Sapno ki turpaai books and stories free download online pdf in Hindi

सपनों की तुरपाई

सपनों की तुरपाई

सिन्हा साहब को अपने गाँव से बहुत प्रेम था. यद्यपि गाँव से दस वर्ष की उम्र में ही वे पटना चले आये थे. वहीँ बाकी की स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई पूरी की थी. पटना से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर बोकारो स्टील प्लांट में नौकरी ज्वाइन किया था. गाँववालों ने भी इज्जत दी थी, भला क्यों न देते गाँव का पहला लड़का इंजीनियर बना था. एक साल के अंदर उनकी शादी प्रेमा से हुई. प्रेमा ग्रेजुएट थी. वह एक कुशल गृहिणी थी.

सिन्हा साहब चाहते तो बोकारो, पटना या रांची कहीं भी रिटायरमेंट के बाद अच्छे से सैटल कर सकते थे. उस समय तक ये तीनों शहर बिहार में ही थे. पर शादी के बाद से ही वे अपनी पत्नी को कहा करते थे कि रिटायरमेंट के बाद हमलोग बुढ़ापे में आराम से गाँव में पैतृक निवास में ही रहेंगे. वहाँ हमें शुद्ध हवा, गाय का शुद्ध दूध, दही, ताज़ी हरी सब्जियां मिलेंगी. इन चालीस वर्षों में गाँव की आबोहवा कितनी बदल चुकी थी उन्हें इसका ज़रा भी अंदाजा नहीं था. स्वार्थ, भौतिकवाद और उपभोक्तावाद धीरे धीरे गाँव की दहलीज़ पर दस्तक दे चुके थे. ग्रामीणों में भी संवेदनशीलता का ह्रास स्पष्ट दिखता था. पर सिन्हा साहब समझ रहे थे कि गाँव के भोले भाले किसान निश्छल प्रवृति के होते हैं.

प्रेमा तो गाँव नहीं जाना चाहती थी. वह कहती " आपको गाँव के वर्तमान गणित और केमिस्ट्री का अंदाज नहीं है. मैंने कुछ बड़े बड़े अफसरों को रिटायरमेंट के बाद गाँव से मजबूर होकर वापस शहर आते देखा है. कोई कलेक्टर ही क्यों न रहा हो, जब तक गाँव की मिट्टी से नहीं जुड़ेगा गाँव के लोगों में आपके प्रति बेगानापन रहेगा. फलतः आप स्वयं को उपेक्षित और अपमानित समझेंगे. "

पर सिन्हा साहब को गाँव से अथाह प्यार था. वे प्रेमा से बोलते कि अब तो गाँव में भी बिजली आ चुकी है और सड़के भी पक्की हो चुकीं हैं. वहां भी DTH द्वारा टी वी प्रोग्राम देख सकते हैं. अपने घर तक ऑटो या रिक्शा से पहुँच सकते हैं.

उनके स्वर्गीय पिता ने मृत्यु के पहले ही गाँव के घर और जमीन का बँटवारा दोनों भाईयों में कर दिया था. सिन्हा साहब का छोटा भाई गाँव में ही रह गया था. उसका बेटा रमन ने शहर में सिन्हा साहब के साथ रह कर स्कूल की पढ़ाई की थी. कभी भगवान् भी ईमानदार भोले भाले आदमी के साथ कितना अन्याय कर बैठता है. सिन्हा साहब की अपनी कोई संतान नहीं थी. रमन को बिलकुल अपना बेटा ही मानते थे. रमन पढ़ने लिखने में अतिसाधारण था. महाराष्ट्र के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में भारी भरकम डोनेशन दे कर उसका दाखिला भी कराया था. रमन के बाकी दोनों भाई गाँव में ही रह गए थे और अपने पिता के साथ अपनी खेती के और सिन्हा साहब की खेती भी देखा करते थे. हालांकि सिन्हा साहब को खेत की पैदावार से कोई लेना देना नहीं था. सारा फसल वे अपने भाई को दे देते थे, क्योंकि उसकी जीविका का और कोई साधन नहीं था.

सिन्हा साहब का गाँव पटना से लगभग चालीस किलोमीटर दूर हावड़ा दिल्ली मेन लाइन पर स्थित कोईलवर स्टेशन से पाँच किलोमीटर दूर महम्मदपुर था. वे पत्नी से गाँव की बड़ाई करते नहीं थकते. अपने बचपन से युवावस्था तक जब कभी गाँव जाते, कोईलवर उतर कर उन्हें बैलगाड़ी या टमटम का सहारा लेना होता. उनके भाई ही उनको लिवाने के लिए टमटम भेज दिया करते थे. उन दिनों घर के अंदर संडास तो था पर उसका इस्तेमाल सिर्फ औरतें करतीं थीं या इमरजेंसी में ही अन्य लोग यूज कर सकते थे. सिन्हा साहब को तड़के सबेरे सबेरे लोटा उठा कर खेतों या झाड़ियों में छुप कर जाना होता था. पर नौकरी मिलने के बाद घर में अच्छा शौचालय बनवा दिया था, अब किसी को बाहर जाने की आवश्य्कता नहीं थी.

सिन्हा साहब बड़े उदार दिल के थे. जब तक गाँव में रहे, फूलन उनका अच्छा दोस्त था. हालांकि वह पिछड़ी जाति का था, फिर भी उसके साथ मिलकर अपनी कमाई से ही उसके मिटटी के कच्चे घर का कुछ भाग ईंटों से पक्का बनवा दिया था. फूलन के लड़के पूरन की पढ़ाई में उन्होंने काफी आर्थिक सहायता की थी. पूरन अब दिल्ली में अच्छी नौकरी में था.

वे पत्नी प्रेमा से कहा करते थे कि गाँव चलो न, वहाँ मेरे भाई, भतीजे, फूलन सभी हमदोनों को हाथों हांथ ले लेंगें. वे हमें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देंगे.

देखते देखते सिन्हा साहब के रिटायरमेंट में जब छः महीने रह गये थे तब उन्होंने गाँव पर भाई को कह कर पुराने घर को काफी पैसे खर्च कर अच्छा बनवा लिया था ताकि प्रेमा को कोई तकलीफ़ न हो. फिर रिटायरमेंट के बाद सिन्हा साहब अपनी पत्नी के साथ अपने गाँव महम्मदपुर आ गए. रिटायरमेंट के बाद उनकी व्यक्तिगत बचत ज्यादा न थी. उन्होंने तो सोचा था कि गाँव में उन्हें फिर वही इज्जत मिलेगी और गाँववालों का सहयोग भी. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उनका भाई बस घर की चाभी देकर चला गया, किसी ने चाय पानी तक नहीं पूछा था. प्रेमा भी आश्चर्यचकित थी. खैर उनका पुराना दोस्त फूलन आया था. वह अपने घर से उनके लिए नाश्ता चाय लाया था और बोल कर गया कि बाद में खाना और बाकी जरूरी सामान लेकर आएगा.

बहरहाल सिन्हा साहब के कुछ दिन तो यूँ ही कट गए. पर उनसे मिलने भाई, भतीजा या एक दो गांववाले बस एक या दो बार औपचारिकतावश ही आये थे. अगर वे किसी के यहाँ जाते या आते जाते बातें करना चाहें भी तो किसी को उनमें कोई दिलचस्पी नहीं थी. गाँव आते समय सोचा था खेत से कुछ सब्जियाँ तो मिल ही जाएंगीं. अपने भाई से इस बारे में जब चर्चा करते तो वह बोलता कि आप तो शहर से काफी कुछ कमा कर आयें हैं, खेत से आपको कुछ उम्मीद नहीं करनी चाहिए - जो कुछ खेतों से मिलता है उसी से हमारी गृहस्थी चलती है. सिन्हा साहब भी मान गए थे और फिर आगे कुछ नहीं माँगा था. एक फूलन को छोड़ कर सभी का रूखापन देख कर उनका दिल टूट चुका था. प्रेमा को इसी बात का डर था, पर सिन्हा साहब को ये उम्मीद न थी. अब उन्हें भी लगने लगा कि उनका गाँव आना शायद सही फैसला नहीं था यह मात्र कांच का सपना था जो टूट कर बिखर गया है.

फूलन से एक दिन सिन्हा साहब ने कहा " इस गाँव में तुम्हें छोड़ कर सभी बेगाने हो गए हैं. तुम्हारी भाभी तो चाहती है कि यहाँ के खेत बेच कर शहर में ही एक फ्लैट ले लेते. तुम इस काम में मेरी सहायता करोगे ?"

" भैया, मैं कुछ दिनों से आपसे एक बात कहना चाहता था किन्तु डर था कि आप कहीं बुरा न मानें. आपको अपने भाई भतीजों पर बहुत भरोसा था. पर आपकी पीठ पीछे यहाँ तहसीलदार, अमीन से मिलजुल कर आपके खेत हड़पने का षड्यंत्र बना रहे थे. आपकी खेत तो उपजाऊ हैं आसानी से अच्छे दाम में बिक जायेंगे. मैं पूरी मदद करूँगा. "

कुछ दिनों के बाद सिन्हा साहब के दोनों भतीजे उनके घर आ धमके और कहा " अंकल, यह क्या सुन रहें हैं हमलोग कि आप खेत बेचने जा रहे हैं. इन खेतों पर आपका कोई हक़ नहीं है. बचपन से हम अपने खून पसीना देकर इस पर फसल उगाते रहें हैं. बेहतर है कि इन्हें आप भूल जाएँ. "

सिन्हा साहब ने कहा " बेटे, हम तो स्वेक्छा से अब तक इन खेतों की पैदावार तुमलोगों को देते आएं हैं. इसके अतिरिक्त भी तुमलोगों की पूरी सहायता करते रहे हैं. कानून से तो इन पर मेरा ही हक़ हैं. आज मुझे पैसों की जरुरत है तो इनको बेच रहा हूँ. जाओ अपने पिता से कहना मुझसे बात करेंगे ".

उन लड़कों ने फिर कहा " इसके लिए पिताजी से कोई बात करने की जरुरत ही नहीं. उनके निर्देश पर ही हम आये हैं. इसे हमलोगों का अंतिम निर्णय समझिए. फिर भी अगर आप इसे बेचने का प्रयास करेंगे तो खून खराबा के सिवा कुछ न मिलेगा. "

इतना कह कर वे दोनों तो चले गए. तब प्रेमा ने कहा कि अगर ये लोग नहीं मानते तो हमें कोर्ट जाना चाहिए. इस पर सिन्हा साहब ने कहा कि एक तो अपनों के विरुद्ध मुकदमा लड़ूं और वो भी अपनी जिंदगी में तो सिविल केस का फैसला होना मुमकिन नहीं है. अब खून खराबे की बात तो हम सोंच भी नहीं सकते, इतना साहस तो नहीं रहा है मुझमें.

कुछ दिनों बाद सिन्हा साहब ने फिर फूलन से कहा " देखो, खेत तो नहीं बेच सकते. अब यह एक घर बचा है इसे बेच कर ही जो कुछ मिलता है, लेकर हम गाँव छोड़ कर चले जाएंगे ".

फूलन ने कहा " भैया, आप तो जानते हैं कि इस गाँव में एक अच्छे घर की तलाश मुझे भी है. भगवान की कृपा और आपकी मेहरबानी से पूरन भी अच्छा कमा रहा है. इस घर का जो भी मूल्य होगा उसे हम एक दो किश्तों में आपको दे देंगे. अगर आप उचित समझें तो यह घर मुझे दे दें. इसके बाद भी इस घर को पराया न समझेंगे. जब तक और जब कभी आप चाहें इसमें निःसंकोच रह सकते हैं ".

सिन्हा साहब बोले " फूलन यह तो तुम्हारा बड्डपन है वर्ना यहाँ तो अपना ही खून खून खराबे की धमकी दे गया है. तुम इस घर को खरीदने की कानूनी प्रक्रिया शुरू करो. "

इसके दो तीन दिन के अंदर सिन्हा साहब का भाई अपने दोनों बेटों और दो लठैतों को लेकर उनके घर पहुँचा और गुस्से में बोला " आपको समझाया था न कि खेत वेत नहीं बेचना है. और यह घर तो अव्वल आपको बेचने नहीं देंगे. अब हमारा परिवार भी बड़ा हो रहा, हमको भी एक और घर चाहिए. हम कुछ भी बेच बाच नहीं करने देंगे. आपको यहाँ रहने दे रहे हैं वही काफी समझिये. "

सिन्हा साहब ने कहा "भाई, समझने की कोशिश करो. तुमने कहा तो मैंने खेत समझो छोड़ दिए. मुझे पैसों की जरुरत है वर्ना इसे भी छोड़ ही देता. इसे तो हमें बेचना ही होगा. "

भतीजों ने ही कहा " यहाँ का कुछ भी बेचने की बात सपने में भी नहीं सोचेंगे वर्ना अंजाम इतना बुरा होगा जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते. बेहतर है जैसे रह रहे थे चुपचाप रहें या फिर बिना कुछ बेचे चुपचाप यहाँ से चले जाएँ. "

इतना बोल कर वे सब चले गए. पर सिन्हा साहब को तो जैसे काठ मार गया था, मानो काटो तो खून नहीं. उन्होंने पत्नी प्रेमा से कहा " लगता है मेरा गाँव में रहने का फैसला गलत था. घर भी नहीं बेच पाऊँगा. मैंने भतीजे रमन को बेटा सा प्यार दिया है. उसको पढ़ाया लिखाया है. आज वह गुड़गांव में अच्छी कम्पनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है. उसका वहाँ अपना फ्लैट भी है, अभी उसकी शादी भी नहीं हुई है, अकेला ही रहता है. जब तक और कोई व्यवस्था नहीं हो जाती वहीँ रह सकते हैं. मुझे पूरी उम्मीद है वह कभी ना नहीं बोलेगा ".

प्रेमा बोली " आप अभी तक भतीजे से उम्मीद लगाये बैठे हैं. आपने देखा नहीं आपके सगे भाई भतीजे तो पराये से भी गए गुजरे हैं. मुझे तो कोई उम्मीद नहीं दिखती. "

ऐसा नहीं था कि रमन गाँव की स्थिति से अनभिज्ञ रहा हो. फिर भी जब सिन्हा साहब ने उसे फोन किया तो उसने कहा " अंकल, आपका ही घर है, शौक से आईये. आप कब आ रहे बताएँगे. "

प्रेमा की ओर देख कर सिन्हा साहब बोले " देखो, मैंने कहा था न कि रमन ऐसा वैसा नहीं है. मैं उसे फोन कर देता हूँ कि हम अगले रविवार को पहुँच रहे हैं. अभी तो पाँच दिन बाकी है. "

उन्होंने अपने आने की सूचना रमन को दे दी. और अपने गाँव और घर छोड़ने की तैयारी करने लगे. अपने एकमात्र हितैषी फूलन को बुला कर कहा " फिलहाल तो घर की चाभी तुम्हेँ देकर जा रहा हूँ. देखता हूँ आगे क्या होता है, घर बचा पाऊँगा या नहीं. "

फूलन बोला " यहाँ मुझसे जो बन पड़ेगा करूँगा. पर अभी मैं भी आपके साथ दिल्ली चल रहा हूँ. मेरा बेटा पूरन भी वहीँ गाज़ियाबाद में ही है. उसने भी दो कमरे का फ्लैट ले रखा है. कुछ दिन उसके साथ रह लूँगा. "

सिन्हा साहब अपनी पत्नी प्रेमा और दोस्त फूलन के साथ शनिवार को गाँव से जाने की तैयारी में लग गए थे. उन्होंने सोचा कि एक बार शुक्रवार को चलने से पहले रमन से बात कर लेते हैं. उन्होंने प्रेमा से कहा " जरा मेरा फोन तो देना, रमन से बात कर लूँ. "

प्रेमा ने चुपचाप फोन उन्हें पकड़ा दिया. सिन्हा साहब ने भतीजे रमन को फोन पर कहा " हम कल सुबह यहाँ से चल कर रविवार को दिल्ली पहुँच रहें हैं. "

उधर से रमन बोला " अंकल, मैं आपको फोन करने ही वाला था. मेरा H1 वीसा आ गया है. अगले हफ्ते तीन साल के लिए अमेरिका जा रहा हूँ. यह वीसा तीन साल और एक्सटेंड हो सकता है. समझिये कि छः साल के लिए अमेरिका जा रहा हूँ. इसलिए फ्लैट को मैं लीज पर देकर जाऊँगा. आप जानते हैं कि अभी तो ई. एम. आई. देना होता है. मेरा एक दोस्त सपरिवार इस में रहेगा और ई. एम. आई. भरता रहेगा. सॉरी अंकल, आप इस फ्लैट में नहीं रह सकेंगे "

सिन्हा साहब बोले " कोई बात नहीं बेटे, हम कोई और इंतज़ाम देखते हैं ". पर उन्हें तो पैरों तले की जमीन खिसकती नज़र आने लगी थी. उनकी आँखें नम हो आयीं थीं. कुछ देर तक दोनों हाथों से सर पकड़ कर आँखें नीचे किये रहे. प्रेमा की नज़रों से उनका दुःख छुपा नहीं था.

प्रेमा ने उनसे पूछा " क्या हुआ ? "

फूलन भी पास ही खड़ा था, वह भी सकते में आ गया था. उनके अचानक दुःखी होने का कारण पूछने पर नम आँखों से सिन्हा साहब ने सारी बात बताई. फूलन ने तुरंत अपने बेटे पूरन से फोन पर बात कर सिन्हा साहब की समस्या बतायी.

सिन्हा साहब ने फूलन को कहा कि वह स्टेशन जाकर टिकट लौटा दे तो उसने कहा " इसकी कोई जरुरत नहीं है. आप गुड़गांव ना जा कर अपने दूसरे भतीजे के पास गाज़ियाबाद जा रहें हैं. मैंने पूरन से आपके सामने ही बात की है. वह बोल रहा था कि आज तक उसे जो भी मिला है वो आपके सहारे ही वर्ना वह भी गाँव में मेरी तरह मज़दूरी करता होता. आप निःसंकोच जब तक चाहें उसके साथ रह सकते हैं. "

इसी बीच पूरन ने अपने पिता को फोन कर सिन्हा साहब से बात कराने को कहा. सिन्हा साहब के " हेल्लो बेटा " कहते ही उधर से पूरन बोला " प्रणाम अंकल. बहुत सौभाग्य से आप जैसे अंकल मिलते हैं. आप ने सहारा न दिया होता तो क्या मैं आज यहाँ होता. यहाँ आपको किसी बात की तकलीफ नहीं होगी. मैं रविवार सुबह स्टेशन पर रहूंगा. अच्छा अब रखता हूँ, प्रणाम. "

सिन्हा साहब की आँखों से आँसूं की कुछ बूँदे गिर पड़ी थीं और उन्होंने कहा " अपनों ने तो मेरी ज़िन्दगी के सपनों को तोड़ ही दिया था पर यह पराया कहलाने वाला फूलन ने इन्हें टूटने से बचा लिया है. किसे अपना कहें किसे बेगाना. "

और पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार अगले दिन शनिवार को सिन्हा साहब, अपनी पत्नी प्रेमा और दोस्त फूलन के साथ दिल्ली के लिए रवाना हो गए.

***

शकुंतला सिन्हा

बोकारो, झारखण्ड

presently in USA

नोट - यह रचना पूर्णतः मौलिक है और इसे केवल आपके पास भेजी गयी है.

यह पूर्णतः काल्पनिक कहानी है और इसके किसी पात्र का भूत या वर्तमान से कोई सम्बन्ध नहीं है.

संपादक उचित समझें तो कुछ सुधार या बदलाव कर सकते हैं.

रचना की तिथि - 8. 10. 2017

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED