अथगूँगे गॉंव की कथा - 17 ramgopal bhavuk द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अथगूँगे गॉंव की कथा - 17

उपन्यास-  

रामगोपाल भावुक

 

 

 

                         अथ गूँगे गॉंव की कथा 17

               अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति

 

 

17

      दोपहर बाद अचानक तेज आँधी आ गई। धूल उड़-उडकर आकाश को छूने लगी। आकाश में बादल छा गये। किसान लम्बे समय से वरसात की प्रतीक्षा कर रहे थे। आज जाने किस पुण्य से बादलों के दर्शन हो रहे हैं। पथन बारे से कन्डे उठाने औरतें घरों से अपनी-अपनी पिरियाँ लेकर निकल पड़ीं। पथन बारे से पिरियों में कन्डे भर-भर कर बिटौरों में डालने लगीं। आँधी थमी तो पानी के बड़े-बड़े बूँदा पड़ने लगे। छोटे-छोटे बच्चे उसके स्वागत में बाहर निकल आये। वे झूम-झूम कर गाने लगे-

     बड़े-बड़े बूँदा पानी के, खुले भाग अब बाँदी के।

    फूटे रुपइया चाँदी के, बीते दिन बरबादी के।। बड़े-बड़े बूँदा

इसी समय पुलिस की गाड़ी हनुमान चौराहे पर आकर रुकी। बच्चों का सारा उल्लास पुलिस की गाड़ी देखकर ठन्डा पड़ गया। गाड़ी से पुलिस वाले उतरे और मौजी की मड़रियों की ओर चले गये। लोग पुलिस की कार्य प्रणाली देखने के लिये हनुमानजी के चबूतरे पर इकट्ठे होने लगे।

घटना स्थल पर पहुँचकर पुलिस मौके का नक्शा बनाने में लग गई। नक्शा बनाने के बाद वे घटना स्थल का निरीक्षण करने लगे। जिनके अबा लगे थे उनके नाम नोट कर लिये गये। ठाकुर लालसिंह और सरपंच जी पुलिस के साथ आये थे। पुलिस दरोगा ने चौकीदार को कुछ हिदायतें दीं और ठाकुर लालसिंह और सरपंच से हँस-हँस कर बातें करते हुये लौट गये। पुलिस के जाते ही गाँव के लोग हनुमान चौराहे से चलकर मौजी के घर तक आ गये। सभी मौजी को घेर कर खड़े हो गये। उस पर प्रश्नों की बौछार करने लगे। मौजी ने अपने विवेक की पुरानी ढाल और डूड़ी तलवार से सभी के प्रश्नों को काटते हुये एक ही उत्तर दिया-‘भज्जा हो ठाकुर साब और अपये सरपंचय पूछ लेऊ। मैंने पुलिस में काऊ को नाम नहीं लओ। पुलिस तो एन खुरिया-खुरिया के पूछबै करी कै काऊ को हू नाम लेदे। मैंने तो कह दई, मैं काऊ को झूठो नाम कैसें ले दऊँ! मैंने तो कह दई, मोय काऊ पै सक नाने।’

   लोग समझ गये, मौजी को बड़े-बड़ों ने पटा लिया है। वे मौजी को दम-दिलासा देकर पूछने लगे तो मौजी उनसे बोला-‘भइया, तुम से मन मिलो है तई कहें देतों,थानेदार ने थाने में सरपंच से पाँच सौ रुपइया धरालये तब जे छोड़े हैं। अरे! जे पइसा बिल्कुलही न देतये, जिनको अबा सोऊ मेरी मड़रिया के ढिगाँ लगो है। सो जे कच्ची खा गये, तईं में पीछें लगे हैं कै मैं बिनको नाम न ले दऊँ। अरे! कहूँ पानी में रहके मगर से बैर करो जातो।’ 

     कुन्दन ने उसकी बात का समर्थन किया-‘तइसे  जिनके मुँह उतरे हतये।’

   मौजी कुन्दन की बात सुनकर तनकर खड़े होते हुये बोला-‘पुलिस ने तो मे सामू जिनसे कह दई कै आग जान-बूझ के तुमने ही लगवाई है। इतै तुम ही रिपोट करवावे आगये। ज सुनकें तो जिनके थूँक सूख गये।’

 कुन्दन समझ गया , कैसे क्या करैगी पुलिस? यह सोचकर बोला-‘जे दे लै कें बच गये। अब पुलिस काऊ बिना मुँह के कों फाँसायेगी। हम जे बड़िन से झें कह देतै कै जे रुपइया झेंईं दे देऊ, सो एक पइसा न देतये। भाँ पुलिस को पेट भरि आये। चलो ठीक रही। जिन्हें अपये प्रान बचा लये। अब कोऊ मरै-जिये।’

अब तक यहाँ जाटव मोहल्ले का रामदयाल जाटवा भी आ गया था। उसने सभी बातें सुन लीं थीं। बोला-‘तें चिन्ता मत करै, अपये मोहल्ला के डबरा गये हैं। सुनतयें वे अखबार में छपवे खबर दे आये हैं। बात अखबार में छपी कै पुलिस ज कैस काऊ न काऊ पै गाँसेगी।’

  कुन्दन बोला-‘भइया , अब तो ज गाज काऊ गरीब पै गिरैगी। देखत नाने ज गाँव में अपराध कोऊ कत्तो और फसत कोऊ है। आजकल पइसा से झूठ को सच और सच को झूठ करिबे में का देर लगते। जितैक केश ज गाँव में होतयें बड़े-बड़िन को हाथ रहतो। हर बेर फसत कों है, गरीब आदमी। जिनपै पुलिस कों खबावे नाने।’

 रामदयाल जाटव ने अपना निर्णय सुनाया-‘भइया, तुम ही ठीक कहतओ। ज गाँव में तो अन्धेर है अन्धेर।’

 

           000

                              

 

     रात भर बादल छाये रहे। लोग पानी बरसने की आश लगाये रहे। पानी की एक भी बूँद न पड़ी। सुबह होते-होते आकाश पूरी तरह साफ हो गया। किसान निराश होकर आकाश की ओर ताकते रह गये। जिनके पास कुँए थे, वे मौसम के हालचाल देखकर बैंक से कर्ज लेने के लिये दौड़-घूप करने लगे। पहला कर्ज बकाया होने से निराशा ही हाथ लगी। जिले भर में बकाये की अधिक राशि निकल रही थी तो इसी सालवई गाँव पर। गत वर्ष भी फसल अच्छी न आई थी।     

     इधर वर्षा लेट होती जा रही थी। उधर सरकार ने कर्ज बसूल करने के लिये खूब हाथ-पैर मारे। थोक में कुर्की बारन्ट निकले। गाँव के अधिकांश किसानों ने अपने गहने-गुरिया गिरवी रखकर अपनी इज्जत बचाने का प्रयास किया। जिनके पास वह भी नहीं थे, उन्होंने अपनी जमीन बेचने का प्रयास शुरू कर दिया। जिनके पास पैसा था, वे सस्ते दामों में मौके की जमीनें हड़पने में लग गये। यों बैंक के कर्ज की अदायगी में पूरा गाँव ही तवाह होगया।

   सुबह ही गाँव का चौकीदार उदयसिंह कासीराम तेली को बुलाने पहुँच गया। वह अपने बैलों को बाहर बाँध रहा था।चौकीदार ने उसे रौब बतलाते हुये कहा-‘ दरोगा जी ने तोय थाने बुलाओ है।’

   यह सुनकर तो वह काँप गया। बदन पसीने से सरावोर होगया। इन यमदूतन के आदेश को मानना ही पड़ता है। वह समझ गया अब पीछे आदमी चाहिये। गरीब की मदद करिबे बारे ज गाँव में कोऊ नाने। यह सोचकर वह चौकीदार से बोला-‘ बुलाया है तो चलना ही पड़ेगा। चौकीदार साब, ज बात कामता की बाई से कह दऊँ, तासे व तिवाई महाराज से कह आयेगी। वेई चाहें हमाई मदद कद्दें।’यह कहते हुये वह घर के अन्दर चला गया। पत्नी को समझा-बुझाकर चौकीदार के साथ ही थाने चल पड़ा।

      जब कामता की बाई देवा, तिवारी लालूराम के यहाँ पहँची, तिवारी जी अपने काम में व्यस्त थे। पता चला आज उनकी बिटिया को देखने के लिये कोई ग्वालियर से आ रहे हैं। वह डूबते-उतराते मन से उनसे बोली-‘कक्का जू विन्हें चौकीदार थाने में बुला ले गओ है। हमाओ अबा सरपंच के अबा से कितैक दूर लगो है। बिनसे तो काऊ ने कछू नहीं कही। गरीब जान के हमें फसा लये।’

      तिवारी लालूराम सोचते हुये बोले-‘पुलिस तो खावे फित्ते। फिर काऊ न काऊ के नाम से ज केस मढ़नों ही परैगो कै नहीं? बड़िन के नाम से तो मढ़ो नहीं जा सकत।’

      देवा बोली-‘कक्का जू ज तो सरासर अन्याय है।’

      तिवारी लालूराम ने न्याय -अन्याय की परिभाषा दी-‘न्याय-अन्याय को देख रहो है।गरीब आदमी हमेशा से मत्त आओ है। अभैऊ मर रहो है। चाहें राज तंत्र रहे, चाहे प्रजातंत्र आये। गरीब को तो मरिवोई है। मुन्नी धोबी ने ठाकुर लालसिंह की शरण गह लई है। कछू दे ले लओ होयगो, तईं बच गओ। सरपंच कौं तो तें जानतई है।’

      देवा अपनी बात पर आते हुये बोली-‘अब जिन्हें कैसें हू छुटवाऊ तो।’

      तिवारी लालूराम उसे समझाते हुये बोले-‘छूटे कैसें, तें सब जान्ते। तितैक वे दे आये, तें दे नहीं सकत। तें चिन्ता मत करै, जमानत होनों है,कोऊ वकील कन्नो परैगो। सो भें मेरे परिचित एक वकील हैं , वे सब करवा दंगे। आज तो तें देख रही है , मेरो जावो मुश्किल ही है। कल मैं भोर ही चलो जाउँगो। तोनों तें दाम पइसा को बन्दोबस्त करले। कोर्ट-कचहरी हैं जिनपै चढ़िवे के हू पइसा लगतयें।’

       यह सुनकर देवा को लगा-किसी ने उसे मूँदी मार दी है, जानै किस जनम को बदलो निकारो है।यह सोचकर वह फुसफुसाकर रोते हुये बोली-‘पइसा को दयें देतो। काऊ के झें जातेंओं, दे देगो तो।’ यह कह कर वह आँसू पोंछते हुये चली गई।

     दोपहर का वक्त हो गया। मेहमानों के आने का समय निकल गया। कुन्दन की माँ अपने भाग्य को कोसते हुये बोली-‘ जाने ज मोड़ी के कैसे भाग्य हैं? जहाँ बात डालते हैं ,वहाँ मना करने के लिये बहाने की कोई न कोई बात निकल आती है। लड़का बारिन के सोऊ सौ- सौ नखरे होतयें। नो मन तेल तो बिनके सजिबे में ही जल जातो। जों नहीं सोचत कै दूसरे पै का बीतत होयगी।’

       तिवारी लालूराम ने अपनी व्यथा उड़ेली-‘ फित्त-फित्त पाँव पीरे परि गये। तोऊ हिल्लो नहीं परो। बैसें जों कहतयें कै जा दिना समय आ जायगो वा दिना बात बन्त में देर नहीं लगेगी।’

       वे यों सोच-सोचकर मन को धीरज बँधा रहे थे। फिर भी मन ने धीरज नहीं धरा तो उन्होंने जयराज से पूछा-‘क्यों जयराज क्या कहा था, उनने आने के बारे में?अरे! आयेंगे कै नहीं?’

        जयराज ने सोचते हुये उत्तर दिया-‘उन्हें अब तक आना तो चाहिये था। आने की पक्की बात कही थी।’

        लालूराम ने उसे डाँटते हुये कहा-‘उन्होंने जाने क्या कहा होगा और इसने जाने क्या सुना होगा? जाने किस नशे में रहता है?’

         कुन्दन ने जयराज का पक्ष लिया-‘आप जयराज को व्यर्थ ही डाँट रहे हैं। इसका क्या दोष? उन्होंने कह दी और वे नहीं आये।’

        कुन्दन की माँ ने उन्हें कोसना शुरू किया-‘अरे! ये नहीं आते तो बरसाने वालों से बात पक्की कर दो। यही है बरसाना यहाँ से थोड़ी दूर है इसलिये सोच रहे थे। ये पास की पास में हैं। भाग्य में जहाँ का अन्न जल लिखा होगा ये वहीं जायगी।’

         ये बातें हो ही रहीं थीं कि एक मोटर साइकिल दरवाजे पर आकर रुकी। किसी ने कहा-‘ वे आ गये,वे आ गये।’ घर में भाग दौड़ शुरू होगई। मेहमानों को बैठक में बैठाया गया। सोना बिटिया को सजाया जाने लगा। कुन्दन की पत्नी आनन्दी ने उसे समझा बुझाकर चाय देने के लिये भेजा। जब सोना बैठक में चाय की ट्रे लेकर पहुँची सभी उसे वे-रहमी से घूर रहे थे। कुन्दन को उनका इस तरह घूर कर देखना अच्छा नहीं लगा। वे कुन्दन की निगाह पहचान गये तो उन्होंने मुस्कराकर बात टाल दी। मजबूर होकर कुन्दन को वहाँ से हटना पड़ा। सोचने लगा-ये तो चमड़ी के ग्राहक लगते हैं। काश! सोना का रंग साँवला न होता तो पता नहीं इसके ब्याह की समस्या कब की हल हो गई होती। ये गुण के ग्रहक भी नहीं लगते। गुणों की पहचान कुछ ही समय में कोई कैसे कर पायगा? जब सोना उन्हें चाय देकर चली गई, कुन्दन बैठक में पहुँच गया। उनमें जो सबसे वृद्ध दिख रहे थे ,मुझे देखकर बोले-‘ कुन्दन जी अपनी बहन को एक बार और बुलाने का कष्ट करेंगे।’

      कुन्दन को ‘बेबसी में कहना ही पड़ा-‘जी, वैसे बात ये है, गाँव की लड़की है,शहर की लड़कियों की अपेक्षा शर्मीली होतीं हैं। वैसे आज के युग में लड़कियों को बोल्ड होना चाहिये।

       उन्होंने झट से उत्तर दिया-‘नहीं, इतनी बोल्डनेस भी अच्छी नहीं लगती कि मर्यादाओं को भंग कर दे।’

        कुन्दन ने मन ही मन दोहराया-एक बार देखने से मन नहीं भरा तो श्रीमान दोवारा बुला रहे हैं। लड़की वालों की कितनी लाचारी होती है। यह सोचते हुये कुन्दन घर के अन्दर चौक में पहुँच गया। आवाज दी-‘सोना बेटी, जरा एक बार  बैठक में और आना।’

        सोना शीध्र ही दूसरे घर में से निकल कर भैया के पास आ गई। उसके पीछे-पीछे चलकर बैठक में पहुँच गई। कुन्दन बोला-‘ अब तुम इस कुर्सी पर बैठ जाओ।’

        वह कुर्सी पर बैठ गई। कुन्दन फिर से बाहर निकल आया। एक ने पूछा-‘ तुमने रीढ़ की  हड्ड़ी नामक नाटक तो पढ़ा होगा।’

     ‘जी’

         पंडित दीनानाथ ने लड़कों की बात को बदलने के लिये पूछा-‘ तुम्हारी हायर सेकन्ड्री में कौन सी डिवीजन रही?’

         ‘सेकन्ड’ उसने संक्षिप्त उत्तर दिया।

         वे बोले-‘ठीक है गाँव की लड़की का इतना फर्स्ट के बराबर है। गाँव के लोगों में भी चेतना का संचार हो रहा है। वे अब अपनी बच्चियों को पढ़ाने में रुचि लेने लगे हैं।’ वे एक क्षण रुक कर बोले-‘ अच्छा बेटी अब जा। पहले इन लोगों ने बोतें नहीं कर पाईं थी। अब ये सभी संन्तुष्ट हो गये होंगे।’ उनकी बात सुनकर सोना वहाँ से चली आई।

        घर के सभी लोग परिणाम जानना चाहते थे। सभी अपने-अपने इष्ट का स्मरण करने लगे- ‘हे भगवान ,ये लोग सोना बेटी का रिस्ता स्वीकार करलें।’

        सोना के पापा लालूराम जी अपने इष्ट से टेर लगा रहे थे-हे हनुमान बब्बा, आप तो हमारे पड़ोसी है। आज तक आप हमारी रक्षा करते आये हैं। प्रभु ,यह काम होने पर सत्य नारायण की कथा कराऊँगा।’यही सब सोचते हुये वे बैठक में पहुँच गये। उन्हें देखते ही पं दीनानाथ जी बोले-‘देखो तिवारी जी, हम जानते हैं विवाह में आप कोई कसर नहीं रखेंगे। हमें लड़की पसन्द है। गाँव की पढ़ी-लिखी बच्ची भगय से ही मिलती है। आपका हमारे लड़के से मन भर गया हो तो लड़की पक्की करना चाहते हैं।’

     यह सुनकर उनका दिल उछलने लगा। घर के सभी लोग बहुत प्रश्न्न हो गये। तिवारी जी ने उनके मन की बात लेना चाही, पूछा-‘ हम आपका उतना सम्मान नहीं कर पायेंगे,आप क्या चाहते हैं बतला देते, जिससे बाद में झिकझिक न हो। यह हमें पसन्द नहीं है।’

     तिवारीजी की यह बात सुनकर पं0 दीनानाथ ने बोले-‘पाँच-पाँच हजार के ही ठिक  से कम पर इज्जत नहीं बच पायेगी। फिर जैसा आप उचित समझें।’

      कुन्दन झट सें बोला-‘पिछले चार साल से फसल साथ ही नहीं दे रही है। फिर भी हम आपकी इज्जत बचाने में कसर नहीं छोड़ेंगें।’

      अन्त में पं0 दीनानाथ ने निर्णय सुनाया-‘ हमें लड़की पसन्द है, फिर आप हमारे सम्मान में तो कमी रखेंगे नहीं। इसलिये इस बारे में हमें आप से कुछ नहीं कहना।’

      दोनों पक्ष सम्बन्ध के लिये राजी हो गये। गाँव भर में गोद भराई का बुलउआ लगा। गाँव के लोग आने लगे। औरतें लोक गीत गाने लगीं। सोना को बुलाकर जाजम पर बिछोना बिछाकर उस पर बैठया गया। पं0दीनानाथ ने सोना की गोद भरी। उनको भोजन कराया। औरतों ने लोक गीतों की झड़ी लगा दी।

       गौरा,गनपति कों लेऊ मनाय,सजन घर आये हैं।       

      बाद में उन्हें उनके सम्मान में दान-दक्षिणा देकर विदा कर दिया।

      शाम होते-होते सरपंच शहर से लौटकर आये। रास्ते में तिवारी जी का घर पड़ता था। दरवाजे पर तिवारी लालूराम और कुन्दन बैठे थे। सरपंच मौजी के प्रकरण में अपने को विरोधियों के सामने निष्कलंक घोषित करना चाहते थे। इधर तिवारी जी लड़की की सगाई से निवृत होकर चैन की साँस ले रहे थे। लालूराम को दरवाजे पर बैठा देखकर सरपंच विशन महाराज ठुमके। लालूराम उनकी चाल पहचानते हुये बोले-‘आओ, सरपंच जी आओ। आज बड़े प्रश्न्न दिख रहे हो! बैठ लो।’

      वे चबूतरे पर तिवारी जी की बगल में बैठते हुये बोले-‘ सुना है, आज सोना बेटी की गोद भराई का कार्यक्रम निपट गया।’

      तिवारी जी ने सहज बनते हुये कहा-‘सरपंच जी, जहाँ उसकी किस्मत ले गई, वहीं सम्बन्ध हुआ है। सब पूर्व जन्म का लेखा-जोखा है।’

      सरपंच जी अपनी बात पर आ गये। बोले-‘चलो यह ठीक ही रहा। सब किस्मत की बात है। मैं भी आज शहर से आ रहा हूँ। अखबार में देखो तो आज यह क्या छपा है?’

       कुन्दन ने आगे बढ़कर अखबार हाथ में ले लिया। उसे जोर-जोर से पढ़ने लगा-‘सालवई गाँव के सवर्णों ने दलित का घर फूँका।’

       सालवई गाँव के सवर्णों ने एक गरीब दलित का घर इसलिये फूँक दिया क्योंकि वह गाँव में बधुआ मजदूरी का विरोध करने लगा था। उसे गाँव से भगाने के उदेश्य से सवर्णों ने उसके घर में आग लगा दी। पुलिस मुस्तैदी से घटना की जाँच कर रही है। अभी तक कोई भी अपराधी पकड़ा नहीं गया है। उसी गाँव के दलितों ने कलेक्टर महोदय की ओर एक प्रार्थना पत्र भेज कर अनुरोध किया है कि दोषी को तत्काल गिरफ्तार किया जावे।’

      कुन्दन ने समाचार पढ़कर सुनाया। सरपंच जी बोले-‘ देखा, तिवारी जी हम सब आपस में बटे हुये हैं। ये दलित लोग इकत्रित होकर सर उठा रहे हैं। भई, किया भी क्या जाये, उनका राज्य जो है? काशीराम तेली को पुलिस ने बन्द कर ही दिया है।’

       लालूराम तिवारी क्रोध व्यक्त करते हुये बोले-‘ इसका मतलब है, उसके सिर पर केश लाद दिया गया है। अरे! सरपंच जी मौजी की मड़रिया में आग लगी है तो तुम्हारे भट्टे से अथवा मुन्नी धोबी के भट्टे से। उसका भट्टा तो बहुत दूर लगा है। तुम दोनों तो ले देकर बच गये। केश लद गया गरीब आदमी के ऊपर। देखना उसकी बददुआयें कहीं तुम्हें ले न डूबें।’

       सरपंच बोले-‘ देखो तिवारी जी, बददुआओं की बात तो बाद की है। वह तुम्हारा आदमी है, चुनाव में उसने तुम्हारा खुलकर साथ दिया था। तुम उसकी दुआयें लेलो। मैं यही कहने तुम्हारे पास आया था। अब चलता हूँ।’

        लालूराम ने उनकी आव-भगत में कहा-‘ अरे! रुकिये, चाय बनी जाती है।’

       चाय के नाम पर वे उठते हुये बोले-‘अरे! इसकी क्या जरूरत है। सुबह का निकला हूँ। जरा जल्दी में हूँ।’

       जब वे चलने को हुये तो तिवारी जी खींसे निपोरते हुये उनकी आव-भगत में खड़े होगये।

        जब वे चले गये। जयराज उनकी बातें सुन-समझ चुका था। बोला-‘आजकल पैसे से सब कुछ हो सकता है। भ्रष्टाचार चरम सीमा पर पहुँच गया है। हम ईमानदार बने रहें तो भूखों मरने की नौबत आ जायगी। दन्द-फन्द करके, दे-लेकर कहीं चिपक जाता तो आप सुनते नहीं हैं।’

       बात का जबाव लालूराम ने न देकर कुन्दन ने दिया-‘भइया सब करेंगे। पहले बहन का ब्याह तो निपट जाने दे। जैसे समय निकल रहा है थोड़ा सा और निकाल लो।’

       लालूराम ने अपने क्षेत्र में चल रही राजनीति पर अपना आक्रोश व्यक्त किया-‘ज एम0 एल0 ए0 हू कछू काम को नाने। देखिवे- दिखावे कों ईमानदार बनतो। फिर ईमान दारी से कौनसा काम बना है!’

       जयराज ने अपना आक्रोश उड़ेला-‘ ज शक्कर मील से लाखों डकार जातो। गन्ना को भाव काये नहीं बढ़त। सब जई की कारस्तानी है।रुपइया बढ़नो चहिये तब आठ आना बढ़ंगे।’

      कुन्दन ने अपना अनुभव व्यक्त किया-‘हमें ऐसे लोगों को चुनना ही नहीं चाहिये ।हम हैं कि कहीं जाति के नाम पर, कहीं पार्टी के नाम पर गलत प्रत्यासी को अपना मत दे आते हैं। बाद में हमें उसके लिये पश्चाताप करना पड़ता है।’

       लालूराम ने अपनी बात रखी-‘चुनाव में अच्छे लोग खड़े ही नहीं हो पाते। जिसके पास पैसा है, वही चुनाव लड़ पाता है। अपने गाँव में हीं देख लो, विशन महाराज सरपंच कैसे बन पाये! सारे देश में यही हाल है।’

       कुन्दन सोच में डूब गया-कहाँ खो गया गाँधी जी का सपना? आज वे होते तो वे भी इस व्यवस्था को देख-देखकर सिर धुन रहे होते। जब तक देश के लोगों का सोच नहीं बदलेगा तब तक कहीं कुछ होने बाला नहीं है। अब तो कोई नया गाँधी सामने आये तभी बदलाव सम्भव है। जन बल की मानसिकता जब तक नहीं बदलेगी तब तक यह बदलाव सम्भव नहीं है।

       कुन्दन की माँ ने बैठक में बड़बड़ाते हुये प्रवेश किया-‘ अब ये पंचायत ही करते रहोगे या कुछ काम-धन्धा भी देखोगे। तुम्हारे बाप ने तो अपनी जिन्दगी नेतागिरी में खराब करली। अपना काम धन्धा छोड़कर नेतागिरी करने लगे। गाँव को लूटने का मौका तलाशते रहे। सो मिल नहीं पाया। अरे! यहाँ विशन महाराज जैसे बड़े- बड़े घाघ बैठे हैं। सो अभी तक सारी जिन्दगी निकल गई ,इस गाँव के सरपंच तो बन नहीं पाये। बिटिया का ब्याह बिना कर्ज लिये हो पाना सम्भव नहीं है।’