अथगूँगे गॉंव की कथा - 12 ramgopal bhavuk द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अथगूँगे गॉंव की कथा - 12

उपन्यास-  

रामगोपाल भावुक

 

 

 

                         अथ गूँगे गॉंव की कथा 12

               अ0भा0 समर साहित्य पुरस्कार 2005 प्राप्त कृति

 

12

      चुनाव में शाम, दाम ,दण्ड और भेद की बातों का सहारा लेकर दोनों पक्षों ने अपने -अपने पैंतरे चलाये। शराब भी खूब चली। बातों के लोभ और लालच से सब के धर भर गये। वोटों की जोड़-तोड़ में ,व्यक्तिगत लाभ-हानि का ध्यान रखकर वोट डाले गये। परिणाम निकला-‘सरदार अमरजीत सिंह विजयी हुये। परिणाम सुनकर सरपंच के आदमी लाठियाँ लेकर मौजी को मारने आ गये। यह देखकर तो मौजी के घर की औरतें चीख-चीख कर रोने लगीं। गाँव के लोग तमाशा देखने मौजी घर के पास झिमिट आये। बड़ों के मुँह कौन लगे? यह सोचकर मौजी घर में छिप कर बैठ गया। देखने वालों ने बीच-बचाव किया। रामप्रसाद अपनी एक कुन्टल धान जो वोटों के बास्ते मौजी को दी थी, उसे माँगने लगे। आदमियों की भीड़ देखकर मौजी घर में से निकल आया और सरपंच के आदमी  रामप्रसाद को ही वोट देने की कसमें खाने लगा। वे बोले-‘ ज झूठी कसमें खातो।’

       मौजी ने झूठा विश्वास जतलाने के लिये कहा-‘झूठी कसमें खातों तो तुम एक कुन्टल धान हनुमान बब्बा पै और धर देऊ। मैं उठायें लेतों।’

       यह सुनकर राम प्रसाद का क्रोध बढ़ गया। वे मौजी को माँ-बहन की बुरी-बुरी गालियाँ देते हुये वहाँ से चले गये।

     चुनाव समाप्त हो गये। उसकी आँधी गाँव की गली मोहल्ले में चार-छह दिन तक उड़ती रही। बड़े-बड़ों की इज्जत घटी- बढ़ी। जनता वहीं के वहीं बनी रही। कहीं कोई विकास नहीं हुआ। सभी को लग रहा था, इस चुनाव से कोई लाभ नहीं हुआ।

 

 

                          000 

 

                                   

 

       गाँव का अपना परिवेश होता है और अपनी परिधि। गाँव, गाँव होता हैं, उसकी अपनी परम्परायें होतीं हैं, उसके अपने कानून होते हैं। संसद में बने कानून का इसके परिवेश और परिधि पर जितना असर होना चाहिये उतना नहीं हो पाता।

       गाँव में वर्षों से मजदूरी की दरें सरपंच अथवा मुखिया के घर से तय की जाती हैं। गाँव में सभी उसी रेट पर अमल करते हैं। इस बात में गाँव के बड़े-बड़ों का हित निहित होता है। सरकारी रेट हर वर्ष अखबारों में छपती है, किन्तु गाँव के मजदूरों को कभी नहीं लगता कि ये रेट उनके लिये हैं। स्वतंत्रता के बाद से सरपंच के घर से जो रेट निकलता है लोग उसी पर अमल करते हैं। इस पर कोई विवाद नहीं होता। सारे विवादों का हल सरपंच की अपनी अदालत में होता है। उसमें गाँव का कोई व्यक्ति दखल नहीं दे सकता।

        गाँव के बड़े किसानों को सरकारी रेट की तरह बंधुआ मजदूरी की समाप्ति की चिन्ता नहीं है, क्योंकि गाँव के मजदूर बिना साइकिलों के मजदूरी करने तेरह किलोमीटर दूर शहर जा नहीं पाते। मजबूरी में उन्हें गाँव की रेट पर मजदूरी स्वीकार करना पड़ती है।

        अब तो गाँव के साहूकार मजदूरों को बंधुआ बनाने के लिये कोरे स्टाम्प पेपर पर हस्ताक्षर करवा कर उन्हें बंधुआ बना रहे हैं। कुछ लोगों ने मजदूरों की बीधा दो बीधा पैत्रिक जमीन अथवा उनका घर लिखवाकर उन्हें बन्धक बनाना शुरू कर दिया। जिससे आदमी बँधा रहे, भाग न पाये। कहीं कानून का सहारा ले तो फसा रहे।

        मजदूरों में यह भ्रम फैलाने का प्रयास कर रहे थे कि यदि किसी ने हाथ-पैर चलाये तो अपनी जमीन-जायदाद से हाथ धोना पड़ेगा। यदि किसी ने बदमासी दी तो मजदूरों पर कौन विश्वास करैगा? अभी तक दुःख-तकलीफ में किसी के यहाँ दाम-पैसे के लिये पहुँच जाते तो कोई उन्हें निराश नहीं करता ।

     उधर मजदूर सोच रहे थे- अब जाने हमारा वक्त-वे-वक्त काम कैसे चलेगा? अरे! सरकार को कानून बनाना ही था तो पहले मजदूरों की व्यवस्था करती।

     गाँव भर के खलियान उठ चुके थे। भुसेरों में भुस डल गया था। गाँव के किसान सालभर के लिये खेतिहर मजदूर को सस्ती दर पर नौकर रखने के लिये तलाश में रहने लगे। गाँव के सरपंच के यहाँ तीन-चार बंधुआ मजदूर रहते आये हैं। सरपंच के यहाँ वर्षों से बंधुआ मजदूर बना हुआ है मौतीराम । उसे सरकार के इस नियम की कोई जानकारी नहीं है। वह तो इसी में अपनी इज्जत समझ रहा है कि वह एक ही जगह पर वफादारी से बंधा हुआ है। दूसरा अर्जुन कुशवाह भी उन्हें मिल गया था। यह आदमी धीमा काम करता है। दो आदमियों का वादा मौजी ने कर दिया है। एक की पूर्ति मझली लड़की सरजू का आदमी बसन्ता से कर दी। दूसरे की टोह में वह अपने पुराने क्षेत्र खोड़मनपुरा के चार बार चक्कर लगा आया है। उसने कुन्ती के लिये नए वर की तलाश कर ली है। उसे ठाकुर लालसिंह के यहाँ नौकरी पर रख दिया है। लालूराम तिवारी के यहाँ कमला पहुँच गया। कमला का भाई जलिमा को क्षेत्र के पूर्व विधायक जगन्नाथसिंह के यहाँ नौकर लगा दिया था।मौजी का लड़का मुल्ला किसी के भी यहाँ बंधुआ बनकर नौकरी करने का विरोध कर रहा था। उसने घोषणा करदी थी कि मैं तो मजदूरी करके रोज कमाउंगा और रोज खाउंगा। मैं किसी के भी यहाँ बंधुआ मजदूरी नहीं करुँगा।

       मौजी को यह बात अच्छी नहीं लग रही थी। उसने मुल्ला के लिये आदेश जारी कर दिया -‘मुल्ला, यदि अपने मन की करता है तो वह मोसे अलग हो जाये।’

       मुल्ला ,दादा का आदेश सुनकर अलग रहने को तैयार हो गया था। अकेला लड़का यदि बात न माने तो पिता को हार मानकर कर उसी की बात मानना पड़ती है। यह बात मौजी को अच्छी न लग रही थी। दुनियाँ क्या कहेगी कि मौजी का एक ही लड़का है वह भी उसकी बात नहीं मानता। मौजी ने ही मुल्ला की बात मान ली और उसके बदले कैसे भी मना-मुनू के एक आदमी खोड़ मनपुरा से और ले आया। यों अदला- बदली करके उसने काम चला लिया। एक दिन कमला बीमार पड़ गया। उसे हैजा ने आ घेरा। इलाज के लिये पैसे थे नहीं। सोनी कक्का को बुलाकर इलाज कराया गया पर उसे बचाया न जा सका। कमला के मरते ही लालूराम तिवारी की नौकरी के लिये दी गई रकम डूब गई। अब वे किससे बसूल करें।

चिटौली के गूजरों के रुपये वापस देने के चक्कर में मौजी ने ठाकुर लालसिंह के यहाँ गोबर डालने के लिये सरजू की लड़की गंगा को लगा दिया।

      गंगा सुन्दरी थी। उसे देखकर बड़े-बड़ों की लड़कियाँ अपने आप को हीन महसूस करने लगतीं। वे अपनी बडी जाति लेकर अपने को मन ही मन संतुष्ट करने का प्रयास करतीं।

       एक दिन सरपंच के लड़के उपेन्द्र और गंगा को बात करते किसी ने देख लिया होगा। बात सारे गाँव में फैल गई। चर्चा का विषय बन गया। चलते-चलते बात ठाकुर लालसिंह के दरबार में जा पहुँची। ठाकुर के लड़के बलजीत ने जब यह बात सुनी तो मन ही मन सोचने लगा-साली, उससे लग गई। मन ही मन उसके मन में भी उसे पाने की लालसा जाग उठी।

       एक दिन की बात है, गंगा गोबर डालकर निपट रही थी, केवल गोबर का एक ढेर ही घूरे पर डालना शेष रह गया था। वह उस ढेर को आसपास से इकत्रित करने के बाद उसे तस्सल में भरने के लिये उसके पास उकड़ूं बैठ गई। बलजीत जाकर उसके पास खनोटे पर बैठते हुये बोला-‘गंगा तू तो ठकुरानी लगती है।’

      गंगा का माथा ठनका, वह समझ गई दाल में काला है। अब वह कैसे क्या करै? उसे उत्तर तो देना ही था। इसलिये शब्दों को एकत्रित करते हुये, बोली-‘लगने से का हम ठकुरानी बन जाँगे। फिर हमें ठकुरानी बनवे की का जरूरत है, हम तो चमार ही अच्छे हैं।’

     बलजीत उसके मन के भाव समझते हुये बोला-‘तुम ठीक कहती हो, हम लोग बड़ी-बड़ी बातें करेंगे किन्तु तुम्हारी ओर देखेंगे, भूखे भेड़ियों की तरह।’

     गंगा ने नीति लेखे की बात कही-‘यह तो संसार की रीति-नीति है। मोय तो जो देखतो, लगते व मोय मुरा कें ही छोड़ेगो।’

      बलजीत अपने विषय पर आते हुये बोला-‘देख गंगा, तेई सुन्दरता जाय देखो ताय घायल कर देते। री तू बहुत सुन्दर है। तेरी सुन्दरता मेरे मन को भी घायल कर रही है।’

      गंगा अपनी सुन्दरता की बात सुनकर मन ही मन आनन्दित होते हुये बोली-‘भगवान ने जैसो रूप रंग दओ है तामें काहू को का बस। ज तो भगवान की कृपा है।’

      बलजीत सीधी बात पर आ गया-‘तो पै भगवान ने कृपा करी है , तो पै जों नाने, कै तामें से नेकाध कृपा मो पै हू करदे।’

      गंगा बलजीत की नियत जान गई। उसने अपने आप को बचाने के लिये हर बार की तरह वाक्चातुर्य से काम लेना उचित समझा। बोली-‘ अरे !मेरी सुन्दरता आपके मन को इतैक भा गई है, लेकिन सुन्दरता की कीमत बहुत मैगी है।’

      यह सुनकर बलजीत के मुँह में पानी आगया। बोला-‘ बोल, का कीमत है तेरी सुन्दरता की?’

      यह सुनकर वह ऊपर की हँसी में मुश्कराते हुये बोली-‘गाड़ी अडडा में तो चीज की बोली सेठ-साहूकार ही लगातयें।’

      यह सुनकर तो बलजीत ने अपनी जेब में हाथ डालकर एक सौ का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ाते हुये बोला-‘लेऽऽ।’

      गंगा जान गई, नमकींन मांस देखकर भेड़िये की भूख और तीव्र हो गई है। यह यहाँ से भागने देगा नहीं। इसकी भूख तो बातों की चतुराई से मारना पड़ेगी। यह सोचकर बोली-‘अरे! राजा साब इतैकई बोली लगा रहे हो। इतैक में तो भेड़-बकरिया हू नहीं खरीद सकत। तुम मोय भेड़-बकरिया मत समझो।’

      यह सुनकर उसने बोली बढ़ा दी, बोला-‘हजार रुपया दे सकतों।’

      गंगा ने बात धीरे से सरका दी-‘बस हजार!’

      बलजीत क्रोध में आगया। उसका चेहरा लाल पड़ गया, बोला-‘तो तेंई अपयीं कीमत बता दे।’

      गंगा समझ गई। अब बलजीत का बल ध्वस्त होकर रहेगा। वह सामने पड़े गोबर के ढेर की ओर देखते हुये बोली-‘ज गोबर की इतैक कीमत मत करो! कै बाके मुँह माँगे दाम देवे तैयार हो।’

     यह सुनकर बलजीत समझ गया कि गंगा फस चुकी है, बोला-‘गंगा तें तो कह दे ,अपयीं कीमत।’

      यह सुनकर गंगा सोच में पड़ गई,अपने को बचाने के लिये क्या कीमत माँग लूं? उसे कहने को शब्द ही नहीं मिल रहे थे। कुछ क्षण तक चुपचाप खड़ी रही। बलजीत व्यग्र होते हुये बोला-‘जल्दी बोल दे, तें चिन्ता मत करे। असली राजपूत हों, तितैक तें कहेगी बितैक देवे तैयार हों।’

      अब तक गंगा में अदम्य साहस का संचार हो चुका था। वह बड़े आत्मविश्वास के साथ बोली-‘राजा साहब बात सुन कें बदल मत जइयो।’

      बलजीत के अन्दर जन्म-जन्मान्तर का सुसुप्त पड़ा ठाकुर होने का भाव जाग गया। बोला-‘कैसी बातें करती हो गंगा? ठाकुर जाति के लोग कभी कहकर बदला नहीं करते।

                         रघुकुल रीति सादाँ चलि आई।

                         प्राण जायें पर बचन न जाई।।

     यह सुनकर वह झट से बोली-‘नाराज तो नहीं होगे?’

     उसकी नाराजी वाली बात सुनकर उसके अन्दर का आवेग ठन्डा पड़ गया। चेहरे पर मुश्कराहट लाते हुये बोला-‘अच्छा अब कह दे, मैं भी तो सुनू तेरी सुन्दरता की कीमत कितनी है?’

     गंगा उठ खड़ी हुई, दो कदम दरवाजे की ओर चली और सीना तानकर बोली-‘ अरे! मेरी सुन्दरता इतनी भा गई है तो मुझ से ब्याह करलो और जिन्दगी भर इस सुन्दरता का पान करते रहो। कल तक आप प्रस्ताव लेकर मेरे नानाजी के पास आ जायें। मैं आपके आने की प्रतिक्षा करुँगी। अच्छा चलूँ।’

    यह कहकर वह सीना ताने उसके सामने से निकलकर दरवाजे से वाहर निकल आई। बलजीत ने पीछे से आवाज दी-‘गंगाऽऽ।’

     गंगा अपना नाम सुनकर खिल खिलाकर हँसते हुये बोली-‘मैं बाट चाहूँगी। जरूर आना।’ यह कहते हुये वह तेज कदमों से गली में पहुँच गई। गोबर का वह ढेर वहीं अछूता पड़ा रहा।

     गंगा ,गंगा थी। वह पूरी चतुर चालाक थी। उसमें वाक्चातुर्य गजब का था।. उसमें सोच-विचार कर चलने की छमता भी थी। आज उसका चित्त बलजीत के इर्द-गिर्द मड़राने लगा। कहीं बलजीत उसके घर ब्याह करने आ गया तो मैं कैसे क्या करुँगी? अरे! हट, ऐसें सोचने की क्या जरूरत है? वह मूरख तो नहीं है जो इस चमरिया से ब्याह करैगा! रूपवान होवे से इज्जत तो नहीं बढ़ जात। मैं अच्छी मूरख हों जो जों सोचतों।’

    गंगा, गंगा ही बन के रहना चाहतै। कछू होय ,अब मैं बाके झँ गोबर डारिवे नहीं जाउँगी। हमाये आदमी जिनके झाँ बँधे मजदूर हैं। जाको मतलब ज तो नाने कै हमायें इज्जत नाने। मजूरी मजबूरी में ही कन्नों पत्ते। मजबूर होकें कल बाके झाँ गोबर डारिवे जानों ही परैगो। अरे हट! तू भें गई व तोय छोड़वे बारो नाने। गंगा इतैक कमजोर सोऊ नाने। कै बाय कोऊ गाजर -मूरी की तरह कचर-कचर कें खा जायगो । ब्याह की बात लेकें कहूँ व झें आ गओ तो मैं बासे साफ-साफ कह दूंगी , कै ठाकुर हो, काऊ ठकुरानी से ही ब्याह शोभा देगो। हमें तो अपने में ही जीन देऊ। जो चीज जहाँ की है वहीं शोभा देते। बैसें इतैक से व सब बातें समझ गओ होगो कै गंगा बाके झाँसे में आवे बारी नाने। अब बाय मो तन को देखनों ही नहीं चहिये। यह सोचते-सोचते वह जाने कब की घर आ गई। घर में प्रवेश करते ही नानी से बोली-‘ बाई , मूड  दूख रहो है।’

      यह सुनकर सम्पतिया बोली-‘ज खाट डरी है, जापै सेंथा ले। कितैक काम है? , जापै इतैक काम का बन्तो। हमाई मजबूरी है। कल से न होयगी तो मैं ते संग चलिवे करुँगी। भें बैठें-बैठें गोबर तसला में भर देवे करुँगी।’ यह सुनकर तो गंगा ने राहत की सांस ली कै अब तो नानी मे संग जावे करैगी।