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अथगूँगे गॉंव की कथा - 6

 उपन्यास-  

रामगोपाल भावुक

 

  

                         अथ गूँगे गॉंव की कथा6

               अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति

  

6                               

     आम चुनाव में मौजी को खूब मजा आया। दिन भर घूम-घूम कर नारे लगाते रहो। रात को भरपेट भोजन करो,ऊपर से पचास रुपइया अलग मिलते। दिनभर के थके होते, थकान मिटाने रात पउआ पीने को मिल जाता। महीने भर में वह खा-खा कर सन्ट पड़ गया था। उसने तो जी तोड़ नारे लगाये किन्तु बेचारे पण्डित द्वारिकाधीश जीत न पाये। जीत जाते तो मौजी की पहुँच भोपाल तक हो जाती। मौजी ने भोपाल घूमने के कितने ही सपने देखे थे।

      भेापाल देखने की बात मौजी के मन की मन में रह गई। बढ़िया सुन्दर दुकाने होंगी। सब चीजें सस्ती मिलत होगी। जाने को कह रहो कै भें सब चीजें बहुत मैंगी हैं। अच्छो बेबकूफ बनातयें, का मैं इतैक नहीं जान्त। अरे राजधानी में तो सब आराम होनों चहिये। भें चीजें इतैक मैंगी कैसे हो सकतें? लोगन की का है, जोंईं कह देत होंगे। सोचत होंगे मुजिया का जाने। जों नहीं जान्त कै मौजी किस्मत को मारो-धारो तो है लेकिन सब बातें समझतो।

      उसे गमसुम बैठे देख मुल्ला बोला-‘दादा ऐसें चुपचाप काये बैठो है?’

      प्रश्न के उत्तर में मौजी बोला-‘ जोंई सोच रहो कै आदमी हमें कितैक मूरख जान्तो। अरे! वे अन्न खतयें सोई हम खातयें। बिनपै पइसा बढ़ गओ है, सो बिन्हें सब बातें आन लगीं।’

      मुल्ला को लगा-जाके हाथ में पइसा है ,बईके हाथमें तिरंगा झंण्डा है। यह सोचकर बोला-‘दादा पइसा से सब बातें आन लगतें। पइसा आदमी को बड़ो बना देतो ,बई पईसा आदमी को छोटो बना देतो। देख नहीं रहे अपने जाटव मोहल्ला के कछू-कछू कैसे ऐठ कें चलतयें! वे जों नहीं सोचत कै जेऊ अपनी जाति के हैं।’

      मौजी ने मुल्ला के तर्क को स्वीकारते हुये कहा-अरे! बेटा, वे हमें छोटो और अपने को बड़ा मानतयें।‘

       लम्बे समय बाद मुल्ला को अपनी बात कहने का अवसर हाथ लग गया था, बोला-‘जामें तो दादा तुम्हाई गल्ती है। तुम ज पापी पेट की खातिर इनके चक्कर में फस गये हो। सो जिनके मरै ढोर फेंकत रहे, तई वे हमें छोटो मानतयें।’

       मौजी के चेहरे पर सोच की लकीरें उभर आईं ,बोला-‘ज गल्ती तो होगई रे मुल्ला। अब तो हमने हू जे सब काम बन्द कर दये हैं, फिर जे काये हमें छोटो मानतयें। बात ज है कै बिन्नें मेन्त मजदूरी करके अपनी पोषाक बना लई है।’

       मुल्ला बात बदलने के लिये बोला-‘दादा मैंने गाँम में जों सुनी है कै अपने बाट के वोट गिर रहे हैं।’

      मौजी ने मुल्ला ने बात टालना चाही, बोला-‘हाँ.......गिर तो रहे हैं।’

      मुल्ला ने पूरी बात जानने के लिये प्रश्न कर दिया-‘अभै बीच में जे वोट काये गिर रहे है?’

       मौजी ने उत्सुकता बगराते हुये कहा-‘तोय पतो नाने।’

      मुल्ला ने बात पूरी उगलवाने के लिये पूछा-‘नहीं तो। अरे! अपने अकेले बाट के ही वोट काये गिर रहे हैं।’

      मौजी ने पूरी जानकारी उड़ेली-‘अरे! अपने सरपंच हैं ना , बिनको एक मेंम्बर महेश कुशवाह अपने बाट से जीतो। अब बाकी सरकारी नौकरी लग गई है। सो बाने मेंम्बरी से इस्तीफा दे दओ है। अरे !झाँ का धरो। वहाँ जिन्दगी की रोटीं हैं। तहीं अब बाकी खाली जगह के चुनाव हो रहे हैं।’

      मुल्ला ने उत्साह दिखाया-‘ तब तो दादा अब फिर मजा आँगे। अब देखियो, बोटन के काजें कैसें-कैसें निहोरे कत्त फिरंगे। पहले तो दो बोतल शराव भिजवा दई। सो बा दिना दादा तें शराब पीकें कितैक मजा कर रहो।’

       मौजी ने अपनी बात से उसे अवगत कराते हुये कहा-‘रे! मजा-फजा काये के, बिन्हें बोट चहिय रहे थे। अरे! बिनसे धनसिंगा का टकरा पातो। पहार से मूड़ पटकोगे तो पहार को का बिगरनो है। फूटनो तो मूड़ तुम्हारो ही है। मैंने वा से कही कै चुनाव जीतनो है तो कछू खच्चा-पानी कर। सुसर के पै रोटी तो जुटत नाने और चुनाव लड़िवे बैठ गओ।’

       मुल्ला ने वाप का मन टटोला-‘दादा , तोय बोट तो बहिये देनों चहियतो। व अपनी तरह गरीब तोऊ है।’

        मौजी बात सुनकर बोला-‘ तें कछू समझत नाने। बड़िन की इज्जत खराब करिवो ठीक नाने। धनसिंगा हार गओ तो बाको का बिगर गओ। अरे! वे हार जातये तो जिनकी सात पीढ़ी की डूब जाती।’

       मुल्ला ने गाँव की व्यवस्था पर अपना निर्णय सुनाया-‘ दादा , लालूराम तिवाई सरपंच बन जातये तो गाँव को कछू काम तो करा देते।’

       मौजी ने अपनी मोथरी तलवार से उसकी बात को काटते हुये कहा-‘रे! अपुन कों का बिनसे  बैल बाँधानों है। अरे !जैसे साँपनाथ वैसे नागनाथ। न जिनमें राम है न बिनमें कछू।’

       इसी समय जाटव मोहल्ले के देवेन्द्र जाटव ने आकर दरवाजे पर आवाज दी-‘ओ मौजीऽऽ कक्काऽऽ।’

   मौजी दरवाजे पर किसी की आहट सुनता है तो चाहे उसके हाथ का कौर हाथ में हो, चाहे मुँह का कौर मुँह में हो, वह दरवाजा खेालने दौड़ पड़ता है। आज भी वह दावाजा खोलने बाहर निकल आया। बोला-‘का बात है भज्जा? कैसो कष्ट करो?’

       देवेन्द्र जाटव ने उसे सूचना दी-‘अपने मोहल्ला के रामदयाल भज्जा के बैठका में सब इकठ्ठे हो रहे हैं। एक सभा कन्नो है। तुम्हें सोऊ सबने बुलाओ है। जरूर आनों है।’

       यह सुनकर मौजी सोचने लगा- सबके बुलाने पर जानों ही परैगो। पंचायत कत्त होंगे। कै मैं बड़िन कौ संग छोड़ दऊँ। इनके संग रहूँ। तहीं बुला रहे हैं। जो हो, जानों तो परैगो ही। यह सोचकर बोला-‘तुम चलो, मैं अभिहाल आतों।’

       देवेन्द्र चला गया। मौजी ने मीटिंग में जाने के लिये अपने अंग में कमीज डालना चाही। पत्नी पचरायवारी को आवाज दी-‘ अरी गुईयाँ सुनते।’

        घर के अन्दर से सम्पतिया ने जबाव दिया-‘ काये चोंचिया रहे हो?’

        मौजी ने अपनी बात रखी-‘ मेरी कमीज तो निकार दे। जाटव मोहल्ला में कछू की पंचायत है। बुलावो आओ हैं तो जानों ही परैगो कै नहीं?’

       पंचायत में क्या होने वाला है? इस बात का वह अन्दाज लगाते हुये बोली-‘पंचायत में तुम का कत्तये?तुम पै ही डाँढ़-बाँध कत्त होंगे। एन चले जाओ।’

       मौजी जाने की तैयारी करते हुये बोला-‘मेरी कमीज तो निकार दे।’

       सम्पतिया बोली-‘ कमीज का बक्सा में धरी है। नाज बारे घैला में खुस्सी होयगी।’

       उसकी बात सुनकर मौजी जेउने घर में चला गया। एक कोने में मिट्टी के बरतनों का ढेर लगा था। जिनमें घर गृहस्थी की चीजों को सँभार कर रखा था। मौजी ने एक बरतन में हाथ डाला। हाथ में सुई और अटिया पकड़ में आ गई। उसे पत्नी पर प्यार उमड़ आया। वह बड़बड़ाया-‘ ज सुई और ज अटिया कितैक सम्भार के धरी है। अरे! चीज है तो बक्त वे बक्त फटे-पुराने कपड़ा गूँथ तो लेतयें।’

      उसकी बड़बड़ाहट सुनकर सम्पतिया बोली-‘ जाने का खखेार रहे हो। नहीं तुमने गुंजें गढ़ा के धर दई। तिन्हें ढूढ़ रहे हो। अरे! तुम्हाई कमीज तो कारे घैला में पवर रही होयगी।’ हूँ

     मौजी ने कमीज ढूढ़ निकाली। उसकी गुमड़न मिटाने के लिये उसे धीरे से फटकारा। फटकारने से डरा कहीं फट न जाये। नहीं आँग में डालने कुछ भी नहीं है। वह कमीज की ओर देखकर सोचने लगा- ज कमीज तो पण्डित जी को भलो होय। न चुनाव होतये न वे मोय बुलातये। बिनसे रिटार होगई सो बिन्हें मोय दे दई। यह सोचकर वह सम्पतिया से बोला-‘गुइयाँ ज कमीज निकरी कै नेता जी की याद हो आई। जाय तीन सालें तो हो गईं होयगीं। अब तो जामें आँखें सी निकर आईं है।’ यह कहते हुये उसने उसे अपने शरीर में डाल ली। वह समझ रहा था,इस कमीज पर थोड़ा सा तनाव पड़ा कि यह तार-तार हो जायगी।

       कमीज पहनकर वह घर के आँगन में आ गया। मुल्ला अपनी टपरिया में से बाहर निकल आया। दादा को कमीज पहने देख वह समझ गया कि दादा किसी मीटिंग में जा रहे हैं। यह सोचकर उसे लगा -दादा की सोऊ पूछ है। यह सोचकर तो उसकी छाती चौड़ी होगई।

       मौजी घर से निकल चुका था। जब वह बैठक में पहुँचा, लोग फर्स पर बैठते जा रहे थे। कुछ एक और जाजम बिछा रहे थे। मौजी बिछात कराने में सम्मिलित होगया। उसे आया देखकर कल्याणसिंह बोला-‘मौजी भज्जा अब तो बिनकी चमचागिरी करिवो बन्द कर देऊ।’

       मौजी ने अपनी मजबूरी बतलाई-‘ का करैं, ज पेट नहीं करन देत। हमें का है हमें तो पेट के काजें चहिये। चाहे तुम देऊ, चाहे वे दें।’

       सुम्मेरा झट से बोला-‘पेट को तो भज्जा न हम दे पाँगे न वे दे पा रहे हैं। काम करा- करा के टस निकार लेतयें तब कनूका बतातयें। ऊपर से व्याज-त्याज लगातयें।’

        मौजी का यह सुनकर सोच बदला, बोला-‘ बात तो तुम्हारी सच्ची है, पर का... करें? आज ही काऊ के से नाज उधार लानों है। तब पिसेगो। तब कहूँ संझा कों पेट में परंगीं।’ 

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