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अथगूँगे गॉंव की कथा - 4

उपन्यास-  

रामगोपाल भावुक

 

 

 

                         अथ गूँगे गॉंव की कथा 4

               अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति

 

    भीड़ में से किसी ने उनकी बात का विरोध किया-‘अरे! ऐसी अटकी हू का है। भेंऊँ भलिनकों को पूछतो। गुण्डन की चलती सब जगह हो गई है। फिर जैसे तुम सोच रहे हो वैसे वेऊ सोच रहे हैं कै नहीं?’

     किसुना गोली बोला-‘ जे बातिन में टेम खराब मति करो। अरे !जब वे इतै नहीं ढूँके ,अपुन बितै काये कों चलतओ?’झगड़े के डर से अधिकांश लोग गैल काटकर चलने के मूड़ में आ गये। यह जान कर किसी ने तुरही बजवा दी। तुरही वाले को गढ़ी के रास्ते से चलने को कह दिया। दानास उठ खड़ा हुआ । सब चुपचाप तुरही के पीछे-पीछे चल दिये।

    दानास का रास्ता बदल गया। पहले धोबियों का मोहल्ला मिला। रास्तें में लोगों ने गुलाल लगाकर दानास का स्वागत किया। तेलियों के मोहल्ले के लोग इकट्ठे होकर दानास का स्वागत करने आ गये। उनके जीवन काल में  दानास पहली बार उनके दरवाजे से निकल रहा था। लोगों ने तेलियों के आतिथ्य को खड़े-खड़े ही स्वीकारा। कमीन-कुरियों के दरवाजे पर भले लोग बैठने क्यों जायेंगे? यह बात काशीराम तेली ने सुन ली। उस समय तो वह कड़वा घूँट पीकर रह गया था। लेकिन जब दानास चला गया। उसने अपने मोहल्ले के लोगों के सामने यह बात रखी-‘अपन साहू वैश्य लोग हैं। तेल का धन्धा करने से लोग हमें तेली कहने लगे। अपन ने सबकों बैठिबे ज जाजम बिछाई, जानतौ वे जापे काये नहीं बैठे?’

      मन्नूलाल सेन दानास के साथ आकर यहाँ रुक गया था। उसने भी यह बात ध्यान से सुनी थी। उसने बात को उकसाने के लिये पूछा-‘ वे काये नहीं बैठे?’

      काशीराम ने ही उत्तर दिया-‘अरे! वे कमीन- कुरियों के यहाँ कैसे बैठते? वे ठहरे ठाकुर, बामन, बनियाँ।’

       कुढ़ेरा तेली ने प्रश्न किया-‘पहलें ज बताऊ, ज कमीन-कुरियों की बात कैसें भई?’

       चिन्टू ने उत्तर दिया-‘दानास में वे आपस में बातें कर रये थे। मैंने ही सुनी, मोय सुन्त देख वे चुप रह गये।

       मन्नूलाल सेन ने बात को पूरी तरह उकसाने के लिये पुनाः पूछा-‘को का बात कर रये थे,साफ-साफ कहो?’

       चिन्टू ने ही उत्तर दिया-‘वे ही हतै, जिनको गाँव में चलावा है, फिर नाम को ले दे। अरे! तके गाँव में रहनों ताकी हाँजू कन्नो ही परैगी कै नहीं!’

       मन्नू में छत्तीस गुण थे। वह बात निकालना जानता था। बोला-‘यार चिन्टू तें तो पिंधोला है। दूर से ही डर रहो है। झें कुन वे सूनबे आ रहे हैं।’

       चिन्टू ने बात पर अपना निर्णय दिया-‘अरे! नेक काऊ ने झूठी ही भिड़ा दई तो कुन एक भावई है। वे खेत को पानी न निकरन दंगे। अरे! गैल निकरिवो मुश्किल पज्जायगी।’

       बातें सुनकर मोहल्ले के लोग झिमिट आये थे। भीड़ होगई। बात फैल गई। सभी को लगने लगा-हम कितने वेवश और दबे हुये हैं। गाँव में ऐसो कोऊ नाने जो दबत न होय। पूरो गाँव गूँगो है......गूँगो।

        काशीराम ने फैसला सुनाया-‘अब दानास झेंई से निकरिबे करेगो, किन्तु अब पारसाल से ज जाजम बिछाबे की जरूरत नाने।’

         कुढ़ेरा ने उसकी बात का समर्थन किया-‘जई बात ठीक है। अरे! जैसो व्येाहार करंगे तैसो करा लेंगे। जाटव मोहल्ला के लोगन ने ज ठीक करी। अपये मोहल्ला में से जिनको दानास बन्द कर दओ। जबात ठीक रही, जिनके दिमांग सही हो जांगे।’

        मन्नू ने संगठन के महत्व को स्वीकारा-‘भज्जा बिनमें संगठन है। वे काये कों दबैं। दबो तुम जिनमें संगठन नाने।’

        बात सभी को मंत्र की तरह लगी। वे अन्दर ही अन्दर मुक्त होने के लिये छटपटाने लगे। इसी समय तुरही की आवाज गढ़ी के ऊपर सुनई पड़ी। दानास गढ़ी पर पहुँच गया था।

        कुन्दन दानास के साथ गढ़ी पर चढ़ते में सोच रहा था- यह गढ़ी बहुत पुरानी है। यह एक पहाड़ी पर स्थित है। कहते हैं जब सिंधिया ने ग्वालियर पर अपना राज्य स्थापित किया, तब इस गढ़ी पर बदन सिंह नामका जाट राजा राज्य करता था।  सोलहवी सदी में इस किले के पास गाँव चिटौली में एक प्रसिद्ध संत दूधाधारी निवास करते थे। उन दिनों उनके शिष्य वहाँ साधना में लीन थे। राजा बदन सिंह को उनका आर्शीवाद प्राप्त था। इससे उनके लड़ाकू सिपाहियों का मनोबल कई गुना बढ़ गया था। यों छह माह तक सिन्धिया से युद्ध चलता रहा।

   इस गढ़ी से आधा किलो मीटर की दूरी पर दूधाधरी संत के उस शिष्य की समाधि बनी हुई है। कहते हैं उस शिष्य ने जीवित समाधि ली थी। दीपावली के दिन गाँव के लोग उनकी समाधि पर दीपक रखने जाते हैं और यह कामना करते हैं कि महाराज जी की कृपासे हमारी स्वतंत्रता अमर रहे।

       इस क्षेत्र की यह प्रसिद्ध गढ़ी है। गड़ी के चारों कोनों पर चार गुर्जें बनी हुई हैं। किले में गणेशजी का एक प्रसिद्ध मन्दिर है। पुजारी दानास की स्थिति से अवगत हो गया था। इसी कारण उन्होंने मन्दिर के पट खोल कर रखे थे। लोग वर्षें बाद किले के ऊपर आये थे। इसी कारण मन्दिर के दर्शन करने लोग व्याकुल दिख रहे थे। उसमें स्थित जाले इस बात की गवाही दे रहे थे कि मन्दिर वर्षेा बाद खोला है।

       इस मन्दिर से बहुत बड़ी जायदाद लगी है। जो पुजारी के घर रूपी अंधकूप में समा जाती है। कभी-कभी जब उन्हें अपने कर्तव्य की याद आती है तो पुजारी जी भगवान को दर्शन दे जाते है। जिससे लोगों को इनकी पूजा अर्चना पर सन्देह न हो।

       मन्दिर के पास में ही एक गहरा अंधकूप है। खूब गहराई पर उसमें पानी चमकता है। सोलहवी शताब्दी में इस कुये का पानी उपयोग किया जाता था। वहाँ पहुँच कर तो लोग भूल गये कि वे होली के क्रम में यहाँ  आये हैं। यहाँ आकर तो लोग इतिहास के पन्ने पलटने लगे। सभी अपने-अपने तरीके से उन दीवारों को घूरने लगे।

     कुछ उत्तर- पूर्व में गढ़ी की गुर्जों पर जा चढ़े। वहाँ एक विशाल तोप पड़ी थी। उसका सूक्ष्म निरिक्षण करने लगे। इसी समय कुछ लोगों की निगाह दूर चली गई। दिखने लगी सिरोही गाँव की गढ़ी। वहाँ के महन्त नारायण दास बहुत दमदार आदमी थे। उसी सीध में दिख रही थी, डबरा शुगर फैक्ट्री की धुँआ उगलती चिमनी। डबरा -नरवर रोड़ पर दौड़ता हुआ एक लाल डिब्बा नजर आ रहा था। कुछ लोग गढ़ी की दक्षिण-पूर्व की गुर्ज पर जाकर बैठ गये। वे जाटव मोहल्ले में रंग लाती होली को ललचाये मन से देख रहे थे। उनका मन उसमें पहुँचने के लिये बेचैन हो उठा। लालाराम जाटव के दरवाजे से दानास सहदेव जाटव के घर की ओर जा रहा था। उनके रसियों का स्वर किले के ऊपर सुनाई पड़ रहा था।

       सड़क पर दौड़ता हुआ लाल डिब्बा काशीपुर गाँव पर आकर खड़ा हो गया था। दूर दिख रही थी ,चिटौली गाँव की पहाड़ी। उस पर बना माता का मन्दिर अलग ही चमक रहा था। कुछ पश्चिम की गुर्ज पर चले गये थे। वे लिधैारा गाँव से आते हुये व्यक्ति की पहचान करने कर रहे थे कि कौन हो सकता है? कुछ लोगों को नोंन नदी के पुल का अनुमान ठीक ढंग से हो गया था।

       कुन्दन दानास के साथ चलकर गढ़ी की बुर्ज पर जाकर बैठ गया और दक्षिण की ओर देखते  ही सोचने लगा- दूर दिख रहे रोड़ पर आगे नोंन नदी को पार करते हुये करियावटी गाँव में पहुँचते हैं। यहाँ से बाँयी ओर साँखनी गाँव के लिए रास्ता जाता है। आगे बढ़ने पर पार (पाटलावती) नदी को पार करने पर एक रास्ता बाँयी ओर मुड़ता है। यहीं से एक रोड़ हमें धूमेश्वर महादेव के मंदिर तक ले जाता है।

     इतिहासकारों का कहना है कि यह नगरी ईसा की पहली शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक फली-फूली है। यहाँ उस समय नागों का शासन रहा है। धूमेश्वर का मंदिर इस क्षेत्र में आज भी तीर्थ-स्थल बना हुआ है। इसका पुनर्निर्माण ओरछा के राजा वीरसिंह जूदेव ने करवाया था।

      संस्कृत साहित्य के गौरव महाकवि भवभूति विदर्भ प्रान्त से व्याकरण,न्यायशास्त्र और मीमांशा का अध्ययन यहाँ करने आये थे। यहाँ रहकर उन्होंने महावीर चरितम् ,मालती माधवम् एवं उत्तर रामचरितम् की रचना की है। महाकवि भवभूति के नाटकों में कालप्रियनाथ की यात्रा उत्सव के समय उनके नाटकों का मंचन इस बात का प्रतीक है। यहाँ प्राचीनकाल से ही बड़ा भारी मेला लगता आया है। यह धूमेश्वर का मंदिर ही के कालप्रियनाथ का मंदिर था। ओरछा के राजा को यहाँ यह मंदिर बनवाने की क्या आवश्यकता थी ? यहाँ के लोग यह मानते हैं कि शायद कालप्रियनाथ के मंदिर को यहाँ आये मुस्लिम शासकों ने मस्जिद बना दिया होगा।

     इस मंदिर की दीवार पर दो फारसी के शिलालेख आज भी मौजूद हैं, जिन्हें पढ़ कर व्याख्यायित किए जाने की आवश्यकता है। तभी यह स्पष्ट हो पाएगा कि यह मंदिर क्यों और कैसे बनवाया गया है ? इस क्षेत्र के कुछ लोग यह मानते हैं कि ओरछा नरेश ने इस मस्जिद को पुनः मंदिर में बदल दिया। इस मंदिर के सामने की जो गुम्बद बनी है, वे कही मस्जिद के बदले हुए रूप की तो नहीं है? यदि यह परिवर्तन हुआ है तो निश्चित रूप से कालप्रियनाथ के मंदिर की यात्रा में आये बदलाव का प्रमाण हैं। सिकन्दर लोधी यहाँ आया था। यहाँ कुछ मकबरे भी मिलते हैं, क्या उसने कालप्रियनाथ के मंदिर को यथावत् रहने दिया होगा अथवा उसका रूप भी बदला ही होगा। वर्तमान में जो शिवलिंग उपलब्ध है, वह तो ओरछा नरेश के द्वारा स्थापित किया गया है। उक्त तथ्यों की विवेचना एवं इसकी प्राचीनता के आधार पर इसे कालप्रियनाथ से जोड़ना हमें सुखद लगता है।

     इस मंदिर के पास ही एक जलप्रपात है, जिसका वर्णन मालतीमाधवम् में भी आया है। मंदिर के पास से ही नदी के अंदर किनारे से लगा हुआ एक नौ चौकिया बना हुआ है। कुछ लोग इसे पद्मावती के समय की इमारत मानते हैं, कुछ विद्वान् इसे मंदिर के समकालीन और कुछ इसका संबंध पृथ्वीराज से जोड़ते हैं। हाँ ईटें, पत्थर और चूने के मिश्रण से इसका मूल्याँकन करने वाले इस इमारत को मंदिर के समकालीन मानते हैं।

     यहाँ के पास में ही मलखान पहाड़ी है, मलखान एक वीर पुरुष था। कहते हैं जब वह यहाँ आकर ठहरा तथा उसने अपनी साँग गाड़ दी थी, तभी से इस पहाड़ी का नाम ही मलखान पहाड़ी पड़ गया है। उनकी साँग पिछले कुछ दिनों तक यहाँ गड़ी रही है। यह भी कहते हैं यह एक प्राचीन सिद्ध स्थान है।

     उस टीले पर विचार करें, जिसका ग्वालियर राज्य के पुरातत्व विभाग ने उत्खनन कार्य 1925 से 1941 ई0 तक करवाया था, इस पर पुरावत्ववेत्ताओं, इतिहासकारों एवं साहित्यकारों की दृष्टि लगी हुई है। श्री गर्दे ने उसे विष्णु मंदिर का नाम दिया है इसका कारण यह रहा है कि यहाँ विष्णु की मूर्ति मिली है। मिलने को तो यहाँ सूर्य भगवान की भी मूर्ति मिली है, अतः इसे क्या सूर्य मंदिर नाम देना उचित होता ? यदि सूर्य से कालप्रियनाथ का नाम जुड़ता है तो निश्चय ही यह मालतीमाधवत् में वर्णित कालप्रियनाथ का मंदिर है। जो भी हो उस समय इस नगर में विष्णु, शिव एवं सूर्य की उपासना की जाती थी। यहाँ जो स्मारक खुदाई में निकला है, उस चबूतरे का आकार 143 फीट लम्बा एवं 140 फीट चौड़ा है। उसके ऊपर जो चबूतरा है उसकी लम्बाई 93 फीट है, उससे ऊपर जो चबूतरा है वह 53 फीट ही लम्बा है। प्रत्येक भाग की ऊँचाई 10-12 फीट से अधिक ही होगी, अतः इसे विशाल चबूतरों का एकीकृत रूप कहा जा सकता है।

     यहाँ एक गीत, नृत्य एवं दृश्य की मूर्ति भी मिली है, जो साहित्यकारों को अलग ही प्रकार से सोचने के लिए विवश कर देती है। इस मूर्ति को ध्यान से देखें तो लगता है यह इमारत न विष्णु मंदिर है, न शिव मंदिर और ना ही कोई राजसभा, बल्कि यह तो एक नाट्यमंच ही खुदाई में निकला सा लगता है। इस नाट्यमंच को सजाने के लिए ही इन मूर्तियों का उपयोग किया गया होगा। जो राजचिह्न मिले हैं, उससे लगता है कि राजा महाराजा यहाँ बैठकर नाटकों का आनन्द लेते होंगे।     ऐसी मान्यता है कि भवभूति के नाटक कालप्रियनाथ के यात्रा-उत्सव में यहीं खेले गये।

     मालतीमाधवम् में सिन्ध नदी और पारा नदी के संगम पर मालती को स्नान करते हुए प्रस्तुत किया जाना, नाटक में इन सभी नदियों का वर्णन, स्वर्णबिन्दु, श्रीपर्वत का वर्णन इत्यादि से सिद्ध होता है कि यह नाटक यहीं खेला गया होगा। यदि धूमेश्वर मंदिर को कालप्रियनाथ का मंदिर माना जाये तो यह नाट्यमंच मेला स्थल मंदिर से अधिक दूर भी नहीं है और मेले से हटकर नदी के पार बना हुआ है। जिससे शांति के वातावरण में इस पर मंचन किया जा सके। अब हम उस स्थान पर आप सभी का ध्यान केन्द्रित करना चाहेंगे, जहाँ सिंध ओर पारा नदी का संगम है। यहीं मालतीमाधवम् में मालती के स्नान करने का दृश्य वर्णित है। यहीं पद्मावती का ध्वस्त किला बना हुआ है। कहते हैं कि यह एक प्राचीन किला है, राजा नल से भी इसका संबंध रहा है तथा नरवर के कुशवाह राजाओं के द्वारा बनाया गया है। इस किले के पिछले कुछ दिनों तक अवशेष जीवित रहे हैं। यहाँ सिक्के मिलते हैं वे कई शताब्दियों के हैं। इस किले से नदी तक पक्की सीढ़ी बनी है। जिस पर लोग बैठकर स्नान करते होंगे। सीढ़ियाँ मिट्टी से दब गई हैं।

     यहाँ से पूर्व की ओर 3-4 कि.मी. की दूरी पर एक स्वर्ण बिन्दु है। यह स्थान सिन्ध और महुअर नदी के संगम पर स्थित है।

     भीतर-बाहर आने-जाने का मुख्य मार्ग वर्तमान में स्थित भितरवार बस्ती में स्थित था, जो आज भी अपने वैभव की कहानी स्वयं कहता सा लगता है। इस क्षेत्र का निवासी होने के नाते मैं अपना यह गहन सोच का परिणाम मानता हूँ ।  

 

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