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अथगूँगे गॉंव की कथा - 8

उपन्यास-  

रामगोपाल भावुक

 

 

 

                         अथ गूँगे गॉंव की कथा 8

               अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति

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8                                      

 मध्य प्रदेश के उत्तर में स्थित, शिक्षा और संस्कृति का केन्द्र ग्वालियर जिला और जिले की संस्कृत साहित्य के गौरव महाकवि भवभूति की कर्म स्थली डबरा,भितरवार तहसीलें। यह भाग पंचमहल के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ एक कहावत प्रसिद्ध है-

            आठ वई नौ दा। पंचमहल कौ हो तो बता।।

    इसका अर्थ यह है कि पंचमहल क्षेत्र के ऐसे आठ गाँव के नाम बतायें जिनके नाम के अन्त में वई आता हो तथा नौ गाँवों के नाम का अन्त दा शब्द पर हो। इस क्षेत्र में ही नहीं दूर-दूर तक यह कहावत प्रसिद्ध है। इस क्षेत्र से कोई आदमी बाहर जाता है तो बाहर के आदमी उसकी पहचान करने के लिये यह प्रश्न करते हैं। यदि उसने सही-सही इन गाँवों के नाम गिना दिये तो लोग उसकी बातों का विश्वास कर लेते हैं कि वह पंचमहल क्षेत्र का निवासी है।कहते हैं जिसने यह पहेली हल करदी , वही विश्वास योग्य माना जाता है।

     इन गाँवों के नाम इस प्रकार हैं। पहले वई नाम वाले आठ गाँव-( 1)सालवई( 2) बागवई( 3) छोटी अकवई( 4)बड़ी अकवई( 5) सुनवई( 6)खड़वई( 7) सेंवई( 8)करवई (करई )

     अब नौ दा वाले गाँव( 1) सिकरोदा( 2) ककरदा( 3)नौ नन्दा( 4) छिदा( 5)रिजौदा( 6)गोहिन्दा( 7) किठौदा( 8) रिठौदा( 9)कैथोदा इत्यादि हैं।

       खोड़ मनपुरा जिला शिवपुरी से जब मौजी भागकर आया तो उसे यही कहावत याद हो आई थी। इसीलिये उसने सालवई गाँव को ही अपनी मन्जिल का लक्ष्य चुना था। यह ब्राह्मणों के गाँव के रूप में प्रसिद्ध है।खोड़ के राजा साहब की पहुँच से दूर है।

       हनुमान चौराहे से सौ मीटर की दूरी पर कुछ मड़रियाँ बनी हुई हैं। खरगा काछी ने कृपा करके अपना घर बनाने के लिये जगह दे दी थी। बदले में मौजी ने उसे बहनोई मान लिया था। यों उससे इस गाँव में एक नया रिस्ता जुड़ गया था। इनके पास में ही खरगा की मड़रिया बनी हुई थी। यहीं ,गाँव से दूर रह कर उसने अपनी लड़ाई शुरू की थी। उसने ऐसी लड़ाई लड़ी कि दूसरा कोई ऐसी लड़ाई नहीं लड़ पाया है। वह गाँव के बड़े-बड़ों का परवाह नहीं करता था। जब वह अपने पशुओं को चराने जाता तो बड़े-बड़ों को माँ-बहन की छुटटा गालियाँ अपने पशुओं के बहाने देना शुरू कर देता ।........और फिर गालियाँ बकता ही चला जाता। गाँव भर के लोग यह बात जानते थे। वे अपनी इज्जत बनाये रखने के लिये यह कह कर बात टाल देते थे कि वह तो मूर्ख है। उसे इस तरह गालियाँ देने की बचपन से ही आदत है।

      गाँव के बड़े-बड़ों ने मिलकर उसे अनेक वार मारा-पीटा है, फिर भी उसकी गालियाँ देना बन्द नहीं करा सके। ऐसे बिकट बहादुर आदमी की मौजी को शरण मिली तो वह फूला नहीं समा रहा था। वह अपने आप को अब पूरी तरह सुरक्षित महसूस कर रहा था।

      मौजी ने कुत्तों का एक पूरा परिवार पाल लिया। धीरे-धीरे उस में बृद्धि होती चली गई। अब कुत्तें की पूरी फौज ही उसके दरवाजे पर पड़ी रहती है। यदि कोई उधर जाता है तो कुत्तों की वह सेना उसका भूक-भूक कर स्वागत करना शुरू कर देती है। कुछ लोग तो इसी डर से उधर से निकलते ही नहीं हैं।

       सुबह-शाम मौजी का परिवार जब मजदूरी से लौटकर इकठ्ठा होता है, उस समय वे सभी आपस में जोर-जोर से बातें करना शुरू कर देते हैं। इससे लगता है वे आपस में लड़ रहे हैं। सच तो यह है मौजी के परिवार के लोग धीरे-धीरे बात करना आता ही नहीं हैं। और जब वे लड़ने लगते हैं तब तो पूरा भूचाल सा आजाता है। पता चला-कोई कुत्ता उनके रसोई में घुसकर रोटियाँ उठा ले गया। घर में आटा था नहीं, सो सब जोर-जोर से लड़कर एक दूसरे पर दोषारोपण करने लगे। घर के लोगों ने कुत्तों को पालने का दोष मौजी के सिर मढ़ा । मौजी ने उन्हें सफाई दी-‘सुसरन कों कल्ल ही संखिया दयें देतों।अरे! गाँव को कोऊ तगादो करिबे आतो तो बाय दूर से आवाज तो लगानों पत्ते कै नहीं? कुत्तन से आदमी सहमतो। नहीं वे चूल्हें नों दौड़े चले आएँगे। उसकी यह बात सुनकर सभी लड़ने से रुक गये। महायुद्ध के बाद वातावरण में जैसी शान्ति छाती है, एक दम वैसी ही शान्ति छा गई थी।

       रधिया का पहला पति कमला बोला-‘ चलो रोटियाँ ले गये लै जान देऊ। वेऊ जई आश में तुम्हाये द्वारे डरे हैं। वे अपनी भूख मिटावे और कौन के द्वारें जायें?’

       मौजी ने कुत्तों को अपनी भूख मिटाने केा रास्ता सुझाया-‘झाँ से नेक ही दूर रठन पै तमाम ढूँढ़र उरे हैं। भें काये नहीं जात। सुसरकिन कों मैं देखों, ला तो मोड़ा रे मेरो लठ्ठ । ’

      मुल्ला ने व्यंग्य की भाषा में मुस्काते हुये कहा-‘ लठ्ठ का कोठन में धरो है। तुम्हाये बगल में तो टिको है।’

      मौजी ने नरम पड़ने के भाव से समझाया-‘अरे! अपनो खाना-पीना सम्हार कें राखो। वेचारे तुम्हारे भरोसे तुम्हारे द्वारे डरे हैं। जे हमाओ का खा रहे हैं। सेंत-मेंत में मड़इया रखी है। अपुन मजदूरी कों निकर जातयें,वे झेंईं डरे रहतयें। मैं तो जिन्हें नहीं मार सकत। ताय मारनों होय ते मार डारे।’

      उसके इस तर्क को सुनकर सन्नाटा छा गया। कुत्तों ने इसी समय जोर-जोर से भूकना शुरू कर दिया। आवाज सरपंच के आदमी मोतीराम की सुन पड़ी-‘ओऽऽ मौजीऽऽ।’

     मौजा ने आवाज सुन ली थी। वह समझ गया तगादा करने आया है। उसे उपाय सूझा। उसने जोर-जोर से लड़के और दमादों को गालियाँ देना शुरू कर दीं-‘सुसर के खा-खा कें साँड पर रहे हैं। मैं कह रहो हों कै अपयें -अपयें काम पै चले जाओ, सो सुसर के सुनतई नइयाँ।’

      मौतीराम कुत्तों को ललकारता हुआ उसकी मड़रिया के पास आ गया। उसने मौजी को पुनः आवाज दी-‘अरे मौजी भज्जा! हमाये आदमी कों तो पहुँचा दे। खिरान को सब काम पसरो है। अरे! नौकरी छोड़नो होय तो भुसेरा में भुस डारकें छोड़ देऊ। हमाओ हिसाब कर देऊ। लओ होय तो देऊ, नहीं मत देऊ। वैसें तें बात बारो आदमी है। बेईमानी करी तो तोय कोऊ द्वार पै ठाड़ो नहीं होन देगो।’

     यह सुनकर मौजी रिरियाते हुये बोला-‘मौतीराम भज्जा मैं का करों! गाड़ी औंधी होबे से मेरो नग-नग चुटियाल हो गओ है। हल्दी-चूना चढ़ानों परो है। सो मैंने बिनको काम चलाबे कमला को भेज दओ। घर में जही बात पै लड़ाई हो रही है कै तुम सब अपयें-अपयें काम पै जाओ। ससुर कै कुटैला-पिटैला हैं। बिना कुटें-पिटें काम पै जावे बारे नाने।’

      मौतीराम ने उसे जबाव दिया-‘ अब तुम्हें को मारें लेतो? तुम्हें तो गाँधी जी राज्य दे गये। तहीं तुम्हें मिजाज आ रहे हैं। वैसें हम काऊ से नहीं डरपत। पीछें कोट कचहरी होयगी सो होवे करैगी।’

      यह धमकी सुनकर जलिमा घर से निकल आया। वह समझ गया कि यदि काम पर नहीं गया तो मार पड़ेगी। जब रहना यहीं है तो इनका सरकार क्या कर लेगी? यह सोचकर बोला-‘चलो, महाराज चल तो रहो हों। घर में नाज नाने, भूखे पेट काम कैसें होयगो?’

     मौतीराम ने अपना निर्णय सुनाया-‘अरे! भूखे हो तो अपने मालिक से कहो। वे घर बैठें तो दे नहीं जायेंगे।’

     उनकी बातें सुनते हुये सभी अपने-अपने काम पर चले गये। बचपन में मौजी के पिता ने उसके स्वभाव को देखकर उसका मौजी नाम रख लिया था। उसे चिन्ताओं ने इस तरह तोड़ा है कि उसकी सारी मौज गायब हो गई है। पिता के दिये इस नाम का अर्थ ही उसकी स्मृति से गायव हो गया है । अब तो मौजी, वह मौजी नहीं रहा था।

      स्वतंत्रता के इतने दिनों बाद भी समझ नहीं आता ,स्वतंत्रता किसे मिली! जी तोड़ मेहनत-मजदूरी करने वालों को कहाँ मिली स्वतंत्रता?कौन हुये स्वतंत्र, वही हुये स्वतंत्र जो पहले भी थे। मैं देख रहा हूँ आम आदमी तो मेरी तरह आज भी परतंत्र ही है। मौजी अपने उसी चौक में यह सोचते हुये गुमसुम बैठा रहा।

       मौजी के एक ही लड़का है मुल्ला। जब वह अपनी पत्नी को यहाँ भगाकर लाया ,उस समय मुल्ला विरासत में पत्नी के साथ आया था। अब तो मुल्ला की उम्र 20-25 वर्ष से कम न थी। जवानी जोर मार रही थी। अपनी ताकत पर उसे नाज था। वह इन दिनों तिवारी लालूराम के यहाँ नौकरी करता था। उनके खलियान में गेंहूँ की दाँय मुल्ला चला रहा था। दाँय का पैर मचा था।

       तिवारी लालूराम ने अपने पुत्र कुन्दन को समझाते हुये कहा-‘ तुम्हें वी0टी0 आई0 ट्रेनिंग किये इतने दिन हो गये, अभी तक शिक्षक का पद नहीं मिल पाया। घर में डले रहते हो। तुम यह नहीं सोचते, कहीं चल फिर कर प्रयास करें। आज खलियान में मुल्ला दाँय कर रहा है। पैर तरगड़ना(खखोरना) है। जाकर मुल्ला को मदद करदो।’

     कुन्दन खलियान में पहुँचा। उसे देखकर मुल्ला ने दाँय ढील दी। दाँय खखोरने में अच्छे-अच्छे पटठों के बटन ढीले पड जाते हैं। मुल्ला ने पचाँगुरे से उसे खखोरना शुरू कर दिया। उसने दो लाइनें पूरी करके स्वाँस ली। अब वह तन कर खड़े होते हुये बोला-‘यार कुन्दन तुम भी खा-खा कर खूब तगड़े हो रहे हो। मुझे तो लगता है, तुम में मेरे बराबर दम नहीं है। बादी से फूल रहे हो।’

      कुन्दन को उसकी यह बात बहुत बुरी लगी। अन्दर ही अन्दर लाल-पीला होते हुये बोला-‘ ऐसे कैसे?’

      मुल्ला ने अपनी बात जारी रखी, बोला-‘भैया, माल खाते हो। हमारा शरीर रूखी-सूखी खाकर कहाँ से फूले?किन्तु ताकत तो मेरे में अनाप-सनाप है। तुम्हें विश्वास न हो तो यह पैर (पड़ाव) मचा है। चाहो तो कुस्ती लड़कर देख लो।’

       कुन्दन को उसकी यह बात असहय हो गई। सोचा- ससुर चमरा, कुस्ती लड़ना चाहता है। मन ने स्वीकारा, लड़ क्यों नहीं लेता? यह सोचकर बोला-‘देख, मुल्ला तू कुस्ती लड़ना ही चाहता है तो लड़ ले।’

       कुन्दन की यह बात सुनकर तो मुल्ला अपनी टाल ठोकने लगा। दोनों भिड़ गये। जमकर कुस्ती हुई। कुन्दन ने अपने ब्राह्मण होने का अस्तित्व बचाने का प्रयास किया। मुल्ला का शरीर लोहे का बना था। उसने ऐसी टगड़ी लगाई कि कुन्दन चित्त होगया। वह शान के मारे उसके ऊपर कुछ देर और चढ़ा रहा।

       कुस्ती छूट गई। मुल्ला गर्व से बोला-‘यार कुन्दन, हमें कहीं तुम्हारी तरह खावे-पीवे मिलतो तो समझ लो मुझ में कितनी ताकत होती!’

        कुन्दन अन्दर ही अन्दर डरा ,कहीं पिताजी को इन बातों का पता चल गया तो वे क्या कहेंगे? इस हार से कुन्दन का मोह भंग हो गया। पनप रहे ब्राह्मणवाद का रहस्य साफ हो गया। कुन्दन सोचने लगा- मैं जाति का ब्राह्मण और ये चमार। मुझे इससे हारना ही नहीं चाहिये था। हमारे ब्राह्मणत्व ने अपना कोई असर नहीं दिखाया। इसका अर्थ है जातियों से कोई बड़ा-छोटा नहीं होता। ये जाति-पाँति सब ढोंग है। जाति से बड़ा, शरीर की ताकत में भी बड़ा होगा। यह कोई जरूरी नहीं है। प्रकृति के अनुसार जाति भेद को कोई स्थान नहीं है। उसके अनुसार सब बराबर हैं। किसी को छोटा-बड़ा मानना प्रकृति का अपमान है।

       आज इस प्रकरण में मुझे अपनी एक कविता याद आ रही है। जिसका शीर्षक है-

                                खून की कीमत

                                मैं उस दिन

                                ऑपरेशन की टेबिल पर पड़ा,

                                जीवन-मरण से संघर्ष कर रहा था।

                                बाजार से खरीदी हुई,

                                खून की बोतल की एक-एक बूँद,

                                मेरे जिस्म में समा रही थी,

                                घीरे-धीरे जीवन ला रही थी।।

                                 मेरे जीवन का वह दिन कितना स्वर्णिम था।

                               जिसने जाति और धर्म से परे ,

                                 सोचना सिखा दिया।

                                जब-जब,

                                  जाति और धर्म का प्रश्न खड़ा होताहै।

                                  वह खून की बोतल याद दिला देती है-

                                  किस जाति और धर्म वाले का था वह खून।

                                  जिसकी बदौलत,

                                  आज में जिन्दा हूँ।।

                                  उसकी कीमत,

                                  चन्द कागज के टुकड़े नहीं,

                                  बल्कि आज भी,

                                  विभिन्नता की बात त्यागकर,

                                  चुकता करने में लगा रहता हूँ।।

                                  उस दिन से लगता है-

                                  सभी यह क्यों नहीं समझ लेते,

                                  वह खून की बोतल,

                                  उनके अपने जिस्म में समा गई है।

                                  धरा की सारी की सारी,

                                  व्यथायें मिटा गईं हैं।

     यों जातियों से बड़े-छोटे होने के बारे में कितने ही दिनों तक मन में तरह-तरह के विचार आते रहे। निष्कर्ष निकला-जातियों से बड़ा या छोटा कोई नहीं होता। सभी जातियाँ अपना-अपना अस्तित्व लेकर पैदा हुईं थीं। गल्ती यहाँ हुई कि इन्हें जन्म से जोड़ दिया गया। इसमें ब्राह्मणवाद के पोषकों ने अपने स्वार्थ के लिये इस बात का जमकर प्रचार किया कि जातियाँ जन्म से ही बनतीं हैं। आज यही विष समाज को मुर्दा बना रहा है।

 

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