आँख की किरकिरी - 2 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँख की किरकिरी - 2

(2)

उसकी उम्र साफ-साफ कोई न बताता। सगे-संबंधी कहते, बारह-तेरह होगी। यानी चौदह-पन्द्रह होने की संभावना ही ज्यादा थी। लेकिन चूँकि दया पर चल रही थी इसलिए सहमे-से भाव ने उसके नव-यौवन के आरंभ को जब्त कर रखा था।

 महेंद्र ने पूछा - तुम्हारा नाम?

 अनुकूल बाबू ने उत्साह दिया - बता बेटी, अपना नाम बता!

 अपने अभ्यस्त आदेश-पालन के ढंग से झुक कर उसने कहा - जी, मेरा नाम आशालता है।

 आशा! महेंद्र को लगा, नाम बड़ा ही करुण और स्वर बड़ा कोमल है।

 दोनों मित्रों ने बाहर सड़क पर आ कर गाड़ी छोड़ दी। महेंद्र बोला - बिहारी, इस लड़की को तुम हर्गिज मत छोड़ो।

 बिहारी ने इसका कुछ साफ जवाब न दिया। बोला - इसे देख कर इसकी मौसी याद आ जाती है। ऐसी ही भली होगी शायद!

 महेंद्र ने कहा - जो बोझा तुम्हारे कंधे पर लाद दिया, अब वह शायद वैसा भारी नहीं लग रहा है।

 बिहारी ने कहा - नहीं, लगता है तो ढो लूँगा।

 महेंद्र बोला - इतनी तकलीफ उठाने की क्या जरूरत है? तुम्हें बोझा लग रहा हो तो मैं उठा लूँ।

 बिहारी ने गंभीर हो कर महेंद्र की तरफ ताका। बोला - सच? अब भी ठीक-ठीक बता दो! यदि तुम शादी कर लो तो चाची कहीं ज्यादा खुश होंगी- उन्हें हमेशा पास रखने का मौका मिलेगा।

 महेंद्र बोला - पागल हो तुम! यह होना होता तो कब का हो जाता।

 बिहारी ने कोई एतराज न किया। चला गया और महेंद्र भी यहाँ-वहाँ भटक कर घर पहुँच गया।

 माँ पूरियाँ निकाल रही थीं। चाची तब तक अपनी भानजी के पास से लौट कर नहीं आई थीं।

 महेंद्र अकेला सूनी छत पर गया और चटाई बिछा कर लेट गया। कलकत्ता की ऊँची अट्टालिकाओं के शिखरों पर शुक्ल सप्तमी का आधा चाँद टहल रहा था। माँ ने खाने के लिए बुलाया, तो महेंद्र ने अलसाई आवाज में कहा - छोड़ो, अब उठने को जी नहीं चाहता।

 माँ ने कहा - तो यहीं ले आऊँ?

 महेंद्र बोला - आज नहीं खाऊँगा। मैं खा कर आया हूँ।

 माँ ने पूछा - कहाँ खाने गया था?

 महेंद्र बोला - बाद में बताऊँगा।

 वे लौटने लगीं तो थोड़ा सोचते हुए महेंद्र ने कहा - माँ! खाना यहीं ले आओ।

 रात में महेंद्र ठीक से सो नहीं पाया। तड़के ही वह बिहारी के घर पहुँच गया। बोला - यार, मैंने बड़ी ध्यान से सोचा और देखा कि चाची यही चाहती है कि शादी मैं ही करूँ।

 बिहारी बोला - इसके लिए सोचने की जरूरत नहीं थी। यह बात तो वे खुद कई बार कह चुकी हैं।

 महेंद्र बोला - तभी तो कहता हूँ, मैंने आशा से विवाह न किया तो उन्हें दु:ख होगा।

 बिहारी बोला - हो सकता है!

 महेंद्र ने कहा, मेरा खयाल है, यह तो ज्यादती होगी।

 हाँ! बात तो ठीक है। बिहारी ने कहा - यह बात थोड़ी देर से आपकी समझ में आई। कल आ जातr तो अच्छा होता।

 महेंद्र - एक दिन बाद ही आया, तो क्या बुरा हो गया।

 विवाह की बात पर मन की लगाम को छोड़ना था कि महेंद्र के लिए धीरज रखना कठिन हो गया। उसके मन में आया- इस बारे में बात करने का तो कोई अर्थ नहीं है। शादी हो ही जानी चाहिए।

 उसने माँ से कहा - अच्छा माँ, मैं विवाह करने के लिए राजी हूँ।

 माँ मन-ही-मन बोलीं- समझ गई, उस दिन अचानक क्यों मँझली बहू अपनी भानजी को देखने चली गई। और क्यों महेंद्र बन-ठन कर घर से निकला।

 उनके अनुरोध की बार-बार उपेक्षा होती रही और अन्नपूर्णा की साजिश कारगर हो गई, इस बात से वह नाराज हो उठीं। कहा - अच्छा, मैं अच्छी-सी लड़की को देखती हूँ।

 आशा का जिक्र करते हुए महेंद्र ने कहा - लड़की तो मिल गई।

 राजलक्ष्मी बोली - उस लड़की से विवाह नहीं हो सकता, यह मैं कहे देती हूँ।

 महेंद्र ने बड़े संयत शब्दों में कहा - क्यों माँ, लड़की बुरी तो नहीं है।

 राजलक्ष्मी- उसके तीनों कुल में कोई नहीं। ऐसी लड़की से विवाह रच कर कुटुंब को सुख भी न मिल सकेगा।

 महेंद्र - कुटुंब को सुख मिले न मिले, लड़की मुझे खूब पसंद है। उससे शादी न हुई तो मैं दुखी हो जाऊँगा।

 लड़के की जिद से राजलक्ष्मी और सख्त हो गईं। वह अन्नपूर्णा से भिड़ गईं- एक अनाथ से विवाह करा कर तुम मेरे लड़के को फँसा रही हो। यह हरकत है।

 अन्नपूर्णा रो पड़ीं - उससे तो शादी की कोई बात ही नहीं हुई, उसने तुम्हें क्या कहा, इसकी मुझे जरा भी खबर नहीं।

 राजलक्ष्मी इसका रत्ती- भर यकीन न कर सकीं।

 अन्नपूर्णा ने बिहारी को बुलवाया और आँसू भर कर कहा - तय तो सब तुमसे हुआ था, फिर तुमने पासा क्यों पलट दिया? मैं कहे देती हूँ शादी तो तुम्हें ही करनी पड़ेगी। यह बेड़ा तुम न पार करोगे तो मुझे बड़ी शर्मिंदगी उठानी होगी। वैसे लड़की अच्छी है।

 बिहारी ने कहा - चाची, तुम्हारी बात मंजूर है। वह तुम्हारी भानजी है, फिर मेरे ना करने की कोई बात ही नहीं। लेकिन महेंद्र...

 अन्नपूर्णा बोलीं- नहीं-नहीं बेटे, महेंद्र से उसका विवाह किसी भी हालत में न होगा। यकीन मानो, तुमसे विवाह हो, तभी मैं ज्यादा निश्चिंत हो सकूँगी। महेंद्र से रिश्ता हो यह मैं चाहती भी नहीं।

 बिहारी बोला - तुम्हीं नहीं चाहतीं तो कोई बात नहीं।

 और वह राजलक्ष्मी के पास जा कर बोला - माँ, चाची की भानजी से मेरी शादी पक्की हो गई। सगे-संबंधियों में तो कोई महिला है नहीं, इसलिए मैं ही खबर देने आया हूँ।

 राजलक्ष्मी- अच्छा! बड़ी खुशी हुई बिहारी, सुन कर। लड़की बड़ी भली है। तेरे लायक। इसे हाथ से जाने मत देना!

 बिहारी - हाथ से बाहर होने का सवाल ही क्या! खुद महेंद्र भैया ने लड़की पसंद करके रिश्ता पक्का किया है।

 इन झंझट से महेंद्र और भी उत्तेजित हो गया। माँ और चाची से नाराज हो कर वह मामूली-से हॉस्टल में जा कर रहने लगा।

 राजलक्ष्मी रोती हुई अन्नपूर्णा के कमरे में पहुँचीं कहा - मँझली बहू, लगता है, उदास हो कर महेंद्र ने घर छोड़ दिया, उसे बचाओ!

 अन्नपूर्णा बोलीं- दीदी, धीरज रखो, दो दिन के बाद गुस्सा उतर जाएगा।

 राजलक्ष्मी बोलीं- तुम उसे जानती नहीं बहन, वह जो चाहता है, न मिले तो कुछ भी कर सकता है। जैसे भी हो, अपनी बहन की लड़की से...

 अन्नपूर्णा- भला यह कैसे होगा दीदी, बिहारी से बात लगभग पक्की हो चुकी।

 राजलक्ष्मी बोली - हो चुकी, तो टूटने में देर कितनी लगती है?

 और उन्होंने बिहारी को बुलवाया। कहा - तुम्हारे लिए मैं दूसरी लड़की ढूँढ़ देती हूँ- मगर इससे तुम्हें बाज आना पड़ेगा।

 बिहारी बोला - नहीं माँ, यह नहीं होगा। सब तय हो चुका है।

 राजलक्ष्मी फिर अन्नपूर्णा के पास गईं। बोलीं- मेरे सिर की कसम मँझली, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ... तुम्हीं बिहारी से कहो! तुम कहोगी तो बिगड़ी बन जाएगी।

 आखिर अन्नपूर्णा ने बिहारी से कहा - बेटा, तुमसे कुछ कहने का मुँह नहीं है, मगर लाचारी है क्या करूँ। आशा को तुम्हें सौंप कर ही मैं निश्चिंत होती, मगर क्या बताऊँ, सब तो तुम्हें पता है ही।

 बिहारी - समझ गया। तुम जो हुक्म करोगी, वही होगा। लेकिन फिर कभी किसी से विवाह करने का मुझसे आग्रह मत करना!

 बिहारी चला गया। अन्नपूर्णा की आँखें छलछला गईं। महेंद्र का अमंगल न हो, इस आशंका से उन्होंने आँखें पोंछ लीं। बार-बार दिल को दिलासा दिया- जो हुआ, अच्छा ही हुआ।

 और इस तरह राजलक्ष्मी-अन्नपूर्णा-महेंद्र में किल-किल चलते-चलते आखिर विवाह का दिन आया। रोशनी हँसती हुई जली, शहनाई उतनी ही मधुर बजी जितनी वह बजा करती है। यानी उसके दिल के साथ कोई न था।

 सज-सँवर कर लज्जित और मुग्ध-मन आशा अपनी नई दुनिया में पहली बार आई। उसके कंपित कोमल हृदय को पता ही न चला कि उसके इस बसेरे में कहीं काँटा है। बल्कि यह सोच कर भरोसे और आनंद से उसके सारे ही संदेह जाते रहे कि इस दुनिया में एकमात्र माँ-जैसी अपनी मौसी के पास जा रही है।

 विवाह के बाद राजलक्ष्मी ने कहा - मैं कहती हूँ, अभी कुछ दिन बहू अपने बड़े चाचा के घर ही रहे।

 महेंद्र ने पूछा - ऐसा क्यों, माँ?

 माँ ने कहा - तुम्हारा इम्तहान है। पढ़ाई-लिखाई में रुकावट पड़ सकती है।

 महेंद्र बोला - आखिर मैं कोई नन्हा-नादान हूँ! अपने भले-बुरे की समझ नहीं मुझे?

 राजलक्ष्मी- जो हो, साल-भर की ही तो बात है।

 महेंद्र ने कहा - इसके माँ-बाप रहे होते, तो मुझे कोई एतराज न होता लेकिन चाचा के यहाँ इसे मैं नहीं छोड़ सकता।

 राजलक्ष्मी (अपने आप)- बाप रे आप ही मालिक, सास कोई नहीं! कल शादी और आज ही इतनी हमदर्दी! आखिर हमारी भी तो शादी हुई थी। मगर तब ऐसी बेहयाई न थी।

 महेंद्र ने दृढ़ता से कहा - तुम बिलकुल मत सोचो, माँ! इम्तहान में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

 आखिर राजलक्ष्मी असीम उत्साह से बहू को गृहस्थी के काम-काज सिखाने में जुट गई। भंडार, रसोई और पूजा-घर में आशा के दिन कटने लगे, रात को अपने साथ सुला कर वह उसके आत्मीय बिछोह की कमी को पूरा करने लगीं।

 काफी सोच-समझ कर अन्नपूर्णा आशा से दूर ही रहा करती। कोई अभिभावक जब खुद सारी ईख का रस चूसने लगता है, तब निराश बच्चे की रंजिश कम नहीं होती। महेंद्र की हालत भी वैसी ही हो गई। उसकी आँखों के सामने ही नव-युवती वधू का सारा मीठा रस गिरस्ती के कामों में निचुड़ता रहे, यह भला कैसे सहा जा सकता है।

 अन्नपूर्णा जानती थी कि राजलक्ष्मी ज्यादती कर रही हैx। फिर भी उन्होंने कहा - क्यों बेटे, बहू को गृहस्थी के धंधे सिखाए जा रहे हैं अच्छा ही तो है। आजकल की लड़कियों की तरह उपन्यास पढ़ना, कार्पेट बुनना और सिर्फ बाबू बने रहना क्या अच्छा है?

 महेंद्र उत्तेजित हो कर बोला - आजकल की लड़कियाँ आजकल की लड़कियों की तरह ही रहेंगी। वह चाहे भली हों, चाहे बुरी। मेरी स्त्री अगर मेरी ही तरह उपन्यास पढ़ कर रस ले सके तो इसमें क्या बुरी बात है। यह न तो परिहास की बात है न पछतावे की।

 अन्नपूर्णा के कमरे में बेटे की आवाज सुन कर राजलक्ष्मी सब छोड़ कर आ गईं। रूखे स्वर में बोलीं- क्या मनसूबे बनाए जा रहे हैं?

 महेंद्र ने वैसे ही उत्तेजित भाव से कहा, मनसूबे क्या होंगे, बहू को घर में नौकरानी की तरह काम मैं न करने दूँगा।

 माँ ने अपनी तीखी जलन को दबा कर बड़े ही तीखे धीर भाव से कहा - आखिर उससे क्या कराना होगा?

 महेंद्र बोला - मैं उसे लिखना-पढ़ना सिखाऊँगा।

 राजलक्ष्मी कुछ न बोली। तेजी से कदम बढ़ाती हुई चली गईं और बहू का हाथ पकड़ कर खींचती हुई महेंद्र के पास ला कर बोली - यह रही तुम्हारी बहू, सिखाओ लिखना-पढ़ना!

 और अन्नपूर्णा की तरफ पलट कर गले में अँचल डाल कर कहा - माफ करो मँझली बहू, माफ करो! तुम्हारी भानजी की मर्यादा मेरी समझ में न आई। मैंने इसके कोमल हाथों में हल्दी लगाई है। अब तुम इसे धो-पोंछ कर परी बना कर रखो- महेंद्र को सौंपो- ये आराम से लिखना-पढ़ना सीखे, नौकरानी का काम मैं करूँगी।

 राजलक्ष्मी अपने कमरे में चली गईं और दरवाजा जोर से बंद कर लिया।

 क्षोभ से अन्नपूर्णा जमीन पर बैठ गईं। अचानक यह क्या हो गया, आशा के पल्ले नहीं पड़ा कि माजरा क्या है? महेंद्र नाराज हो गया। मन-ही-मन बोला - जो हुआ सो हुआ, अब से अपनी स्त्री का भार अपने हाथों में लेना पड़ेगा, नहीं तो जुल्म होगा।

 मन और कर्तव्य बोध दोनों मिल जाएँ तो अच्छा लगता है। पत्नी की उन्नति के चक्कर में महेंद्र रम गया। न तो उसे काम का ध्यान रहा न लोगों की परवाह।

 घमंडी राजलक्ष्मी ने अपने आप कहा - अब अगर महेंद्र बीवी को ले कर मेरे दरवाजे पर सिर पीट कर जान दे दे तो भी मैं मुड़ कर नहीं देखूँगी। देखती हूँ, माँ को छोड़ कर बीवी के साथ कैसे रहेगा?

 दिन बीतने लगे। राजलक्ष्मी के दरवाजे पर किसी अनुतप्त के पाँवों की आहट न सुनाई पड़ी।

 राजलक्ष्मी ने अपने मन में तय किया- अच्छा, माफी माँगने आएगा तो माफ कर दूँगी, नहीं तो कहाँ जाएगा। बहुत दुखी हो जाएगा बेचारा। लेकिन माफी कोई माँगे तभी तो आप माफ कर सकते हैं। कोई माफी के लिए दहलीज पर आया ही नहीं। राजलक्ष्मी ने सोचा कि मैं ही जा कर उसे क्षमा कर आऊँगी। लड़का रूठ गया है तो क्या माँ भी रूठी रहे!

 तिमंजिले पर एक कोने के छोटे-से कमरे में महेंद्र सोया करता था, वही उसकी पढ़ने की जगह भी थी। इधर कई दिनों से माँ ने उसके कपड़े सहेजने, बिस्तर बिछाने, झाड़ने-बुहारने में कोई दिलचस्पी नहीं ली। मातृ-स्नेह के जिन कर्तव्यों की वह आदी थीं, बहुत दिनों तक उन कामों को न करने से वही दुखी हो गईं। उस दिन दोपहर को एकाएक मन में आया, अभी महेंद्र कॉलेज गया होगा, इसी बीच उसका कमरा ठीक कर आऊँ, लौट कर वह समझ जाएगा कि कमरे से माँ का हाथ फिरा है।