आँख की किरकिरी - 3 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

आँख की किरकिरी - 3

(3)

सीढ़ियों से राजलक्ष्मी ऊपर गईं। महेंद्र के कमरे में दरवाजे का एक पल्ला खुला था। सामने जाते ही मानो काँटा चुभ गया। चौंक कर ठिठक गई। देखा, फर्श पर महेंद्र लेटा है और दरवाजे की तरफ पीठ किए बहू धीरे-धीरे उसके पाँव सहला रही है। दोपहर की तेज धूप में खुले कमरे में दांपत्य लीला देख कर राजलक्ष्मी शर्म और धिक्कार से सिमट गईं और चुपचाप नीचे उतर आईं।

 कुछ दिन सूखा पड़ने से नाज के जो पौधे सूख कर पीले पड़ जाते हैं, बारिश आने पर वे तुरंत बढ़ जाते हैं। आशा के साथ भी ऐसा ही हुआ। जहाँ उसका रक्त संबंध था, वहाँ वह कभी भी आत्मीयता का दावा न कर सकी, आज पराए घर में जब उसे बिन माँगे हक मिला, तो उसने इसे लेने में देर न की।

 उस दिन दोपहर में राजलक्ष्मी नीचे उतर आईं। उन्होंने सोचा अन्नपूर्णा को जगाया जाए। बोलीं- अरी ओ मँझली, जा कर देख जरा, तुम्हारी नवाब की बेटी नवाब के घर से कैसा पाठ पढ़ कर आई है! घर के बड़े-बूढ़े आज होते तो।

 अन्नपूर्णा ने कातर हो कर कहा - दीदी, अपनी बहू को तुम शिक्षा दो, या हुकूमत चलाओ, मुझे क्या? मुझसे क्यों कह रही हो।

 राजलक्ष्मी धनुष की तनी डोरी-सी टंकार उठीं- हूँ, मेरी बहू! जब तक तुम मंत्री हो, वह मुझे कैसे मान सकती है!

 यह सुन कर अन्नपूर्णा पैर पटकती हुई महेंद्र के कमरे में पहुँच गईं। आशा से बोलीं- तू इस तरह से मेरा सिर नीचा करेगी री, मुँहजली! शर्म नहीं, हया नहीं, समय-असमय का खयाल नहीं, बूढ़ी सास पर गृहस्थी का सारा बोझ डाल कर तुम यहाँ आराम फरमा रही हो? मेरा ही नसीब जला कि मैं तुझे इस घर में ले आई।

 कहते-कहते उनकी आँखों से आँसू बहने लगे और आशा भी सिर झुकाए आँचल के छोर को नाखून से नोचती हुई चुपचाप रोने लगी।

 महेंद्र ने कहा - यह देखो, इसके लिए मैं स्लेट, बही, किताब सब खरीद लाया हूँ। इसे मैं लिखना-पढ़ना सिखाऊँगा, चाहे लोग मेरी निंदा करें।

 अन्नपूर्णा बाली - ठीक है, लेकिन यह क्या तमाम दिन? शाम के बाद घंटा-आधा घंटा पढ़ लिया बस! घंटा-आधा घंटा पढ़ना ही तो काफी होगा।

 महेंद्र - इतना आसान नहीं है चाची, पढ़ने-लिखने में समय लगता है।

 अन्नपूर्णा खीझ कर चली गईं। आशा भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ी। महेंद्र दरवाजा रोक कर खड़ा हो गया - उसने आशा की गीली आँखों की विनती न मानी। वैसे आशा को नहीं लगता कि लिखना-पढ़ना जरूरी भी है, फिर भी वह अपने पति की खातिर किताबों पर एकबारगी झुक कर सिर हिलाती हुई बताई चीजें याद करती रहती। कमरे के कोने में छोटी-सी मेज पर डॉक्टरी की किताब खोले मास्टर साहब कुर्सी पर बैठे होते, बीच-बीच में कनखियों से छात्रा को देखते रहते। अचानक अपनी किताब बंद करके आवाज दी- चुन्नी! यह आशा का ही घरेलू नाम था।

 चौंक कर आशा ने उधर देखा। वह बोला, जरा लाओ तो किताब देखूँ, कहाँ पढ़ रही हो? आशा को लगा जाँच होगी और उसमें पास होने की उम्मीद कम ही थी। आगे-आगे पाठ और पीछे सपाट, कुछ यही हाल था। एक हाथ से उसकी कमर को कस कर लपेट कर दूसरे हाथ से किताब पकड़ कर पूछा - आज कितना पढ़ गई- देखूँ तो।

 जितनी पंक्तियों पर वह सरसरी निगाह फेर गई थी, दिखा दिया। महेंद्र ने अचरज से कहा - ओह, इतना पढ़ गई! मैंने कितना पढ़ा, बताऊँ?

 और अपनी किताब के किसी अध्याय का शीर्षक-भर दिखा दिया। अचरज से आँखें बड़ी-बड़ी करके आशा ने पूछा - तो इतनी देर से कर क्या रहे थे?

 उसकी ठोढ़ी पकड़ कर महेंद्र ने कहा - मैं किसी के बारे में सोच रहा था और जिसके बारे में सोच रहा था, वह दीमक का वर्णन पढ़ने में मशगूल थी!

 इस बे-वजह शिकायत का सटीक जवाब आशा दे सकती थी, लेकिन प्रेम की प्रतियोगिता में झूठी हार मान लेनी पड़ती है।

 ऐसे ही एक रोज महेंद्र मौजूद नहीं था। मौका पा कर आशा पढ़ने बैठ गई कि अचानक कहीं से आ कर उसने आँखें मींच लीं और किताब छीन कर कहने लगा, बे-रहम, मैं नहीं होता हूँ तो तुम मेरे बारे में सोचती तक नहीं। किताबों में डूब जाती हो!

 आशा ने कहा - तुम मुझे गँवार बनाए रखोगे?

 महेंद्र ने कहा - तुम्हारी कृपा से अपनी ही विद्या कौन आगे बढ़ रही है! बात आशा को लग गई। फौरन चल देने का उपक्रम करती बोली - मैंने तुम्हारी पढ़ाई में ऐसी कौन-सी रुकावट डाली है?

 उसका हाथ थाम कर महेंद्र ने कहा - यह तुम नहीं समझोगी। मुझे भूल कर तुम जितनी आसानी से पढ़-लिख लेती हो, तुम्हें भूल कर उतनी आसानी से मैं नहीं पढ़-लिख पाता।

 शिक्षक ही जब शिक्षा की सबसे बड़ी बाधा हो तो छात्रा की क्या मजाल कि विद्या के वन में राह बना कर चल सके। कभी-कभी मौसी की झिड़की याद आती और चित्त विचलित हो जाता। सास को देख कर शर्म से गड़ जाती लेकिन सास उसे किसी काम को न कहती। अपने मन से उनकी मदद करना चाहती तो वह पढ़ाई के हर्जे की बात कह कर वापस भेज देती।

 आखिर अन्नपूर्णा ने आशा से कहा - तेरी जो पढ़ाई चल रही है, वह तो देख ही रही हूँ, महेंद्र को क्या डॉक्टरी का इम्तहान न देने दोगी?

 यह सुन कर आशा ने अपने जी को कड़ा किया। महेंद्र से कहा - तुम्हारे इम्तहान की तैयारी नहीं हो पा रही है। आज से मैं नीचे मौसी के कमरे में रहा करूँगी।

 इस उम्र में ऐसा कठोर संन्यास-व्रत! सोने के कमरे से एकबारगी मौसी के कमरे में निर्वासन! ऐसी कठोर प्रतिज्ञा करते हुए उसकी आँखों के कोनों में आँसू झलक पड़े, बेबस होठ काँप उठे और गला रुँध गया। महेंद्र बोला - बेहतर है, चाची के कमरे में ही चलो! मगर तब उन्हें हमारे कमरे में ऊपर आना पड़ेगा।

 ऐसा एक गंभीर प्रस्ताव मजाक बन गया, आशा इससे नाराज हुई। महेंद्र ने कहा - इससे तो अच्छा है कि तुम रात-दिन मुझे आँखों-आँखों में रखो और निगरानी करो! फिर देखो कि मेरी इम्तहान की पढ़ाई चलती है कि नहीं।

 बड़ी आसानी से आखिर यही बात तै हो गई। यह निगाहों के पहरे वाला काम कैसा चलता था, विस्तार से बताने की जरूरत नहीं। इतना ही कह देना काफी होगा कि उस साल महेंद्र इम्तहान में फेल हो गया और चारुपाठ के लम्बे वर्णन के बावजूद पुरुभुज के बारे में आशा की अनिभिज्ञता दूर न हो सकी।

 उनका यह अनूठा पठन-पाठन एकबारगी निर्विघ्न चलता रहा हो, ऐसा नहीं। बीच-बीच में बिहारी आकर बड़ी गड़बड़ मचाता। महेन्द्र भैया की पुकार मचाकर वह आसमान सिर पर उठा लेता। महेंद्र को उसके सोने के कमरे की माँद में खींचकर बाहर किये बिना उसे चैन न पड़ता। महेंद्र की वह बड़ी लिहाड़ी लेता कि वह अपनी पढ़ाई में ढिलाई कर रहा है। आशा से कहता, भाभी, निगल जाने से हजम नहीं होता, चबा-चबाकर खाना चाहिए। अभी तो सारा भोजन एक ही कौर में निगल रही हो, बाद में हाजमे की गोली ढूँढ़े नहीं मिलेगी, हाँ।

 महेन्द्र कहता - चुन्नी, इसकी सुनो ही मत। इसे हमारे सुख से रश्क हो रहा है।

 बिहारी कहता - सुख जब तुम्हारी मुट्ठी में है, तो इस तरह से भागो कि औरों को रश्क न हो।

 महेंद्र जवाब देता - औरों के रश्क से सुख जो होता है! चुन्नी जरा-सी चूक से मैं तुम्हें इस गधे के हाथों सौंप रहा था।

 बिहारीलाल आँखों में कहता - चुप!

 इन बातों से आशा बिहारी पर मन-ही-मन कुढ़ जाती। कभी बिहारी उसकी शादी की बात चली थी, इसी से वह बिहारी से खिंची-खिंची रहती - यह बिहारी समझता था और महेंद्र इसी बात का मजाक किया करता।

 राजलक्ष्मी बिहारी से दुखड़ा रोया करतीं। बिहारी कहता, माँ, कीड़े जब घर बनाते हैं, तो उतना खतरा नहीं रहता, लेकिन जब उसे काटकर वे उड़ जाते हैं, तो उन्हें लौटाना मुश्किल है। किसे यह पता था कि वह तुम्हारे बन्धन को इस तरह तोड़ फेंकेगा।

 महेंद्र के फेल होने की खबर से राजलक्ष्मी धधक उठीं, जैसे गर्मियों की आकस्मिक आग लहक उठती है। लेकिन उनकी जब जलन और चिनगी भेगनी पड़ी अन्नपूर्णा को। उनका तो सोना-खाना हराम हो गया।

 एक दिन बारिश हो रही थी। बादल घिरे थे। ऐसे में बदन पर एक सुवासित महीन चादर और जुही की माला गले में डाले महेंद्र मगन-मन अपने सोने के कमरे में पहुँचा। अचानक आशा को चौंका देने के विचार से- जूतों की आवाज न होने दी। झाँक कर देखा, पूरब की खुली खिड़की से पानी के छींटे लिए हवा के तीखे झोंके कमरे में आ रहे हैं, दीया बुझ गया है और आशा नीचे बिछावन पर पड़ी रो रही है।

 महेंद्र जल्दी से उसके करीब गया और पूछा - क्या बात है? वह दूने आवेग से रोने लगी। बड़ी देर के बाद महेंद्र को जवाब मिला कि मौसी से और बर्दाश्त न हो सका। वह अपने फुफेरे भाई के यहाँ चली गईं।

 महेंद्र के मन में आया, गईं तो गईं, लेकिन बदली की ऐसी सुहानी साँझ को खराब कर गईं।

 अंत में सारा गुस्सा माँ पर आया। वही तो इन सारे अनर्थों की जड़ है।

 महेंद्र ने कहा - हम भी वहीं चले जाएँगे, जहाँ चाची गई हैं। देखते हैं, माँ किससे झगड़ती है?

 और उसने नाहक ही शोर-गुल के साथ असबाब बाँधने के लिए कुली को बुलाना शुरू कर दिया।

 राजलक्ष्मी समझ गईं। धीरे-धीरे महेंद्र के पास आईं। शांत स्वर में पूछा - कहाँ जा रहा है?

 महेंद्र ने पहले कोई जवाब ही न दिया। दो-तीन बार पूछे जाने पर बताया- चाची के पास।

 राजलक्ष्मीं बोली - अरे तो मैं ही उन्हें यहाँ बुला देती हूँ।

 राजलक्ष्मी उसी समय पालकी पर सवार हो कर अन्नपूर्णा के घर गईं। गले में कपड़ा डाल कर हाथ जोड़ते हुए कहा - खुश हो मँझली बहू, मुझे माफ करो!

 अन्नपूर्णा ने जल्दी-जल्दी उनके पैरों की धूल ली। कातर स्वर में कहा - दीदी, मुझे दोषी क्यों बना रहीं? तुम जैसा हुक्म दोगी, वैसा ही करूँगी।

 राजलक्ष्मी ने कहा - तुम चली आई हो, तो मेरे बेटा-पतोहू भी घर छोड़ कर यहीं आ रहे हैं।

 कहते-कहते वह रो पड़ी।

 जिठानी-देवरानी दोनों घर लौट आईं। तब भी वर्षा हो रही थी। अन्नपूर्णा जब महेंद्र के कमरे में पहुँचीं, आशा का रोना थम चुका था। महेंद्र बातों से उसे हँसाने की कोशिश कर रहा था। आसार थे कि बदलियाँ यूँ ही नहीं गुजर जाएँगी।

 अन्नपूर्णा ने कहा - चुन्नी, तू मुझे घर में भी न रहने देगी और कहीं जाऊँ तो भी पीछे लग जाएगी। क्या मेरे लिए कहीं चैन नहीं!

 आशा चौंक पड़ी।

 महेंद्र बड़ा ही खीझ कर बोला - क्यों चाची, चुन्नी ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?

 अन्नपूर्णा ने कहा - बहू की ऐसी बेहयाई बर्दाश्त न हो सकी तभी यहाँ से चली गई थी। फिर अपनी सास को रुला कर मुँहजली ने मुझे क्यों बुलवाया?

 जीवन के इस अध्याय में माँ-चाची ऐसी विघ्नकारिणी होती हैं, महेंद्र को इसका पता न था।

 दूसरे दिन राजलक्ष्मी ने बिहारी को बुलवा कर कहा - बेटा बिहारी, तुम एक बार महेंद्र से पूछ कर देखो, जमाने से गाँव नहीं गए। मैं एक बार बारासात जाना चाहती हूँ।

 बिहारी ने कहा - जमाने से नहीं गईं तो क्या हुआ? खैर, मैं पूछ कर देखता हूँ। मगर वह राजी भी होगा, ऐसा नहीं लगता।

 महेंद्र ने कहा - जन्म-भूमि को देखने की इच्छा जरूर होती है। लेकिन माँ का वहाँ ज्यादा दिन न रहना ही अच्छा होगा। बरसात के मौसम में वह जगह अच्छी नहीं।

 महेंद्र बड़ी आसानी से राजी हो गया, इससे बिहारी कुढ़ गया। बोला - माँ अकेली जाएँगी, वहाँ उनकी देख-भाल कौन करेगा?

 भाभी को भी साथ भेज दो न?

 कह कर बिहारी हँसा।

 बिहारी के इस गहरे व्यंग्य से कुंठित हो कर महेंद्र ने कहा - मेरे लिए यह कोई मुश्किल है क्या?

 मगर बात इससे आगे न बढ़ी।

 बिहारी इसी तरह आशा के मन को विमुख कर दिया करता और यह जान कर कि आशा इससे कुढ़ती है, उसे मजा आता।

 कहना बेकार होगा, राजलक्ष्मी जन्म-भूमि के दर्शन के लिए उतनी बेताब न थी। गर्मी के दिनों में जब नदी का पानी सूख जाता है, तो मल्लाह कदम-कदम पर लग्गी से थाह लेता है कि कहाँ कितना पानी है। राजलक्ष्मी ने सोचा न था कि उनके बरसात जाने का प्रस्ताव इतनी जल्दी मंजूर हो जाएगा। सोचा, अन्नपूर्णा और मेरे दोनों के घर से बाहर जाने में फर्क है।