उपन्यास-
रामगोपाल भावुक
अथ गूँगे गॉंव की कथा 5
अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति
5
तेज धूप के कारण कुन्दन का मुँह सूखने लगा। इसी समय तुरही का स्वर गूँजा। लोग आलस्य का परित्याग करके उठ खड़े हुये। बाबड़ी के पास से नीचे उतर कर मरधट में जा पहुँचे। इस सास्वत सत्य पर गुलाल चढ़ाकर सभी ने अभिनन्दन किया। तालाब के किनारे से चलकर दानास बालाजी के बाग में पहुँच गया। बालाजी मन्दिर की दुर्दशा देखकर उनका मन क्रोधित होने लगा। मन्दिर की दीवारें फट गईं थीं। मूर्तियों की सुरक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया। लोग इसी विषय पर चर्चा करने लगे किन्तु डर रहे थे ,कहीं चन्दा का चक्कर न चल पड़े। कुछ इसी टोह में थे। वे चन्दा की चर्चा रुचि लेकर करने लगे किन्तु उन सबके प्रति चन्दा खाने के पुराने आरोप जीवित हो उठे। उनकी कौन कहे सभी इस बात को लेकर चुप्पी साध गये।
इसी उधेड़बुन में दानास बाला प्रसाद शुक्ल के दरवाजे पर थोड़ी देर के लिये ठहर गया। लोग गोस मोहम्मद को पकड़ लाये। वह अपने अभिनय से लोगों का मनोरन्जन करने लगा। तुरही बज गई। जमीदार ठाकुर लाल सिंह के दरवाजे पर पहुँच कर तो होली का हुडदंग शुरू होगया। एक वार दानास फिर अपनी जवानी पर पहुँच गया। रडुओं के दिल मचलने लगे। वातावरण में मादकता आ गई।
यहाँ से उठा दानास अन्तिम पड़ाव पर पहुँच गया। मिर्धा मोहल्ले में पीपल के पेड़ की छाया में दारूगर मियां सरदार खान के दरवाजे पर दानास जम कर बैठ गया। नाल उठाने वाले नाल उठाने लगे। कुश्ती लड़ने के शोकीन अपने लिये जोड़ तलाशने लगे। कुश्तियाँ लड़ी जाने लगीं। अन्दर ही अन्दर लोगों को खल रहा था तो ये कि काश! जाटव मोहल्ले के लोग भी यहाँ होते तो कितना मजा आता? कुश्तियों का आनन्द तभी मिलता है जब जोड़े बराबर के हों। इसी सेाच में इस वर्ष की होली की यह बैठक जल्दी ही उखड़ गई।
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दो
सूर्य डुबने को हो रहा था। चरवाहे अपने पशु लेकर लौट पड़े थे। गाँव के लोग अपने पशुओं को लेने, गाँव के बाहर हनुमान जी के मन्दिर पर प्रतिदिन की तरह इकठ्ठे हो गये। मन्दिर के चबूतरे से, जो जमीन की सतह से छह-सात फीट ही ऊँचा होगा, उस पर खड़े होकर पशुओं के आने की दिशा का अनुमान लगाने लगे।
मौजी जब-जब यहाँ से निकलता है,उसे वर्षें पुरानी घटना याद हो आती है- जब वह पहली-पहली बार इस गाँव में आया थ। पत्नी सम्पतिया उसके साथ थी। भाई रन्धीरा तथा दो बच्चों को लेकर वह इस गाँव की शरण में आया था। मन्दिर पर उस दिन भी अपने-अपने पशुओं को लेने वालों की ऐसी ही भीड़ थी। भीड़ देखकर वह यहीं रुक गया था। मन्दिर के नीचे कोने की दीवार से सटकर वह बैठ गया था। उसके परिवार के लोग उसी के आसपास उससे सट कर बैठ गये थे। भीड़ इन नव आगन्तकों को देखने झिमिट आई थी। किसी ने पूछ लिया-‘कहाँ के रहने वाले हो?’
मौजी ने उत्तर दिया-‘खोड़-मनपुरा के हैं महाराज। आफत के मारे-धारे हैं।’
पण्डित दीनानाथ ने बात जानने के लिये पूछ लिया-‘का बात हो गई?’
मौजी ने उत्तर दिया-‘खोड़ के राजा हैं ना, बिन्ने मार ही डारे होते, व तो प्रान बचाके भजि परै।’
पण्डित दीनानाथ ने पुनः प्रश्न कर दिया-‘ तेरो नाम का है?’
‘मौजी, लोग मोसे मुजिया चमार कहतयें।’
भीड़ में से प्रश्न सुन पड़ा-‘और तेरे संग जे को-को हैं।?’
मौजी ने उत्तर दिया-‘ज मेरो भइया रन्धीरा है और ज मेरी जनी है। ज मेरी मोड़ी रधिया और ज मोड़ा मुल्ला है।’
किसी ने प्रश्न कर दिया-‘ तेरी जनी को का नाम है?’
पत्नी का नाम बतलाने में वह नवादा जोड़े की तरह सरमाते हुये बोला-‘ जा को नाम तो सम्पतिया है। जासे भें के लोग, पचरा गाँव की होवे से पचरायबारी कहतयें।’
इसी समय गायें आ गईं थी। लोग उसके दुःख-सुख की बातें सुने बिना ही अपने-अपने पशुओं को लेकर चले गये। जब सब चले गये,सहमे से बैठे मुल्ला ने कहा-‘ दादा, अब तो भूख के मारे मरों जातों। का आजहूँ भूखें पन्नों परेगो।’
पचरायबारी का हृदय द्रवित हो गया। आँखों से एक रस बह निकला जिसकी धार को लोग करुणा कहते हैं। उसका दिल धीर नहीं रख पाया तो बोली-‘ नहीं बिटूना, न होयगी तो आज तेरो दादा ज गाँव में जाकें ते काजें चार रोटी माँग लायगो।’
बात सुनकर मौजी उठ खड़ा हुआ,बोला-‘ ज पास की हवेली बारिन के झाँ जातों। का वे चार रोटी माँगें न देंगे।’
रन्धीरा का स्वाभिमान रिरियाते हुये बोला-‘भज्जा, भें तो मेन्त- मजूरी करकें पेट भत्त रहतो। इतैक दूर आकें, झें भीख माँगनो पर रही है।’
बात के उत्तर में मौजी को जबाब न सूझ रहा था,बोला-‘चल ठीक है, जे महावीर बब्बा जैसें राखंगे तैसें रहेंगे।’ यह कहते हुये वह रोटियों की आशा में चला गया था।
पास की हवेली तिवारी लालूराम की थी। मौजी उनके दरवाजे पर पहुँच गया। तिवारी जी दरवाजे पर ही बैठे थे। मौजी ने दूर से ही धरती छूकर उनका पालगन किया और बोला-‘महाराज राम-राम।’
उत्तर मिला-‘ राम-राम।’
मौजी ने अपनी बेदना उड़ेली-‘महाराज ज गाँव की शरण में आओ हों। बाल-बच्चा तीन दिना के भूखे हैं। अब तो ज गाँव की दहरी पै आके प्राण निकरे जातयें।’
बात लालूराम तिवारी कें चुभ गई। वे चुपचाप घर के अन्दर चले गये , थोड़ी ही देर में हाथ में दस-पन्द्रह रोटियाँ लिये वापिस लौटे। इतनी रोटियाँ देखकर मौजी बोला-‘महाराज जब तक ज गाँव में रहोंगो ज अहसान नहीं भूलंगो।’
लालूराम समझ गये ये चार-पाँच जने हैं। इतनी रोटियों से इसे इन्हें क्या होगा? वे उसे आम का अचार और रोटियाँ देते हुये बोले-‘ देख,और चहिये तो आटा-दाल ले जा। बना लेना।’
मौजी बोला-‘ नहीं महाराज, हमतो इतेकई खा कें परंगे। तीन दिना चलत-चलत हो गये। बेजाँ थके हैं। यह कह कर वह रोटियाँ लेकर चला आया।
रोटियाँ देखकर वे इतने खुश होगये मानो स्वर्ग से साक्षात्कार कर रहे हों। सभी सुख इस गाँव में साकार होते दिखने लगे। बच्चे रोटियों पर टूट पड़े। आज तक उन्होंने ज्वार और बाजरा की रोटीं खाईं थीं। गेहूँ की रोटी के दर्शन कभी-कभी त्यौहार- पावन पर हो पाते थे। पेट का मन समझाने के बाद एक-एक करके सभी वहीं पसर गये। उन्हें लग रहा था, वे स्वर्ग के दरवाजे पर आकर ठहरे हुये हैं, कल उन्हें स्वर्ग में प्रवेश मिल जायेगा।
सुबह सब जल्दी ही जाग गये। ग्वाले उनके पास आकर खड़े हो गये थे। गाँव कें लोग अपने-अपने पशुओं को लेकर ग्वालों को सौपने आने लगे। शाम की तरह फिर भीड़ हो गई। मौजी से तरह-तरह के प्रश्न किये जाने लगे। मौजी उनके प्रश्नों के उत्तर अपनी पूरी अक्ल लगाकर देने लगा। गाँव वाले समझ गये इसे शरण देने में गाँव का ही फायदा है। किन्तु यह प्रश्न अभी भी वहीं के वहीं खड़ा रहा कि उसकी क्या व्यवस्था की जाये?
खरगा काछी उनकी बातें सुन रहा था। वह समझ गया-बड़े-बड़े उसकी कुछ भी व्यवस्था करने वाले नहीं हैं। यह सोचकर बोला-‘मौजी तें चिन्ता मत करे, चल उठ, मेरे खेत में टपरिया डाल ले। भेंही बनो रहियो।’
मौजी उठ खड़ा हुआ। खरगा जगह बताने के लिये उसे लेकर चला गया था। मौजी को अपने खेत में ले जाकर उसे बसने के लिये जगह बता दी। इससे खरगा काछी गाँव भर में चर्चा कर विषय बन गया था।
अभावों में पला व्यक्तित्व खरगा काछी, जो गाँव के बड़े-बड़ों की परवाह नहीं करता है। अमीरों से टकराने की उसमें पूरी सामर्थ है किन्तु वह गरीब की पीड़ा देखकर पिघल जाता है। उसे अकेले में राजा को डाँड़ने का अच्छा अभ्यास है। गाँव के बड़े-बड़े उसकी बात का बुरा नहीं मानते , क्योंकि उसे तो सूने में गालियाँ देने की आदत है। लोग उसे मूर्ख कह कर संतोष कर लेते है।
तीसरे दिन नहर के किनारे खरगा काछी के खेत में मौजी की टपरिया दिखने लगी। अब तो गाँव में जिस किसी के पशु मर जाते हैं, मौजी के आदमी बिन बुलाये ही उसे उठाने के लिये पहुँच जाते हैं। उससे जो कुछ मिलता है, उसी से वह पेट की आग शान्त करने का प्रयास करता है। यों मजदूरी चल निकली। धीरे-धीरे गाँव के पैसे वालों ने उसे बंधुआ मजदूर बनाना शुरू कर दिया।
दिन अस्त होने को हो गया। पक्षी अपने घोंसलों में लौटने लगे। लग रहा था,संध्या की किरणें उन्हें अपने घोंसलों में लौटने का सन्देश दे रही थीं। एक पेड़ पर चिड़ियों ने चहकना शुरू कर दिया था, मानों दिन भर की अपनी व्यथा-कथायें कह रही हों।
गायें अपने बछड़ों के लिये रभाँती हुईं अपने घरों को लौट रही थीं। कुछ औरतें गेहूँ की कटाई में मिले पूरों का गठ्ठर सिर पर लादे चलीं आ रहीं थीं। उनकी चाल में दिन भर की थकावट नजर आ रही थी।
होली में जातियों के बटवारे पर, जाटव मोहल्ले के रहीसों ने एक निर्णय लिया कि इस मोहल्ले के लोग सवर्णों के यहाँ मजदूरी करने नहीं जाएँगे।
इस बात का जाटव मोहल्ले के मजदूर पूरी तरह पालन नहीं कर पा रहे थे। वे सवर्णों के यहाँ मजदूरी करने तभी जाते जब उन्हें अपने मोहल्ले वालों के यहाँ मजदूरी नहीं मिलती। सवर्णों में इस बात को लेकर झुँझलाहट पैदा हो गई थी। इन लोगों का कहना था कि जाटव मोहल्ले के लोगों को मजदूरी पर न लगाएँ। इन लोगों के दिमाँग बहुत ही बढ़ गये हैं। भूखों मरेंगे तब अकल ठिकाने आ जाएगी।
लोग अपनी जातियों के गठबन्धन के अनुसार नहीं चल पा रहे थे। खेतों में अनाज कुर रहा था। जातियों के गठबन्धन में होने वाले नुकसान को कोई सहने तैयार नहीं था। दोनों पक्षों का निर्णय घिसिटता हुआ सा फिसल रहा था।
समस्यायें इस तरह सुलझ गईं। जाटव मोहल्ले के मजदूरों को जब उनके मोहल्ले में मजदूरी न मिलती तो वे सवर्णों के यहाँ काम करने पहुँच जाते।
मजदूर खेतों से लौट रहे थे। कुछ लोग खेतों का लाँक अपनी गाड़ियों में भरकर खलियानों में ला रहे थे। किसी की गाड़ी औंधी हो गई। यह सूचना सबसे पहले एक मजदूरी करके लौट रही महिला से धनसिंगा को मिली। उसने अपने पड़ोसी मायाराम को इस बात की आवाज दी-‘ओऽऽ कक्काऽऽ।’
वह अपने पड़़ोसी को इसी सम्बोधन से बुलाता था। उसने आवाज सुन ली थी। पूछा-‘ का बात है रे धनसिंगा?’
उसने उत्तर दिया-‘अरे! गाँव के सरपंच विशन महाराज की गाड़ी औंधी हो गई है। अरे! जल्दी चले चलो। कहीं कोई दब कर न मर गया हो।’
बात दूसरी ओर के पड़ोसी राम दयाल जाटव ने सुन ली थी। वह स्वयं ही बोला-‘ ज बात में सोच-विचार करिबे की जरूरत नाने। भैया जरा जल्दी चलें।’ यह कहते हुये ये लोग निकल पड़े थे। रास्ते में दो-चार लोग और मिल गये । उन्हें भी वे साथ लिवा गये।
जब ये वहाँ पहुँचे, गाड़ी औंधी पड़ी थी। गाड़ी मौजी हाँक रहा था। उसने किसी तरह से गाड़ी में से बैलों को ढील दिया था। मौजी कई जगह छिल गया था। उसके खून रिस रहा था। रामदयाल उसे लेकर गाँव की ओर चल दिया। कुछ लोग गाड़ी सीधी करने में लग गये।
रास्ता चलते में रामदयाल ने मौजी को समझाया-‘देख मौजी, हमाये पुरिखा इनकी सेवा कत्त-कत्त मरि गये। अरे! देश स्वतंत्र हो गओ। जे अभै हू चाहतै कै हम जिनकी बेगार में लगे रहें। तें अभै हू बिनके संगे मर रहो है। तें हू क्या करै ? मजबूर है वे नेक चुन डारें हैं, तईं तें बिनसे चिपको है।’
मौजी ने सफाई दी-‘अब मैं का करों तुम्हीं बताऊ। आज मैं गाड़ी के नीचें दब कें मर जातो तो मेरे मोड़ा-मोड़ी कितके होते?अरे! एक बेर जिनकी खावे-पीवे की जिमित लग जाए, बस मोय जई चिन्ता है।’
रामदयाल ने उसे समझाने का प्रयास किया-‘रे! जिमित तो सब के मिलिकें चलिबे से लगते। फिर जे बड़े-बड़े काये को चाहेंगे कि तेई जिमित लगे। वे तो जों चाहेंगे के तें जोंई फित्त रहे ,तासे बिनको काम चल्त रहे।’
मौजी ने रामदयाल की बात को काटते हुये ,नम्रता की भाषा में समझाना चाहा-‘दद्दा वे कभऊँ-कभऊँ काम सोऊ चला देतयें।’
उसकी इस बात से रामदयाल गुस्सा में आ गया। उसने उसे पुनः समझाने का प्रयास किया-‘का काम चला देतयें,तासे सौ गुना खून पी लेतयें। देख नहीं रहो ,कैसो तेरो नग-नग छिल गओ?मौजी तें तो सीधो-साधो आदमी है।’
मौजी यह बात सुनकर सोचने लगा- जे बातें तो सही कह रहे हैं,लेकिन करों का? उसे सोचते देखकर रामदयाल पुनः बोला-‘इन दिनों तो तेरी उचट कें लग रही होगी।’
मौजी ने प्रश्न किया-‘काये से दद्दा?’
रामदयाल ने उसके मन को टटोलना चाहा-‘अरे! हमारे मोहल्ला के तो उनके यहाँ मजदूरी करिबे जात नाने। सो सब तेरी खुशामद कर रहे होंगे’
मौजी ने बात को समझते हुये कहा-‘खुशामद काय कों कत्तयें। वे तो धौंस दे जातयें। कै सरपंच के झाँ ही सब काटिवे काये जायेंगे। हमारे झाँ ही चलो। सो दद्दा मैं तो एक-एक दो-दो जने सब के झाँ पहुँचा देतों। बैसें खेाड़ मनपुरा से हमाये कछू रिस्तेदार कट्टइया और आ गये हैं। सो मैं सब को मन समझायें रहतों।’
रामदयाल ने उसके हित के बारे में और अधिक समझाने का प्रयास किया-‘तें तो रे सिड़ी है। ऐसे में तें अपनी मजदूरी बढ़ा दे।’
‘अरे! दद्दा , मजदूरी बढ़ावे की कहन देउ, सोई मारिवे ठाड़े हैं। वे कहें तैसें चलो।’
रामदयाल ने मौजी की चेतना जगाना चाही-‘ तें तो यार सफाँ..........है। तोय मारें तो तें हमसे कहिये ,थाने मैं रिपोट करा देंगे।’
मौजी ने विचारों में डूबते-उतराते हुये कहा-‘अरे! दद्दा ज का कहतओ? रिपोट करी , सोई पिटो। झें कुन पुलिस बैठी रहेगी। मैं तो जों जानतों कै ताके गाँम में रहिनो ,ताकी हाँजू कन्नों ही परैगी कि नहीं, बोलो?’
रामदयाल ने अपना निर्णय सुनाया-‘हमने तो मौजी जों सोच लई कै अब तो सब मिलकें रहेंगे, पर बिनके दरवाजे पर भीख माँगवे हू न जायेंगे। अब तो बिनकीं बहुत सहलईं। अब नहीं सही जात। फिर एक बात और सुन ले मौजी।’
मौजी ने कहा-‘ कह देऊ दद्दा, ध्यान से तुम्हाई बातें ही सुन रहों हों।’
रामदयाल ने मौजी को विरोध में उकसाने के लिये कहा-‘देख रे ,हमने इनसे विरोध करिवो शुरू कदद्ओ है, ताको एक फायदा तो ज है कि अब हमाये मोड़ी-मोड़न ने दबवे की जरूरत नहीं रही। अरे! ज काम हम नहीं कत्तये तो हमाये मोड़ी-मोड़न ने कन्नो पत्तो।’
मौजी हृदय की गहरी तली में से निष्कर्ष निकालते हुये बोला-‘ज बात तो है दद्दा, कै अब अपने बाल-बच्चन कौं दबकें तो न रहनो परेगो। एक तो मो काजे ज दाँती धरी है, कै मैं इनके मोहल्ला में रहतों। इतै अपनो मोहल्ला अलग परिगओ है। अपये बारे मोहल्ला में ही इतैक मजदूर हैं सो भें तो मोय मजदूरी मिलवे से रही और इनसे लड़ परो तो मेरे बाल-बच्चा भूखिन मर जाँगे।’उसकी बातें सुनकर रामदयाल कुछ हल खेाजने में लग गया ,तब तक गाँव आ गया था।
मौजी सरपंच के घर की तरफ जाने के लिये मुड़ा तो रामदयाल ने उसे ड़ाँटते हुये समझाया-‘इतैं कहाँ जातो? घर चलो जा। जाके हल्दी-चूना चढ़वा लिये। बिनेके झाँ खबर तो अपये काऊ मोड़ी-मोड़न ने भेज कें कर दिये। समझे!’
मौजी के मन में विचार उठा- अरे! नौकर का काम है, मालिक के घर समय पर खबर भेजना और अपने शरीर की चिन्ता बाद में। रामदयाल दद्दा की बात न मानी तो कहेंगे-मौजी तें तो सफाँ ..........है। अब राम करे सो होय, घरैं ही जातों। भें ही से गाड़ी औंधी होवे की खबर भेज दंगो। यह सोचकर बोला-‘ठीक है दद्दा घरैं ही जातों। तुम झेंनों मेरे पीछे परेशान भये हो। अच्छा दद्दा राम राम।’
रामदयाल ने मौजी की राम राम का जबाव राम राम से ही दिया और अपने घर की तरफ मुड़ गया। उसे लगा- आदमी कितना लाचार है। सरपंच कें जों नाने कै जाके कितैक लग गई है, जाकी दवा-दारू ही करा दे। अरे! मजदूर मरै अपने भाग्य से और जिये अपने भाग्य से। बाकी कहूँ सुनवाई नाने।
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