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अथ गूँगे गॉंव की कथा - 11

उपन्यास-  

रामगोपाल भावुक

 

 

 

                         अथ गूँगे गॉंव की कथा 11

               अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति

 

                       

     11

  

     लोकतंत्र का पौधा जब पनपता है और सत्ता के केन्द्र में जाकर ब्राजमान होता है,। तब वही जन- जन की इच्छायें पूरी करने में समर्थ होता है। इसमें अधिकांश के विकास को समग्र का विकास मान लिया जाता है।

     विश्व में प्रजातंत्र से सफल कोई शासन की श्रेष्ठ प्रणाली नहीं हो सकती। मानव के विकास में यह बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय की उत्तम परम्परा विकसित हुई है। जब यह प्रणाली संसद से जनपदों तक पहुँचती है तभी इसे पंचायती राज कहना उचित लगता है। इन दिनों कुन्दन यही सब सोचने में लगा है।

      वार्ड क्रमांक सात के मध्यावधि चुनाव की तिथि घोषित हो गई। यह पद सरपंच की पार्टी के महेश की नौकरी लगने से रिक्त हुआ था। पूर्व में भी इस पद पर कड़ी टक्कर थी।

       इस चुनाव में आम चुनाव से दूना उत्साह दिखाई दे रहा था। विपक्ष इस वाट का चुनाव जीतकर यह सिद्ध करना चाहता था कि अब जनता से उनकी साख उठ गई है। साथ ही इस एक वोट के जाने से सरपंच अल्पमत में आ जायेंगे। किन्तु वे सरपंच बने रह सकते हैं क्योंकि वे जनता से सीधे निर्वाचित किये गये हैं। उन्हें हटाने के लिये दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता पड़ेगी जो विपक्ष के लालूराम तिवारी के पास नहीं है। उनके पास बहुमत न होने से वे जनता के हित में भी कोई निर्णय नहीं ले पायेंगे। इसी कारण सरपंचजी को अपनी इज्जत बचाने के लिये यह चुनाव जीतना बहुत  आवश्यक होगया है।

       सरपंच ने तिवारी राम प्रसाद कों खड़ा कर दिया था। विपक्ष की ओर से नन्दराम शुक्ल उर्फ नन्दू शुक्ल खड़े थे। इस वाट में सिखों के वोट भी कम न थे। एक सिख सरदार अमरजीत सिंह ने अपना फार्म डाल दिया था। गाँव भर के लोगों ने चुनाव में रुचि लेना शुरू कर दी। लोग अपने-अपने प्रत्यासी के लिये वोटरों से सम्पर्क करने लगे। फार्म खीचने की तिथि आ गई। सरपंच चुनाव अधिकारियों से मिल गया। उसने उन्हें कुछ ले देकर नन्दराम शुक्ल का फार्म निरस्त करवा दिया। विपक्ष की आशाओं पर पानी फिर गया। तिवारी लालूराम सरदार अमरजीत से मिले। वह स्वयं इनसे मिलना चाहता था। वह इन पर प्रभाव डालने के लिये बोला-‘मैं तो अपना फार्म खीचने का वादा सरपंच जी से कर चुका हूँ।’

       यह सुनकर तिवारी जी को करारा धक्का लगा। वे अमरजीत से चुनाव लड़ने के लिये मिन्नतें करने लगे। बोले-‘सरदारजी आप चुनाव में खड़े रहें। मेरा पूरा सपोट आपके साथ है।’

       अमरजीत सिंह को इनका पूरा विश्वास होगया कि मैं इनके सपोट से जीत जीऊँगा। जब यह बात सरपंच जी को पता चली तो वे अमरजीत सिंह से बोले-‘आप फार्म खीच लें । किन्तु उसने फार्म न खीचा। इस बात पर उहें उस पर भारी क्रोध आया और उसने अमरजीत सिंह को आतंकवादी घोषित कर दिया।

     लोग सघन चुनाव प्रचार करने लगे। सरपंच जानते हैं कि वोट कैसे पकाये जाते हैं ,इसलिये चिन्ता की बात नहीं है। सरपंच को विश्वास है कि मौजी के वोट इधर-उधर नहीं हो सकते। ज्यादा से ज्यादा दो-चार शराब का बोतल का खर्च पड़ेगा। जीत तो निश्चित है ही। इस तरह की दलीलों से वे अपने मन को समझा रहे थे।

         दोनों ही पार्टियों को मौजी के वोटों पर पूरा भरोसा है। किन्तु आदमी वोट जिसे देना होता है उसे ही देता है। वोटों के लिये झूठी-सच्ची कसमें खाने में भी संकोच नहीं करता। मौजी ने इन्हीं बातों को अंगीकार कर लिया था। तिवारी लालूराम ने अपना चुनाव प्रचार मौजी के घर से ही शुरू किया। वे मौजी के घर के बाहर बने चबूतरे पर जाकर बैठ गये। मौजी को आवाज दी-‘ ओऽऽ मौजीऽऽ।’

        आवाज सुनकर मौजी घर से बाहर निकल आया। बोला-‘राम राम महाराज।’

        लालूराम ने उत्तर दिया-‘राम राम।’

        मौजी समझ गया, वे यहाँ आकर क्यों बैठे हैं। निश्चय ही वोटों का चक्कर है। यह सोचकर बोला-‘मोकों खबर भेज देतये, झेंनों काये कों परेशान भये।अरे !ससुर वोटन की बात है, सो मैं का जान्त नाने,कै पहिले आपकी इज्जत डूब गई। अब की बेर आप चिन्ता मत करो। पहलें वोट तुम्हें दये, अब की बेर हू ताये तुम कहो बाकों वोट दें आँगे।’

      लालूराम समझ गये पहलें जाने वोट दये होते तो आज मैं सरपंच बनो होतो। लेकिन ज तो शराब में बिक गओ। यह सोचकर बोले-‘विश्वास कैसें होय कै वोट तें हमाये आदमी को ही देगो।’

       यह सुनकर मौजी हिनहिनाते हुये बोला-‘ऐं महाराज ऐसें काये कहतओ। मेरें एक ही मोड़ा है, बई की सौगन्ध खातों, जे वोट तुम्हाये हैं। वैसे जों हती कै ज एक मेम्बर तुम्हाओ बन गओ तोऊ सरपंच तो तुम बन नहीं पाओगे।’

      चेहरे पर सलबटें लाते हुए , लालूराम ने अपना पक्ष रखा-‘एन न बन पायें पर बात की बात है। तें ज राजनीति का जाने? अरे !ज मेम्बर मेरो बन गओ तो जे जो सटट -गटट कत्त रहतयें ते न कर पाँगे।रे! तें पीवे-पावे की चिन्ता मत करै। अमरजीत से कह दंगो, व तोय शराब में डुबा देगो।वैसें सरपंच के आदमी से तो ज अच्छो आदमी है। जे तासे देखो तासे लरिवे डाढ़े हैं। वैसे जे सिख बड़े खराब होतयें। पंजाब में देखो कैसो आतंक मचाये रखो। ज आदमी ऐसो नाने। बता अमरजीत काऊ से लड़ो आजनो।’

      मौजी ने बात सुनते हुये चेहरे पर मुश्कराहट लाते हुये कहा-‘ज लरो तो नाने। है तो ज अच्छो आदमी।पंजाबियन जैसे लच्छिन नाने।गीलो आदमी है।

      चेहरे की सलवटें मिटाते हुए लालूराम ने अपना पक्ष पुनः रखा-‘यार मौजी में ऐसे-वैसे आदमी को संग काये कों देतों। वैसे रामप्रसाद हमाई जाति के हैं, पर वे अमरजीत से का लग पातयें।’

       मौजी ने उन पर वोट देने का अहसान सा जमाना चाहा-‘अबकी आप चिन्ता मत करो। मैंने तो सौगन्ध खा के कह दई। हनुमान बब्बा की तरह दिल चीर कें तो दिखा नहीं सकत।’

        लालूराम तिवारी ने उसकी बात का खण्डन किया-‘ रे! दिल चीर कें तो कोऊ काऊए नहीं दिखा सकत। मैंने तो ज गाँव के दलितन के संग ऐसी मदद करी कै कोऊ नहीं कर पाओ।’

         बात सुनकर मौजी याद करने लगा कि इनने ऐसी कौनसी मदद करी! लालूराम ने अपना और अधिक प्रभाव जमाने के लिये कहा-‘रे! जब देश स्वतंत्र भओ। जमीदार जिनपै बेगार करातये। मैं सारे दलितन से दसखत कराकें एक दरखास दिल्ली भिजवा दी थी। तब जिनकी बेगार छूटी है और जे तुम्हाये सरपंच हैं, वे जमीदार के संग लगे थे।’

      मौजी ने अपनी वही पुरानी एक रटी रटाई बात कही-‘ मैं सब जान्तों। मैं कौन की कह दऊँ। ज गाँव में ता दिना आओ ,वा दिना तुम्हाये झाँ से रोटीं माँग कें लाओ। वा दिना कीं बातें भूल नहीं सकत।’

      लालूराम ने वोट के लिये मिन्नतें करते हुये कहा-‘तू तो अबकी बेर बात राख दे। तेरो अहसान जिन्दगी भर नहीं भूलंगो।’

       मौजी ने आत्म निवेदन किया-‘अरे! दद्दा, कैसी बातें कत्तओ।असल को होंगो तो बात से हटंगो नहीं। चाहें सरपंच मार ही डारें।’

        लालूराम को जब उसकी बात का पूरा विश्वास होगया तो चेहरे पर मुश्काराहट लाते हुये बोले-‘तो रे मौजी तें नाज-पानी की तंगी मत भुगतिये। बता दिये। मैं अमरजीत से कह दंगो व तोय एक कुन्टल गेंहूँ दे देगो। चले जइयो। लिअइओ, समझे। व आदमी ऐसो है कै आगें पीछें हू देखें रहेगो। ठीक है फिर मैं चलों।’

       मौजी समझ गया कि मैंने इन्हें पूरी तरह संतुष्ट कर दिया है। यह सोचकर आत्म विश्वास छलकाते हुये बोला-‘ज है दद्दा गरीब आदमी हों, वोट देबे  की बिनसे हू कहिनों परैगी। लेकिन तुम चिन्ता मत करियो।’

       लालूराम मौजी के वोटों का गणित लगाते हुये घर चले गये। दिन डूब गया। अंधेरा सा हो चला। सरपंच विशन महाराज ने दरवाजे पर दस्तक दी। मौजी समझ गया, दूसरी कयामत आ गई है। गरीब आदमी के सौ खसम होते हैं। यह सोचकर  बोला-‘अरे! राजा साहब, आप काये कों आये!काऊ आदमी से खबर भेज देतये। मैं आ जातो।’

       सरपंच ने अपनी बात कही-‘रे! पहलें तेंने बात राख दई, सो तेरो अहसान मानतों। अबकी बात और अटक गई है, सो तेरो ही भरोसो है।’

       मौजी ने रिरियाते हुये कहा-‘कैसी बोतें कर रहे हो राजा साहब! ससुर मुजिया तुमसे निकर कें कहाँ जायगो?’

       सरपंच ने वही पुराना प्रश्न दोहरा दिया-‘विश्वास तो दे।’

       मौजी हर वार की तरह वही रटी रटाई भाषा बोलने लगा-‘तुम्हें विश्वास कैसें होय। मो पै तो जही एक मोड़ा मुल्ला है, जही की सौगन्ध खा के कह रहो हों कै वोट तुम्हें मिलंगे।तिवाई महाराज तो मूड़ पटकत फिर रहे हैं,ज बात का मैं जान्त नाने। वे गाँव की उन्नति में गाँठें लगायें चाहतयें। और बताऊ कैसें विश्वास दऊं? दिल चीर के तो दिखा नहीं सकत।’ यह कहते हुये उसने अपने सीने से हाथ छुआ दिया।

       सरपंच बोला-‘रे! मोय तेरो पूरो विश्वास है। अपने ज गाँव की उन्नति की बात है, ज बात तें अच्छी तरह समझतो।रामप्रसाद अच्छो आदमी है। बिनकी ही जाति को है। वे तोऊ जा को विरोध कर रहे हैं। बिन्ने तो ज पंजाबड़ा खड़ो कर दओ है। बिने कोऊ और आदमी ही नहीं मिलो। बाय वोट को देगो।’

      मौजी ने बात आगे बढ़ाते हुये कहा-‘ पतो है ,राँकरे में बसे संतोखा पंजाबी ने अपने कैलाश पंडितजी के मन्दिर की जमीन ही दबा लई।

     यह सुन कर तो सरपंच को बात आगे बढ़ाने के लिये आधार मिल गया।बोला-‘जई बात तो मैं कह रहों हों। अरे! वे काऊ देशी आदमी कों खड़ो कत्तये। सो गाँव भर में बिन्हें कोऊ देशी आदमी ही नहीं मिलो।’

      मौजी ने सार की बात कही-‘आप चिन्ता मत करो। वोट तुम्हाये आदमी कों ही मिलेंगे। तिवारी आंगे बिनसे हू बोटन की कहिनों परैगी। काये कै आप सब जानतओ, गरीब की लुगाई सब गाँव की भौजाई होते।’

      सरपंच ने नीति का सहारा लिया-‘ऐन कहू, जामें हमें कोऊ आपत्ति नाने। हाँ वोट इतै-बितै भये तो ठीक नहीं होयगी।’

     यह धौंस सुनकर तो मौजी अन्दर ही अन्दर आग बवूला हो गया। अपने इस उवाल को रोकते हुये बोला-‘अरे राजा साहब कैसी बातें कत्तओ। का पिटनों है। अरे ताके गाम में रहनों तकी हाँजू कन्नो ही परैगी कै नहीं? हम तो ज गाम में आये है ता दिना से झाँ सातऊ सुख हैं। कोऊ दुःख नाने। नेक जही है कि काऊ से बिगारें नहीं चाहत।’

    स्रपंच ने पुनः उसे चेतावनी दी-‘ठीक है,ध्यान राखिये। काये कै तुमने हमाई इज्जत मिटारी, फिर हम काऊ की नहीं सोचत। वैसें तोसे मैंने तें.... कही होय तो बता?’

      मौजी ने बात की पुष्टि के लिये कहा-‘अरे! नहीं राजा साहब, चिन्ता मत करो। मैने पहिलें कह दई हती सो निभा दई । अब झें ज्यादा आवे-जावे की जरूरत सोऊ नाने। नहीं बिन्हें शक होजायगी। आपये आम खानों कै गुठली गिन्नो।’

      उसकी बातों से सरपंच को विश्वास हो गया तो चेहरे पर मुश्कराहट लाते हुये बोला-‘हमें आम खाने से मतलब है। ठीक है ध्यान राखिये। मैं चलतों।’

      मौजी ने चलते वक्त उन्हें और अधिक धीरज बँधाना चाहा-‘आप चिन्ता मत करियो। वोट इतैं-बितें होंय तो मुजिया कों ले पनहियाँ चिपटियो और कैसें विश्वास दऊँ!’

      सरपंच अपने घर लौट गये। पचरायवारी उनकी पूरी दास्तान सुन रही थी। लड़के की झूठी कसमें उसे बहुत खल रही थी। सरपंच के जाते ही जैसे ज्वालामुखी फूटता है वैसे ही वह फूट पड़ी-‘तिवाई महाराज और सरपंच दोऊअन से मोड़ा की झूठी कसमें खा गये। बताऊ अब वोट कौने देनों है।’

      मौजी ने उत्तर पहले से ही सोचकर रखा था। झट से बोला-‘गुइयाँ जों लगते कै जे सुसरन कों तो काऊए वोट नहीं दयें चाहत, पर का करैं!अरे तासे पेट पले वइये वोट दैवे में फायदा है। ज गाँव पै तो पन्जाबी राज्य करैं तइमें फायदा है। अरे व अपये झाँ आके अपनो पानी तोऊ पी जातो। जे बामन तो नाक-भों सिकोड़तयें। गाँधी जी जोईं नहीं हतये।’

      सम्पतिया ने बात को स्वीकारा-‘मोय सोऊ वही ठीक लगतो। व हमसे छुआ-छूत नहीं मान्त। अरे! ते हमसे दूर रहे वासे हम कोस भर दूर रहिबो पसन्द कत्तयें। पर तुम्हें जे झूठी सौगन्दें खावे की बड़ी खराब आदत पड़ गई है।’

        मौजी ने उसे शास्त्र सम्मत तर्क से सांत्वना देना चाही-‘घोर कलियुग है,अच्छे-अच्छे झूठ को ही खा रहे हैं। फिर कौन-कौन के बुरे-भले होंय। अरे! त दिना भूखे रह गये, अपुन्ने तो सबसे काम पज्जातो।’

       पति की इस चतुरता पर उसने थपथपाया-‘तुमने तो दोउअन्ने उल्लू बना दये।’

       मौजी शान में तनते हुये बोला-‘वे तो दूसरिन के पेट काटिबो सीखे हैं। जो नहीं जान्त, वोटन की सौगन्धें झूठी होतें। जे बातिन को विश्वास करिबे की का बात है।’

    सम्पतिया सौगन्धें लेने वालों को गलियाँ देने लगी-‘ठीक कहतओ। मरिन ने नेकऊ समझ नाने कै गरीब की आह परेगी ताको का होयगो।’

     मौजी ने उसकी बात को और अधिक थपथपाते हुये कहा-‘अपुन सोचतयें पाप काये कों लें, लेकिन जे ज बात बिल्कुल नहीं सोचत।’

      सम्पतिया ने अपने मन की व्यथा और उड़ेली-‘अपने देश में गरीब की कोऊ नहीं सोचत। तामें ज गाँव तो ऐसो है कै जामें कोऊ नीति की बात ही नहीं कत्त। सब जों सोचतयें कै हम बुराई काये कों लें। बताऊ फिर हम का करैं। सौगन्धें खा- खा कैं अपने प्रान बचा रहे हैं।’

       मौजी ने अपने अनुभव की बात की-‘अब देखियो वोटन के काजें सौ-सौ चक्कर लगंगे। वोट गिरे फिर कोऊ काऊ को नाने।’

       सम्पतिया ने संतोष व्यक्त किया-‘चलो, वोटन के काजें पूछ तो होन लगी। हमें जही में सन्तोष है।’

      इसी समय बाहर कुत्तों ने भूकना शुरू कर दिया-‘ दोनों यह देखने बाहर निकल आये कि कौन आया है? किन्तु गाँव का एक कुत्ता इधर चला आया था। मौजी के कुत्तों ने उसे मिलकर घेर लिया था। दोनों तरफ से एक दूसरे पर खूब गुर्राये, अन्त में उस कुत्ते को ही पीछे हटना पड़ा। अपनी विजयराज देख मौजी के कुत्तों ने उस पर और तेजी से आक्रमण कर दिया। वह उन से बचकर कैसे भी भाग निकला।

       यह देखकर मौजी अपने कुत्तों के विवके की सराहना करते हुये बोला-‘जमींदार साहब ज समझतयें कै हमाओ कुत्ता बड़ो नामी है। हम गरीबन के कुत्तन ने देख लेऊ, बिनके कुत्ताये भजत गैल मिली।ऐसें ही गरीब-गरीब मिलकें एक हो जायें बड़े-बड़िन ने भजतई गैल मिलेगी।’

       बात को पचरायवारी ने रोचक बनाया-‘कुत्ता तो तिवाई महाराज को अच्छो है। हमने इतै आत कबहू नहीं देखो। तिवाई महाराज के खेतन में से चौपे विड़ार लातो। वे मतलव भेंऊ- भेंऊ तुम्हाये कुत्तन की तरह कत्त नहीं दिखो।’

       मौजी ने और अधिक अपना अनुभव व्यक्त करते हुये कहा-‘कुत्ता तो सरपंच कौ हू ठीक है। पर बाय बिन्ने कटनों कद्दओ है। दो-चार आदमियन ने चुटियाल कर चुको। बड़े आदमी को कुत्ता है, तहीं कोऊ कछू नहीं कत्।’

       पचरायवारी बात को और अधिक बढ़ाने के लिये बोली-‘मोय तो ठाकुर साब की कुतिया अच्छी लगते। वे बाय रोज साबुन से नभातयें।’

      मौजी ने कुतिया के भाग्य की सराहना की-‘अंग्रेजी कुतिया है, रोज दो किलो दूध पी जाते। झें आदमियन कों पेट भरिवे नाज नाने।उनकी कुतिया दूध पीते। साबुन से नहाते। सब अपये-अपये भाग्य की बातें हैं। हमाये भाग्य में जो लिखो-बदो है, सो हम भोग रहे हैं।’’

      मुल्ला ने घर में घुसते हुये उसकी यह बात सुन ली थी। बोला-‘जों लगते ,काऊ दिना हमें जे बातिन के पीछें बिनसे लन्नों परैगो। जे भाग्य-बाग्य की बातें सब झूठी हैं।’

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