अथगूँगे गॉंव की कथा - 1 ramgopal bhavuk द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अथगूँगे गॉंव की कथा - 1

 उपन्यास-  

रामगोपाल भावुक

 

 

                         अथगूँगे गॉंव की कथा 1

               अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति

         

                                

                                        संपर्कः कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा)

                                       भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

                                                  पिन- 475110

                                        मोबा- 9425715707

                                           8770554097

    

 

      

एक  

      होली के अवसर पर खेतों में मसूर उखाड़ने का कार्य तेजी से शुरू हो गया था ।

      आज मौजी जल्दी ही जाग गया था। यों तो रोज ही जल्दी  जागना पड़ता है, पर होली के दिन की उमंग और भी जल्दी जगा देती है। उसकी पत्नी संपतिया उर्फ पचरायवारी  सरपंच विष्णु शर्मा शर्मा उर्फ विशन महाराज के यहां गोबर डालने चली गई।

              मौजी पत्नी के जाते ही कल खेत से लौटकर रखें गोफन को यहाँ  वहाँ  खोजने लगा, उसकी बड़ी लड़की रधिया यह देख कर बोली, दादा सुबह-सुबह जाने का खखोर रहे हो ।

               मौजी बोला, कल महाते के खेत में से मैं चिड़िया बिडार  के आओ, मैंने  अपनो गोफन झेंईं कहूं धर दओ। जाने कहां चलो गओ ।

                 रधिया बोली, दादा तुम बड़े खराब हो ,सबेरें सबेरें गोफन लेकें चिड़ियाँ खेत पै पहुंचबे से पैलें खेत पर पहुंच जाओगे। जब चिड़ियाँ खेत पै पहुंचेंगीं, तुम चिल्ला चिल्ला कें हाय हाय करोगे ।अरे दादा चिड़ियाँ अपनों पेट भरिबे कहां जाएं । विनकें का खेती होते।

                  मौजी बोला ,बेचारा किसान भी क्या करें ,जो देखो उसी से आस लगाए बैठा है ।दिन-रात किसान मेहनत करे, तब कहीं ये दाने दिखते हैं ।इन पर भी जिनकी देखो उसकी दाड़ है। मंडी में तो इन अनाज के दानों पर मोटे पेट वाले सेठ, चीलों की तरह झपटते हैं ।

                   रधिया ने कहा ,लेकिन किसान यह नहीं सोचता कि इन चिड़ियों के क्या खेती होती है ।वे अपना पेट भरने कहां जाएं। क्या करें ।गोदामों में पहुंचने के बाद तो उन्हें अनाज की गंध भी नहीं मिलने की। इस तरह का खाना किसी को भी क्या अच्छा लगेगा ,किंतु वे भी क्या करें। मजबूरी में पेट की आग तो बुझा ना ही पड़ती है ।पेट के लिए आदमी भी क्या क्या नहीं करता ।

                   रधिया तें जे बातें छोड़ ,जल्दी से गोफना दे दै ।कहूं चिड़िया खेत चुंग गई तो महाते मेरी मजदूरी में से काट लेंगे और जिंदगी भर मजदूरी करायेंगे ।

                     रधिया ने गोफन दे दिया तो मौजी जल्दी-जल्दी चलकर खेत पर चला गया।     वह  सोच के सागर में डुबकियाँ लगाने लगा... फागुन के महीने में फसलें पकने को हो जाती हैं। इस गाँव के दोनों ओर तालाब हैं। गाँव के लोग उत्तर के तालाब को सनोरा ताल एवं दक्षिण के छोटे तालाब को बन्डा ताल के नाम से जानते  हैं। दोनों तालाबों का जल रीत जाने पर लोग उन तालाबों में मटर और मसूर की खेती करते हैं। इस क्षेत्र में हरसी के बाँध से सिचाई होती है।यह हरसी का बाँध.सन् 1943 ई0 के आसपास ग्वालियर नरेश जीवाजी राव सिन्धिया ने पार्वती नदी पर बनबाया था। इसकी विशेषता यह है कि यह मिट्टी का बना बाँध है। इसकी जल संग्रह की क्षमता 12380 लाख फुट है।  इस बाँध के कारण यह धान, गन्ना, गेंहूँ की खेती का प्रमुख क्षेत्र बन गया है।

                                                                                                               ****

 

         जब पचरायवारी सरपंच विष्णू शर्मा उर्फ विशन महाराज के यहाँ से लौटी, मौजी उससे पहले ही लौट आया था। पत्नी को देखते ही बोला-‘बड़ी देर कद्दई। का सरपंच के संग होरी खेलन लगी।’

      उसकी यह बात उसे बहुत बुरी लगी। वह प्रश्न के स्वर को पकड़कर बोली-‘ सरपंच का मेरो खसम लगतो सो बाके संग होरी खेलती। अरे! मोय काये कों अलग लगातओ। तुम अपयीं तो कहो तुम्हें जितैक होरी चढ़ते, इतैक औरउ काउये चढ़ते’

      यह सुन मौजी हिनहिनाकर हँसते हुये बोला-‘अभै नो तो मैं चलो जातो। जौ सोच कें रह गओ कै तोसों होरी खेल चलों।’

      सम्पतिया आनन्द सागर में डुबकी लगाते हुये बोली-‘मो सौं होरी काये कों खेलतौ। आज तो गाँम में हूँ  होरी खेलबे बारीं मुलुक बैठीं होंयगीं।’

       एक क्षण के लिये उसके मन में समता की उमंग उठी। वह भूल गया कि वह किसी जाति के पतनकाल में पला आदमी है। दूसरे ही क्षण उसे लगा-जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों ने उस पर आक्रमण कर दिया है। वह उनसे दबा जा रहा है। उसी व्यथा को व्यक्त करने के लिये बोला-‘गाँव में हमें को पूछतो, हम तो बिनकी चाकरी करिबे पैदा भये हैं। मौको लगि जातो तो वे ही हमाई बहिन-बिटियन कों हूँ नहीं छोड़ रहे। बड़िन की बातें बड़ी हैं। हम इतैक का जाने? मैं तो तोसों होरी खेल कें मन भर लेतों। फिर तेरे संग होरी खेलवे में जो मजा आतो....।’

        सम्पतिया मन ही मन पुरानी बातें याद करते हुये बोली-‘जे बातें छोड़ो, बूढ़े हो गये, नाती-पोता हो गये और तुम वेई बातें कत्त रहतओ।’

        मौजी मौज में था। उसने जाने कितनी देर से सलवल की दोंच-दुचारी लुटिया में रंग घोल कर रख लिया था। वक्त पाकर उसने लुटिया के रंग को पत्नी पर उड़ेला। पत्नी ने लुटिया पकड़ली, छीना-झपटी होने लगी। रंग दोनों ओर छलका, इधर मौजी के काले शरीर पर, उधर पचरायवारी की उस धोती पर जिसने साबुन फूटी आँखों से न देखा था। किसी पक्के रंग पर दूसरा कोई रंग कैसे चढ़ सकता है? उसकी धोती का और धरती का रंग एक हो गया था। लुटिया फड़फड़ाकर दूर जा गिरी थी। लुटिया गिरने की आवाज सुनकर बच्चे तमाशा देखने निकल आये थे।

       बड़ी लड़की रधिया को बुढ़ापे की होली रास नहीं आई, बोली-‘दादा बूढ़ो होगओ तोऊ जाकी वे बातें नहीं गईं।’

       सम्पतिया को लड़की की यह दखलंदाजी पसन्द नहीं आई। बोली-‘बूढ़ो आदमी है, रोज तो सबकी चिन्ता में सूखिवे कत्तो। मैं तो मत्त से कहतेओं कै अब जे बातें छोड़।’

       रधिया माँ की ये बातें सुनकर तिलमिला गई थी। गुस्से के मारे अपनी मड़रिया में चली गई। दोनों ने उसकी पर्वाह नहीं की। दोनों बातों में मस्त हो गये। मौजी बोला-‘री ज होरी न होती तो तें मेरे संग काये कों लगती।’

       सम्पतिया की यादें ताजा हो गईं, बोली-‘बा साल सरीकी होरी फिर तुम पै फिर कबहूँ नहीं चढ़ी।’

       मौजी अपने प्यार के बीच में खोड़ के राजा को लाते हुये बोला-‘खोड़ के राजा सोऊ तोपै ऐसे रीझे कै मोय तो जों लगी कै तें रानी बन्ते।’

       सम्पतिया ने अपने भाग्य की सराहना की, बोली-‘ अभै का रानी नाने। तुम और रन्धीरा लाला मिलि कें दो-दो आदमी, दिन-रात मेरी सेवा में लगे हो।’

       उसी समय महाते दीनानाथ लठिया पटकते-पटकते दरवाजे पर आ गये थे। बोले-‘मौजी तुम्हें होरी चढ़ी है। खेत में मसूर कुर रही है। अरे! बाय दानास की बेर नों बीन लातये।’