बँधुआ अशोक असफल द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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बँधुआ

इस कलाकारी ने ही तो मुझे नष्ट किया!' युवक ने अचानक कहा।
यह तुम क्या कह रहे हो?' बच्चे ने अचरज से पूछा, गुफा के शैल चित्र देखकर वह अत्यंत प्रभावित था।
-यह एक लंबी कहानी है,' युवक हताशा से सीढ़ी पर बैठ गया। बच्चा उसके सामने आकर खड़ा हो गया। अब दोनों के चेहरे एक दूसरे के सम्मुख थे और बराबर भी।
युवक ने बताना शुरू किया:
तीन-चार साल पहले अपने झुंड से एक युवती जंगल में बिछड़ गई। वह बहुत भयभीत और भूखी थी। मैंने उसे अपने लाइक बचाया हुआ भुना मांस खाने को दिया और ढाँढस बंधाया कि- घबराओ नहीं, तुम अकेली नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूं!
लेकिन उसकी घबराहट कम नहीं हुई। पर अब और कोई उपाय नहीं था। कोई तरीका नहीं था कि- वह अपने झुंड में वापस जा सकती! रात को वह चांद की दिशा में गई भी तो सुबह सूरज की दिशा में वापस लौट आई। जंगल में इसका पता कर पाना बहुत ही कठिन था कि झुंड किस दिशा में चला गया!
फिर तुम जानते हो कि- पेट की आग तो हम सब को परेशान करती ही है! यह बड़े से बड़ा गम भुला देती है। क्योंकि- यही तो मेरे साथ भी हुआ था! जब मैं अपने झुंड से जंगल में बिछड़ गया था...। पेट की आग बुझाने के लिए छोटे-मोटे शिकार खुद ही करना सीख गया। फिर पत्थरों को घिसकर अपने हथियार भी बना लिए! इस तरह मुझे जीना आ गया!
उसका आ जाना मेरे लिए एक अवसर की तरह था। क्योंकि अब मैं अकेला नहीं था। जंगल में यह अकेलापन बहुत भयानक होता है। वह आ गई है तो मेरे अनुभव का फायदा उठाकर मेरे साथ वह भी छोटे-मोटे शिकार करने लगी और हम लोग उन्हें मिल बांट कर खाने लगे।
जैसा कि हो सकता है और होता ही है, साथ रहने से हम एक-दूसरे की परवाह करने लगे। उसे चोट लग जाती तो मैं मिट्टी या किसी न किसी वनस्पति का लेप कर देता। कभी बुखार हुआ और बदन तप उठा तो सर पर फूल या नम पत्ते रखता। और वह तो इतनी दयालु कि मैं थकान या असहनीय ज्वर से कराह उठता तो अपने छोटे-छोटे गुदगुदे हाथों से मेरा माथा, यहां तक कि- हाथ-पांव दवा कर मुझे बरसों पहले बिछड़ी मेरी मां की याद दिला देती!
कहने का मतलब यही कि हम दोनों में प्रेम हो गया। प्रेम जो कि पशुओं में भी होता है किंतु मनुष्य जाति तो बिना प्रेम के रह ही नहीं सकती। उसका तो समूचा जीवन ही प्रेम के इर्द-गिर्द घूमता है। मनुष्य युद्ध भी करता है तो प्रेम के लिए और विकास भी करता है तो प्रेम के लिए ही। उसकी कलाएं भी प्रेम की ही अभिव्यक्ति हैं। और यह बात मैंने प्रेम करते हुए ही जानी।
इतने दिनों में रहने के लिए मैंने यह गुफा तलाश ली थी। हालांकि शुरू-शुरू में हम लोग पेड़ों पर ही सो जाया करते थे। उसका भी हमें अच्छा अभ्यास हो गया था। पर प्रेम ने हमें एक-दूसरे के अत्यधिक निकट आने की तीव्र इच्छा से भर दिया था। जब हम इस गुफा में निश्चिंत हो रहने लगे, क्योंकि यहां जानवरों का भी भय नहीं था, रात को गुफा का द्वार हम लोग इस भारी पत्थर से बंद कर लिया करते थे। तब रातों में साथ-साथ सोते हुए अतिशय प्रेम की विकलता ने हमें दो से एक कर दिया। और उसका परिणाम कुछ दिनों में यह आया है कि उसने एक प्यारे से नन्हें-मुन्ने को जन्म दे दिया!
अब शिकार के लिए मैं प्रायः अकेला ही जाता था और वह इस गुफा में रहकर बच्चे का लालन-पालन तथा इसे सजाने का काम किया करती थी...। उन्हीं दिनों में मुझे यह ख्याल सुझा कि- मैं अपना अनुभव अपने बच्चे को देकर जाऊं, तो मैंने इस गुफा की दीवारों पर शैल चित्र उकेरने शुरू कर दिए...।
यह बहुत कठिन काम था मेरे बच्चे!' उसने एक उसाँस भरकर कहा- तुम देख रहे हो कि गुफा की दीवार कितनी कठोर है, खुरदरी और उबड़-खाबड़ भी। मैंने इसी कठोरता को अथक परिश्रम करते पत्थर की छैनी-हथौड़ी से ही काटना-छांटना शुरू किया।'
बच्चे ने बहुत उत्सुकता से देखा कि सचमुच कैसे अद्भुत चित्र थे, जिनमें जंगली जानवरों से सुरक्षा और शिकार करने के तरीके उकेरे गए थे और शिकार को भूनकर खाने के भी...।
तब उसने उसके बालों में हाथ फेरते हुए बताया- फिर यह हुआ कि- मैं इस कलाकारी में इतना रम गया, इतना रंग गया कि मैंने अब शिकार पर जाना भी बंद कर दिया! बेचारी स्त्री अपने बच्चे को मेरी अभिरक्षा में छोड़कर शिकार के लिए स्वयं अकेली ही निकल जाती। तब फिर यह हुआ कि फिर कोई झुंड निकला और उसके किसी बलिष्ठ पुरुष ने उस बेचारी को अगवा कर लिया!
उस दिन का दिन है, वह आज तक लौटकर नहीं आई!'
-अरे यह तो बहुत बुरा हुआ, मुझे तुमसे सहानुभूति हो रही है!' बच्चे ने भोलेपन से कहा। पर उसने पूछा कि- तुम मुझे यह तो बताओ कि तुम अपनी इस कला में इतने क्यों रम गए?'
सुनकर पुरुष ने स्नेह से उसे गोद में बिठा लिया और बताने लगा कि-
एक तो यह कि यह मेरे दिल की आवाज थी, मैं ऐसा करके अपने आप को सुकून देता था। हालांकि यह शिकार से अधिक कड़ी मेहनत और समय लेती थी! लेकिन इसके अलावा भी एक और बात थी...!'
बच्चे ने पूछा, वह एक और बात क्या थी?'
तब उसने बताया कि- मैं अपने बच्चे को अपनी विरासत देकर जाना चाहता था। मैं नहीं चाहता था कि वह मेरी तरह शिकार के तरीके के लिए भटके, जंगली जानवरों के शिकार में अपनी जान को खतरे में डाल ले! आखिर उसे बचाव के तरीके भी तो आना चाहिए? और फिर अपने शिकार को भूनकर खाना भी सीखना चाहिए! कच्चे मांस से तो तमाम बीमारियां पैदा हो जाती हैं और लोग असमय ही मर जाते हैं।'
-ये तो है!' बच्चे ने भय से कम्पित हो कहा- हां यह तो है, तुमने सचमुच भावी पीढ़ी के लिए बहुत अच्छा काम किया है। लेकिन यह तो बताओ कि तुम्हारा वह बच्चा कहां चला गया?'
तब उसने अथाह वेदना से कहा कि-
एक रात जब मैं उसे लिए इसी गुफा में सो रहा था, चुपके से किसी ने यह पत्थर सरका लिया और मेरे बच्चे को उठा ले गया। तब से रातों में अक्सर मेरी नींद उड़ जाया करती है। आह! मैं यह नहीं समझ पा रहा कि इस पत्थर को खोलने की तरकीब मेरे और उस स्त्री के सिवा जब अन्य किसी को ज्ञात नहीं थी तो फिर यह काम किया किसने?'
यह कहते और अतीत में गोते लगाते-लगाते उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। फिर वे अविरल उसके गालों पर ढुलक उठे तो बच्चा अपनी नन्हीं हथेलियों से उन्हें पोंछने लगा। अरसे से रुके उसके दुख के आंसू इस तरह जब बह कर सूख गए और युवक की भावुकता कम हो गई, तब उसने कहा कि- तुम अपना सुनाओ! तुम यहां कैसे भटक गए?'
बच्चे ने कहा- मैं अपनी मां के साथ शिकार पर निकला था। मेरे साथ वह आदमी भी था जो हमेशा मां को अपनी निगरानी में रखता...। कि तभी अचानक जानवरों के एक समूह ने हम लोगों पर हमला कर दिया जिससे कि मेरी मां और वह आदमी तो पेड़ पर चढ़ गए पर मैं चढ़ना नहीं जानता था तो इधर उधर दौड़ा और एक खड्ड में गिर गया। फिर जब जानवर गुर्रा-गुर्रा कर लौट गए और मैं किसी तरह खड्ड से बाहर निकला तब मैंने देखा कि पेड़ों पर मेरी मां और वह भारी भरकम आदमी भी नहीं था...।
बस, मैं भटक ही रहा था कि तुम मिल गए!'
यह सुन कर वह युवक सुखद आश्चर्य से भर गया। फिर उसने खुशी से बच्चों की तरह किलकते हुए बच्चे को अपने सीने में समेट लिया। और उसने भावातिरेक में कहा- तुम जरूर मेरे खोए हुए बच्चे हो...और वह स्त्री जो किसी भारी-भरकम पुरुष की निगरानी में रहती है, मेरी स्त्री, आह! जिसे उस दुष्ट के रहते अब मैं कभी पा नहीं सकूंगा।'
कहते वह सुबकने लगा, फिर अपने को जज्ब कर बोला, लेकिन भाग्य से तुम मिल गए तो अब मेरी जिंदगी बसर हो जाएगी।'
उसी दिन से उसने यह तय कर लिया कि उसके बेटे को उसकी तरह स्त्री का विछोह नहीं झेलना पड़े, बस इसी चाह में उसने अपनी गुफा में ऐसे चित्र उकेरना शुरू कर दिए जिनमें विवाह संस्कार चित्रित थे। किसी की स्त्री को छुड़ा लेने पर झुंड द्वारा दण्ड की व्यवस्था भी...! स्त्री अपहरण को लेकर दो झुंडों के बीच युद्ध के चित्र भी।
तब कालांतर में उसी विरासत ने विवाह प्रथा का जन्म को जन्म दिया। उसी से पारिवारिक इकाई और समाज बन गया। लेकिन हर प्रथा का जो दुष्परिणाम होता है, वह जरूर हुआ। कि इस प्रथा के कारण स्त्री धीरे-धीरे पुरुष पर अवलंबित हो गई, एक तरह से उसकी बंधुआ मजदूर ही बन गई।
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