोश। नोकरी का नया-नया नशा। किसी को बख्शते नहीं। इजलास में सिर्फ सांसों की आवाजें रह गई थीं। रीडर नोटबुक ले आया तो मैं उसकी मोटाई उंगलियों से नाप उसी को वापस करते हुए बोला, मुल्जिम को दे-दो, साथ में एक नया डाॅटपेन भी। फिर मुल्जिम से बोला, इस पर लिखो- जीवन में अब कभी कोई गलत काम नहीं करूंगा...।'
सुनते ही वह शायद, यह सोचकर मुस्करा पड़ा कि यह कौन-सी बड़ी सजा है? तभी मैं दहाड़ा- खबरदार ऽ! जो नोटबुक की एक भी लाइन छोड़ी... एक भी पेज खाली छोड़ा... इसे पूरा भरिए, आपकी यही सजा है ऽ।'
सुनते ही उसका मुंह फक पड़ गया। फाइल मैने रीडर को वापस कर दी। उसने ट्रेफिक मैन को बुला हस्ताक्षर ले लिए और उसे वापस जाने को कह दिया। पीपी दूसरे मुकद्दमों की सुनवाई कराने लगा। इस दौरान मैं नजर उठाकर देख लेता कि पिछली बैंच पर बैठा मुल्जिम नोटबुक भर रहा है या नहीं!

बीच में लंच ब्रेक हुआ। मैं अपने केबिन में जा बैठा। किसी को पता नहीं था कि ऐसी अनोखी सजा मैंने अध्यापक को क्यों दी? दबी जुबान लोग कह रहे थे, साब सनकी हैं। जबकि घटना सनक से नहीं, मेरे विद्यार्थी जीवन से जुड़ी थी। तब मैं दसवीं में पढ़ता था। इम्तिहान बोर्ड का था। मेरा मैथ पिछड़ रहा था। पिछड़ने का कारण मैथ वाले सर थे। मैंने पिताजी से कहा कि- मेरा गणित पिछड़ रहा है।'
-क्यों?'
-सर क्लास में मैथ नहीं करा रहे।'
-क्यों?'
-ट्यूशन पर पढ़ा देते हैं।'
-तुम पर गणित की किताब तो है?' उन्होंने आंखें निकालीं!
-हां!' मैंने गले का थूक घोंटा।
-उसी से कर लिया करो!' उन्होंने हाथ झाड़ लिए।
मैं मां से जा रोया, मुझे कुछ प्रश्नावलियां नहीं आरहीं...' उन्होंने पिताजी से कहा। और वे मां पर भी बरस पड़े, नहीं आ रहीं, क्या मतलब ऽ... दो दूनी चार होते हैं या तीन और पांच? ये पहले से पिछड़ रहा होगा, गणित तो रेल की तरह है जो स्टेशन से एक बार छूट गई तो फिर छूट गई... मिडिल से पिछड़ रहा होगा!'
-नहीं... कोर्स बदल गया है', मैं मिमियाया, 'मुझे टयूशन लगवादो... मेहनत करके कवर कर लूंगा।'
-हम तुम्हें स्कूल पहुंचा रहे हैं, कहीं काम पर नहीं लगा रहे, यह क्या कम है...?' वे उखड़ गए।
दिल बैठ गया मेरा। मां ने समझाया, गरीबी है, बेटा! बड़ी मुश्किल से गुजर हो रही है...' उसने आंखें भर लीं। और मैंने कहा, एक मुसीबत नहीं है, मां! होमवर्क न होने पर सर क्लास से निकाल देते हैं...।'
-तू दोस्तों से कांपी मांग लिया कर...' वे साहस देते हुई बोलीं।
-दोस्त देते नहीं... एक ने दी तो सर ने उसे भी डांट दिया। वे सभी पर ट्यूशन के लिए प्रेशर बना रहे हैं... मैं रुआंसा हो आया।'
मां ने सुझाया कि प्रिंसिपल साब से कहूं। और मैंने हिम्मत कर एक दिन उनसे कहा, सर! मेरा मैथ पिछड़ रहा है...'
-उन्होंने डांटते हुए पूछा, क्यों?'
-वो-सर! मैथ वाले सर कोर्स क्लास में नहीं करा रहे...' कहते मैं हकला गया।
-खन्ना सर!' आंखें निकाल कर उन्होंने पूछा।
-जी, सर!' कहते मेरी घिग्घी बंध गई।
-क्यों ऽ..?' वे मुझी पर दहाड़े।
-पता नहीं सर, आप...' मेरा बोल रुक गया यह कहते कि आप पूछ लो और भाग पड़ा। और वे पीछे ही क्लास में आ गए! पूरी क्लास और खन्ना सर उन्हें देखते ही खड़े हो गए। सिर्फ सांसों की आवाजें रह गईं। प्रिंसिपल साब सख्ती से बोले, खन्ना सर!'
-जी-सर!'
-इसकी शिकायत है कि आप पढ़ा नहीं रहे?'
-इसे छोडि़ए सर, बाकी क्लास से पूछिए...।' फिर वे लड़कों की ओर इशारा कर बोले, क्यों भई, गणित अनकम्पलीट है तुम्हारा?'
-नहीं सर ऽ! सब एक स्वर में चीखे।'
मुझे ताज्जुब हुआ कि वे लड़के भी चीखे जो मेरी तरह ट्यूशन नहीं लगा पा रहे थे और मैथ उनका भी पिछड़ रहा था। होम वर्क पूरा न होने से क्लास से उन्हें भी बाहर कर दिया जाता...।
खन्ना सर ने कहा, प्रिंसिपल सर को कांपी चैक कराओ अपनी...।'
सुनकर लड़कों ने अपने-अपने बस्तों से कांपियां निकाल कर सर की टेबिल पर ढेर करदीं। डर के मारे मैं दीवार से चिपक गया। प्रिसिपल साब मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरते हुए बाहर निकल गए। उसके बाद खन्ना सर ने एक अत्यन्त कठिन सवाल ब्लैक बोर्ड पर लिख दिया, बोले, जो छात्र इसे हल न कर पाए, खुद मुर्गा बन जाए। मेरे साथ आठ और लड़के जो ट्यूशन नहीं जाते थे, चुपचाप मुर्गा बन गए। उसके बाद हम लोगों पर दो-दो ईंटें मंगाकर रख दी गईं।
अगले दिन से मैथ का पीरिएड छोड़ दिया मैंने। परिणाम बुरा निकला। मैथ में मेरी बैक आ गई। हाईस्कूल किसी तरह निकाला, इंटर में मैथ छोड़ दिया मैंने। आईटी का सपना चूर हो गया। आगे चलकर बीए और लाॅ के सिवा कोई रास्ता न बचा।

लंच के बाद डाइज पर पहुंचा तो अध्यापक महोदय नोटबुक भरते मिले। मैं अन्य केसों में लग गया। अदालत उठी तो मैंने बैंच खाली देख रीडर से पूछा, मुल्जिम चला गया ?'
-जी, सर!' वह उठकर मेरे पास आ गया, मुस्कराता हुआ बोला, नोटबुक पूरी भरकर दे गया है।'
बात आई-गई हो गई। पर तीन-चार दिन बाद अचानक सपने में मुझे खन्ना सर दिखाई दिए। अदालत आकर रीडर से मैंने अध्यापक नारायण राव द्वारा भरी गई नोटबुक मांगी तो उसने रिकार्ड से निकाल कर नोटबुक मुझे पकड़ा दी। खोल कर देखी। उसका हर पेज लिखावट से भरा था... प्रत्येक पेज और प्रत्येक लाइन पर वही एक वाक्य लिखा था- जीवन में अब कभी कोई गलत काम नहीं करूंगा।
खन्ना सर के खिलाफ मन में जो गुस्सा भरा था, वह बदले के रूप में निकल गया। यह क्या हुआ...? नारायण राव उनकी तरह काइयां तो न थे। न शहरी। सीधे-सादे देहाती लग रहे थे...। सोच-सोच कर मन बेचैन हो उठा। शाम को नोटबुक रीडर को लौटाते मैंने कहा, फाइल से इनका पता लेकर चपरासी को दे, दो। बुलवालो।'
सोचा था, वे आजाएंगे तो माफी मांग लूंगा। तभी इस अपराधबोध से निजात मिलेगी...। लेकिन चपरासी अगले दिन भूल गया। उसके बाद दो दिन की छुट्टी थी। स्कूल कचहरी सब बंद। यों हप्ता बीत गया। सोते-जागते उसी एक बात का ख्याल रहता। अगले वर्किंग डे की शाम चपरासी से पूछा, अध्यापक महोदय मिले...?'
-नहीं, सर! हेडमास्टर ने बताया कि अध्यापक नारायण राव तो इस्तीफा देकर अपने गांव चले गए।'
सुनकर पांव तले की जमीन सरक गई। नोटबुक रीडर से पुनः मांग मैंने अपने ब्रीफकेस में रख ली। बंगले पर लौट रात के एकान्त में फिर से खोलकर देखी। आधी के बाद पन्ने बूंटों के आकार में सिकुड़े थे। लिखावट उन हिस्सों पर बिगड़ गई थी। फिर एक झटका-सा लगा मुझे कि यहां उनके आंसू गिरे थे...। उंगलियां उन्हें टटोल उठीं। मन विकल हो गया। बमुश्किल नींद आई। अगले दिन बाबू को जिला शिक्षा अधिकारी के यहां भेज अध्यापक महोदय का स्थाई पता मंगवा लिया।
क्या कहूं- किसी करवट चैन न था। गांव उनका तीन-चार सौ किलोमीटर दूर। जिम्मेदार पद पर था। मुंह उठाकर एकाएक न जा सका। पर नोटबुक रोज उठाकर देखता और पन्नों पर बिखरे सूखे आंसुओं पर उंगलियां फेर आहत होता। मन ही मन देर रात तक माफी मांगता। कोई सुनता तो हंसता। सो, मन की व्यथा मन में ही दबाकर रखता। बेचैनी दिन-प्रति-दिन बढ़ती ही जा रही थी।

तभी चार दिन का एक मुश्त अवकाश हाथ लग गया। मैंने उनके गांव जाने की ठान ली। वह कोई सरकारी यात्रा न थी, न पारिवारिक! सो, मैंने किसी को नहीं बताया। चल पड़ा सूबे के अत्यन्त पिछड़े इलाके में, जहां उनका गांव था। जहां के रहवासी जीवन-यापन के लिए भी मोहताज थे। आजादी के 68 सालों बाद भी जहां सड़क, बिजली, स्कूल, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाएं न थीं...। मैं किसी तरह डेढ़ दिन की यात्रा के बाद वहां पहुंचा तो पता चला, शिक्षक नारायण राव गांव में नहीं हैं!
-कहां चले गए?'
-माट्साब बाबड़ी पे रहत हैं।'
-क्यों?'
-भेंई टपरा डार लओ है।'
-क्यों?'
-भें ओरपास के सग चौपिया बच्चा मिल जात हैं।'
राज मेरी समझ में नहीं आया। पर बताई गई दिशा में चल पड़ा। कोई डेढ़ मील चलने के बाद पेड़ों के झुरमुट के करीब आया तो किशारों का समवेत स्वर सुनाई पड़ने लगा। करीब आने पर कोरस स्पष्ट हो गया।... दो अलग-अलग जमातों में बैठे चौपिया बच्चे जिनके जानवर जंगल में आसपास ही चारा चर रहे थे, बड़ी तन्मयता से पहाड़े-बारहखड़ी रट रहे थे। मास्टर नारायण राव पीठ पर हाथ बांधे दोनों जमातों के बीच इस छोर से उस छोर तक उन किलक कर पढ़ते विद्यार्थियों को ध्यान से सुनते-देखते हुए घूम रहे थे।
मैं अपनी पद-प्रतिष्ठा और सारा अभिमान तज, उनके चरणों पर झुक गया। पहचान कर वे हकला गए, जज्ज साब! आप्प!!'
पर मुझसे बोला नहीं गया। आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। तब उन्होंने वहीं पड़े पत्थर पर मुझे बिठाकर धीरज बंधाते हुए कहा, अफसोस नहीं करो, जजसाब! अभागा तो मैं हूं जिसने पढ़-लिखकर भी माटी का कर्ज नहीं चुकाया। सरकारी मास्टर बन शहर पहुंच गया। शिक्षा को दान नहीं धंधा बना लिया। ऋणी हूं आपका, सोई आत्मा जगा दी...' कहते गला अवरुद्ध हो गया उनका।
विद्यार्थी अपना कोरस भूल उजबक से हम दोनों का अश्रुपात देख उठे। पेड़ों से शीतल मंद बयार बह उठी।
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(तीन)
प्रेम

कमरे मे लौट कर वह बिस्तर पर गिर गया। थोड़ी देर में आंखें मुंद गईं। फिर वही चित्र उभर आया। वही दयनीय, कातर चेहरा। आंखों के नीचे गड्डे। हड्डियां उभरी हुईं। गाल पिचके हुए।
दिल में एक तूफान-सा उठ खड़ा हुआ। छाती पर बंधे हाथों में से एक खुलकर बगल के बिस्तर पर गिर गया, जो अब खाली था! वह अपनी रुलाई नहीं रोक पाया।
यह अजीब कैफियत थी। ऐसा तो कभी हुआ नहीं था। वह इस लड़की को प्रेम भी करता है! जो अब यहां इस वक्त नहीं है! क्या यही प्रेम है? वह इसे कब से खोज रहा था! और उसने जो किताबों में पढ़ा था और फिल्मों में देखा था और जीवन में किया था! वह क्या था?
वह उठकर बैठ गया। चैतन्य-सा। जैसे किसी ने चीख मार कर जगा दिया हो! खयाल आया कि अरसे से शिकार है इसका...पर न इसकी गंध महसूस कर पा रहा था, न छुअन, न दर्शन। जैसे हृदय-कपाट बंद था। उसे खबर ही नहीं थी कि यह सांवले चेहरे की लड़की जो उसकी सगी बहन है- उसके प्रेम की पात्र हो सकती है! प्रेम करने के लिए तो वह मोहल्ले में हम-उम्र लड़कियों को तलाशा करता था।... पिता अस्पताल में कम्पाउण्डर थे। इस नाते वह कई बार अस्सताल जाता और वहां की गोरी चिट्टी नर्सों पर मन ही मन रीझा करता। वह सोचा करता कि ये प्रेम के लिए ही बनी हैं। उसकी नजर में वे इस नौकरी में प्रेम बांटने के लिये ही आती हैं! उन दिनों में उसने कभी भी यह नहीं सोच पाया कि वे किसी की बहन-बेटियां भी हैं!
उसकी बहन दिखने में जैसी बदशक्ल थी, वैसी ही पढ़ने में आलसिन भी थी। इसलिए मां-बाप को उसकी शादी की चिंता लग गई थी... आज उसे एक-एक बात याद आ रही है... कि कैसे वह अपनी मस्ती में मस्त रहा। न तो बहन की पढ़ाई पर ध्यान दिया न पिता द्वारा उसके लिए देख लिए गए घर-वार को देखने की जहमत उठाई। ...यह सब तब करता जबकि बहन को उसने अपनी जिम्मेदारी माना होता! उसे कभी चाहा होता!
शादी माने खुशी! पर बहन की जिंदगी में यह खुशी कब आकर चली गई वह जान नहीं पाई। वह एक गरीब परिवार था। रोजी-रोटी की बड़ी चख-चख थी वहां। तीन-चार साल के भीतर बहन की दो संतानें हो गईं। फिर एक हादसे में बहन का पति मर गया तो उस पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा। उसने बहुत कोशिश की कि ससुराल में गुजारा हो जाए, पर हुआ नहीं। हार कर वह मायके की देहरी की भिखारिन बन गई। रोते-रोते भरी जवानी में ही उसकी आंखों के नीचे गड्डे पड़ गए थे और चेहरा पहले से भी ज्यादा बदरंग हो गया था।
वह फिर उठ कर बैठ गया। वाकई उसे अपनी बहन से जरा-सी भी मुहब्बत होती तो वह उसे उसी घर में रखता, जिसे उसके पिता ने अपनी गाढ़ी कमाई से बनबाया था! पर उसे तो अपने आराम में खलल लगता था। उसके भीतर तो बहुत तेरा-मेरा था। उसे अपनी संतानों की हरकतें भलीं और आवाजें मीठी लगती थीं और भान्जों की बोलियों से सिर दर्द होता था। खाने-पीने, चलने-फिरने में छाती पर सांप-सा लोटता था। ...सो उसने उसे अपने पास रखने का अहसान जताते हुए किराए पर कमरा दिला दिया और एक ’रेडीमेड कलेक्शन शॉप में सेल्सगर्ल बनवा दिया। इसी में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। और दोनों कानों में तेल डालकर सो गया।
मगर इंसान की ये खासियत तो देखो कि विपत्ति में उसकी हिम्मत और बुद्धि कैसी खुल जाती है।... बहन अब पहले जैसी निकम्मी, आलसी, डरपोक और मंदबुद्धि नहीं रही थी। उसने आंसू खोकर अपना साहस खोज लिया था। जीवन संग्राम में पति उसे अकेला जरूर छोड़ गया था, पर इस युद्ध को लड़ने के लिए वह अपने पीछे दो बेटे भी छोड़ कर गया था। जिनकी खातिर बहन को पीठ नहीं दिखानी थी। वह दिन भर नौकरी में खपती, गृहस्थी में और रातों-रात पढ़ाई में। कि उसने फिर से जीवन की नई शुरूआत की थी। पहले आठवां, फिर दसवां। फिर नौकरी की तलाश में अर्जियां दे उठी।...
और एक दिन भगवान ने उसकी सुन ली। उसे डाक से एक आदेश मिल गया था, जिसमें लिखा था कि ’आप का चयन महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता प्रशिक्षण हेतु कर लिया गया है...पत्र जारी होने के दिनांक से 10 दिन के भीतर नियत प्रशिक्षण केंद्र पर अपने मूल प्रमाण-पत्रों सहित उपस्थित होवें!’
पत्र पाकर वह दोड़ी-दोड़ी आई थी उसके पास। खुशी से उसके हाथ कांप रहे थे और आंखें भर आई थीं।
भाभी ने सुना तो बोली, “क्या करोगी माया जोड़ के...अच्छी-भली नौकरी है यहां! कल को बच्चे सहारा दे उठेंगे।...”
बहन के ओठ कांपे कुछ कहने के लिए। पर कह न पाई। लेकिन जाने कैसे उसके दिल की बात पहली बार उसने सुन ली। वह गंभीरता से बोला, “ इसमें फ्यूचर है।”
पत्नी कटकर रह गई।
बहन दृढ़ थी। वह एकदम खामोश पड़ गई।
फिर एक लम्बी यात्रा के दौरान भी उसकी खामोशी टूटी नहीं। वह नीचे की बर्थ पर थी और वह ऊपर। उसने कई बार आहट लेने की कोशिश की कि वह जाग रही है या सो रही है...उसके जहन में क्या घूम रहा है- अतीत या भविष्य! उसे पति की याद आ रही है, बच्चों की याद आ रही है या अकेलेपन का डर सता रहा है? कुछ अंदाजा नहीं लग रहा। दिन के वक्त भी जब वो खिड़की की जानिब बैठी रही, सूनी-सूनी आंखों से ताकती रही थी भागते-चलते पहाड़ों, पेड़ों, मैदानों, खेतों, बस्तियों, जंगलों, नदी-नालों को। उगते-डूबते सूरज, चांद, सितारों को।... तब भी कुछ अंदाजा नहीं लगा। लगा ही नहीं कि उसके चेहरे पर कोई खुशी का बादल भी है!
सुबह दरवाजे की नॉक से उसकी नींद टूटी।
आसपास नलों की आहट और कदमों की चाँपें सुन पड़ीं। उसने सिटकनी उतार दी। लॉज का लड़का चाय लिए खड़ा था। उसने रास्ता दिया आने के लिए। मुस्कराकर उसे बैठ जाने के लिए कह दिया और बाथरूम में चला गया। लड़के के चेहरे में बड़ा अपनत्व दिख रहा था उसे। यह भी पहली बार हुआ कि कोई पराया लड़का अपना लगा था!
वह लौट कर आया तो लड़का खड़ा होने लगा।
“बैठे रहो यार! “उसने बड़े प्यार से कहा। हालांकि लड़का कुछ खास नहीं, दुबला-पतला सा छोकरा था, पिचके गाल वाला।
“पढ़ते होगे! “उसके चेहरे पर मुस्कान लौट आई थी।
“नहीं। दसवीं फैल। “लड़का मायूसी से बोला।
“अरे! किसी ने समझाया नहीं, शुरू में मेहनत कर लेने से अच्छी लाइन मिल जाती है।“
“पहले समझ नहीं आया,“ लड़का निराशा से बोला, ”अब पता चल रहा है-पैसा कितनी मेहनत से आता है!”
“हिम्मत रखो। “उसने दिलासा दिया।
लड़का चला गया, फिर भी उस पर छाया रहा।
कल जब यहां आया था वह पहली बार, तभी से एक अपनत्व-सा महसूस कर रहा है। सबकुछ घर जैसा लग रहा है उसे। बाजार...सड़कों-गलियों में चलते-फिरते, काम में मसरूफ लोग। हरेक पर जैसे नजर ठहर जाती। हरेक चेहरा जाना-पहचाना सा लगता। सारा संसार प्रेममय नजर आ रहा है। बहन के प्यार ने कैसा जादू कर दिया उस पर, कि उसकी खीज, चिड़चिड़ाहट, तनाव और अफरा-तफरी सब कुछ मिट-सा गया है। अब उसे कोई जल्दी नहीं है। अब उसे कहीं भागने की नहीं पड़ रही। अब वक्त की नाथ खुल गई है, जैसे! ताज्जुब कि उसने कलाई घड़ी पर नजर ही नहीं डाली। ...कहां हर मिनट का हिसाब रखता था!
कल जब भरती कराने गया था उसे, तो वार्डन ने एक लिस्ट पकड़ा दी थी। और मेडीकल रिपोर्ट का बरवली आर्डर। वह खुशी से जिला अस्पताल की ओर मुड़ गया। वहां गैलरी में, वार्डों में-सब दूर उसे नर्सें ही नर्सें दिखीं। गोरी-चिट्टी, हँसमुख ओर साफ-सफ्फाक! पर किसी के प्रति वासना नहीं जगी। वे सब उसे सेवा भाव में जुटी देवियां लगीं। ...अपने भीतर के इस अनोखे परिवर्तन को वह बड़े कौतुक से देख रहा था। और एक अजीब सी प्रफुल्लता से भर कर हल्का हुआ जा रहा था। कि कैसे वह अचानक एक चोखा मनुष्य बन गया है। उसके भीतर का शैतान कहां मर गया जिसकी नजरों में अब तक वासना के सिवा और कुछ था ही नहीं। ...वह बड़े स्नेह से ताक रहा था अपनी उस सपाट चेहरे वाली सांवली बहन को, कि जिसने अपने सानिध्य से तपाकर उसे कुंदन-सा खरा कर दिया था!
फिर वह उसके साथ बाजार निकल गया। रास्ते में सूखी मिर्चों की मण्डी मिली। वहां भस उड़ रही थी। उसे धूल तक से एलर्जी है। पर नाक पर रूमाल लगाकर आक्छीं-आक्छीं करता खामोशी से चलता रहा। चेहरे पर झुंझलाहट और नाक पर गुस्सा आकर नहीं बैठा। आगे बैलगाड़ियों के पहियों से बंधे जुगाली करते बैल उसे अच्छे लगे। और अच्छे लगे वे घोड़े जो तांगा स्टेण्ड पर अपने सिरों से लटके झोलों में मुंह डाले मजे में दाना खाने में बेतरह मषगूल थे!
वह जैसे एक नई दुनियां में आ गया था। या दुनिया तो वही थी, उसके हृदय की आंखें खुल गई थीं! वह बड़े उत्साह में लिस्ट पढ़-पढ़ के एक-एक सामान खरीद उठा। कि उसे यूनीफॉर्म दिलाते और स्टेशनरी दिलाते बराबर यह अहसास होता रहा कि वह अपनी बिटिया को स्कूल भेजने की तैयारी कर रहा है। कि उसे ’लेडीज जनरल कलेक्शन में घुसते ही लग उठा कि अब वह पहली बार अपनी बहन की विदा की तैयारी कर रहा है। और इन छोटी-छोटी खरीदारियों में कितनी प्रफुल्लता है...कितना सुख है। वह कितनी नेमतों से वंचित था! यह मौका न आता तो अब भी वंचित रह जाता।
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(चार)
ब्लैक होल

हैंडपंप से पानी भरती नैनसी ने उसे पहली बार नंगे नाक-कान, सूने हाथ-पाँव पाया तो विस्मित रह गई। किस्सा पूछा तो किसना रो पड़ा। नैनसी बाजू पकड़ अपने घर ले गयी। किस्सा माँ को बताया। वह भी धक् से रह गई। फिर ‘उस’ नासमिटे को कोसती किसना के सिर पर हाथ धर आँसू पोंछने लगी। ...तो वह भरे गले से बार बार कहने लगा, ‘वह’ पकड़ा जायेगा। जहाँ भी होगा- पकड़ा जायेगा। बेचने तो जायेगा! माता की छवि झलकने लगेगी गहने में...। तब नैनसी भी ढाढ़स बँधाने लगी- हाँ! जरूर पकड़ा जायेगा...। पकड़ा क्यों नहीं जायेगा? माई से छल करके कोई बच नहीं सकता।...

फिर माँ-बेटी चूल्हा जगाकर रसोई में जुट गईं।... जैसे, बिछुड़ा हुआ परिजन अचानक लौट कर घर आ गया! हाथपाँव धुला कर चौकी डाल दी नैनसी ने तिबारे में! थाली में छप्पन भोग आ विराजे! किसना की आत्मा तृप्त हो गई। अब तक तो भीख के रोट खाता रहा...। उनमें तृप्ति कहाँ थी? उनसे तो पेट भर जाता था-बस! मन ही मन उपकार मानते हुए डकार लेकर उसने सींचा ले लिया। माँ ने माँ-सा लाड़ करते हुए उठकर अपने पल्लू से हाथ पोंछ दिये। फिर ग्यारह रुपये का दान देकर विदा। नैनसी पहाड़ पर चढ़ाने साथ आमखो तक चल दी। ...बीच में चण्डीमाई मिली, हाथ में इंदल का कटा हुआ सिर लिये। सामने पथरीगढ़ का किला जो अब देवगढ़ कहलाता है...। राजा ज्वालसिंह ने महोबा के बनाफर बंधुओं की नारि मछला को चुरा कर किले में रख लिया था। विरह में पागल पति आल्हा आत्महत्या करने को उतारू हो आये, तो रणबाँकुरे लघुभ्रात ऊदल ने उन्हें चूड़ियाँ पहना कर खुद युद्ध का डंका बजा दिया। वीर सिपाही महोबा से कूच कर पथरीगढ़ आ गये। पीछे-पीछे आल्हा-मलखान भी।... मगर पथरीगढ़ तो एकदम अभेद्य दुर्ग। सीधी चढ़ाई की आज भी कोई राह नहीं। सिर उठा कर देखो तो टोपी गिर जाये।... तोपें लाल पड़ गईं। बालबाँका नहीं हुआ। सात दिन बाद देवी ने सपना दिया कि- जो आल्हा अपने पुत्र की बलि दे तो फ़तह पावेगा! आल्हा-ऊदल ने रोते हुए इंदल की बलि दे दी।... और चमत्कार हो गया! रण तो जीत ही लिया बनाफर बंधुओं ने, मछला छुड़ाली। ...चण्डी माता ने इंदल को भी अमर कर दिया।

...दक्खिन में देवगढ़ तो उत्तर में रतनगढ़। फ़ासला सिर्फ़ साढ़े तीन कोस। मगर दोनों के अलग-अलग राजा। अलग-अलग रनिवास। अलग-अलग फ़ौज। अलग-अलग प्रजा। फिर भी अब किसी का कोई नहीं बचा। किले दोनों उजड़ गये। ...देवगढ़, महोबा ने मिटा दिया। और रतनगढ़ के राजा पर खिलजियों ने धावा बोला, सो राजा तो राजा राजकुमारी और कुँअर भी षहीद हो गये। लेकिन राजकुमारी रतनगढ़ की माता हो गईं। उन्हीं की जोगिनी है किसन! और कुँअर, कुँअर बाबा! उन्हीं का भगत है किसना।... ये जिन्नगी तो कुँअर बाबा ने ही दी है। बचपन का वाक़या...। गोधूलि बेला में गाँव बाहर पीपल के नीचे संगी साथियों के संग छुपा-छुपल्ली खेल रहा था कि धोखे में सरसरा कर निकलते एक नाग पर पाँव पड़ गया। उसने आव देखा न ताव गरीब के पंजे पर फन पटक दिया। पाँच मिनट के भीतर ही बेहोषी छाने लगी। पर भाग्य से किसी राहगीर ने कुँअर बाबा और रतनगढ़ माता के नाम का बंध लगा दिया था।... बच तो गया किसना, पर डर के मारे उस रात घर पर बताया नहीं! फिर वह भूल ही गया। 6-7 बरस का बच्चा! 9-10 साल का हुआ तो पिता के साथ रतनगढ़ की जात में चला आया सजकर! गाँव से जत्थे के जत्थे आये थे। नदी में घँसते ही हाथ-पाँव लकड़ी के हो गये। गिर पड़ा भहराकर। पिता एकदम घबड़ा गया। बाँहों में उठाया तो मुँह से झाग बह रहा था। सीना धक्धक् कर उठा कि यह तो सताया हुआ है... बंध कटाना पड़ेगा माता पे। उसने बोल दिया, मैया बचालेउ! तुमें ही भेंट कर देंगे! अब वापिस संग नहीं ले जायेंगे किसन को। बस बचालेउ!

और...जैसेतैसे बाँहों में भरे विकल हृदय और डगमगाते कदमों से नदी पार की उसने। इधर आकर एक संगी ने हाथ बँटा लिया। एक छोर पर उसने कंधा दिया, एक छोर पर पिता ने। माई का जैकरा देते हुये पसीने से तरबतर किसी तरह रतनगढ़ के नीचे तक ले आये। फिर हीक देकर कठिन चढ़ाई चढ़ने लगे। उन्हें तो पता ही नहीं था, किसना को कब सताया नाग ने! कहाँ? किसना को किसने लगाया कुँअर बाबा के नाम का बंध? उस अबोध ने तो बताया भी नहीं! भाईबंदों वाला बड़ा परिवार। पत्नी जनम देते ही चल बसी बालक को।... पलपुस गया कैसे भी। पिता तो सदा खेती में गड़ा रहा।... उसने कहाँ ध्यान दे पाया? और उन दिनों अपनी औलाद को खिलाते, गोद लेते शरम भी लगती थी। चचा, ताऊ, बड़े भाई और ऐन बुढ़ा गये पिता क्या सोचते! चोरी-छुपे कभी-कभार निगाह मार लेता। कभी-कभार मौका ताड़ अंक में भर मिटी ले लेता। लेकिन जनानियों की नज़र कितनी तेज़! घुँघटे की दूरबीन से तुरंत पकड़ लेतीं। और चाची, ताई, भावज के उपहास का केन्द्र हो जाता दिन भर के लिये। सो, कभी मन भर छाती से नहीं लगा पाया। उसे कांधा दे रहा था।... हृदय कैसे धीर धरता? आँसू थम नहीं रहे थे। जैकरा देते-देते कुँअर बाबा के चबूतरे पर लाकर लिटा दिया। अगल-बगल और भी कितने ही स्त्री-पुरुष मैर में पड़े थे। भगत झाड़ा लगा रहा था। लाशें इठ रही थीं। पिता मुँह में साफी ठूँस पैताने खड़ा हो गया, दोनों टाँगें आपस में जोड़ कर कि कहीं धराशायी न हो जाय! ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे थी।... लग नहीं रहा था कि किसना उठ पायेगा। गरीब लगातार पुकार रहा था मैया को, कुँअर को! ...कोई कहता खिलजियों ने, कोई कहता लोदियों ने, कोई कहता मुगलों ने! सैकड़ों बार हमला किया। और रतनगढ़ फ़तह नहीं कर पाये। बावड़ी में अमिरत भरा था। मरीमराई फौज पे राजा छिड़क देता साँझ के साँझ। सिपाही घावों पर पट्टी बाँधकर सुबह फिर मोर्चे पर डट जाते। हार कर बैरियों ने कोतवाल को तोड़ लिया। अहीर था जाति का। कर दिया घात। बता दिया राज। बावड़ी खंडों से पटवा दी यवनों ने रात में ही। फिर किया जा़ेरदार हमला। सो, फौज के संग रतनसिंह भी ढेर हो गये। फाटक तोड़ कर यवन सेना ऊपर चढ़ आयी। राजकुँअरि मांडूरा के सोने के बाल। मलेच्छ लूटने को आतुर! रच्छा में कुँअर भी रनिवास के द्वार पर शहीद हो गये तो, मांडूरा ने किला अपने ऊपर लौट लिया। ...तब से महल-दुमहले सब नीचे समा गये हैं। ऊपर पहाड़ हरिया रहा है। जहाँ कुँअर शहीद हुये वहाँ उनकी समाधि। जहाँ राजकुमारी धरती में धँसी वहाँ उनका मंदिर। ...फिर मुगल मिट गये। अँग्रेज आये वे भी। मगर कुँअर बाबा और माता अमर हैं। उनके सत से हजारों-हजार मील दूर बंध लग जाता है। धरती के किसी छोर पर साँप डँसे, नाम ले दो बंध लग जाता है। बस जीवन में एक बार वह बंध कटाने आना पड़ता है रतनगढ़ दरबार में।...

भगत ने झाड़ा लगाया तो आँखें मटमटाने लगा किसना। पिता जै-जै कर उठा, आँसू ठोड़ी तक लटक रहे थे।... भगत ने हुकुम दिया, परिकम्मा लगवाओ इसे।... उसने किसना को सहारा देकर उठाया। फिर बाँह पकड़ थान की परिक्रमा कराई। एक। दो। तीन।...

बस! भगत ने फिर एक झाड़ा मारा। कहा- ले जाओ!

अब कहाँ ले जा...ऊँ ऊँ ऊँ! उसकी तो हिलकी बँध गई, मैंने तो इसे बोल दिया... माता को सोंऽप दिया।... नदी पर ही संकलप ले लिया था-आ...।

किसना तभी से कुँअर बाबा का भगत हे। माता की जोगिनी।... गोराचिट्टा बदन। किशोरियों सा मुँहकट। दस-ग्यारह की उमर से ही दोनों पाँव की तीनतीन उँगलियों में साँकलदार बिछिये, छिंगू में नहिंया, अँगूठों में छल्ले! पंजों पर चार-चार लड़ी की चटैया के कुंदों में आँवला के ऊपर नेउला (पैंजना) और उसके ऊपर एड़ी में कड़ियाँ। भारीभारी कड़ियाँ। ठेठें पड़ गईं जिन्हें पहरेपहरे। कोहनी ऊपर बाजूबंद, चटैयादार बाजूबंद। कलाइयों में पोहँची, चूरा, बँगली, कँगना। रोना गुँजे कँगना। माथे पर शीशफूल, उससे जुड़ी दोनों भौंहों के ऊपर बंदनी, कानों में झुमके। नाक में नथनी। कमर में करधनी। गले में पटियाहार।... जड़ाऊ लाल चूनर और काला घेरदार। देख के उसकी धज बड़ेबड़े देवों से मंत्री और धनपति तक मोहित हो जायं। हरियाली की चादर ओढ़े ऊँट की पूँछ से बंधे ऊँटों से पहाड़ और उनकी तलहटी के लंबेलंबे वृक्षों के झुरमुट चकित रह जायें देख के उसका नाच। हरियाला चरती, वनवन भटकती, गले में घंटियाँ बाँधे धौरी गायें भूल जायें खुद को दो-दो पहर के लिये। सोने से हिरन कुँलाचें भरना छोड़ जहाँ के तहाँ चित्रलिखित से जड़े रह जायें और सियार, वनबिलार तक ठहर कर एकटक निरख उठें... तो, जब जंगली भैंसों के टेने रुक जायें और मोर अपना नाच भूल बैठें! फिर क्या बिसात जो देवगढ़ की नैनसी उसके रूप, नाच और धज पर न रीझे!

...देवगढ़ तो वैसे भी रतनगढ़ से सिरफ़ साढ़े तीन कोस दूर। चण्डीमाई के बगल से मुड़ कर आमखो के ऊपर चढ़ जाओ पहाड़ और पा जाओ रतनगढ़।... जहाँ किसना का स्थाई निवास। चार-छह साधुओं का संगसाथ। ...उसे किसी की परवाह नहीं। घर में सिर्फ़ माँ थी। मंताई की कोन परबा? वो तो बेटी का मुख देख-देख जीती।... और इन सधुट्टों की कोन लोकलाज! ये तो खुद ही पराया चौका ताके हैं।... सोमवार को सुबह ही रसोई रचकर, खीरपूरी और गुलगुलों का टिफिन भर लाती किसना के लिये! उसका नाच देखते अघाती नहीं वह। सोचती, जब वह पुरुष होते हुए जोगिनी बन गया है, तो मैं स्त्री होते क्यों नहीं बन सकती? वह तो बनावटी है, मैं तो असली होऊँगी!

हुमक कर एक दिन कलाई पकड़ ली उसकीः

‘ए- हमें भी जे नाच सिखरा दो-ना!’

राख लो अपने-संग! आँखें चमक रही थीं।...

साधू हँसने लगे। ...और वह सकपका गया। वैसे ही- जैसे, ‘नज़ीर’ ने एक शाहजादी का इज़ारबंद छूकर उसे सकपका दिया था! ‘धोखे में हाथ लग गया मेरा नज़ीर तो/लौंडी से बोली जा, मेरा धो ला इज़ारबंद!...

मगर नैनसी ने हार नहीं मानी। वह लग गई उसके पीछे। सीढ़ियाँ उतर वह यज्ञशाला में आ गया, वहाँ भी।... किसना बैठ गया वेदी के खुले चबूतरे पर। हवा खुल गई थी। फरिया उड़ रही थी।... स्याह केशों में घिरा मुखड़ा बेहद सुघड़ दिख रहा था-अभी!

‘नाच’ आता है-तुमें?

आँऽहाँ! नैनसी अचकचा गई। ...वह तो दिन भर के उलझे बाल सुलझा कर बाँधने जा रही थी कि चुटिया गुहे बिना ही पागल-सी दौर पड़ी पीछे!

...तो आज दिखला दो अपना नाच! ऐसे सजीले बाल तो अब तक किसी के देखे नहीं! हमारे बाल तो तुमारे बालों के धोवन भी नहीं।...

किसना निष्कपट! कहा उसने तो धक्धक्-सी होने लगी भीतर तक। कानों पर बिसवास नहीं, तो भी खुशी से सीने में दर्द का गोला अड़ गया आकर। बाल उसके सचमुच खूबसूरत! रेशम से मुलायम और काले नागों से स्याह चमकदार। घोड़ा पछाड़ से लम्बे। पूरी जादूगरनी लगती है उन्हें खोलकर नैनसी। जैसे, सपने में विहँस कर पल्लू खौंस लिया कमर में, हमें तो सिरफ़ ‘राई’ आत है!

‘राई’ तो सब नाचों का राजा! किसना ने उठकर हाथ धर दिया कंधे पर हौसला बढ़ाने!

नैनसी का अंग अंग खिल गया। झूमकर ‘राई’ हो गई वह।... बाल छतरी! गोल, बड़ी वाली काली छतरी। किसना गद्गद्! ऐसी अनुभूति तो माई के नाच में भी नहीं मिली कभी! तारीफ़ के लिए शब्द नहीं थे। वह तो ‘नाच’ से अभिव्यक्ति देता आया था। पाँव थिरकने लगे...। साधू टिकौरी बाँध उठे।

कान पर रहते हुए किसना पहली बार देवगढ़ के किले पर चढ़ा, नैनसी के संग। आज वह जोगिन नहीं। भगत भी नहीं। राजकुमार इंदल लग रहा था, श्वेत शेरवानी में...। काली घुँघराली लटें शानों तक बेरोक-टोक लहराता हुआ।... यह पोशाक भी नैनसी की माँ ने दी। यह पोशाक नैनसी के पति की धरोहर जो माँ ने घर आये भगत को दान कर बहती गंगा में हाथ धो लिये। और किसना को शेरवानी में देखा तो नैनसी ने भी अपने ब्याह के चढ़ावे में आया गरारा निकाल लिया! फिर जड़ाऊँ लाल चोली पर पीली फरिया ओढ़ी तो माँ को वह उड़नपरी-सी उड़ती नज़र आयी! उसने संतोष से कलेजे पर हाथ धर लिया।

...नैनसी बाल विधवा। जब ब्याह का मतलब नहीं पता था, तब ब्याह हो गया! दूला जब एक खिलौना लगता था, तब गौना। नदी पार भौआपुरा में ही तो ब्याही गई थी नैनसी। उसी नवरात्र में सिर पर जवारे धर कर ससुरालियों के साथ माता पर आ रही थी।... सलमा-सितारे जड़े लँहगा-चुन्नी में। हाथों में मेंहदी महक रही थी, चोली में केसर! बसई घाट पर नावें थी सिर्फ दो। शारदीय नवरात्र। भगतों के टेना के टेना आ पहुँचे थे घाट पर। कोई शंका ही नहीं। सब एक-दूसरे के हाथ पकड़ लम्बी श्रृंखला बनाये पार करते जा रहे थे नदी।... उनका दल भी कर उठा। पानी था भी सिरफ़ मोटी जाँघ। सूरज की किरणें सीधी पड़ रही थीं। तली के कंकर-पत्थर मोती-मूँगों से दमक रहे थे। जलधार मस्त हवा की तरह मंद-मंथर गति से बहती हुई।... लँहगे में सेंध लगा, शीतल जल खिलवाड़़ कर रहा था रानों तक। और माता के जैकारों से आसमान गूँज रहा था। ...कि अचानक एक हेला आया। नदी छातियाँ छूने लगी। यकायक कुछ समझ में नहीं आया।... मँझधार की ओर तेज़ी से बढ़ उठे सब।... तभी दूसरा हेला आया और नैनसी खुद गले तक डूब गई! अब न पीछे लौटने के रहे, न आगे बढ़ने के। धार इतनी तेज़ कि पाँव उखड़ने लगे। एकाध गोता भी लगा। ...तभी एक और हेला! और हाथ छूट गये एक दूसरे से।... कागद की गुड़ियों की तरह बहने लगे सब...। मोहिनी सागर के फाटक अचानक खुलवा दिये थे अधिकारियों ने। किसी को क्या खबर? जैकार चीख-पुकार में बदल गई।...

फिर जाने कब होश आया।... किसी मलाह ने बचाया था उसे। पर सब को कहाँ बचा पाये मलाह? पचास मरे, साठ मरे। धीरे-धीरे पता चला नैनसी को, ससुरारिया भी मरे। और गुड्डा-सा दूला भी। चूड़ियाँ फुड़वा दी गईं उसकी। भरभर हाथ चूड़ियाँ! हरा काँच किरच किरच बिखर गया घर-आँगन में।... सब ओर रोता पड़े थे, पर वह जैसे कुछ समझी ही नहीं। जैसे भाँवर की तरह ये भी कोई खेल रहा। न हँसी न रोई। तब उमंग के साथ विस्मित थी, अब विषाद के साथ।... हादसे के बाद से ही बसई घाट और रतनगढ़ पर बड़ों का मेला भरने लगा। ...कलेक्टरनी दौरीदौरी आयी। एसडीएम को खूब फटकारा। पंजाबिन थी। खूब पढ़ीलिखी। मगर माता के आगे घोंटू टेक दिये। लेकिन अरजी काम नहीं आई। दूसरे ही दिन भाँग चढ़ाये साध्वी आ धमकी, जो पहले मुख्यमंत्री रही। वह दहाड़ी, भक्तों की हत्या हुई है। हत्या करायी गई है... हमने यहाँ पुल बनवाने की तैयारी कर रखी थी मगर बीच में ही गद्दी छोड़नी पड़ी। ...और उसी के पीछे भावी मुख्यमंत्री पद की दावेदार विदेशी शराब की शौकीन विपक्ष की नायिका भी अपने लाव-लशकर के साथ आ धमकी! उसने भी तोप चलादी कि सरकार की अनदेखी से हुआ है हादसा! ...तब छात्र हिंसा की बदौलत राजनीति में आया प्रदेश का मुखिया भी हेलीकोप्टर से उड़कर आ पहुँचा रतनगढ़! जिसने एसडीएम और एसडीओपी का मौके पर ही निलंबन बोल दिया।... क्योंकि प्रदेश की सरकार ‘मैं’ तो गाँव की सरकार ‘तू’! बचे एस.पी. और महिला कलेक्टर, सो उनका राजधानी में जाकर तबादला कर दिया। कर्तव्य से मुक्ति पा ली। नवागंतुक पुरुष कलेक्टर ने दूसरे ही दिन आकर माता के दर्शन किये। कहा- नदी में अब कोई लाश नहीं है। पुल की नापजोख हमने शुरू करा दी है।... कल से पीड़ित परिवारों को मुआवजा बँटेगा।

...तब धीरे-धीरे जाना नैनसी ने कि जिंदगी तबाह हो गई है। ...ससुराल में कोई रस नहीं रह गया। जाने-क्यों, मिट गई सारी हँसीखुशी...? आखिर ऐसी क्या बात थी उस गुड्डे में! क्या सब कुछ अधूरा होता है, एक पुरुष के बिना स्त्री की ज़िंदगी में? बारबार पूछती खुद से। जवाब मिलता नहीं कहीं से।... मैके लौट आई हारकर। उद्भ्रांत-सी हर सोम रतनगढ़ माता पर जाने लगी। कुँअर महाराज के चबूतरे पर चढ़ चारों ओर बिखरे पहाड़ों को देखती। दक्षिण से उत्तर की ओर बहती काली सिंध को। जी में आता यहीं बस जाये साधुओं की ज़मात में! किसना मोहिल लगता। ...कभी शीशफूल छूती, कभी बाजूबंद।... हजार-आठसौ फीट ऊपर आसमान में तिरती-सी धीरे से हँसती, कोई दिन हमें भी पहरा दो-ना जे जेवर! तुमें तो लांगुरिया होना था माता का... जोगिनी काहे हो गये?

जोगिनी होना का बुरा है? ...वह रूठता-खिसियाता थोड़ी देर के लिये। फिर झेंप मिटाता कहता, उज्जैनी में तो चोंसठ जोगनियों का मंदिर है चामुण्डामाई का... सब के सब आदिमी ही तो हैं...!

और वह मुस्काती... इठलाती हुई, जैसे- कोई मज़ाक सूझा हो...!

...वह गोया, मनसंचार से ताड़कर उसका मज़ाक लाज से गड़ जाता! मगर मन में कोई अंकुर नहीं फूटता। वो तो ठहरा कुँअर बाबा का भगत। बाल-ब्रम्मचारी। माता की जोगिनी। देह में माता भरी रहती हैं हरदम। नाच में पता ही नहीं चलता कौन नचा रहा है छह-छह घंटा। और नौरात्र में तो रात-रात भर। देवी भरी रहतीं हरदम देह के भीतर।... चबूतरे पर गोलगोल घूमते चारों ओर असंख्य नरमुण्ड नज़र आते। उसमें नैनसी की एक जोड़ी आँखें कहाँ? उसे कई बार पता नहीं चलता।... पर एक पंजाबी भगत ने जरूर रिझा लिया। बोलबोल कर कि चलो, हिंगलाज माई के दरसन करने चलो! मोच्छ हो जायेगा।... वही तो भरी है देह में। रतनगढ़ उसी की जोत है। और वो है साच्छात्! देह धरे देवी। उसका सिंह दहाड़ता है आज भी।... देवी खुद तांडव करती है कइयोंबार! तब-तब परलय होती है। साल में एक-दो बार तो जरूर! कभी भूकंप, कभी बाढ़ कभी समुद्री चक्रवात! मुख खोल कर सच्चे भगतों को अपने भीतर लील लेती है हिंगलाज-माँ! तुमारी भी परीच्छा हो जायेगी। ...जो देह में भरी रहती है-तो!

भूत चढ़ गया दिमाग पर। किसना चल दिया उसके संग। साधुओं ने आशीश देकर विदा कर दिया।... जात से लौटते ट्रेक्टर में बैठकर दोनों ग्वालियर पहुँच गये। ग्वालियर में किले पर दाता बंदी छोड़ गुरुद्वारा। पंजाबी भगत ने कहा- यहाँ मत्था टेक लो। कामना पूरी हो जायेगी। गुरू हरगोविंद देव का अस्थान है-जे! मुगलों ने इसी किले में बंदी बना लिया था उन्हें।... फिर सिखों ने विद्रोह कर अफगान-कंधार का रास्ता रोक दिया तो घबड़ा के पूछा, कौन है गुरू हरगोविंद सिंह? गुरू ने कहा, हम हैं। सुलतान बोला, छोड़ दो इन्हें...। गुरू ने कहा, छोड़ना है तो सब को छोड़ो- जितने देसद्रोह में बंदी बनाये हैं-तुमने।... सब के साथ छूटेंगे हम...अकेले नहीं!

मगर ये तो लोकिक कथा है... पंजाबी भगत ने समझाया उसे, गुरू की आद्यात्मिक सक्ती तो अपार है... वे ऐसे दाता हैं कि जो भी सच्ची सिरधा से मत्था टेक देता है- संसार के जेलखाने से मुक्ती दिला देते हैं-उसे! गुरू तो सच्चमुच्च के दाता बंदी छोड़... वाहे गुरू-दी खालसा! वाहे गुरू-दी फ़तेह!

और किसना सम्मोहित हो गया। ...भक्ति भाव से भरकर बोला, तो-हमें भी करा दो दरसन! इस नरक देह में बंदी आत्मा उनके परताप से मुक्ती पा-जाये तो और का चहिए जोगिन को...!

हाँ- और क्या चहिये? पंजाबी भगत ने अपनी कौड़ी-सी आँखें चमकायीं, रात हो रही है। धर्मशाले में ठहर जायेंगे अब। वैसे भी सवेरे मिलेगी गड्ड़ी। ...उसने बिना हील हुज्जत के सारी बात मान ली। टेम्पो से वहाँ पहुँच कर चटपट सीढ़ियाँ चढ़ गये किले की। हृदय गद्गद् था, देह पुलकित। मगर जलधार पर पाँव धोते किसी ने टोक दिया, मत्था टेकने इस बाने में नहीं जा सकते।...

तो! उसका हलक सूख गया।

ये झोला-झण्डा यहीं उतार धरो।... उसने भेष की ओर इशारा किया।

किसना ने अपने साथी भगत को देखा। उसने भी कहा, गहना झोले में रख दो। मैं यहीं ठैर जाऊँगा। तुम मत्था टेक के आ जाना, फिर मैं चला जाऊँगा टेकने।...

उसने काँपते कलेजे से कमर में बंधी कन्या भोज की थैली निकाली। पाँच सौ नगद। और शीशफूल, बंदनी, झुमका, करधनी, पटियाहार, नथनी, पोहँची, चूरा, बँगली, कँगना रोना गुँजे, चटैया बाजूबंद, बिछिया साँकलदार, नहिंया, छल्ले, चटैया, आँवला, पैंजना और कड़ियाँ भी... सब के सब उतार कर झोले में भर दिये। झोला पंजाबी भगत को सौंप कर चल दिया। सिर ढँक कर। हाथों में फूलों की डलिया लेकर। उमंग से लबरेज। मगर... तलघर में जाकर मत्था टेककर लौटा तो कलेजा मुँह को आ गया। यहाँ-वहाँ कहीं नहीं पंजाबी भगत! ड्योढ़ी के रखवालों से पूछा, यहाँ बैठा छोड़ गया था। गहनों का झोला काँख में दाबे। कहाँ चला गया पंजाबी भगत?

हुण की पता? धर्मशाले में होन्दा-जी!

धर्मशाले को दौड़ा। कहीं कोई नहीं। प्राण घबड़ा उठा। कलेजे में रह रहकर चोटें पड़ने लगीं। लौट कर गुरुद्वारा प्रबंधकों से रोया। किसी ने मदद नहीं की। कहा, आयेगा तो बाँध लेंगे। नी आयेगा तो तू जांण!

आयेगा क्यों? ...उसका धीरज छूट गया। रोता-कलपता उन्हीं पाँवों लौट पड़ा किसना। भूखा-प्यासा। डबरा तक ट्रेन में बैठ गया बेटिकट! यही सोच कर कि पकड़ा गया तो जेल चला जायेगा, और-क्या! और वहाँ से पदता-पदता पहर भर दिन चढ़े गरीब पहुँचा देवगढ़।...

डग-डग चढ़ते हुये लग रहा था नैनसी को कि अमर हुआ इंदल पथरीगढ़ पर अकस्मात् मिल गया है उसे। यह झूठ भी कहाँ? इसी बारह कोस के बियावान में अमर अश्वस्थामा कितनी बार मिले हैं चरवाहों को।... किसना दुस्समुस्स राजकुमार इंदल ही तो है! महल के तलघरों में झाँक-झाँक कर वह जैसे, मछला को ढूँढ़ रहा है। ...दूध से बिछुड़ा बालक, आँचल की छाँव के लिए आकुल...। कवि कहते हैं- मछलदे का डोला लूटा था ज्वालसिंह ने।... कवि ठहरे गप्पी...। पति से अनबन हो गयी तो दिवरा भाई की आज्ञा मान भावज को गुरू के आश्रम पर छोड़ गया! अमरा गुरू का आश्रम है- आमखो! झाड़ी वनखण्ड। दियरा चमके न बार फरके। लेकिन जहाँ सौसौ हाथ गहरा पानी नहीं, वहीं गुरू अमरा के परताप से झिर रहा पहार की काँख फोर झिरना। निबक पथरीली प्रिथ्मी में पाँच-पाँचसौ हाथ ऊँचे आम के हरियल दरखत! गुरू तो पहाड़ चढ़े रहते हरहमेश... भोजन-अस्नान के लिए उतरते दिन में एक बार। तभी मछला की उदासी टूटती कुछ घड़ियों के लिए।... मनप्राँण से सेवा करती गुरू की। और माँगती नहीं कुछ, जैसे- माँगने से कुछ मिलता न हो! गुरू के आने से पहले ही आश्रम से निकल बहती जलधार में नहा लेती।... मन और भी प्रफुल्लित हो जाता और भी आशान्वित कि आज कोई संदेश मिले स्यात्! दिवरा आ जाये आज! मगर ऊदल तो नहीं, हिरना की टोह में एक दिन ज्वाल सिंह आ पहुँचा झिरने पर... और बंध गया उसके रूपजाल में! मछलदे की कटारी-सी अँखिया गड़ गईं उसके सीने में! राजा चोर बन गया झाड़ियों में छुप के! और उसे खबर नहीं! वो तो रोज की भाँति फरिया-चोली उतार घँस गई जलधार में। और धवल जल संग अठखेलियाँ करती, मल मल बदन नहाती रही । ...फिर रोज की भाँति तट पे आके निचुड़ने खड़ी रह गई! बूँदें कपोलों और छातियों पर अटकी रह गईं धवल किरणों से मोती बनीं। केश लहरा रहे, सिर से उल्टे लटके स्याह नागों से कमर घेर नितंबों तक।... कलेजा उछल पड़ा ज्वान का!

कोई किसी को यों ही नहीं चुरा लेता! रात आधी से ऊपर हुई तो घुड़िला हिनहिना उठा अमराई में। कान उठा जाना मछलदे ने कि बेंदुल सवार आ पहुँचा आखिरश! दियला हाथ में उठा देहरी लाँघ गई वह। लौ की चमक में दमकता सोने-सा रूप देख आत्मोत्सर्ग के लिये आतुर हो उठा ज्वालसिंह! ऐड़ लगायी घोड़ी को और मार दिया एक झपट्टा चतुर खिलाड़ी-सा... फूल-सी मछलदे को भर कर भुजा में उठा लिया अश्व पर...। तब जाना अक्षत यौवना ने कि ये दिवरा की छाती नहीं... वो तो आंगुर भर दूर रही! उसकी भुजाएँ नहीं... वे यों अंक में भरने की हिमाकत न करतीं! और वे हथेलियाँ... वे तो बाग थामे रहतीं बेंदुल की! बाग तो दाँतों में थाम रक्खी है सवार ने... हथेलियाँ उसकी जंघाओं पर! मगर...अब जान कर भी क्या कर ले वह? आल्हा ने अगवा की, तब क्या कर लिया? मूढ़-सी बैठी रही चुपचाप। गुरू जान भी ना पाये और ज्वालसिंह पथरीगढ़ चढ़ा लाया उसे!

पर इस जनशून्य कोट पर हनुमान की विशाल मूर्ति के सिवा और कुछ नहीं बचा-अब। मेहराबदार टूटे-फूटे भवनों में उल्लुओं, चमगादड़ों के डेरे, मकड़ियों के जाल।... बावड़ी में सूखे पत्ते और कंकर-पत्थर! नैनसी ने एक पत्थर उठाकर हाथ में दे दिया उसके, बावड़ी में डाल दो... मंशा पूरी हो जाती है।

गहने बेचता पंजाबी भगत कौंध उठा जे़हन में। पत्थर फेंक दिया बावड़ी में! फिर जाने क्या सूझा कि एक पत्थर खुद भी उठाकर नैनसी की हथेली पर धर दिया उसने! ...और नैनसी ने मुस्काते हुए बलखाकर उसे बावड़ी में फेंका तो, चोली में टँके पक्के मोतियों की चमक से किसना की आँखें चुँधिया गईं!

...मछला को महल में टिकाकर खुद पहरेदार की भाँति उसकी ड्योढ़ी पर सोने लगा था ज्वालसिंह। मगर सो नहीं पाता।... करवटें बदलती मछलदे, सो चूड़ियाँ खनकतीं बारबार! कान चौकस लगे रहते उधर कि इधर कब आएँ छोटेछोटे क़दमों की चाँपें? ...आस में तीन मास गु़ज़र गये!

उधर वह भी सोयी नहीं रातोंरात...। करवटें बदलती पति की आस में, पुत्र की चाह में।

महोबा में रहते कभी चाह न होती थी।... धायमाँ ही नहीं छोड़तीं उस फूल को और राजा को चंदेले।... एक को खेल से, दूसरे को लड़ाई से फुरसत नहीं...। तब उसे भी किसी की जरूरत कहाँ होती? मगर... अब तो दोनों की याद सताती, छातियाँ फटी जाती थीं। लगता, कोई तो इन्हें सोख ले! खाली कर दे।...

मूढ़तावश एक दिन, आधीरात के वक्त ड्योढ़ी की ओर चल दी बेकल-सी।... उम्मीद खो चुके ज्वालसिंह के दीदे चमकने लगे। बदन काँप उठा कि आज मेनका उतर आयी आसमान से! तप कर दिया सफल! मगर... मछलदे तो अचानक बिलख उठी कि मुझे क्यों ले आयेऽ... किस बात की सज़ा दे रहे हो, कैदी की तरह रख के य...हाँ-आँऽ!

ज्वालसिंह हक्का बक्का रह गया। भीग गया उसके अँसुओं में। आखिर को पिघल गया पथराः भोर होते ही छुड़वा दूँगा तुमें!

ओह... मैंने भारी अन्याय किया रूपजाल में फँसकर!

पर आश्वासन पाकर भी मछलदे लौटी नहीं। सिरहाने खड़ी रही किंकर्तव्यविमूढ़! मन में तमाम तरह के ख्याल आ रहे थे... कि इतना उपकारी तो पति भी नहीं? वह तो अगवा कर लाया और भाँवर डार उतार दिया कुँआरपना! फिर... ज़रा-सी बात पर दे दिया वनवास!? लौट कर भी ठौर कहाँ... चंदन की चिता में जर कर देनी पड़ेगी अगिन परिच्छा ...!

दिल घबड़ा रहा था। ज्वाल ने ढाढ़स बंधाने हाथ गहा तो मूढ़ सीने में समा सिसक उठी! ज्वालसिंह ने सपने में भी नहीं सोचा था कि किसी दिन ऐसी कृपा बरसेगी।... सुबह तक इरादा बदल गया कि अब तो शीश देकर भी नहीं दूँगा-तुमें! मछलदे ने सुना तो मुसक्या के रह गई।

...देर बाद आशातीत हृदय से पूछा किसन ने, जब उतरते-उतरते ऐन बावड़ी के घाट पर आ गये! जहाँ कभी मछलदे अपनी मटकी भरने आती और उसके घुटनों तक लटकते इज़ारबंद में टँके चाँदी के छोटेछोटे घुँघरुओं की रुनझुन सुन पीछेपीछे ज्वालसिंह भी! कि- तुमने क्या माँगा?...

कान बज उठे नैनसी के! टूटीफूटी सीढ़ियाँ थीं, खण्डखण्ड दीवारें। रंग भर गये सब में! कांधे से लटकते दुशाले को चुपके से फरिया पर डाल लिया! कहा कुछ नहीं... बाजू थाम लिया धीरे से!

हरिण कुँलाचें भर उठा... नाभि में कस्तूरी बँधी थी!

चलो- चलें! किसना ने अपनी ठेठें सहलाते हुये कहा। ...ठेठें- पंजों, ऐड़ियों में कड़ियों कीं। कोहनियों में चटैया दुआ कीं। कलाइयों पर पोहँची, चूरा कीं! ...उँगलियाँ कभी नाक की नथनी टटोल उठतीं, कभी कान के झुमके। जात में पुराने संगीसाथी आते; देख के उसके ठाट केरूना कर उठतेः ...हमें तो घरगिरस्ती ने घेर लिया। सूखा ने खेती मेंट दई, स्योंढ़ा में मंजूरी नईं मिलत! सोचत-एं, झहीं पे परसाद की ठिलिया धरलें!

देह में देवी भरी रहतीं, अब आँखें भरी हैं। चलो- चलें! उसने फिर कहा।

कहाँ? नैनसी ने जैसे, दहिया (कैदख़ाना) से पूछा।

अपने धाम! माता माई पर।...

और... हम कहाँ जायें? गले में गोला-सा अड़ गया। आँखों में आँसू झिलमिला उठे।

तुम- अपने घर! दम निकल गया कहते हुये!

घर कहाँ? घर तो बिगाड़ दिया परमात्मा...ने-एएए! हिलकी बँध गई उसकी।

...ढाढ़स बँधाने सिर छाती से लगा लियाः करम का लिखा भोगना पड़ेगा।

...भोग रहे-हैं! उसने सुबकते हुये सिर हटा लिया। ...जी में आया कह दे, जनम-जनम का बिछुड़ा कुँअर मिल गया, तो भी भोग रहे हैं...। मगर कहा नहीं गया।

और उसके भी जी में आया कि सफाई दे- जीवनलीला तो खतम हो गई थी... कोन डागदर आ रहा था-बचाने? ये तो माई का परसाद है। ये तो माई को ही अर्पित। किसना तो उन्हीं की जोगिनी। किसना तो कुँअर महराज की धरोहर! सब तकदीर का लेख है... ना पाँव धरता तच्छक पे। ना गोपालपुरा-वासी रतनगढ़-माई का हो रहता!

कोरें भीग गईं। मगर ओठ सीं लिये!

सूरज लौट रहा था। वे भी लौट आये अंधकूप में भटकते हुये। ...आमखो के झरने से दो-दो घूँट पानी पी लिया। फिर... वह पहाड़ पर चढ़ गया और नैनसी तलहटी में बिला गई।... ये बहुत पहले की ‘बात’ नहीं है!
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(पाँच)
मॉब लिंचिंग

अभी हाल ही में भोपाल से ग्वालियर लौट रहा था। मैं एक लोअर बर्थ पर था और मेरे ऊपर मिडिल बर्थ पर भारतीय वेशभूषा वाले एक पंडित जी थे। सामने की लोअर बर्थ पर एक युवती लेटी थी और उसके ऊपर की मिडिल पर उसके पिता। इसके अलावा हमारे कूपे के सामने साइड लोअर पर एक अन्य लड़की लेटी थी और उसके ऊपर अपर बर्थ पर उसकी मां। घटनाक्रम ललितपुर के बाद शुरू हुआ जबकि रात का अंधेरा फैलने लगा। मेरे सामने वाली अपर बर्थ पर एक व्यक्ति बैठा शाम के धुंधलके से ही पानी की बॉटल से कोई लाल-पीला मटमैला-सा पदार्थ पी रहा था। बीच-बीच में वह नमकीन भी खाता जा रहा था। थोड़ी देर बाद वह व्यक्ति जबकि गाड़ी झांसी के पास पहुंच रही थी, अपनी अपर बर्थ से उतरकर लड़की की बर्थ पर आकर बैठ गया। चेहरे-मोहरे, वेशभूषा, सामान और हाव-भाव से वह व्यक्ति एक फौजी लग रहा था! पता नहीं उसने क्या हरकत दी कि लड़की ने जोर से अपना पैर मारा...तो उसने आगे की ओर हाथ बढ़ाकर शायद उसके घुटने के ऊपर नोंच लिया! जिससे वह लड़की उठ कर अधबैठी हो गई और उसके बाद उस व्यक्ति ने उसके सीने पर हाथ रख दिया।
इस घटना से मैं एकदम उत्तेजित हो गया। पर अपनी उम्र और कमजोरी का ख्याल कर जीभ दबा कर रह गया। लेकिन फिर भी मैंने उठकर लाइट तो जला ही दी और अपने ऊपर मिडिल बर्थ वाले अनाम पण्डित जी से कुछ कहने लगा। इतने में वह अनाम फौजी खड़ा हुआ और उसने झट से लाइट बंद कर दी तथा वह फिर से बैठकर उस लड़की के साथ छेड़खानी करने लगा। अब तक लड़की के पिता को भी यह बात पता चल गई थी। वह मिडिल बर्थ पर था और नीचे की ओर सिर झुकाकर वाकया देखने लगा था। पर कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा रहा था।
पण्डित जी और मैं भी उस वक्त उस हट्टे-कट्टे आदमी का रौद्र रूप देख सहमे से रह गए थे। लेकिन इसी बीच एक सुखद वाकया यह हुआ कि हमारे कूपे के सामने साइड लोअर पर जो लड़की लेटी थी वह अपने फोन से पुलिस से बात करने लगी...। गाड़ी की खटर-पटर के बीच उसने जोर-जोर से बताना शुरू कर दिया कि फलां गाड़ी की, फलां कोच में, फलां बर्थ पर छेड़खानी की घटना हो रही है। आप यहां जल्दी आ जाइए।
इतना सुनना था कि वह फौजी झटके से उठा और उसने उस लड़की को एक जोरदार तमाचा मारा, जिसकी चटाख की आवाज से हम सब दहशत में आ गए। और इसके साथ ही वह लड़की बहुत जोर से चीखी, हाय- मम्मी! कान फट गया। यह सुन उसकी मां अपर बर्थ से एकदम नीचे कूद पड़ी और वह गिरते गिरते बची। लेकिन वह फौजी उस लड़की की चोटी पकड़ जोर से झिंझोड़ने लगा, दांत पीसता, बकता हुआ- साली पुलिस को बुलाएगी...क्या कर लेगी पुलिस...मैं उसका बाप आर्मी मैन! मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता! समझी कि नहीं समझी!
लड़की जोर जोर से चीख रही थी, मम्मी कान फट गया, मम्मी कान में बहुत दर्द है, ओ-माँ!
लेकिन फौजी अपनी हरकत से बाज नहीं आ रहा था। शर्मनाक यह कि डिब्बा चुप था! हालांकि अधिकांश खाली था। और लड़की का वृद्ध बाप तथा दूसरी लड़की की वृद्ध मां ही चुप थी तो हम में से किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि उससे दो शब्द कहते! उसका हाथ पकड़ना तो जैसे बम को छूना था!
यही करते-करते झांसी आ गया। कुछ सवारियां उतर गयीं, लेकिन एक भी सवारी चढ़ी नहीं। स्टेशन आने पर फौजी अपनी बर्थ पर चढ़ गया था। हम लोगों ने समझा कि मामला शांत हो गया। हालांकि हम लोग इस बात का इंतजार कर रहे थे कि पुलिस वाले आएं और उसे गिरफ्तार करें तो हम भी गवाह बनें। पर कोई पुलिस नहीं आई और गाड़ी स्टेशन से चल दी। अब तक अंधेरा और गहरा गया था। दतिया निकलने के बाद वह फौजी फिर नीचे उतरा तो मैंने उठकर लाइट जलाई। लेकिन उसने तुरंत बंद कर दी और मेरे सामने वाली बर्थ पर जो लड़की सहमी सी अधलेटी थी, उसके पैताने आकर बैठ गया। तथा फिर उसके साथ कुछ न कुछ हरकत करने लगा। इस बात से हम लोग बहुत तनाव में आ गए। मैं उठा तो पण्डित जी समझ गए कि मैं उसे रोकने जा रहा हूं। इस पर वे भी अपनी बर्थ से नीचे उतर आए और कान पर जनेऊ चढ़ाते हुए मुझे अपने पीछे आने का इशारा किया। मैं उनके पीछे चलता हुआ बाथरूम तक पहुंच गया। वहां बाथरूम में न जाकर उन्होंने मुझसे कहा कि- ग्वालियर आने दो, तब हम इसका इंतजाम करेंगे... यहां कुछ करने पर खतरा हो सकता है... इसके पास पिस्टल है, यह हमें गोली भी मार सकता है!'
मैंने कहा- ग्वालियर में गाड़ी कितनी देर रुकेगी... और हम क्या कर लेंगे?'
तब उन्होंने कहा कि- वहां उतर कर आप जीआरपी चौकी चले जाना, गाड़ी चल पड़ेगी तो मैं जंजीर खींच दूंगा। पुलिस को लेकर आना तभी हम इससे निबट सकेंगे।'
मैं उनकी बात समझ गया, उनका मोबाइल नम्बर ले लिया और अपनी सीट पर आकर लेट गया। इसके बाद वे भी मेरे पीछे आ गए और अपनी बर्थ गिरा दी तथा हम दोनों लोअर पर बैठ गए। फौजी जो कि अभी तक सामने वाली लोअर पर अधलेटी लड़की को उसके पैताने बैठा छेड़ रहा था, हमारी वाली सीट पर आ गया और उसने अपने पैर उस लड़की की बर्थ पर रख लिए। अब वह उसे पैरों से छेड़ने लगा। लड़की बहुत परेशान थी। और हम दोनों वृद्ध एक-दूसरे की ओर विवशता से भरे ताक रहे थे। बीच-बीच में मैंने उससे पूछा, भाई साब आप कहाँ जाएंगे, घर जा रहे हैं, ड्यूटी जा रहे हैं...' पर वह कुछ बोलता न था, हर बार एक कड़वी मुस्कान के साथ मुझे देख जरूर लेता। डिब्बे के छोर से आती झीनी रोशनी की झाँई में पण्डित जी की मुख-मुद्रा बता रही थी कि वे उससे मन ही मन कह रहे थे, बेटा ग्वालियर आने दे!
फिर उसे न जाने क्या सूझा कि, सामने वाली बर्थ पर फिर पहुंच गया, जिस पर वह लड़की कान पकड़े लेटी थी, जिसको उसने तेज थप्पड़ मारा था। इस तरह फिर वह उसे छेड़ने लगा। बहुत मुश्किल थी। खूब खून खौल रहा था, पर हम सिर्फ घड़ियां गिन रहे थे... कि कब ग्वालियर आए और हम उसे सबक सिखा पाएं! लड़कियों की जान छुड़ा पाएं!
बड़ी मुश्किल भरे थे वे 40 मिनट...क्योंकि डिब्बे में अंधेरा था और वह बारी-बारी से दोनों लड़कियों को कहां-कहां नोंच रहा था, हमें पता भी नहीं चल रहा था। वह कभी इस लड़की के शरीर से खेलता तो कभी उठकर इस लड़की के शरीर से खेलने लगता। डिब्बे में हम इतने लोग थे पर किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि उस दुष्ट का विरोध करें।
बड़ी मुश्किल से ग्वालियर आया।
लेकिन ग्वालियर जैसे ही आया, मैं उतर कर सबसे पहले बाहर निकल गया और सीढ़ियों पर दौड़ता हुआ प्लेटफार्म नंबर एक पर जा पहुंचा। वहां संयोग से मुझे आरपीएफ का एक परिचित जवान मिल गया। मैंने उससे कहा कि- गाड़ी में इस-इस तरह छेड़खानी हुई है...' तो उसने कहा, हां- चाचा, झांसी कंट्रोल रूम से कंप्लेंट नोट कराई गई है। पर यह जीआरपी वालों का केस है...' यह कहकर वह मुझे जीआरपी चौकी ले आया। और हांफते हुए बमुश्किल मैंने वहां अपनी बात कही तो वहां बैठे 5-6 सिपाही और दारोगा एफआईआर फॉर्म हाथ ले तुरंत मेरे साथ चल दिए। लेकिन तब तक गाड़ी प्लेटफार्म पर रेंगने लगी। मैंने पुलिस के साथ दौड़ते हुए पण्डित जी को फोन लगाया तो उन्होंने कहा कि- मैंने जंजीर खींच दी है... तुम अगले पुल से आओ, रुकने तक डिब्बा वहीं पहुंच जाएगा। मैंने उन सिपाहियों को पकड़ कर विपरीत दिशा में खींचा और हम लोग दौड़ते हुए एक्सीलेटर पर पांव रखकर पुल चढ़ गए और फिर नीचे की ओर दो नंबर पर सीढ़ियों से उतर आए। संयोग की बात थी कि वह बोगी सीढ़ियों के ऐन सामने आकर रुकी! पण्डित जी गेट पर खड़े थे।
मेरे साथ जवान दौड़कर अंदर घुस गए। पर वह फौजी इतना तगड़ा था कि खींचे नहीं खिंच रहा था। बड़ी मुश्किल से वे उस पर डंडे फटकारते और घसीटते हुए नीचे खींच कर लाए। इसके साथ ही बोगी की सवारियां उतर कर नीचे आ गयीं और उस व्यक्ति को हाथों से ही नहीं, अपने बूटों से भी कुचल-कुचल कर मारने लगीं। लगा पलक झपकते-झपकते बोगी और प्लेटफार्म की भीड़ हिंस्र पशुओं में बदल गयी! पण्डित जी चिल्लाए, यह क्या हो रहा है? यह तो मॉब लिंचिंग है!' पुलिस वालों से कहा, इसको जल्दी से घसीटकर लॉकअप में ले जाकर बंद कर दो, नहीं तो भीड़ मार डालेगी!'
बहरहाल, किसी तरह उसे बचाते हुए, गिरते-पड़ते हम सुरक्षा का घेरा बनाकर एकसीलेटर पर डाल प्लेटफॉर्म नम्बर एक पर ले आए तथा लॉकअप में बंद कराया।
गाड़ी अब तक जा चुकी थी।
भीड़ हत्या या मॉब लिंचिंग पूर्वचिन्तित बिना किसी व्यवस्थित न्याय प्रक्रिया के, किसी अनौपचारिक अप्रशासनिक समूह द्वारा की गई हत्या या शारीरिक प्रताड़ना को कहा जाता है। अराजकता की यह आंधी भारत में क्यों शुरू हुई, इसकी तह तक जाना होगा नहीं तो यह हमारा जीना दूभर कर देगी। दरअसल, भीड़ का मनोविज्ञान सामाजिक विज्ञान का एक छोटा-सा हिस्सा रहा है। यह एक अजीब और पुराना तरीका है जिसकी पुनरावृत्ति समाज में आज पुनः अस्थिरता आने और क़ानून-व्यवस्था के ऊपर भरोसा उठ जाने से निर्मित हो गयी है।
मेरे परिचित आरपीएफ के जवान ने बाद में मुझे बताया कि वह फौजी था तो उसके फोन पर एमसीओ वाले आ गए थे जो उसे छुड़ा ले गए। और शायद उन महिलाओं ने भी एफआईआर फार्म पर दस्तखत नहीं किए थे कि- वे तारीख-पेशी के झंझट में नहीं पड़ना चाहती थीं।
अर्थात- न रखवाले जिम्मेदारी लेंगे और न पीड़ित-प्रताड़ित आगे आएंगे.... तो क्या भीड़ की आंधी इसी तरह बढ़ती रहेगी?
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(छह)
मनुष्य

‘य स्याहं अनुगृह्यामि हरिष्ये तद्धनं शनैः।’ श्लोक ने मेरी नींद हराम कर दी थी। पुस्तक मैंने बंद कर के रख दी और अपने गुरु को मोबाइल लगाया। जवाब मिलाः
‘‘अर्थ वही है, मास्टर! जो तुम समझ रहे हो...’’
‘‘यानी जिस पर वह कृपा करेगा, धीरे-धीरे उसका धन हर लेगा...?’’
‘‘अवश्य!’’
‘‘धन के मानी, क्या; स्त्री-पुत्र, यश-कीर्ति इत्यादि भी...?’’
‘‘इतना ही नहीं मास्टर, देह भी; वह भी तो धन ही है...’’
‘‘फिर तो यह बहुत खराब कृपा है,’’ मैं घबरा गया, ‘‘यह कृपा नहीं कोप है!’’
वे चुप रह गये। कोई जवाब नहीं दिया। मैंने हैलो-हैलो किया तो धीरे से इतना ही कहा, ‘‘ईश्वर का नाम लेकर सो जाओ, मास्टर!’’
नींद कहां थी?
आगे पढ़ने लगा। धीरे-धीरे समझ में आया कि- जब हर प्रकार का धन हर जाएगा, तभी तो मायाजाल से छुटकारा मिलेगा।... अपना जब कुछ नहीं बचेगा, अपना जब कोई नहीं दिखेगा, तभी तो उसकी ओर जा सकेगा जीव...।

तीन-चार दिन यों ही बीत गये। मन उखड़ा-उखड़ा सा था। शायद, पहले सब कुछ ठीक था, जब नास्तिक था। अपनी मेहनत, लगन, बुद्धि-बल पर बड़ा भरोसा था। अखण्ड आत्मविश्वास से लबरेज, जो चाहता कर लेता था। मगर जब से धर्म और गुरु की शरण में आया भीरु हो गया। पहले पुत्र और फिर नौकरी चली गई। यह कृपा थी कि कोप, पता नहीं चल रहा था।... बेचैनी के आलम में एक रात मैंने फिर मोबाइल लगा कर पूछा, ‘‘क्या इसीलिए, उसने मेरा पुत्र और आजीविका हर ली?’’
लगा, वे कुछ अस्वस्थ थे। सांस को काबू में कर धीरे-धीरे बोले, ‘‘संसार केले का खंभा है, मास्टर! पत्ते छीलते जाओ... अंत में कोई आधार नहीं मिलेगा।’’
फोन काट दिया।
दुबारा लगाया तो चेले ने अटेण्ड कर कहा, ‘‘महाराज जी की तबियत खराब है, मास्साब!’’
‘‘क्या बीमारी है...?’’
‘‘पता नहीं, नई है कि पुरानी उखड़ पड़ी है। सांस से बेहाल रहते हैं।’’
‘‘वहां ठण्ड भी तो बहुत है। इस बार तो वैसे भी टेम्परेचर शून्य से नीचे चला गया... तिस पर तालाब के किनारे बगिया में कुटिया। तपा दिया करो जरा ढंग से।’’
‘‘संन्यासी को अग्नि वर्जित है...’’ उसने कहा और फोन काट दिया।
मुझे चिंता होने लगी। बाबा का सुदर्शन स्वरूप मेरी आंखों में छाकर रह गया। गजब के खूबसूरत हैं। दैहिक सौष्ठव से उम्र का पता नहीं चलता। भारती पंरपरा के संन्यासी होने से दाढ़ी-मूंछ और सिर के बाल सदैव घुटाकर रखते, सो काले-सफेद बालों के अनुपात का अनुमान नहीं लगता। गाल भरे हुए, ललाट पर कोई शिकन नहीं। न कानों की लोरियां हिलतीं, न आंखों के नीचे झांइयां। बांहें लंबी और सुडौल। त्वचा चिकनी चमकदार और गुलाबी आभा लिए हुए। अक्सर उघारे बदन रहते, सो चौड़ी छाती, पतला पेट और पतली कमर पर बंधा केसरिया अचला बड़ा आकर्षक लगता। अर्ध पद्मासन में विराजमान होते तो गुलाबी पंजे, अंगूठों के चमकीले नख और लाल तलबे मन को मोह लेते।

तीन-चार दिन बाद मैंने फिर फोन लगाया, पूछा, ‘‘तबियत कैसी है-अब?’’
‘‘तबियत, क्या बताएं, ठीक ही है, मास्टर!’’
‘‘आप आ जाते तो किसी अच्छे डॉक्टर को दिखला देते...’’
‘‘कहां?’’
‘‘यहां, ग्वालियर में।...’’
‘‘हम तो तीन-चार दिनों से ग्वालियर में ही हैं।’’
‘‘अरे! बताया नहीं... दिखलाया किसी को? कहां पर ठहरे हैं? मैं आ रहा हूं...’’
‘‘आने को आ-जाओ, हम तो अब जा रहे हैं...’’ कहकर पता बता दिया।
कितने निष्ठुर हैं, आप! मैं कटकर रह गया। मगर बाइक उठाकर तुरंत पहुंच गया। बाबा एक शिष्य के तलघर में तख्त पर लेटे थे। वे नजदीक ही कहीं स्टेशन मास्टर थे। उस वक्त ड्यूटी से नहीं लौटे थे। पर उनका परिवार बाबा की सेवा में तत्पर था। लड़कियां, लड़के, पत्नी। मैंने कदमों पे सिर झुकाया तो वे उठ कर बैठ गये। चेहरा मुरझाया हुआ था।
‘‘क्या हो गया है, आपको?’’ मैंने दुखी स्वर में पूछा।
‘‘परमात्मा की कृपा है...’’ उन्होंने मंद स्वर में कहा। फिर खंखार कर थूक घोंटा।
सामने सोफे पर गांव का ही एक लड़का बैठा था जो यहां वकालत करता है। मैं उसे इशारे से उठाकर बाहर ले गया। धीमे स्वर में पूछा, ‘‘कोई गंभीर बीमारी तो नहीं है, इन्हें?’’
‘‘नहीं...’’
‘‘जांच करा ली?’’
‘‘डाइबिटीज है...’’
‘‘और...?’’
‘‘बीपी भी बढ़ा हुआ है...’’
‘‘और...?’’
‘‘सदी-जुखाम, बस!’’
‘‘किसको दिखाया...?’’
‘‘पुराने एमडी हैं, पहले जेएएच में थे, अब रिटायर्ड हैं, सहारा हॉस्पीटल के बगल में क्लीनिक है उनका।’’
‘‘चलो।’’ मैं उसे लेकर वापस तलघर में आ गया। बाबा को देख-देख कर मन बड़ा आहत हो रहा था। मैंने कहा, ‘‘आप तो जड़ी-बूटियां भी जानते हैं, इसमें करेले का जूस बड़ा फायदा करता है...’’
उन्होंने फिर गला साफ किया, थूक घोंटा और बोले, ‘‘एक बीमारी हो तो साधन बने, मास्टर! ये करो तो वो बढ़ जाती है वो करो तो ये... हृदयरोग भी तो है।’’
‘‘बापरे!’’ मेरे मुंह से निकला, ‘‘कभी बताया भी नहीं...?’’
‘‘क्या हो जाता बता के, संसार केले का खंभा है...’’ कहते सांस बढ़ गई।
मैंने व्यथित हो अपना हृदय थाम लिया।

कार आने में देर हो रही थी, शायद! वकील को उन्होंने इशारा किया तो उसने फिर फोन लगाया, बताया, ‘‘पंद्रह-बीस मिनट और लगेंगे अभी।’’
शाम घिर रही थी। सर्दी बढ़ रही थी। शनैः शनैः उनका श्वास भी तेज होता हुआ। मैंने अपनी धारणा के मुताबिक कहा, ‘‘सर्दी बहुत है, वहां! कुछ दिन यहीं क्यों नहीं रह जाते आप! मेरे घर। अच्छी धूप मिल जाती है, बरामदे में।...’’
‘‘घरों में विधि बनती नहीं है, मास्टर!’’
‘‘मगर सर्दी ने तो आपका दम फुला रखा है...’’ मैंने अपनी पीड़ा का उलाहना दिया।
‘‘सर्दी कारण नहीं है, मास्टर!’’ गोया, वे मेरी अक्ल पर या अपने मन की न समझा पाने को लेकर घिघियाते-पछताते से बोले।
फिर क्या वजह है, सिर झुकाकर मैं अपने मौन में सोच उठा। कोई साधना, कोई व्याधि! किसमें उलझे हैं, आप!’ मैंने चेहरा उठाकर देखा।
वे मुझी को देख रहे थे। ऐसी आंखों से कि मैं डर गया। चेहरा झुका लिया। फिर थोड़ी देर बाद विषयांतर कर बोला, ‘‘कितने ताज्जुब की बात है कि संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अपने भाई से कहता हैः घन घमंड नभ गरजत घोरा, प्रिया हीन डरपत मन मोरा!’’ कहकर मैंने नजरें उठाईं तो बाबा ने आंखें फेर लीं।
मैंने अपना माथा पीट लिया कि- मैंने बिना सोचे-समझे यह क्या कह दिया!
बाहर से लड़के ने आकर कहा, ‘‘कार आ गई।’’
बाबा बोले, ‘‘हमारा झोला ले आओ।’’
अंदर से कपड़े का झोला आ गया उनका। उसमें एक पजामी, एक सूती चादरा और एक तौलिया था। तीनों केसरिया रंग में रंगे हुए। बाबा ने पजामी निकाल कर पहनने के लिए तख्त के नीचे दोनों पांव लटका लिये। मैंने मदद करके पजामी उन्हें पहनवा दी। चादरा उन्होंने ओढ़ लिया तो तौलिया मैंने उनके कंधों पर डाल दिया।
श्वास अब अच्छी तरह खुल चुका था। आंखें निकली पड़ रही थीं। खड़े होते ही लड़खड़ा गये। तब मैं चेता और उन्हें सहारा दे कार तक ले चला। जीभ मानी नहीं, बोला, ‘‘कितना हृष्टपुष्ट था ये शरीर।...’’
‘‘शरीर तो हम एक बार फिर वैसा ही कर लेंगे... 18-20 रोज से कुछ खाया नहीं है... एक महीने से सोए नहीं...’’
‘‘अरे!’’ आश्चर्य से मूर्खों की तरह मेरा मुंह खुला रह गया।
जो लोग लेने आये थे, वे भी शिष्यगण ही थे। कार के दरवाजे खोले खड़े थे।... उस रात वे उनके साथ चले गये। उनके साथ, मगर अपने आश्रम पर ही। ताल के किनारे बगिया स्थित कुटिया में। जिद की इंतहा थी यह। मुझे सोने से पहले तक बेचैनी बनी रही, फिर भूल गया। अगले दिन दोस्त की बेटी की शादी में गंजबासोदा जाना था। पंजाब मेल पकड़ कर मैं वहां चला गया। दूसरे दिन शाम को लौटा। थकान और जगार के कारण बिस्तर में घुसते ही सो गया। रात में साढ़े तीन बजे मोबाइल की घंटी बजी तो मैंने उसे नींद की बेहोशी में काट दिया। मगर घंटी थोड़ी देर बाद रिपीट हुई। आंखें खोलकर मैंने देखा तो बाबा का नाम ‘मन मोहन भारती’ चमक रहा था। अंगूठे से बटन दबाकर, मोबाइल कान से लगाकर मैंने, ‘महाराज जी, प्रणाम... कहा’। जवाब में, ‘मास्साब, महाराज जी तो खतम हो गये...’ कहकर कोई रो पड़ा।
‘‘कब?’’ मैं एकदम घबरा गया।
‘‘तीन-सवा तीन बजे...’’
‘‘एऽ अब मैं क्या करूं...’’ मेरे सीने में तेज दर्द उठ खड़ा हुआ।...
फोन कट गया। कोई जवाब नहीं मिला।

पहली मुलाकात याद हो आई और तमाम बेतरतीब बातें...
-मास्टर, तुमने वो कौन सा वैज्ञानिक बताया था जिसने ईश्वर की जगह गुरुत्वाकर्षण को ब्रह्माण्ड का जनक ठहरा दिया है?
-स्टीफन हॉकिंग।
-तो सुनो, मास्टर! मैं ये दावे से कहता हूं कि परमात्मा है और...
-हां, महाराज जी... जी, महाराज जी, अवश्य है!’ मैंने जैसे-तैसे फोन बंद कराया, रात का डेढ़ बज रहा था।
ऐसे ही एक बार और...
-मास्टर, कल आश्रम पे नईं आये तुम, गुरुपूनों थी!
-कल...’ मैं रो पड़ा, ‘बेटा खतम हो गया, महाराज जी!’
-कैसे?
-एक्सीडेंट से...
-अरे, बुरा हुआ। ...पर तुम शोक नहीं करो। आप तो बुद्धिमान हैं। ना जाने वो कितनी बार आपका पिता बना होगा, कितनी बार पुत्र। संयोग-संस्कार होगा तो आगे भी मिलेगा। मृत्यु अंत नहीं है, मास्टर!
फिर मैंने नौकरी छोड़ दी और उन्हें बताया तो बोले...
-ठीक ही किया, अब रूखी-सूखी में गुजर कर ईश्वर का भजन करो। संसार में इस जीव को स्वप्न में भी विश्राम नहीं मिलता, मास्टर! कल्याण भजन के सिवा और किसी बात में है नहीं...।

कितनी मुश्किल से सबेरा हुआ, मैं बता नहीं सकता। बीच में उचटती-सी नींद भी आई तो स्वप्न में कुटिया पर जा पहुंचा। शोकाकुल लोगों की भीड़ लगी हुई थी। मैं जार-जार रो रहा था। तभी राख से बदन वाले बाबा आ गये। राख की आंखें, राख के नख, राख के दांत और राख के ही रोमों वाले! मैंने पूछा- आप तो मर गये थे, क्या फीनिक्स की तरह अपनी राख से उठ खड़े हुए हैं?
-हां! शरीर असमय चला गया। समय जब तक पूरा नहीं होगा, यहीं रहूंगा। तुम सबके भीतर। जब चाहोगे, महसूस कर लोगे। जब चाहोगे, पा लोगे।...
-अरे, आपने तो मौत को भी ठेंगा दिखा दिया... मैं बेकार रो रहा था!
-बेकार ही... बिल्कुल बेकार! मृत्यु किसी काल में दुख का हेतु ही नहीं! मृत्यु शरीर की होती है... जिसे विश्वास न हो, मरकर देख ले!
हिम्मत बांधकर मैं उठा। बाइक उठाई। पत्नी को लेकर कुटिया पर आ गया। ठंडी हवा से राह भर हम थर-थर कांपते रहे। सड़क से आश्रम के लिये साधन नहीं मिलता, इसलिये! नही ंतो जनवरी के पहले हप्ते की सुबह सचमुच भयानक होती है। मगर ऐसी ठंडी में भी आश्रम पर लोगों का तांता लगा हुआ था। गांव के लोग ही नहीं, बाहर के भी तमाम लोग अपनी बाइकों से आ चुके थे। बाहर एक कार भी खड़ी थी। पता चला- गुरुमाता, उनका पुत्र तथा पुत्रवधु भी आ चुके थे। बाबा का विमान बैंडबाजे के साथ गांव में दर्शनार्थ ले जाया गया था। बगिया में समाधि की तैयारी चल रही थी। शिव मंदिर के सामने ही कबरखुद्दू जो कि एक मुसलमान था, फांबड़े से गड्डा खोद रहा था। ताल के उस पार पूरब दिशा में नारंगी सूरज आसमान पर काफी ऊंचा चढ़ आया था। आज से पहले, प्राची में वह जब अपनी गुलाबी आभा में फूट रहा होता, बाबा इसी ठौर पर सूर्याभिमुख हो, नेत्र मूंद, हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते। बाल रवि की आभा से उनका उघारा बदन गुलाब-सा दमकता।...
भूमि पर कुछ औरते गुरुमाता और उनकी पुत्रवधु को घेरे बैठी थीं। सभी की आंखें आंसुओं से नम और चेहरे विषादयुक्त थे। बाबा का गृहस्थ जीवन अति अल्प था। मात्र चार वर्षीय। पुत्र को गर्भ में छोड़ आये थे। फिर कभी पलट कर नहीं देखा। संन्यास ले लिया तो ले लिया। माता, पिता, पत्नी और रिश्तेदार लेने भी आये, पर लौटे नहीं।
और अब चोला भी छोड़ गये।
देह पर मुग्ध हो, मैं कभी-कभार पूछ बैठता- शरीर से आपकी आयु का पता नहीं चलता... कितने के होंगे?
-अरे, मास्टर! तुम भी पत्रकारों जैसे सवाल करते हो। पता है, उनकी तनखा और साधु की जाति-आयु नहीं पूछी जाती।
-पर जाति तो आपकी खुल गई...
-खुल गई तो खुल गई, वे मौज में कहते- लगाओ अंदाज, कितने के होंगे हम!
-पता नहीं... पर ये तो है कि मैं आपसे पहले जाऊंगा।
-ये कोई नहीं कह सकता... वे पंजा हिलाकर दृढ़ता से कहते।

बैंड की ध्वनि करीब आ गई। मतलब, उनका विमान लौट आया था। देखने के लिये मैं उठकर बगिया के बाहर आ गया। गुरुपूर्णिमा पर जैसा उनका शृंगार कर, हार-फूल पहना तख्त पर बिठाया जाता, वैसा ही सजाकर ट्रेक्टर पर बिठाया गया था, उन्हें। मगर आज उनकी गर्दन पकड़े होने के बावजूद ढुलकी पड़ रही थी। ओठ पपड़ा गये थे। कंचों से चमकते रहने वाले गुलाबी नेत्र मुंदे हुए थे। जैसे, कहीं गहरा गोता लगा गए हों... ध्यान टुूटने का नाम ही नहीं ले रहा था।

रात को एक बार फोन पर कहा था, उन्होंने, ‘‘मास्टर, हमारी गणना हो रही है...’’
‘‘कैसे जाना महाराज?’’ सुनकर मैं चक्कर में पड़ गया।
‘‘ऐसे कि- अब विघ्न पड़ रहे हैं।’’
‘‘अरे!’’
‘‘हां! विघ्न बढ़िया होते हैं। परमात्मा परीक्षा लेने लगे तो समझो गिनती में आ गये तुम।...’’
‘‘हां, सो तो है।’’ मैं लोहा मान गया।
ट्रेक्टर से जब उन्हें उतारा जा रहा था, बाहर से एक कार आकर रुकी। कार से दो-तीन पुरुष और एक वृद्धा उतरी, 80-90 बरस कीं। वे इतनी बेहाल हो रही थीं कि देखते नहीं बन रहा था। बाल बिखर गये थे। पल्लू गिर गया था। शायद, राह भर रोते रहने के कारण उनका गला रुंध गया था। बाबा के पास आकर उनके शव पर, अचेत हो वे गिर पड़ीं।
जानकार बताने लगे कि वे उनकी मां हैं।

बगिया में उनके शव के आते ही भूमि पर बैठी औरतें सिसक उठीं। पुत्रवधु की गोद में उसका दो-ढाई साल का बालक था, बाबा का नाती। उसे छोड़ सब की आंखें भीग रही थीं।

बाबा ने एक बार कहा था कि- मोह ही सारी विपत्तियों का मूल है। अज्ञान के कारण मनुष्य के हृदय में ही इसने अपना वास-स्थान बना लिया है।’ वे ठीक कहते होंगे, मैंने उनके चोटी काट शिष्यों को निर्लिप्त भाव से उन्हें समाधि दिलाते देखा। पुत्र और परिजनों को यह हक नहीं था। वे साधु थे और साधु की भांति ही शिष्यों द्वारा उन्हें अभिषेक उपरांत जमींदोज किया किया जा रहा था, पुत्र द्वारा दाहकर्म नहीं।...

गुरुमाता यानी उनकी पत्नी से कहा गया कि आप अपना सुहाग उतार के उनके चरणों में रख दो। कदाचित बदहवास-सी वे उठीं। लुढ़कती-सी गड्डे में उतरीं। गोया, नीम बेहोशी में अपने सुहाग चिह्न उतारे। बेखुदी में उनके चरणों में रखे। और नींद में चलती-सी लौट आईं। आंखें पथराई हुई थीं। आंसू 32 साल पहले सूख गये थे।

मेरे पुत्र के देहांत पर बाबा ने कहा था कि- जीवात्मा अकेला ही आता-जाता है। रिष्ते-नाते यहीं जुड़ते हैं, यहीं धरे रह जाते हैं। ज्ञानी जन परिगमन का शोक नहीं करते।’

पर मैं, और समूची भीड़ देख रही थी कि एक औरत, अत्यंत करुण विलाप करती चली आ रही थी... उसके चीत्कार और रुदन से सब के दिल दहल रहे थे...। वह इसी गांव की औरत थी जो कल जेल में अपने बेटे से मिलने गई थी। पुलिस ने उसे एक झूठे कत्ल केस में फंसा कर उम्र कैद की सजा करा दी थी।
वह प्रोढ़ा बाबा के सहारे अपनी जिंदगी काट रही थी, दोनों वक्त उनके लिये खाने का टिफिन भेजकर।... यही उसकी दिनचर्या थी। यही घर-संसार। और एक आस भी कि उसकी इस सेवा से दयालु ईश्वर एक न एक दिन उसके बेटे की सजा माफ करा देगा।...
अनाथ की तरह रोती-रोती वह औरत, समाधि के लिए खुदे गड्डे से निकली मिट्टी के ढेर पर गिर कर अचेत हो गई।

दृश्य देखे नहीं जा रहे थे। वे न जाने कितनों की आस तोड़ गए थे, कितनों को अनाथ कर गए थे।... मैंने इशारे से पत्नी को बुलाया और बाइक उठा कर लौट आया।

शाम को उनके एक गृहस्थ शिष्य ने फोन किया कि- परसों बैठक में आ जाना, मास्साब! चबूतरा, मूर्ति, संत भण्डारे का कैसे-क्या होगा, इस पर चर्चा कर लेंगे।’’
‘‘उस रात तुम्हीं उनके पास थे?’’ मुझे भारी जिज्ञासा थी, मैंने पूछ लिया।
‘‘हां! शाम को महाराज जी ने फोन करके हमें ही बुला लिया था। कोई साधन नहीं मिला रात में... सड़क से आश्रम तक पैदल ही आये।’’
‘‘रात ज्यादा हो गई थी?’’
‘‘साढ़े नौ-पौने दस बज गये होंगे। मंदिर पे आरती तक नहीं हुई थी। सब उदास बैठे थे। हमने करवाई। फिर बाबा ने सबको विदा कर दिया...।
‘‘महाराज जी ने गुफा में प्राण त्यागे?’’
‘‘नहीं, गुफा के अंदर तो वे दो-ढाई महीने से नहीं गये थे।... ऊपर ही। तख्त पर। हमसे कहते रहे, सबेरे तुम्हारे साथ चलेंगे। अच्छे डॉक्टर को दिखवा देना। इलाज लेना पड़ेगा-अब तो!’’
‘‘फिर...?’’ मेरी सांस अटक रही थी।
‘‘सांस धौंकनी की तरह चल रही थी। बैठे थे। पीठ में दर्द बता रहे थे। हम हाथ फेर रहे थे। अचानक रात तीन बजे के लगभग हमारी गोद में आ गये! अरे- महाराज जी, ये क्या कर रहे?!’ हम आश्चर्य-चकित रह गये। तभी उनके दांतों की आवाज आई, एक हिचकी और प्राण निकल गए।’’

फोन काट दिया मैंने। राम का भयभीत चेहरा आकार ले उठा, जो किष्किंधा पर बादलों की गर्जना सुन सहम गया था।
०००


(सात)
प्रत्याशा

मोहकम दफ्तर के जिस कमरे में बैठते, उसमें शर्मा और सिंह दो मुलाजिम और बैठते थे। अलबत्ता, मोहकम बीच में होते, उनके दायें बाजू शर्मा और बायें बाजू सिंह होते थे। तीनों के पीछे कमरे की दीवार थी जिसमें तीनों की अलमारियाँ सटी रखी थीं। अलमारियों के बाद कुर्सियाँ और कुर्सियों के बाद उनकी टेबिलें थीं। टेबिलों के बाद 4’बाई15’ के खाली स्थान के बाद फिर एक दीवार थी जिसमें दो बड़े-बड़े आले छिके हुये थे। टेबिलों के बाद के इस गैलरीनुमा स्थान के दोनों सिरों पर एक-एक दरवाजा था। इनमें से एक बरामदे में खुलता और दूसरा पीछे के स्टोर रूम में। दोनों दरवाजों के ऊपर एक-एक रोशनदान था। दो दरवाजों की तरह हॉललनुमा कमरे में दो खिड़कियाँ भी थीं। इस तरह दायी ओर की खिड़की जो शर्मा के हिस्से में पड़ती, बरामदे में खुलती और बायीं ओर की जो सिंह के हिस्से में पड़ती, खाली मैदान की ओर खुलती जिसके बाद चम्बल के भरखे थे।इन खिड़कियों के ऊपर भी एक-एक रोशनदान था। इन सारे रोशनदानों के शीशे गत वर्ष पानी और बिजली के संकट को लेकर हुए किसान विद्रोह में टूट गए थे।...
तीनों टेबिलों के सामने की दीवार में जो दो आले थे उनमें हर साल की गर्मियों में एक जोड़ा कबूतर अपना ठिकाना तलाश लेते। कमरे के बीचों-बीच मोहकम की टेबिल के ठीक ऊपर छत के हुक से बिजली का एक भारी पंखा झूलता था। वह अप्रेल से सितम्बर तक हर साल चलता। कबूतरों का वह जोड़ा भी इस आले से उस आले तक निर्बाध रूप से मटरगश्ती किया करता। बीच-बीच में वे रोशनदानों से बाहर निकल जाते। उन उड़ानों में सिंह, शर्मा और मोहकम तीनों बार-बार चैंक जाते कि- कहीं पंखडि़यों से न टकरा जायें! पर उनका डर निर्मूल होता। जोड़ा निर्भीकतापूर्वक हवा में कलाबाजियां खाता भीतर-बाहर होता रहता।एक आला सिंह के सामने था और दूसरा शर्मा के सामने। कभी यह खाली तो कभी वह। दोनों एक ही आले में होते थे प्रायः। गुटरगूं और एक-दूसरे को पंख और चोंच मारने के सिवा जैसे कोई काम न था उन्हें!
शर्मा और सिंह घर-गृहस्थी वाले लोग।... कभी-कभी पारिवारिक तनाव झेलकर आते, पर जोड़े की मस्ती देखकर सब भूल जाते। उनकी छेड़छाड़, प्रेम-व्यवहार उन्हें तरोताजा कर देता।... कभी वे उड़कर उनकी अलमारियों पर आ बैठते और कभी इतने मस्त हो जाते कि टेबिलों पर ही उछलकूद करने लगते।मोहकम बैचलर थे। उनमें नई ऊर्जा का संचार हो रहा था।वे तीनों जैसे इन दो कबूतरों के लिये ही रोज-ब-रोज दफ्तर आते।...
जून-जुलाई में जोड़ा जब आलों में घास-फूस इकट्ठा करने लगता तो मोहकम को कल्पना के पंख लग जाते। वे रोज कुछ न कुछ लाइनें जोड़ते।...और एक बार तो एक समूची कविता ही बन पड़ी!
‘‘मार्च में/
हर सालट्यूब लाइट के ऊपर/
दो नई चिडि़याँ आकर घोंसला बनाती हैं...
जो बनता नहीं/
बिखर जाता है तिनका-तिनकाहर सुबह मेरी मेज पर
बटोर कर अलमारी में रख देता हूँ
ताकि उन्हें सहूलियत हो/
पर घोंसला वहाँ टिकता नहीं
ट्यूबलाइट के ऊपर...
फिर भी मार्च में हर साल
ट्यूबलाइट के ऊपर
दो नई चिडि़याँ आकर घोंसला बनाती हैं!’’

सिंह और शर्मा यद्यपि मोहकम की भांति कवि-हृदय तो न थे, पर इस कविता से बहुत प्रभावित हुये। शायद, यह जीवन के ज्यादा निकट थी। जीवन, जो कि उनका और उस एक जोड़ा कबूतर का ज्यादा भिन्न न था।...वे इसी को देखने शायद, रोज-ब-रोज दफ्तर आते। छुट्टी में भी कोई न कोई काम खोज लेते फाइलों में। उन्हें उस जोड़े में जैसे सुकून मिलता। जोड़ा, जो कि अब एक ही आले में बैठता।... कबूतरी ने अण्डे दे दिये थे। वह उन्हें ‘से’ रही थी। कबूतर बड़ी लगन से उसके नजदीक बैठा रहता। दिन में एक-दो बार उड़ान भरकर अपनी चोंच में दाने भर लाता। वह चोंच खोल देती और वह उगल देता। कभी उसका मन न होता और वह चोंच नहीं खोलती तो वह पंख या पंजा उठाकर जैसे मनाता... और फिर भी न मानती तो दाने आले में डाल देता।...और कई बार यह होता कि कबूतरी उड़ जाती बाहर चुगने के लिये। तब कबूतर अण्डों पर बैठता। ‘से’ नहीं पाता तो कम से कम सुरक्षा तो कर ही लेता। उसकी बदौलत ही कबूतरी इतनी निश्चिन्त होकर बाहर जाती थी।
मोहकम सोचते- किसी का विश्वास जीतना कितना अहं है। शायद, जीवन की यह सबसे जरूरी शर्त है। वे जिस लड़की के साथ रेस्त्रां में बैठते थे, वह आत्महत्या करने वाली थी। क्योंकि- उसके माँ-बाप मोहकम से नहीं किसी और से उसका रिश्ता जोड़ चुके थे। अब वह इसी शर्त पर बच सकती थी कि मोहकम उससे कोर्ट-मैरिज कर लें।मोहकम किसके विश्वास की रक्षा करें, लड़की के विश्वास की या उसके माँ-बाप के विश्वास की।...
उसी स्वर्णयुग में दफ्तर में एक घटना घटी। सिंह जो कि दफ्तर के अकाउन्टेन्ट थे, उन्हीं की स्टील की अलमारी से एक चेकबुक चोरी हो गई। किसी ने खिड़की के रोशनदान से सब्बल और केंची से आलमारी काटकर चेकबुक निकाल ली थी।...यह खिड़की मोहकम के बायें बाजू थी। खिड़की जो कि फील्ड में खुलती थी, उसी के रोशनदान से चोर ने यह कमाल कर दिखाया। लेकिन छुट्टी में दफ्तर आने का फायदा यह मिला कि सिंह को तत्काल चोरी का पता चल गया। उन्होंने सम्बन्धित बैंक को पत्र जारी करा दिया तथा थाने में एफ.आई.आर. दर्ज करा दी।थाने ने दफ्तर को एक चौकीदार दे दिया। चौकीदार तीनों टेबिलों को जोड़कर, भीतर से किबाड़ देकर और पंखा खोलकर आराम से सो जाता। दिन में उसका कोई नामो-निशान न मिलता दफ्तर में। वे लोग कबूतर के जोड़े के साथ पूर्ववत् थे।...
कि उसी दिन दोपहर में एक घटना और घटी। बरामदे की ओर जो दरवाजा था, उसी के पास स्टैंड पर एक पानी का घड़ा रखा रहता। घड़े पर तश्तरी और तश्तरी पर डोंगा। और वे तीनों दिन में कई बार अपनी कुर्सियों से उठकर दरवाजे तक आते और डोंगे से पानी पीते। इस क्रिया में उनके हाथ ऊपर की ओर उठ जाते जिससे दरवाजा ऊपर तक आरक्षित हो जाता।...उस दिन मोहकम पानी पी रहे थे कि कबूतर ने उड़ान भरी। लेकिन दरवाजे के ऊपर के रोशनदान में बाहर से मच्छर जाली लगी थी।... कबूतर टकराकर घबराहट में वापस लौटा तो पंखा चल रहा था।मोहकम के हाथ से डोंगा छूट गया।उनकी टेबिल पर कबूतर का ताजा खून और पंख बिखर गये थे। ठीक उसी वक्त कबूतरी बेतरह चिंचियायी और घबराकर दरवाजे से बाहर निकल गई। सिंह और शर्मा भी घबराकर उठ खड़े हुये।मोहकम की टेबिल पर फड़फड़ाता कबूतर नीचे गिर गया। फिर लगभग नाचता हुआ-सा लोहे की अलमारी के नीचे छुप गया।... फिर कुछ देर में सिसक-सिसक कर मर गया।मोहकम जस के तस खड़े रह गये। उन्हें काटो तो खून नहीं रहा। सिंह ने पंखे को गाली देते हुए उसका खटका बंद कर दिया। शर्मा ने इधर-उधर नजर दौड़ाकर कहा- ‘‘रोशनदानों में बाहर से जाली किसने लगाई?’’ सिंह ने फिर चौकीदार को एक मोटी-सी गाली दी कि- यह उसी की करामात है।...
थोड़ी देर में कबूतरी वापस अण्डों पर आकर बैठ गई। अब उसकी ओर देख पाना मोहकम के वश में नहीं था। वे ऑफिस से लौटकर उस रेस्त्रां में भी नहीं गए जहाँ पिछले कुछ दिनों से बिना नागा जाकर बैठने लगे थे। क्योंकि वहीं सोनालिका से रोज मुलाकात हो रही थी उनकी। और वे शनैः शनैः किसी नतीजे पर पहुँचने लगे थे। दफ्तर में चोरी के बाद हत्या की उस नई घटना ने मोहकम को विचलित कर दिया। उस एक क्षण में ही उन्हें समझ में आ गया कि किसके विश्वास की रक्षा करना चाहिये! जीवन तो वास्तव में क्षणभंगुर है। यह स्वप्न से भी ज्यादा निराधार है। रस्सी के साँप से भी अधिक असत्य!
उस दिन से वे तटस्थ भाव से रहने लगे। छत का पंखा फिर कभी किसी ने नहीं चलाया। मोहकम अपने घर से एक टेबिल फेन उठा लाये थे। उन लोगों ने दरवाजे के पास से घड़ा भी हटा दिया। पर चौकीदार बदस्तूर सोता रहा।
बरसात बीतते-बीतते बच्चे अण्डे फोड़कर बाहर निकल आये।...उनकी चीं-चीं सुनकर उन तीनों के चेहरे ऐसे खिल गये जैसे सूर्योदय पर तालाब के कमल। समय के साथ जीवन करवट बदल रहा था। कबूतरी मिनट-दो मिनट के लिये बाहर जाती और अपनी चोंच में दाने भर लाती। वे तीनों घने कुतूहल में देखते कि अपनी चोंच, बच्चों की चोंच में डालकर वह कैसे चुगा रही है! क्या जीवन है! यह अनुभवों की देन है कि कोई रेडीमेड करिश्मा! पता नहीं चलता मोहकम को...प्रेरणा जरूर होती है कि फिर से मिलें सोनालिका से।...फिर उन लोगों ने कुछ दिनों में देखा कि शेष अण्डे कबूतरी ने इस बार शर्मा की टेबिल के सामने वाले आले में रख दिये हैं। कबूतर अक्सर इसी आले में आ बैठता था।अब मोहकम दिन में कभी सिंह की टेबिल के सामने वाले आले को ताकते हैं जहाँ कि बच्चे बड़े हो रहे हैं और कभी शर्मा की टेबिल के आगे वाले आले की ओर जहाँ कि कबूतरी ने शेष अण्डे रख लिये हैं! पंजों के बल लगातार बैठी उन्हें ’से’ रही है।... बीच में मिनट-दो-मिनट के लिये कमरे से बाहर उड़ जाती है और चोंच में कुछ भर लाती है! सिंह की तरफ वाले आले में चीं-चीं करते बच्चों को चुगाती है। फिर वापस शर्मा के आले की तरफ, जहाँ शेष अण्डे रखे हैं!और फिर अण्डे ’से’ ने से फुरसत मिलती है तो सिंह के आले में बैठे बच्चों को जाकर उड़ना सिखाने लगती है। धीरे-धीरे बच्चे बंद पंखे की पंखडि़यों तक उड़ना सीख रहे हैं। उड़ना क्या- पंख फड़फड़ाना, हवा भरना वह सिखा रही है। ये है वास्तविक चमत्कार! और यह निरंतर घट रहा है चारों ओर।
मोहकम सोचते हैं। सोचते रह जाते हैं।शर्मा अपने अलग हुए बेटों से अब नाराज नहीं हैं। सिंह भी अपनी बेटी की ’लव मैरिज’ से सहमत हो गए हैं। मोहकम देख रहे हैं- बच्चे उसके पीछे उड़कर अण्डों वाले आले में आने-जाने लगे हैं। वह भगाती है! ढीठ हैं- भागते नहीं। माँ की चोंच से चोंच और पंजे से पंजा लड़ाकर, बराबरी करते हैं। जिसने पंख खोलना और फड़फड़ाना सिखाया, उसी को अपने नन्हे पंखों से मारने चले हैं।अण्डे कच्चे हैं अभी। वह डरती है।... धमकाती है! दिन भर हुज्जत और चीं-चीं-चीं होती रहती है। चौकीदार रात में चैन से सो नहीं पाता। साफी फटकारता है।... पर बच्चे बड़े छली हैं। कभी अलमारियों पर तो कभी पंखे, ट्यूबलाइट और बल्ब पर। फर,फर,फर,फर-फर! चीन्ची,चींचीं, चींऽ!और उस रात तो पूरी ड्रेस ही छेर मारी। खूंटी से सुबह जैसे ही उतारी पहनने के लिये, हाथ लिस गए। गीला-गीला! जी घिना गया। क्रोध में आँखें जल उठीं।... उसने आब देखा न ताव, उठाया नारियल का झाड़ू और तलवार-सी भांजने लगा। उसी रफ्तार में धुआंधार गालियां!चारों ओर चीं चीं चीं मच गई। पंख झड़ने लगे। भयभीत और घायल माँ तथा दोनों बच्चे बाहर उड़ गये दफ्तर के उस सुरक्षित कमरे से। लेकिन उसका गुस्सा नहीं थमा। उस रूख को ही काट दे, जिस पर उल्लू आकर बैठे! उस पर शैतान सवार था, और उसने एक ही झपट्टे में सामने वाली दीवाल के आले में रखे कच्चे अण्डे जमीन पर पटक कर चूर-चूर कर डाले।... सारा फर्श पीले-पीले, गाढ़े द्रब से छिटक कर रह गया।
सिंह, शर्मा और मोहकम को आते ही कमरा खाली-खाली सा लगा उस दिन। क्या हुआ अचानक! सिंह का आला सूना और शर्मा का भी।... मोहकम ने स्टूल रखकर और उस पर चढ़कर अण्डों वाले आले का जायजा लिया। वहाँ कोई अवशेष मौजूद न था। घास का एक तिनका तक नहीं!क्या हुआ? तीनों के चेहरों पर हवाइयाँ और आशंका के बादल घिरे थे। हाजिरी भरकर अपने-अपने काम में जुटते इसके पहले ही सुराग हाथ लग गया।... फर्श पर कच्चे अण्डों का द्रब चिपका था। मोहकम की जैसे साँस रुक गई।
’बिल्ली!’ सिंह चौकस हुये। आँखें सिकुड़ गईं। गर्दन भिंच गई। तर्जनी उठी रह गई उनकी।
‘चौकीदार के होते बिल्ली क्यों!’ शर्मा ने दिमाग से काम लिया, अब तो जालियाँ भी हैं।...
मोहकम ने चपरासी को बुलाया, पूछा।उसने झाड़ू-पानी वाले का नाम ले दिया कि उसी को पता होगा!वह बस्ती में कहीं रहता था।... उस दिन राज नहीं खुल सका।अगले दिन वे तीनों बहुत जल्दी आ गए। जब दफ्तर में झाड़ू लग रही थी! उस नाटे और काले लड़के से उन्होंने पूछा, बाकायदा तीनों ओर से घेर लिया। प्रश्नों की झड़ी लगा दी। बताया उसने- पंख टूटे पड़े थे। अण्डे फूटे पड़े थे। नारियल झाड़ू की सींक-सींक बिखरी पड़ी थी कमरे में। और चौकीदार की आँखें...
’हाँ- उसकी आँखें कैसी थीं?’ घबराहट में पूछा मोहकम ने।
’लाल-लाल। और निकली पड़ रही थीं...।’लड़के ने सब बता दिया।
सिंह ने उसी रोज चिट्ठी लिखी कि- ’इस चौकीदार की जरूरत नहीं है। सारे रिकॉर्ड की हमारी जिम्मेदारी।...’ साहब की सील लगाई और दस्तखत करवाकर थाने में भेज दिया कागज।
लेकिन मोहकम ने सोनालिका का ख्याल तज दिया। उन्हें पता चल गया कि जीवन के हजार दुश्मन। जिस दिन से पैदा होते हैं, उसी दिन से मौत पीछे लग जाती है। कभी बीमारी, कभी महामारी, कभी प्रकृति का कोप तो कभी बेवजह युद्ध का रूप धरकर आ जाती है मौत। और नाहक हर ले जाती है फूल से प्राण। तो फिर इस विराट धोखे के लिये क्या खटना!वे तीनों लगभग अकेले हो गए दफ्तर के उस एक कमरे में। तीनों को अपने-अपने दुख डराने लगे। शर्मा को बुढ़ापे का कि- बेटे छोड़ गये और आखिरी बेटी व्याह योग्य हो गई, इस दुश्मन जमाने से कैसे पार पाएंगे वे।... सिंह को शिक्षित, बेरोजगार पुत्र का, जो अवसर की उपेक्षा के कारण लगभग विक्षिप्त हो गया है।... और मोहकम को सोनालिका का, जो उन्हें न पाकर जाने कहां भटक रही होगी।... उसके कच्चे अण्डों से सपने कब के चकनाचूर हो गए होंगे!
फिर मौसम ने करवट बदली और सर्दियां शुरू हो गईं। और वे जान ही नहीं पाए, जाने कब कबूतरी ने अंतिम शेष अण्डे सिंह की टेबिल के तरफ वाले आले में रख लिये! उन दिनों भयंकर शीत लहर की चपेट में आ जाने के कारण प्रदेश के स्कूल बंद कर दिये गये थे। दफ्तर भी एक-आध घंटे के लिए खुलते। कोहरा इतना घना हो गया था कि दिन कब निकलता और कब डूब जाता पता नहीं चल पाता। दोपहरी अक्सर चाँदनी का-सा आभास देती। ठंड हड्डियों में घुसती जा रही थी। किसी-किसी रात में तो बर्तनों में पानी जम जाता। सड़कों पर सरकारी अलाव और घरों में दिन रात निजी अंगीठियाँ जल रही थीं। मोहकम का शहर दफ्तर से तीस किलोमीटर दूर। बीच रास्ते में एक नदी भी पड़ती। शीत लहर और लगातार कोहरे के कारण वाहन कम हो गए थे। रास्ते में वे बस के काँच से झांकते तो नदी की जगह भाप इंजन द्वारा छोड़ी गई मोटी और अछोर खाई-सी पड़ी मिलती पुल के नीचे। दूर के पेड़ कुहासे में धुले हुए दिखते और पास के टप-टप आँसू बहा रहे होते। सैकड़ों चिडि़याँ मर गई थीं, सैकड़ों जानवर।... फिर भी कई बार भरखों में कोई नील गाय कुलांचें भरती मिल जाती और कई बार आसमान में मंड़राता चील। फसलों को रखाती इक्का-दुक्का मानव आकृतियां कम्बल-रजाई में लिपटी स्त्री-पुरुष की शिनाख्त से ऊपर उठ गई थीं।
ऐसे विकट मौसम में मोहकम ने एक दिन देखा कि बरामदे के आगे वाले बबूल की पत्ती-पत्ती झड़ कर हरी चादर की तरह बिछ गई है। दफ्तर का कमरा इतना ठंडा है कि बैठने की हिम्मत नहीं पड़ रही। ठंड दस्तानों, मोजों, जैकेट और टोपे को फोड़ती हुई किरचों की तरह शरीर में धंस रही हैं। वे घूमकर बाहर निकलने को हुए कि- अचानक उनकी नजर सिंह की तरफ वाले आले पर जा पड़ी।
’ओह गॉड!’ वे लगभग चीख पड़े। उन्हें लगभग यकीन नहीं हुआ अपनी आँखों पर। कि वह कबूतरी है कि तुषार खाया बेंगन। जिसकी सिर्फ चोंच और आँखें चमक रही हैं।... और वह जिंदा भी है या नहीं! उन्होंने हाथ बढ़ाकर, छूकर यकीन करना चाहा, तो वह कुछ सिकुड़-सी गई। वे फिर अविश्वास से भर गए कि- यह जिंदा है और बैठी है- तो किसकी ताकत से बैठी है। कौन बिठाये है, इसे! कौन-सी ऊर्जा, कौन-सी प्रेरणा, कौन-सी शक्ति और कौन-सा लाभ, लालच या भय बिठाये है, इसे! ये जीवन-राग इतना विचित्र क्यों है?
ठंड जैसे काफूर हो गई। वे अपनी बर्फ-सी ठंडी कुर्सी पर बैठ गए। बर्फ-सी ठंडी टेबिल पर कोहनियां टिका लीं। हथेलियों में अपना ही चेहरा किसी अचंभे-सा थाम लिया उन्होंने।
बाहर कोहरा बरस रहा था। सड़क पर सिवा धुंए के कुछ भी तो नहीं गुजर रहा था। और मोहकम तमाम देर वैसे ही बैठे रहे। जैसे जड़ हो गए। ठंड में अपनी ही गरमी से ऊँघने लगे। अब वे कुछ सोच भी नहीं पा रहे थे। कमरे में उनके और सिवा एक पक्षी के और कोई न था। शनैः शनैः उनका मन भी जड़ हो चला।... तभी अपने छोटे-छोटे पंख फड़फड़ाता एक नन्हा कबूतर दरवाजे से होकर बिजली के पंखे की पंखडि़यों पर तैरता हुआ-सा आकर सिंह वाले आले में समा गया। और उसके आते ही कबूतरी ने जगह छोड़ी और फुर्र से बाहर उड़ गई।
मोहकम हतप्रभ थे। बेटे ने माँ की जगह ले ली। अब पिता की तरह अण्डों की सुरक्षा करेगा जब तक माँ दाना लेकर नहीं लौट आती।
...मोहकम विस्फारित नेत्रों से यह अजूबा देख रहे थे। उन्हें अपने चारों ओर जीवन का अमर संगीत सुनाई पड़ रहा था।... जैसे कि सोनालिका अपने माँ-बाप को परास्त कर उन्हीं की बाट जोह रही हो!
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(आठ)
नायक खलनायक

तनाव से दाहिने कान के बगल वाली नस फटी जा रही थी। सिर दीवाल से दे मारने को आमादा वे नीचे के पोर्शन में पागलों से घूम रहे थे। छत पर पाँवों की धमक से दिल में जोर के धक्के लग रहे थे। तालियों की फटकार से कानों के पर्दे झनझना रहे थे। पर यातना का फिलहाल कोई अंत नहीं था। क्योंकि अभी-अभी तो बहूरानी ने पहले गीत के बोल उठाए थेः
मुझे लगी श्याम संग प्रीति,
गुजरिया क्या जाने...
अभी हाल ही लहराकर ऐड़ी की पहली धमक दी थी। अभी हाल ही तो झूम कर पहली ताली फटकारी थी।... अभी तो ‘‘मोहन आना न रतियाँ हमार गलियाँ’’ गाएगी। और फिर नीचे उतर गलियों में दोड़ जाएगी यह गाते हुएः
गलियों में शोर मचाया,
श्याम चूड़ी बेचने आयाऽ...

क्या से क्या हो गया! उनका गला सूख रहा था। कितनी आज्ञाकारिणी बहू, कितनी इन्नोसेंट। वे कहते तो पति के साथ जाकर सोती, नहीं तो नहीं!
पर यह परिवर्तन एक दिन में नहीं हो गया। होने को वे ताड़ तो रहे थे, पर जितना रोक रहे थे, बदलाव उतनी ही द्रुत गति से हो रहा था। मानों महामारी फैल रही थी।.... वे प्रारंभिक दिन, वह सुख, आह! उसे याद कर करके दिल में हूक उठती रहती है!
साढ़ू ने कहा था, ‘‘डाक्टर, नरोत्तम की शादी करोगे?’’
यही नाम रखा था उन्होंने बेटे का! नरों में उत्तम!! पत्नी शुरू से ही प्रिय नहीं रहीं। एक तो छविहीन और साँवली थीं, प्रोफेसर गोरेनारे! दूसरे निहायत सीधीं, मानों गऊ! उन्हें अनुरूप नहीं लगतीं। इसलिए बेटे पर प्रियता दुगनी हो गई थी। हालांकि रंग में वह पत्नी पर ही गया था, पर चेहरे पर प्रोफेसर की छवि झलकती। पत्नी को गाँव में छोड़ उसे वे शहर ले आए थे। सीने से लगाकर यहीं पढ़ाया-लिखाया। अपनी तरह पीएच.डी. कराकर प्रोफेसर बनवाना चाहते थे। पर बीए में ही साढ़ू ने घेर लिया, ‘‘डाक्टर, ब्याह करोगे बेटे का!’’
‘‘कर लेंगे।’’ वे हँसकर फँस गए।
‘‘माँग लो, क्या माँगते हो?’’
‘‘धेला नहीं!’’
‘‘तो?’’
‘‘सिर्फ लड़की...बस लड़की जँच जाय।’’ कहकर आँखें मूँद लीं उन्होंने।
‘‘तो चलो, देख लो...’’ साढ़ू की आँखें चमकीं।
‘‘न, ऐसे नहीं। ऐसे तो तुम हीरोइन की तरह फिल्म के सैट पर लाकर खड़ा कर दोगे, उसे! लड़की का नाम-जन्मांक, जिससे कुंडली मिलवा लें और पता-ठिकाना दे जाओ। सीबीआई की तरह छापा मारेंगे हम तो...’’ वे फिर हँसे।
‘‘ठीक है!’’ साढ़ू कुटिलता से मुस्कराए कि तुम सा शक्की नहीं देखा...शहर की हवा खाई से नहीं, गाँव की अबोध छोरी से ब्याहना चाहते हो नरोत्तम को। सती अनुसूया सी उत्तम वधू चाहते हो, जिसके स्वप्न में भी अपने पुरुष के सिवा जगत में दूसरा पुरुष न हो!’ वे पता-ठिकाना देकर चले गए। तब प्रोफेसर छह-सात महीने बाद कुंडली मिलवा कर एक दिन उमंग में भरे साढ़ू के दिए पते-ठिकाने पर जा पहुँचे। बताया नहीं कौन हैं-कहाँ से आए! बाहर पड़ी चारपाई पर बैठ गए चुपचाप। पुरुष हारखेत गए होंगे। महिलाएँ भीतर। 17-18 साल की गोरी-भूरी लड़की भाई के पुराने पेंट-शर्ट पहने, बाल पीछे की ओर लाल रिबिन में बाँधे, कुएँ से पानी भर-भर कर ला रही थी। गौर से देखते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है, बेटी?’’
‘‘मीरा!’’
‘‘मीरा या मीरा देवी?’’
‘‘नहीं मीरा...’ वह गगरियों के बोझ से बड़ीबड़ी आँखें निकाले घिसटती-सी भीतर चली गई। और वे बैठे रह गए मुस्कराते हुए। बहू उन्हें पसंद आ गई थी जो ताजा हवा की तरह प्रदूषण मुक्त थी, सर्वथा। अबोध। निष्कपट। निश्छल। निराग्रह। निद्र्वंद्व। अनगढ़।
इसे गढ़ लेंगे वे। जिस साँचे में चाहेंगे, ढाल लेंगे। मुतमईन थे।
थोड़ी देर में वह लोटे में पानी और कटोरी में बताशे भर कर दे गई।
उन्होंने दर्शन पढ़ा था। पढ़ा रहे थे। जो देखने में अत्यन्त सरल, जैसे- सूर्य का उगना, प्रखर होना, अस्त होना...नदी का पहाड़ से बूँद-बूँद रिसना, विकराल होते जाना, समुद्र में जा गिरना; वही- कहत कठिन, समुझत कठिन, साधत कठिन विवेक! उस दिन कयास नहीं लगा पाए वे! चूक गए...। माँ ने सलवार-कुरता पहना दिया, पिता ने गोद में लाकर बिठा दी। और वे न्यौछावर हो गए। पत्नी की जंजीर कुरते की जेब में डाल लाए थे, बहू के गले में पहना दी। झोले से साड़ी निकाल गोद में रख दी। रस्म हो गई। किसी को यकीन नहीं आ रहा था। साढ़ू ने सुना तो कहा, ‘‘अब तो हम फाँस लेंगे, बेफिकर रहो! कितना भी बिदकें, हाथ से निकलने न देंगे।’’

नरोत्तम स्कूल से लौट आया था। पिता को पागलों की तरह इधर से उधर टहलते देखा तो हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘कूलर में देह चिपचिपा रही होगी। कल एक एसी लगवा देंगे!’’
‘‘ना!’’ वे उखड़ गए।
‘‘काहे! घी देत नर्रात काहे हो?’’ उसने आँखें निकालीं।
‘‘इसलिए कि वो जितनी ठंडक देगा, उससे ज्यादा गर्मी उगलेगा।’’ वे दूध के जले थे।
‘‘तुम्हारे घर में उगलेगा,’’ वह खीजा, ‘‘गली में उगलेगा, उगलता रहेगा, तुमसे मतलब!’’
‘‘गली में चलोे-फिरोगे नहीं? गली से हवा कभी तो भीतर आएगी! घरती को और कितना तपाओगेेऽ’’ वे चीखे, ‘‘सारा ग्लेशियर पिघल जाएगा, बूँद-बूँद पानी को तरस जाओगे, पीढ़ियों को कुछ छोड़ोगे कि खुद ही चाट लोगे?’’
‘‘मरो-फिर...।’’ पीठ फेर वह ऊपर चढ़ गया, जहाँ मीरा ‘आस्था’ पर गाय-गोपाल के भजन सुन रही थी। नीचे प्रोफेसर अपने कमरे में आ बैठे। लगा, गाय भीतर घुस आई है। बेचैनी में वे फिर उठकर बाहर गए। नरोत्तम को आवाज देते तो वह आँखें निकाल खीजता, ‘गाय तुम्हारे दिमाग में घुस गई है!’ फाटक के बाहर चारे की बाल्टी रखी थी। बहू रस्सी में लटका कर नीचे उतार देती है। गायों को चारा खिलाती रहती है, दिन भर। ऐन द्वार पर दिन भर गोबर-मूत्र बिखरता रहता है। चारे का बोरा रोज नरोत्तम लेकर आता है, ऊपर चढ़ा देता है। नरोत्तम को कोई मतलब नहीं पाप-पुण्य कमाने से। मीरा को है। वह उसी के सुकून के लिए लाता है- घास, भूसा, दाना, कुटी वगैरह। और वह बाल्टी में भर-भर कर उतारती रहती है, गायों के लिए नीचे।
प्रोफेसर क्रोध में नरोत्तम को पिस्सू कह देते हैं, तब वह भड़क जाता है। कहता है, किसी दिन आत्महत्या कर लेगा। क्योंकि पिस्सू नहीं तो वह कम से कम वह दाना जरूर है जो दूसरों की भूख मिटाने दो पाटों के बीच न जाने कब से पिस रहा है।...

बीए फाइनल में था वह। लड़की दिखाई नहीं और बाँध दी गरे से। मौसा ने पिताजी से कहा, ‘‘कार, बाजे, लाइट, आतिशबाजी वगैरह कर लेना।’’ उन्होंने पूछा, ‘‘कितने के होंगे?’’ मौसा ने पूछ कर बताया, ‘‘एक हजार में कार, दो हजार में बाजे, पान्सौ में आतिशबाजी और लाइट।’’ पिताजी ने कहा, ‘‘साढ़ू भाई, हमने लिहाज में कुछ माँगा नहीं। लगुन-फलदान में हमारे अनुरूप न रखवाया तुमने, तो गड्डी लौटाकर सिर्फ एक टका रख लिया था। टीका, बेला का क्या भरोसा, वह तो समधी के द्वार पर होगा! दरवाजे पर कुत्ता भी शेर हो जाता है...। हमें काहे मुड़वाते हो, भाई? दिन की लगन है, बारात दिन में ही चढ़वा लेना।’’ इस पर वे बोले, ‘‘हमें क्या करना, जिसमें तुम्हारी शोभा बने! पर एक घोड़ी और ढाई सौ के किड़किड़िया बाजे तो कर ही लेना।... घुड़चढ़ी की रसम तो निभ जाएगी।’’
पिताजी ने हामी भर दी। फिर बाद में सोच समझ कर मौसा से कह दिया कि ‘‘अकेला लड़का है। हम कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते। घोड़ी बिदक जाय तो पता नहीं क्या हो! इससे तो अच्छा है, तुम कार ही कर लेना। हम पेमेण्ट कर देंगे।’’ और उन्होंने सोच लिया कि दरवाजे के लिए कार हो जाएगी तो बरात के लिए बस क्यों की जाय? सो, गाँव के ही एक बौहारी का ट्रेक्टर डीजल पर ले लिया और शाम को ही चल पड़े। सुबह तक पहुँच गए खरामा-खरामा। देवाले में जनवासा मिल गया। लोग खेतों में दिशा-मैदान के लिए बिखर गए। फिर नहर-बम्बे में नहाए। तेल-फुलेल किया। नाश्ता पाया। और लम्बी तान कर सो गए। अपराह्न तीन बजे बरौना धरवाया गया तब घुड़चढ़ी के लिए घोड़ी की दरकार हुई! पर मौसा मुकर गए कि ‘तुमने मना कर दिया था!’
पिताजी लालपीले, ‘‘हमने कहाँ मना किया? फिजूल बात करते हो,’’ उनका थूक उचटने लगा, ‘‘तुम्हें भरोसा नहीं था कि हम पेमेण्ट करेंगे.ऽ..ऽ..’’
‘‘हाँऽ...नहीं थाऽ!’’ वे भी आग-बगूला और लड़की वाले उन्हीं के हाथ की कठपुतली। लगा, बारात लौटती है, अब तो! सिर पर मौर धरे नरोत्तम जनवासे में बैठा था। उसका दिल बैठा जा रहा था। साँवला चेहरा स्याह पड़ गया। फजीहत तो ले-देकर उसी की हुई ना! घोड़ी, कार कुछ बाँधी होती तो मिलती। साहलग जोरदार था। ढूंढ़े पालकी भी नहीं मिली। ले-देकर एक किड़किड़या बाजे थे, गाँठ में। फिर कोई दौड़ा गया पास के कस्बे में, सो एक रिक्शा पकड़ लाया। शर्म से गर्दन झुकाए नरोत्तम उसी पर बैठ गया। प्रोफेसर पर प्रोफेसरी ही नहीं, 40 बीघा पुख्ता काश्त भी थी। लोग थू-थू कर रहे थे कि ‘सिंह की मूँछ, भुजंग का सिर, पतिव्रता की देह और सूम का धन जीवित रहते कौन ले पाया!’ जैसे, इतना लोभी मनुष्य जिंदगी में किसी ने देखा नहीं था।
चढ़ाए के लिए साड़ी-कपड़ा तो मुश्किल से खरीदा था, जेवर कौन गढ़वाता! जेवर बहनों से माँग लिया था उन्होंने। साढ़ू ने वायदा भरा था कि ‘चढ़ा भर देना, दरवाजे की शोभा रह जाएगी। बहू तुम्हारे दरवाजे पहुँचे तो उतार के जहाँ का तहाँ कर देना, हमें क्या! बहू तुम्हारी, सोने से लादना चाहे नंगी फिराना...।’
फिर उन किड़किड़िया बाजों के संग जिस रिक्शे पर नरोत्तम की घुड़चढ़ी हुई उसी पर अगली सुबह जनवासे तक मीरा की विदा। उसके बाद बेचारी ट्रेक्टर में चढ़ धचके खाती पस्तहाल किसी तरह ससुराल तक आई। नहीं जानी उसने डोली, कार कुछ भी। और वैैसे वह गऊ थी, पर इस बात का नरोत्तम की तरह उसे भी थोड़ा-थोड़ा मलाल था, जो आज भी है। हालांकि इतने सालों में पकते-पकते वह खूब खरी पक गई है और कुछ की कुछ हो गई है। नहीं तो उनसे पार न पाती! बेचारी सास अब तक गाँव में पड़ी है और वह शुरू से न सिर्फ शहर में है, बल्कि श्वसुर सेवानिवृत हुए तो जिद करके उसने, सेपरेट रहने के लिए दूसरी मंजिल बनवा ली। जिद करके ही इस ऊपर की मंजिल में टाइल्स भी लगवा लिए। आधुनिक किचेन और इंग्लिश टाॅयलेट! कलर टीवी, फ्रिज, वाशिंगमशीन, कूलर सब कुछ। पर वह खासी भक्तिन भी हो गई है। गौ-सेवा और कथा-प्रवचन की दीवानी।

रोज की भाँति वह सुबह चार बजे ही जाग कर नैमेत्तिक कर्म से फारिग हो, खड़ताल उठाकर निकल पड़ी। चट्टियों की चट्चट् और खड़ताल की खड़-खड़ तथा उसके कंठ से निसृत गीत के बोल, ‘‘जागिए बृजराज कुँअर, भोर भओ अँगनाऽ...’ से प्रोफेसर की नींद उचट गई। गेट खटाक् से खोलकर वह निकल गई और वे पागलों से नीचे के पोर्शन में टहलने लगे। दाहिने कान के बगल की नस तड़-तड़ तड़कने लगी। पर मीरा को परवाह नहीं। सड़क पर बैठी गायों के पाँव दबा-दबाकर छूती वह पार्क में स्थित काली माता पर पहुँच गई। प्रभातफेरी का दल वहाँ रोज इकट्ठा हो जाता। फिर टोल बना गलियों में निकल पड़ता। दल में मीरा के अलावा सब पुरुष थे। शुरू में वे चार ही थे, किंतु मीरा जुड़ी तब से 10-12 हो गए। वह आगे-आगे खड़ताल बजाती गाती हुई चलती, वे पीछे-पीछे दोहराते हुए। काॅलोनी सुनती। हँसती। उत्सुकता वश औरते खिड़की-दरवाजों पर जमा हो देखतीं...तमाशा। फिलहाल दल, प्रोफेसर की खिड़की से ही गुजर रहा था। मीरा मगन। सिर पर पल्लू नहीं। चलते-चलते, झूमती-गाती हुईः
‘‘संग की सहेली चालीं,
हमहूँ जायँ जमुना...
जागिए बृजराज कुँअर,
भोर भओ अँगना...
गैल के बटोही चाले,
पंछी चाले चुँगना...’’

उन्होंने दोनों कानों में दोनों हाथों की तर्जनी ठूँस लीं और जोर से दहाड़े, ‘‘अरेऽ नरोऽत्तमऽऽऽ!’’
घर मानों हिल गया। प्रोफेसर की दहाड़ खिड़की-दरवाजे खड़का गई। गनीमत कि नरोत्तम अकेला था। बच्चे नहीं थे, फिलहाल। बेटा कोटा में कोचिंग ले रहा था, बेटी जेयू में बी.एससी. हेतु दाखिल हो गई थी। वह दौड़कर नीचे आया। उसने समझा पिताजी को हर्टअटैक पड़ गया। सचमुच, वे दीवार पकड़े पत्ते की तरह काँप रहे थे, खड़े-खड़े! पीछे से वह कंधे थाम कि वे अब मरने ही वाले हैं, बोला, ‘‘क्या हुआ?’’
‘‘हुआऽ...’’ वे धीमे से चीखे, उस हथिनी को रोक, नहीं तो हम जहर खा लेंगेऽ!’’
सुनकर नरोत्तम ने उन्हें उसी पल छोड़ दिया और हिकारत से देखता हुआ बोला, ‘‘खाइ लेउ! खाइ लेउ तो पूरे घर कों चैन मिल जाइ...।’’
पलट कर वह, जिस तेजी से आया था, उसी से ऊपर चढ़ गया। और वार खाली पड़ जाने से वे धक्का खाकर वहीं बैठ गए। बैठे रहे फर्श पर हथेलियाँ टिकाए, सन्निपातिक से तमाम देर। फिर उठकर लिथड़ते-से अपने पलंग पर आ ढहे।

बारात लौट आने के दूसरे दिन उन्होंने अपने लँगोटिया यार जो उनके प्रोफेसर बनने के दौरान ही भजन गायक बन गया था, से कहा था, ‘‘हमारी बहू का नाच देखोगे, तुम! बहुत सुंदर नाचती है।...’’
‘‘तुम कहते हो तो देख लेंगे...।’’ उसे ज्यादा उत्सुकता न हुई थी। उसकी मंडली इलाके में चमक उठी थी, उन दिनों। उसके और उसके बेटे के गायन पर लोग झूम उठते थे। औरतें सारी हया छोड़ हाथ लहरा, कमर मटका कर नाच उठती थीं। प्रोफेसर के मन में उसी को अपनी बहू का कमाल दिखाने का अरमां मचल रहा था। गोकि पत्नी ने बताया था कि वह बहुत उम्दा नाचती है, गाँव ऊपर! तो वे अपने लँगोटिया यार को आखिर पकड़ ही लाए जो खुद गले में पेटी टाँगे, साथ में अपने गायक और ढुलकिया लड़के को लिए वहाँ लगभग बेमन चला आया था...।
उस रात प्रोफेसर के गाँव-घर के बड़े आँगन में बिछी जाजम पर एक तरफ औरते बैठीं, दूसरी तरफ परिवार के पुरुष और उनका गायक यार तथा उसका बेटा। औरतों के गोल में ढोलक के पास घूँघट काढ़े बैठी उनकी नईनवेली पुत्रवधू मीरा पर सबकी नजरें टिकी थीं। झक सफेद गैसबत्ती में वह समूह आकाशगंगा-सा झिलमिला रहा था। अवसर उचित जान प्रोफेसर ने बुलंद आवाज में कहा, ‘‘हाँ-बेटी! आज ऐसा बढ़िया नाच दिखाना कि हमारा सीना चैड़ा हो जाय....यहाँ हमारे बचपन के मित्र, इलाके के नामी गवैया मानव जी, जिनके बोलों पर औरतें नाचते हुए छतरी हो जाती हैं, खुद तुम्हारा नाच देखने आए हैं! संकोच नहीं करो, बेटी! ये तो कला है...तुम्हारी माताजी ने हमें बताया कि कल तुम बहुत अच्छा नाचीं। गाँव ऊपर।...’’
मीरा ने पहले-पहल श्वसुर को; काँधे पर खादी का झोला और पाँव में चमड़े की चप्पल लटकाए, सूती कुर्ते-पायजामें में सिड़ी से अजनबी की तरह अपने द्वार की खाट पर देखा था। और तब वह भी भाई का पुराना पेंट-शर्ट पहने, सिर पर मटकी धरे कुएँ की जगत से चली आ रही थी, बेशऊर-सी। ...उनके उकसावे पर वही संस्कार मूर्तरूप ले उठा। इधर औरतों ने गीत के बोल उठा लिए, ढोलक ठनकने लगी। और वह भरी सभा में बाल पीछे की ओर बाँध, कमर में फेंटा कस हाथ लहरा, कमर लचका, झूमकर नाच उठी...। इतनी अलमस्त कि बँधे बाल खुल गए। काली लटें गोरे चेहरे पर नागों-सी लहरा उठीं।
प्रोफेसर उसका दैवी स्वरूप देख वाह-वाह कर उठे।
उस अनोखे रोमांच में भजन गायक यार की कलाई खूब कसकर पकड़ रखी थी, उन्होंने, ‘‘मानव, क्या गाओगे तुम इसके आगे- छोटी-छोटी गैयाँ, छोटे-छोटे ग्वाल,...छोटो-सो मेरो मदन गुपाल?’ अरे! दहेज नहीं माँगा हमने...फूटी कौड़ी नहीं ली। है कोई इलाके में ऐसा बढ़िया नाच करने वाली बहुरिया, बोलो!?’’
और उसने गर्दन झुका रखी थी। प्रोफेसर का सीना गर्व से फूलकर कुप्पा हुआ जा रहा था। दरअसल, वे उसकी ख्याति से जलते थे। नीचा दिखाना चाहते थे। क्योंकि उनके और उनके नरोत्तम के पास न तो गला था, ना ही वाद्ययंत्रों के बजाने की कला। भाग्य से अगर वे प्रोफेसर न हुए होते तो कौन पूछता! ऐसा कौनसा हुनर था जो जय-जयकार हो पाती!
वे मन ही मन घोक रहे थे कि यार की हिम्मत मीरा के नाच के आगे पस्त पड़ गई है! वह गले में हारमोनियम लटका के जरूर लाया, पर उँगलियाँ, उसके पातों पर नाची नहीं! न उसके बेटे ने ढोलक पर थाप मारी। रात दो बजे तक प्रोफेसर समेत वे सब त्यौरी फाड़े मीरा का अचरज भरा नाच देखते रहे। पर वह सुख प्रोफेसर को फिर कभी नसीब नहीं हुआ। क्योंकि- उसके बाद उन्होंने उसकी नजर उतारते तय कर लिया था कि अब उसे कभी नचाएँगे नहीं। नहीं तो यह कला चली जाएगी! जाने क्यों, एक अदृश्य भय उनके भीतर घर कर रहा था कि वह उनसे छिन न जाय!
उसी साल नरोत्तम की अपने गाँव की पाठशाला में अतिथि अध्यापक के रूप में नियुक्ति हो गई, पर वह बहू को अपने साथ शहर ले आए। जहाँ अंदर के दो कमरों में वह रहती, बाहर के एक कमरे में वे। किचेन, टाॅयलेट, आँगन, गैलरी काॅमन थी। बात पता चली तो छह-आठ महीने बाद साढ़ू ने कहा, ‘‘डाक्टर, ये तो गलत है। माना तुम्हारे मन में कोई पाप नहीं है, बेटी है वो आपकी, पर हम किस किसकी जीभ पकड़ें?’’
‘‘तो क्या, गाँव में असुरक्षित छोड़ दें उसे?’’
‘‘असुरक्षित क्यों, वहाँ नरोत्तम है...’’
‘‘हुँह...नरोत्तम! बड़ा भारी वीर है, वो!’’
‘‘और भाभी!’’
‘‘क्या कहने,’’ उन्होंने मजाक उड़ाया, ‘‘उसे बड़ा सहूर है!’’
बेचारे साढ़ू का मुँह सिल गया। उन्हें समझ आ गया कि किसी के फटे में ज्यादा टाँग अड़ाने का कोई मतलब नहीं। प्रोफेसर का ये पारिवारिक मामला है, भई! वे जैसे चाहें, निबटें...अपनी बला से। सुनने में आता कि नरोत्तम शहर आता-जाता रहता है। पुष्टि भी हुई, जब प्रोफेसर दादा बने! मीरा ने नरोत्तम की शक्लोसूरत के ही पुत्र को जन्म दिया था। वह क्षण सचमुच ब्रह्मानंद सदृश था प्रोफेसर के तईं। दष्टोन पर उन्होंने अपने लँगोटिया यार को मंडली सहित बुला भेजा। जिसके भजनों पर उनकी साली, उनके बेटे की साली, और उनकी पत्नी उनके गोरेनारे पोते को गोद में लेकर खूब ठुमक-ठुमक कर नाचीं। बहू भी नाच उठती, अगर उनकी आँख टेढ़ी न होती!
और वे सुख भरे दिन जाने कब हवा हो गए!?
नाती दुधमुँहा था, तब उसका ख्याल करके ही वे गृहकार्य में बहू का हाथ बँटाने लगे थे। जैसे- अलस्सुबह उठ खुद ही पानी भर देते। बाहर के हिस्से की सफाई कर देते। सब्जी काट देते। बहू नैमेत्तिक क्रिया और किचेन में लग जाती, तब नाती को संभाल लेते। काम वाली और आया इसलिए नहीं लगाते कि घर को गैर के प्रवेश से अछूता रखना चाहते थे। बेटा तो जब कभी आता, चोरी का खतरा बताकर बहू का प्रस्ताव वे सदा खारिज कर देते। बराबर उन्हें यही लगता कि उनके पास कोई नायाब चीज है, जिसे कोई गुमा न दे, गुमराह न कर दे!
इस बीच एक बेटी और हो गई, जिसका हुलिया खुद बहू से मिलता-जुलता था। बच्चों की जिम्मेदारी और देखभाल के लिए साढ़ू ने सुझाव दिया कि वे या तो नरोत्तम का तबादला शहर करवा लें, जो अपने गाँव की पाठशाला पर अब मुस्तकिल अध्यापक हो गया था। अथवा पत्नी को ले आएँ! पर उन्होंने साढ़ू का एक भी प्रस्ताव स्वीकार न किया। क्योंकि साढ़ू को वे अपना नहीं पत्नी के ग्रुप का आदमी मानते थे। तर्क फिर वही फेंक दिया कि खेतीबाड़ी, घरद्वार सब चैपट हो जाएगा! उन दोनों के गाँव से हटते ही लोग मकान की ईंटें खींच लेंगे, खेतों की मेंड़ें तोड़ लेंगे...। जबकि, बच्चे बड़े हो रहे थे और उन्हें पिता की देखरेख की सचमुच दरकार थी। दादा के आगे वे सहमे से बने रहते और खुल कर अपनी जरूरत न बता पाते। दादा से वह अपनत्व भी न मिलता जो पिता के आ जाने पर उससे लिपट कर मिलता...। लड़की तो बाप के आ जाने पर हमेशा उसकी छाती पर लदी रहती। प्रोफेसर इसी बात से चिढ़ते। उँगली दिखाकर नरोत्तम को हमेशा डाँटा करते कि ‘इतना सिर पर न चढ़ाओ। लड़की जात, कल को बाहर जाएगी। मर्यादा, आज्ञापालन और गृहकार्य के संस्कार दो, उसकी आदतें न बिगाड़ो। तुम कम आया करो। महीने में सिर्फ एक बार। शादी संतान के लिए की जाती है। संतान हो चुकी, अब ब्रह्मचर्य का पालन करो!’
चैकसी रखते और वे नरोत्तम को बहू के साथ न सोने देते।
तब उसे एक उपाय सूझा और उसने उन्हें बहला कर प्रेरित कर ऊपर की मंजिल बनवा ली। झाँसा देकर कि नीचे किरायेदार रख देंगे। ऊपर अपन लोग रहेंगे...।
पर शिफ्टिंग का समय आया तो नरोत्तम अड़ गया कि ‘आप ऊपर नहीं पुसाओगे। कितना सामान है! भारी-भारी तखत, संदूक और किताबों की अलमारियाँ। टाइल्स उखड़ जाएँगे, इन्हें चढ़ाने से।’
प्रोफेसर रिटायर्ड भी हो गए थे। उनकी चली नहीं।
इस बीच शहर में उनके लँगोटिया यार मानव का, बड़े जोरशोर से आगमन हुआ। जगह-जगह पोस्टर-पेम्फलेट चिपकाए गए। वाॅल राइटिंग और अखबारों में विज्ञापन दिलवाए गए। और एक दिन का नहीं, सप्ताह भर का आयोजन रखा गया दशहरा मैदान में। आठवें दिन भण्डारा।
प्रोफेसर उसका मजमा और जलवा देख दाँतों तले उँगली दबाए रह गए।
‘‘यार, तुम्हारा तो हुलिया ही बदल गया!’’
उसे हार पहनाने वे मंच पर गए तो उसके कान में फुसफुसाए। जिसकी शक्लोसूरत अब वाकई बदल गई थी...। करीने से क्रीम की हुई, भूरी दाढ़ी रखने लगा था वह! पंडितों-सी सफेद बण्डी और धोती बाँधने लगा था। काँधे पर झक्क सफेद शाॅल डाल रखी थी। पेटी खुद न बजाता, साजिंदे रख छोड़े थे...। खिचड़ी दाढ़ी वाला उसका बेटा भी, अब ढोलक न बजाता सिर्फ गाता था। और वह स्वयं, ‘छोटी-छोटी गैयाँ, छोटे-छोटे ग्वाल’ गाने के बजाय मंच से कथा-प्रवचन करता!
मंच पर पृष्ठभूमि में 12 बाई 12 का बड़ा बोर्ड लगाया गया था, जिस पर साक्षात् कामधेनु सजी थी। उसकी थूथनी, थन, ठठियारा और काले बालों के गुच्छे की सफेद पूँछ इतनी मनोहर कि निरखते रह जाओ! गले में दमकती माला, असली मोती-मूँगों से गुँथी नजर आती...खुर, दाँत, सींग इतने चमकीले कि सोने, चाँदी, हाथीदाँत में मढ़े हुए लगते। और सब पर भारी उसका प्रवचन जिसके द्वारा उसे वह आद्या और ब्रह्म निरूपित कर रहा था...। बता रहा था कि ‘संसार में गौमाता अतुलनीय हैं! भारत में कहीं भी चले जाइए और सारे तीर्थ स्थानों के देवस्थान देख आइए। आपको किसी मंदिर में केवल विष्णु मिलेंगे तो किसी में लक्ष्मी और नारायण। किसी में सीता, राम, लक्ष्मण मिल जाएँगे तो किसी मंदिर में शंकर, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, भैरव, हनुमान आदि। अधिक से अधिक किसी में दस-बीस देवी-देवता मिल जाएँगे, पर सारे भूमंडल में ढूँढ़ने पर भी ऐसा कोई देवस्थान या तीर्थ नहीं मिलेगा जिसमें हजारों देवता एक साथ हों। ऐसा दिव्य स्थान, ऐसा दिव्य मंदिर, दिव्य तीर्थ देखना हो तो बस, वह आपको गौमाता के अलावा कहीं न मिलेगा जिनके भीतर 33 करोड़ देवता वास कर रहे हैं! बंधुओ! गौमाता को छोड़ हिंदुओं के लिए न कोई देव स्थान है, न कोई जप-तप है, न ही कोई सुगम कल्याणकारी मार्ग है। न कोई योग-यज्ञ है और न कोई मोक्ष का साधन ही। ‘गावो विश्वस्य मातरः’
कहकर वह गाय की तरह रँभाया तो सभा में रोमांच बरस उठा। स्त्रियाँ तो नाचने लगीं...।

रात भर उन्हें ठीक से नींद नहीं आई। सुबह तम्बू में मिलने गए तो दोस्त को जाते ही फटकारने लगे, ‘‘ये क्या नौटंकी फैला रखी है, तुमने! मनुष्य से पशुपूजा करा रहे हो? अंधविश्वास फैलाकर चढ़ौती! और कोई धंधा नहीं सूझा, मानव!’’
जहाँ उसके चरण छूने कृपाकांक्षी भक्तों की कतार लगी थी। और किसी पहुँचे हुए संत की तरह वह तख्त पर विराजमान था, प्रोफेसर कुर्सी पर बैठे उसे ललकार रहे थे...। उपस्थित श्रद्धालु पहले हतप्रभ, फिर उत्तेजित होने लगे। पर वह शांत भाव से सुनता, मुस्कराता रहा। प्रोफेसर ने बोलना बंद किया तो विहँसते हुए मधुर स्वर में बोला-
‘‘ब्रह्मावैवर्त पुराण में कहा गया है- गवामधिष्ठात्री देवी गवामाद्या गवां प्रसूः। गवां प्रधाना सुरभिर्गोलोके सा समुद्भवा।
गौओं की अधिष्ठात्री देवी, आदि जननी, सर्व प्रधाना सुरभि है। समुद्र मंथन के समय लक्ष्मी जी के साथ सुरभि भी प्रकट हुई थी। ऋग्वेद में लिखा है- गौ मे माता ऋषभः पिता मे, दिवं शर्म जगती मे प्रतिष्ठा।
गाय मेरी माता और ऋषभ पिता हैं। वे इहलोक और परलोक में सुख, मंगल तथा प्रतिष्ठा प्रदान करें। हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार भगवान का अवतार ही गौमाता, संतों तथा धर्म की रक्षा के लिए होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं- विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार। निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार।’’
कृपाकांक्षी भावविभोर। मानव को श्रद्धापूरति नेत्रों से निहार रहे थे वे; प्रोफेसर को उचटती ह्येय दृष्टि से देखते हुए...। वे अपना-सा मुँह लेकर लौट आए। और फिर कभी उधर झाँकने नहीं गए।
पर बाद के दिनों में उन्होंने, बहू के कमरे में, उसकी अलमारी में, जब उसी गाय की चि़त्राकृति रखी देखी तो सनाका खा गए। वे उस मायावी से डरने लगे जिसने उनके घर में ही सेंध लगा ली!
बहू को विश्वास में लेने वे अक्सर लैक्चर देने लगे।
उस हाईस्कूल छाप को दर्शन समझाने लगे।
तो भी वह चोरीछुपे गौ-सेवा में लग गई! गोपाष्टमी को काॅलोनी के काली माता मंदिर पर एक आवारा गाय को स्नान कराकर उसने विधिवत पूजा कर घास व मिठाई खिलाई...।
प्रोफेसर ने सुना तो बौखला गए। क्रोध के मारे भोजन की थाली वापस कर उसे अंधविश्वास, भक्ति और कुसंग से दूर रहने की ताकीद करते दिन भर खोंखियाते रहे...। शाम को वह चोरीछुपे पूजा की थाली लेकर निकली तो चोरीछुपे वे भी उसके पीछे लग गए।
खेल के मैदान में जहाँ शाम को गाएँ आकर बैठतीं, वहीं पहुँच मीरा ने गौ माता को प्रणाम करके पूजा कर गौधूलि का तिलक मस्तक पर लगा लिया। फिर गा-गाकर आरती उतारने लगी-
‘जय-जय गौ माताऽ, मैया जयजय गौमाताऽ! कलि-मलि नाशक तुम हो, तुम ही वर दाता...। भूमि को भार तिहारे सींगन पे सोहै...सरल सुभाउ तिहारो सब को मन मोहै। तुम सनेह के कारन प्रभु गोपाल भए...गऊलोके सुख छाओ गौ-चारण बनि गए। गोपालन गौवर्धन जो करते जग में...रोग-शोक सब नासैं सुख पावैं मन में।...’

प्रोफेसर उसका करतब देख-देख पगला गए थे। ततारोष में उससे पहले घर लौट वे, घर हमेशा के लिए छोड़ देने की प्रतिज्ञा से भर निर्वस्त्र हो गए! और संयोग से तब तक वह भी आ गई तो वे एक अंतिम प्रयास और कर लेने उसका हाथ पकड़ चीखने लगे-
‘‘हऽमारे प्राण चाहती होऽ...तो यह सब बंद कर दो, महाऽरानीऽ!’’
पिताजी की इस प्रस्तुति से मीरा इतनी घबरा गई कि भागकर ऊपर चढ़ उसने अपने आपको कमरे के अंदर बंद लिया।
अब वे पागल, कि वह कहीं फाँसी न दे ले!
कोहराम कर पास-पड़ोस जोड़ लिया...। पड़ोसियों ने जब तक किवाड़ तोड़े, पूरी काॅलोनी जमा हो गई...। किसी ने इत्तिला दे दी सो पुलिस भी आ धमकी! बहू कमरे से निकाली गई, तब वह इस अप्रत्याशित कांड को लेकर थर-थर काँप रही थी...।
पुलिस उसे उसी हालत में थाने लिवा ले गई और लज्जित प्रोफेसर को भी, जो अब किसी को भी मुँह दिखाने, सफाई देने के काबिल नहीं रह गए थे। सब दूर यही अफवाह कि वे बहू के आगे नंगे हो गए और जोरजबरदस्ती करने लगे!
पुलिस ने पूछा मीरा से कि ‘घर जाना चाहोगी?’
-नहीं!’
-तो?’
-माइके भेज दो!’ उसने आँखों में आँसू भर कर कहा।
प्रोफेसर ने वहाँ सबके हाथ जोड़े, पर किसी ने नहीं सुनी उनकी। उनके खिलाफ एफआईआर काट पुलिस अभिरक्षा में बहू को बेटा-बेटी समेत उसके माइके भेज दिया गया। नरोत्तम ने सुना तो पाँव तले की धरती सरक गई। माता जी को लेकर वह शहर आ गया और पिताजी की जमानत करा उन्हें हजार खोटी सुना डालीं।
गुनाह तो नहीं किया था, फिर भी कबूल कर लिया उन्होंने। और हाथ जोड़ बेटे के आगे गिड़गिड़ाए कि ‘उसे ले आओ, नहीं हम प्राण दे देंगे।’ नरोत्तम को उन पर दया आई, पर वह गया नहीं। जितना बाप से, उतना ही बीवी से भी डरता था वह। दो दिनों तक घर में चूल्हा नहीं जला। तब आखिरश श्वसुर को फोन किया उसने कि ‘पिताजी के प्राण चाहो तो मीरा को तुरंत भेज दो...नहीं तो हम सब पर कलंक लग जाएगा।’

तब उन्हें खबर नहीं थी कि नरोत्तम से ये डेडलाइन वाला फोन कराकर वे अपनी कब्र पर पत्थर रख रहे हैं....! बेवकूफ समधी ने पगलिया बहू को पोते-पोती समेत शाम को ही बस में बिठा दिया। और बस जंगल में जाकर खराब हो गई। आसपास की सवारियाँ तो उतर कर इधर-उधर चली गईं। मीरा बच्चों को लेकर पैदल कहाँ जाती! उसी में बैठी रही, जिस पर ड्राइवर, कंडक्टर की नीयत खराब हो गई थी...।
दूसरे दिन बदहाल जब वह घर आई तो महीनों के लिए मौन साध गई। प्रोफेसर को देखकर तो हिकारत से मुँह फेर लेती, मानों उन्होंने उसके बाप मार डाले हों!

अगली साल नरोत्तम ने माँ को गाँव का चार्ज दे, शहर के स्कूल में तबादला करा लिया। पर मीरा दिनोंदिन हाथ से निकलती गई...। न देह छूने देती, न घर के किसी काम को हाथ लगाती। शहर में कहीं भी कथा-प्रवचन हो, अकेली निकल जाती। बाल खोल, कमर में फेंटा कस, झूम-झूम कर नाचती। प्रोफेसर सुनते और उनकी हालत बद् से बद्तर होती जाती।... रह-रहकर उन्हें पत्नी का ख्याल आता। लगता, उससे दूरी बनाए रखने के पाप का परिणाम भुगत रहे हैं चैथेपन में।... इसी अपराध बोध के चलते एक दिन गाँव जा पहुँचे वे और उस देवी स्वरूपा स्त्री का हाथ पकड़ रोने-गिड़गिड़ाने लगे। तब उस भली मानस ने उनके जीवनभर के अन्याय पर धूल डाल सच्चे मन से उनकी सेवा-सुश्रूषा की। पर गाँव में बिजली और डाॅक्टर नहीं थे। सुविधा के आदी और बीमारियों का घर हो गए प्रोफेसर वहाँ दो-चार दिन से अधिक न टिक सके। वे उन्हें अधिकार पूर्वक आमंत्रित कर शहर लौट आए। और उनके कहे ही कुछ दिनों उपरांत नरोत्तम गाँव के घर में ताला डाल माँ को साथ रखने अपने संग शहर लिवा लाया। ...तब जाना कि उनकी तो जड़ें कट गई हैं! बेटा सुबह-शाम पूछ भी लेता, बहू तो झाँकती तक नहीं! सरमभीरे भोजन की थाली जरूर पकड़ा जाती। जिसमें एक कटोरी में रोज पीला-हरा सा एक गिजगिजा पदार्थ भी होता...। एक दिन घिनाते हुए उँगली कटोरी की ओर करके पूछा उन्होंने-
‘‘जे का है?’’
‘‘पंचगव्य,’’ उसने शास्त्रोक्त विधि से बताया, ‘‘गौ की समस्त पावन वस्तुओं का मिश्रण! दूध, दही, घी, मूत्र, गोमय इत्यादि।’’
‘‘गोमय क्या,’’ प्रोफेसर ने शंकित नजरों से घूरा, गोमल?’’
‘‘हओ!’’ उसने मानों धमकाया और पलट पड़ी।
वे पत्नी को देखते मुक्कों से अपनी छाती कूटने लगे, ‘‘हाय-हाय, जे बहुअर इतने दिनों से हमें गोबर खिला रही है!’’
खाए बिना ही घृणा से मुँह में थूक भर आया। थाली उन्होंने एक ओर सरका दी। उस दिन से अपने और पति के लिए चार चँदियाँ खुद ही ठोक लेतीं। नरोत्तम पूछता तो कह देतीं, ‘‘मेहरी के हाथ का हमें रुचता नहीं है।’’ ऊपर की मंजिल पर जाने की अनुमति न थी, सो मोहल्ले-पड़ोस में बैठ आतीं। और खूब जीभ दबातीं मगर औरतों की पंचायत में कोई न कोई बात मुँह से निकल ही जाती।
जैसे- बूढ़े सासससुर, तुम्हाए तौ साच्छात् देईदेउता...घर में डरे कराहि रहे हैं...औरु तुम गैंयन के पीछें बाउरी भई फिरति हौ!’
बात उड़ते-उड़ते मीरा तक आ जाती और रोज कलेश मचता।
कभी-कभी तो महाभारत...। मुँह पर झीना लाल दुपट्टा डाल वह नीचे के पोर्शन में आ सींग भिड़ाने लगती-
‘मेरा दिल तुम लोगों जैसा काला नहीं हैऽ... निर्मल है मेरी आत्माऽ... गऊ की सब चीजें पवित्र होती हैंऽ... तुम क्या जानो- शिव की गौ निष्ठा, दिलीप का गौ प्रेम, वशिष्ठ की गौ सेवा! गौ के चार पाँव ही चारौ धाम हैं... अब भी समय है...तुम लोग चुगलीचाँटी छोड़ गऊ की सेवा में लग जाउ तो तरि जाउगे, तरि!’
मुँहबाद में वे भी कूद जाते तो हाँफनी छूट जाती...। एक दिन तो हद हो गई, जब उसने दोनों का मुँह नोंच लिया!
हारकर नरोत्तम ने माँ से कहा, ‘तुम गाँव चली जाउ, नईं तो कऊ दिन हम फाँसी दै लेंगे!’
आँखों में आँसू भरे जीवनभर की परित्यक्ता स्त्री उसी सूने घर में लौट आई, जहाँ व्याह कर लाई गई थी। थरथराते ओठों से यही बुदबुदाती हुई कि जहाँ डोली आई ती, हमाई लाश तो भईं ते उठेगी!’

प्रोफेसर की समझ में अब बस एक ही जैक रह गया था, नाती वाला। नरोत्तम तो फैल हो चुका। वे खुद और पत्नी भी। आदमी औलाद से झुकता है। शायद, यही छोटा स्क्रूड्रायवर उसके ढीले पेच कसने के काम आए! वे उसका सुबह-शाम लगातार इंतजार कर रहे थे। रोज फोन करते। रोज पता करते। आखिरश वह दिन आ ही गया, जब वह आईआईटी की प्रवेश परीक्षा दे, कोचिंग समाप्त कर घर आ गया। प्रोफेसर उसे गले लगाकर बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर रोने लगे।
उसने बहुत पूछा कि- ‘‘बाबा, क्या बात है? आप बीमार हैं! मम्मी-पापा ने तंग किया....’’
पर वे कुछ बोले नहीं, अवरुद्ध कंठ से इतना ही कहा कि- ‘‘तुम थके-हारे लौटे हो, सुबह बात करेंगे।...’
सुबह देखा तो वह, दरवाजे पर माँ के साथ गायों को चारा खिला रहा था!
सड़क पर गोबर-मूत्र के दलदल से बू का भभका उठ रहा था। भीतर ज्वार उठ खड़ा हुआ कि छलाँग मारकर फाटक लाँघ जायँ और उसके गोरे-मुलायम गाल पर कसकर एक तमाचा जड़ दें! पर क्रोध को अपने भीतर ही पीकर रह गए वे कि- मौका पाकर उसे तर्क से समझाएँगे। आखिर उसी स्क्रूड्रायवर से तो बहू के ढीले पेच कस पाएँगे!
दोपहर तक का समय बड़ी मुश्किल से काटा उन्होंने, जब नाती उनके लिए भोजन की थाली लेकर आया। ...ऊपर डायनिंग हाॅल में खूब बड़ी टेबिल लगवाई थी, सोचा था- बहू-बेटा और नाती-नातिन के संग इकट्ठे बैठकर भोजन किया करेंगे।
अरमानों की उस मेज पर आज तक थाली नसीब नहीं हुई...। बहू ने उनका ऊपर चढ़ना ही निषिद्ध कर दिया था।
हताशा से भरे प्रोफेसर ने थाली उसके हाथ से लेकर अपने पलंग के आगे पड़ी छोटी-सी मेज पर रख ली और उसे हाथ पकड़ बगल में बिठाते हुए बोले, ‘‘टेस्ट कैसा रहा, बेटा!’’
‘‘बाबा, आप अपनी चैक बुक से एक चैक काटने देंगे हमें!?’’
‘‘हाँ-हाँ! पर किसके लिए?’’ वे कौर हाथ में लिए मुँहबाए रह गए थे।
‘‘टीवी पर एक एड आता है... गौ सेवा ट्रस्ट के लिए... मैं बिलीव करता हूँ, प्लीज!’’
‘‘तुम पागल हो गए हो,’’ कौर उन्होंने वापस थाली में रख दिया, ‘‘ऐसा एक ढोंगी तो हमारे गाँव में भी है! मैं उसे बचपन से जानता हूँ। लोगों को अंधविश्वास में फँसाकर वह धूर्त अपने लिए कमाई कर रहा है! तुम तो मैथ-साइंस के स्टूडेंट हो! इस सदी में, इस आधुनिक युग में उन सड़ीगली बातों का क्या महत्व है, जो मनुष्य की शिशु अवस्था में उसके गले पड़ गई थीं? तुम्हारी माँ की बात और...वो अँगूठाटेक, पर तुम तो...’’
कहते-कहते वे हलाकान हो गए। तब नाती ने थाली से कौर उठाकर यह कहते उनके मुँह में दे दिया, ‘‘साॅरी, आप टेंशन न लो, मैं पापा से माँग लूँगा। पढ़े-लिखे से क्या, आस्था भी कोई चीज होती है, बाबा!’’
प्रोफेसर देखते रह गए। वह जीना चढ़कर ऊपर चला गया था।
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