अथगूँगे गॉंव की कथा - 2 ramgopal bhavuk द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अथगूँगे गॉंव की कथा - 2

उपन्यास-  

रामगोपाल भावुक

 

 

                         अथगूँगे गॉंव की कथा 2

               अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति

 

उनकी ये बातें सुनकर मौजी की होली ढीली पड़ गई। अपराधी की भाँति उनके सामने खड़े होकर बोला-‘महाते, खेतन्नों पहुँचत में दानास की बेर हो जायगी।’

         वे बोले-‘तुम्हें दानास की परी है। जही खेती-बाड़ी से सब अच्छे लगतयें। जही से सबैय बड़ी-बड़ी बातें आतें।’

        मौजी समझ गया कि ये काम पर पहुँचा कर ही रहेंगे,बोला-‘महाते, आज चाहें कछू कह लेऊ, आज तो नहीं चल सकत।’

        यह सुनकर महाते गुस्से में आ गये, बोले-‘तो हमाओ हिसाब कर देऊ, जो लओ होय सो देऊ-लेऊ। जब तुम हमाओ हानि-लाभ नहीं देख सकत तो फिर तुम हमाये कायेके आदमी?’यह आदेश देकर महाते चले गये। बड़ी देर तक वह दरवाजे पर खड़ा-खड़ा सोचता रहा।

        सम्पतिया ने उसके पास जाकर समझाया-‘अरे !ऐसी चिन्ता काये कत्तओ। ऐसी चिन्ता तो तुमने राजन की नहीं करी। ज तिहार अच्छे मना लेऊ ,फिर चिन्ता करिबे तो सब जिन्दगी डरी है।’यह सुनकर तो मौजी में कई गुना स्फूर्ति आ गई थी।

       आठ बजे का समय हो गया। दानास का कुछ सिलसिला ही नहीं दिख रहा है। अब काये की होली है। एक जमाना था ,जब बड़े उत्साह से सारा गाँव इकट्ठा होता था। नगड़िया सुबह से ही बजने लगती थी। तुरही सभी को बुलाने का निमन्त्रण देने लगती थी। धन्ना बराहर नहीं रहा तो क्या इस वर्ष तुरही नहीं बजेगी? उसके लड़के भी तो सयाने हो गये हैं ,पर उनसे कहने कोई गया ही नहीं होगा। किन्तु हर वर्ष धन्ना से कहने कौन जाता होगा? वह अपने आप इस काम में लग जाता था।

      गाँव के सरपंच विशन महाराज को क्या पड़ी है होली से? वे तो भाँग छान कर कहीं पड़े होंगे। कुछ आ गये होंगे तो चिलम चल रही होगी। उनके कुछ साथी गाँजे की बिरुदावली गा रहे होंगे- ‘जिसने न पी गाँजे की कली, उस मर्द से औरत भली।’

       हनुमान चौराहे के कुछ लोगों ने सोचा-‘कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है, जो दानास का सिलसिला ही नहीं दिख रहा है।’ इसी समय कुछ लोग होली के चक्कर में अपना काम निपटाकर खेतों से लौट आये थे। उन्होंने नगड़ियाँ उठाई और हनुमान चौराहे के मन्दिर के चबूतरे के नीचे नीम के पेड़ की छाया में हर वर्ष की तरह आकर बैठ गये। नगड़ियों से तरह-तरह की ध्वनियाँ निकालने लगे। नगड़ियों की ध्वनि सुनकर लोग इकट्ठे होने लगे। मौजी भी आ गया। उसे देखकर सभी के चेहरे खिल गये। उससे बातें करने के लिये नगड़ियाँ बजाना बन्द करदीं।

     खुदाबक्स बोला-‘यार मौजी भज्जा,हम तुम्हाई कब से बाट चाह रहे हैं! हम सोच रहे थे, कहीं भौजी ने तो नहीं पकड़ लये। तुम्हाये आवे से होरी में मजा आ जातो।’

      कुन्दन बोला-‘तुम्हें फागें आतें तासे नखरे कत्तओ।’

      मौजी ने रिरियाते हुये उत्तर दिया-‘अरे नहीं महाराज! ससुर मुजिया चमार का नखरे करेगो। ब तो आज होरी को डोल-डाल ही नहीं दिख रहो। तासे देर हो गई।’

     मिश्री धेाबी बोला-‘जाटव मोहल्ला को तो कोऊ नहीं दिख रहो।’

     मौजी झट से बोला-‘ सुनतयें रात बिनसे झगड़ा हो गओ।’

     किसी ने प्रश्न कर दिया-‘कौन-कौन में हो गओ झगड़ा। हमें तो पतो नाने।’

     खुदाबक्स बोला-‘ज बात सुनी तो हमनेऊँ है।’

     कुन्दन ने प्रश्न कर दिया-‘का सुना है ? हम भी तो सुनें।’

     खुदाबक्स ने उत्तर दिया-‘यही कै जाटव मौहल्ला के कछू मनचले गढ़ी पै चढ़ि कें गन्दे-गन्दे रसिया गान लगे।’

     किसी ने पूरी बात जानने के लिये प्रश्न कर दिया-‘फिर?’

     खुदाबक्स ने ही झट से जबाब दिया-‘फिर का ब्राह्मनन् ने अपये आठ-दस मोड़ा भेज दये। उन्ने   अश्लील गीत गावे की मना करी।’

      वे बोले-‘तुम दानास में ऐसे गीत गात निक्कतौ, तब हम तो तुम्हें रोकत नाने।’

      वे बोले-‘अब कोऊ तुम्हाये मोहल्ला से ऐसे गीत गात नहीं निकरेगो,लेकिन अब ऐसे गीत तुम्हू मत गाऊ।’ भज्जा, झगड़े की सम्भावना बढ़ गई है। अपुन बिनके मोहल्ला में से अश्लील रसिया गात निकरे कै झगड़ा भओ, आदमी मज्जायगो।’

        कुन्दन बोला-‘हम तो गाँव में जैसे रह ही नहीं रहे हैं। गाँव में क्या हो रहा है? हमें कुछ पता ही नहीं चलता। अब पतो चलो है, जईसे होरी ठंडी पड़ गई है। नौ बजिवे बारे हो गये। अभै तक होरी को कछू डोल-डाल ही नहीं दिख रहो।’

        मिश्री ने शंका व्यक्त की-‘अरे ! होरी तो होरी है किन्तु अभी तक स्मृति के पानी बारे हू नहीं निकरे!’

        इसी समय सरपंच के दरवाजे पर तुरही की आवाज सुनाई पड़ी।

        कुन्दन सोच के सागर में डुबकियाँ लगाने लगा- स्वतंत्रता के पहले तो होरी की शुरुआत जमींदार ठाकुर लाल सिंह के यहाँ से होती थी। बाद में इसका स्थान बदल गया। जो भी सरपंच बना, उसी के घर से होरी की शुरुआत होती रही। इस बार पण्डित विष्णू शर्मा उर्फ विशन महाराज सरपंच बने हैं तो उन्हीं के यहाँ से होली के दानास की शुरुआत हो रही है। तुरही की आवाज सुनकर सभी के चेहरे खिल गये। उधर से उठकर विशन महाराज अपने साथियों के साथ हनुमान चौराहे पर आ गये।    

       इधर यहाँ की सभा समाप्त करदी गई। सभी दानास में चलने के लिये उठ पड़े। जुलूस का रूप बन गया ,किन्तु उसमें गत वर्ष की तरह उमंग न दिख रही थी, लग रहा था- किसी खास रस्म की अदायगी बेमन से करने के लिये, अलसाये से कदमों से लोग चले जा रहे हैं। यों होरी के इस दिन से इस नई परम्परा ने नौ सिखिये की तरह घुंघरू बाँध लिये हैं।

      कुन्दन सोच के सागर में डुबकियाँ लगाते दानास के पीछे-पीछे चल रहा था - इस गाँव में छुआछूत की समस्याओं ने आदमी की जिन्दगी बद से बदतर बना दी है। होली के अवसर पर इस गाँव में पग-पग पर शोषकों के नकली प्यार दिखाने वाले दाँत भी दिख रहे हैं। एक समय था जब एक के दुःख में सभी दुःखी होते थे और दूसरे के सुख में सभी सुखी।जब किसी के यहाँ बारात आती तो लगता था बारात उनके अपने घर आई है। सभी तन,मन और धन से सेवा करने लग जाते थे। उसमें यह भी हो सकता है कि यह सेवा भाव भी इसी तरह का छलावा ही रहा हो। जिससे आदमी खूँटा से बँधा रहे और ऐसे अवसरों पर चाकरी दूने उत्साह से करता रहे।   

       मिश्री सोच रहा था- हम सभी मानते हैं कि पुराना आदमी ईमानदार था। किसी के उपकार का अहसान मानता था। भले ही लोग उसका शोषण करते रहे हों ,पर उस क्षण जिनमें प्यार की भावनायें उमड़ती हैं। निःसन्देह वे क्षण ईमानदार जरूर रहे होंगे। यह ईमानदारी एक व्यक्ति की नहीं बल्कि पूरे समाज की हुआ करती थी।

       आज सभी के मन में उन ईमानदार क्षणों के प्रति कृतज्ञता हैं । लोग चाहते तो उन अश्लील रसिया के गायकों को प्यार से समझा सकते थे। शायद वे मान भी जाते पर किसी ने उन्हें समझाने का प्रयास ही नहीं किया।

        मौजी सोच में था-ससुरे बमना जब किले पै चढ़िके टडारतये तब कोऊ बात न हती। अब हमाये बारे ज करन लगे तो इज्जत चली गई। जे सब मोय तो जों जान्त होंगे,कै मैं कछू नहीं जान्त, किन्तु ससुरे मुजिया को तो पेट की आग खाये जाते। तईं मोय चाहे जैसें नाच नचा लेऊ। नहीं, मेंऊ बिनिके संग पहुँच जातो तौ कितैक मजा आतो।

        यह सोचकर मौजी को आत्मबोध हुआ-हम सच्चेऊ स्वतंत्र हो गये हैं। नहीं जे सब हमाये बारिन की इतैक न सुन लेतये। मैं ही मूरख हों जो जिनके पीछे लगों हों। यह सोचकर उसे लगा- मैं यहाँ से उड़कर अपने दल में कैसे पहुँच पाऊँ!

         यह सोचते हुये उसके पग उन सब के पीछे-पीछे चलते रहे । सरपंच विशन महाराज के दरवाजे पर जाकर दानास की बैठक जम गई। समय का अन्दाज लगाते हुये मौजी बोला-‘दानास उठिवे में टेम भौत हो गओ। पूरे गाँव को चक्कर लगानों परैगो। अब काये बैठिकें रह गये, चलो उठो।’

       कुछ सोचने लगे-मौजी जाति का चमार जरूर है, पर बात तो सही कह रहा है। और कुछ मन ही मन सोचने लगे-यह कब से दानास के बारे में ठेकेदार हो गया है? दानास के चलने की आज्ञा देने वाले लोग तो अलग ही हैं। वे जब चाहेंगे तब उठेगा दानास।

        पण्डित नन्दराम शर्मा की इस तरह के मामलों में अच्छी पूछ थी। यह विरासत उन्हें अपने पुरखों से प्राप्त हुई थी। पण्डित नन्दराम शर्मा के सहयोग से ही विशन महाराज सरपंच बन पाये थे। यह बात वे अच्छी तरह जानते थे। अतः सरपंच ने लोगों को देखने-दिखाने के लिये पण्डित नन्दराम शर्मा से सलाह-मसबरा करने का नाटक किया और दानास को उठने का आदेश दे दिया।

        दानास उठ पड़ा। रसिया गायकों की टोली ने रसिया गाना शुरू कर दिये। मिश्री धोबी ने नगड़िया अपनी कमर में बाँध ली। खुदाबक्स ने उनका साथ दिया। मौजी के निर्देशन में फागों के गायकों की टोली अलग बन गई। गुलाल की जगह धूल और घरों की मोरियों की कीचड़ उछाली जाने लगी। मस्ती में झूमता हुआ दानास थोड़ा ही आगे बढ़ा कि पहला पड़ाव आ गया।