लेख - कितना बदल गया इंसान
आज हम दशकों बाद अपने बीते दिनों , ख़ास कर बचपन की धूमिल यादों को , साफ़ साफ़ देखने का प्रयास कर रहे हैं . तब के ज़माने और आज के समय में काफी बदलाव आ गया है और इंसान की फितरत भी बदल गयी है . इस बदलाव को देख कर हम सोचने लगे हैं कि हम कहाँ थे और कहाँ आ गए हैं . ऐसा नहीं है कि सब गलत है , कुछ अच्छे हैं तो कुछ बातें हमारे मन को नहीं भाती हैं . अपनी पैदाइश तो हमें याद नहीं पर जब से होश संभाला है बहुत कुछ यादों को दिल में संभाल , क़ैद कर रखा है जिन्हें कभी आज़ाद कर मन बहला लेते हैं .
जन्म से ही माँ या फिर दादी नानी सरसों तेल से बच्चों की मालिश करती थीं , यह तो इसलिए याद है कि छोटे भाई और बहनों की मालिश होते हमने देखी है . सर्दियों में बालों में सरसों तेल लगाने और नाक में तेल सुड़कने को कहा जाता था . आज नानी दादी को नाती पोतों को ऐसा करने से मना किया जाता है . पहले दूध की बोतल को ठीक से साफ़ कर बच्चों को दूध देते थे ,आज बच्चे रोज स्टरलाइज़्ड बोतल से दूध पीते हैं फिर भी अक्सर डॉक्टर का दरवाजा खटखटाना पड़ता है .
हमें खिलाने और सुलाने के लिए दादी नानी परियों , राजा रानी या ऐसे जादूगर जिसकी जान पिंजरें में बंद तोते में होती थी , की कहानियां सुनाती थीं और अब बिना कॉमिक्स या कार्टून फिल्म देखे निवाला बच्चे के गले से नीचे उतरना बहुत कठिन हो गया है . घर में बिजली नहीं होती थी फिर भी गर्मी में ताड़ के पत्तों के पंखों की हवा में चैन की नींद आ जाती थी . आज के बच्चों को कूलर और ए सी में भी नींद ठीक से नहीं आती है . हम शाम को लालटेन का शीशा साफ़ कर उसमें मिट्टी का तेल ( किरासन ) भर उसकी रौशनी में पढ़ते थे , आज के बच्चे ट्यूब लाइट या एल ई डी लाइट में भी पढ़ने से जी चुराते हैं .
हमारी पढ़ाई पाठशाला से शुरू होती , कभी गुरूजी की डांट फटकार सुनते तो कभी सरकंडे की छड़ी से पिटाई भी होती थी . आज टीचर्स वैसा सोच भी नहीं सकते है , सीधे FIR हो जाएगा और जेल भी हो सकता है . कलम दावात से लिखना होता था और कलम की निब अक्सर बदलनी होती थी . गेम्स के दिन सफ़ेद कैनवास शूज पर चॉक से पॉलिश कर पैदल या अपनी खटारा साइकिल से स्कूल और कॉलेज तक जाते थे . आज देखते हैं कि माँ बाप सुबह सुबह उनके स्कूल बैग , टिफिन , वाटर बॉटल तैयार करने में भाग दौड़ करते नजर आते हैं . फिर किसी तरह उन्हें तैयार कर स्कूटर या कार से स्कूल पहुंचाते या बस स्टॉप तक छोड़ने और वापस लाने जाते हैं .
बदन पर सरसो तेल लगा हम कोयले की आंच के गुनगुने पानी से मस्ती में नहा लेते थे . आज गीजर रहते हुए नहाने से कतराते हैं और डिओ और परफ्यूम स्प्रे कर घूमते फिरते हैं .तब साबुन की टिकिया , ब्रश और रेजर या अस्तूरे से दाढ़ी बनाते और फिटकिरी लगाते थे , अब जेल या फोम लगा जिलेट के रेजर और आफ्टर शेव लोशन के बिना काम नहीं चलता है .
मैदानों में गिल्ली डंडे , कबड्डी खेलते फूले नहीं समाते थे . गलियों में कंचे खेलते और किसी बड़े बुजुर्ग को देख कर छिप जाते . आज बड़े शौक़ से उनके साथ बैठ कर ताश खेलने या यहाँ तक कि कहीं कहीं शराब पीने तक पाबंदी नहीं है . बच्चे बड़ों के सामने स्मार्ट फोन पर अपनी पसंद की चीजें देखने से नहीं हिचकते हैं . हम रास्ते में बड़े बुजुर्गों को प्रणाम या उचित सम्मान देते थे और आज बच्चे हाय हेलो कर काम चला लेते हैं .
कभी ट्रेन के लम्बे सफर में जाते तो प्लेटफार्म की नल से सुराही या बोतल में पानी भर कर काम चलाते थे . पानी खत्म हो जाये तो स्टेशन पर नल से भर लेते या अक्सर डब्बे में बैठे खिड़की से ही रेल कर्मचारी अपने घड़े से पानी निकाल कर दे देता था . आज बिसलेरी का पानी पीते हैं फिर भी अक्सर इंफेक्शन से नहीं बच पाते हैं . हम गर्मियॉ की छुट्टी में दूसरे शहर ट्रेन से जाते तब थर्ड क्लास होता था . स्टीम इंजन के कोयले की धूल कपड़े तो गंदे करती ही थी , अक्सर आँखों में पड़ जाती थी . आज तो हमारे बच्चों को हवाई जहाज नहीं तो कम से कम ए सी की टिकट तो चाहिए ही .
तब टी वी नहीं था , अगर खुशनसीब हुए तो घर के रेडियो से साफ़ सुथरे गाने सुना करते थे , बुधवार की शाम बिनाका गीतमाला का इंतजार करते थे . जागृति , दोस्ती , झांसी की रानी , भाभी , छोटी बहन जैसी फिल्मों को बड़ों के साथ कभी कभी ही देखने का अवसर मिलता था . फिल्मों में प्यार के लिए बाग़ में दो फूलों का मिलन या चिड़ियों के चोंच लड़ाने जैसे सीन से काम चल जाता था . आज तो सिनेमा में खुलेआम नग्नता जिसे हम बोल्ड सीन कहते हैं और रेप सीन देखने को मिलते हैं और साथ में बतौर बोनस - गजब के आइटम सांग्स कभी बीड़ी जलाइले या झंडू बाम या फेबीकॉल , चोली के पीछे क्या है टाइप गाने . अब ऐसे प्रोग्राम बच्चों को घर बैठे चौबीसो घंटे देखने को टी वी चैनेल्स पर मिल जाते हैं .
तब फोन तो मोहल्ले में एक दो घरों में मुश्किल से होता था . दूर दराज़ के रिश्तेदारों से बात करने के लिए फोन बूथ पर घंटों ट्रंक कॉल बुक कर इन्तजार करते थे . अब हर घर में , हर आदमी के हाथ अपना मोबाइल फोन है और साथ में 3 G , 4 G और अब 5 G डेटा . दो साल के बच्चे भी मोबाइल में अपने लिए खुद कुछ न कुछ ढूंढ़ लेते हैं . बड़ों के क्या कहने - चलते फिरते एडल्ट फिल्म का मजा लेते रहते हैं , कुछ बच्चे भी पापा मम्मी के सोने का इंतजार करते हैं ताकि उन्हें भी कुछ देखने का मौका मिले और अक्सर हम इस ग़लतफ़हमी में रहते हैं कि बच्चे देर रात तक पढ़ रहते हैं .
कपड़ों के फैशन का क्या कहना ? जीवन में एकरसता से हम ऊब जाते हैं . आदम और हौव्वा भी नंगे थे , बाद में इंसान कभी अपनी नग्नता से ऊब कर या कभी मौसम की मार से बचने के लिए कपड़े पहनने लगा होगा . और आगे चल कर कपड़ों से ऊबने लगा तो धीरे धीरे कपड़े छोटे और तंग होने लगे . कभी गिरने से घुटनों पर पैंट फट जाती तो हम उन्हें रफ्फू करा कर पहन लेते थे . अब अच्छे भले नये जींस को जगह जगह से कुतर कर पहनते हैं .
हम अपनी मूल संस्कार और संस्कृति को भूल कर पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करने लगे हैं . आजकल बाहर स्कूल , दफ्तर या पार्टी में अपनी मातृभाषा बोलने में झिझकते हैं और अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस करते हैं . जीवन में बदलाव जरूरी है पर इतना भी नहीं कि हम अपनी संस्कृति और शिष्टाचार को भूलने लगें . मत भूलें कि ऐसा करना यह एक प्रकार से गुलामी ही है . जब कभी विदेशी आक्रमण हुआ , आक्रमणकारियों ने सबसे पहले हमारी भाषा और संस्कृति को ही नष्ट किया और अपनी भाषा और संस्कृति को हम भारतीयों पर थोपा था . आज की पीढ़ी अक्सर उसी को सही मान कर उसका अनुकरण कर रही है .