आँख की किरकिरी - 9 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँख की किरकिरी - 9

(9)

तपी दोपहरी की हवा पत्तों में मर्मराहट ला कर बहती रही, तालाब के बाँध पर जामुन की डालों पर कोयल रह-रह कर कूकती रही। विनोदिनी अपने बचपन के किस्से सुनाने लगी - माँ-बाप की बात, छुटपन की सखी-सहेलियों की चर्चा। अचानक उसके माथे पर का पल्ला खिसक पड़ा। विनोदिनी की आँखों में कौतुक का जो तीखा कटाक्ष देख पैनी निगाहों वाले बिहारी के मन में आज तक तरह-तरह की शंकाएँ उठती रही थीं, वह श्याम चमक जब एक शांत सजल रेखा से मंद पड़ गई, तो बिहारी ने मानो और ही नारी को देखा। लजीली सती की नाईं विनोदिनी एकांत भक्ति से पति की सेवा कर रही है, मंगलमयी माता के समान संतान को अपनी गोद में लिए हुए है - पहले यह छवि क्षण के लिए भी कभी बिहारी के मन में न आई - आज मानो जरा देर के लिए रंगमंच का परदा उठ गया और अंदर का एक मंगल दृश्य उसे दिखाई दिया। बिहारी ने सोचा, विनोदिनी बाहर से विलासिनी युवती तो है, पर उसके अंतर्मन में पूजा-निरत एक नारी तपस्या में लीन है। एक लंबी साँस तोड़ कर बिहारी ने मन-ही-मन कहा - सही-सही अपने को मनुष्य आप भी नहीं जानता - अंतर्यामी ही जानते हैं - परिस्थितिवश जो रूप बाहर बन जाता है, दुनिया उसी को सच समझती है। बिहारी ने बातों के सिलसिले को टूटने न दिया, प्रश्नों से उसे जगाए रहा।

 आज सुबह ही जगने के जुल्म से थके हुए महेंद्र की नींद पाँच बजे खुली। आजिजी से बोला - अब चल देना चाहिए।

 विनोदिनी ने कहा - थोड़ी देर और रुकें तो?

 सामान सहेजने में अँधेरा हो आया। नौकरों ने इतने में खबर दी, किराए की गाड़ी न जाने कहाँ गायब है। ढूँढ़े न मिली। गाड़ी बगीचे के बाहर खड़ी थी। दो गोरे जबर्दस्ती उसे ले कर स्टेशन चल दिए।

 दूसरी गाड़ी ठीक करने के लिए नौकर भेजा गया। कुढ़ा हुआ महेंद्र बार-बार मन में कहने लगा - आज का दिन मुफ्त में बर्बाद हो गया। ऐसी नौबत आ गई कि अपनी अधीरता वह छिपा न सका।

 अँजोरिया का चाँद धीरे-धीरे झुरमुटों की ओर से खुले आकाश में आया। सुनसान अकंप बगीचा छाँह-जोत से झिलमिला उठा। इस माया-मंडित धरती पर आज विनोदिनी ने अपने को न जाने किस रूप में अनुभव किया। उसने जब तरु-वीथिका में आशा को जकड़ लिया, तो उसमें प्रणय की बनावट जरा भी न थी। आशा ने देखा, विनोदिनी की आँखों से आँसू बह रहे हैं। आशा ने पीडि़त होकर पूछा - भई आँख की किरकिरी, तुम रो क्यों रही हो?

 विनोदिनी बोली - कुछ नहीं बहन, सब ठीक है। आज का दिन मुझे बड़ा भला लगा।

 आशा ने पूछा - किस बात से इतना भला लगा?

 विनोदिनी बोली - मुझे लगता है, मानो मैं मर गई हूँ, मानो परलोक में आई हूँ - यहाँ मानो मुझे मेरा सर्वस्व मिल सकता है।

 अचरज में पड़ी आशा यह सब-कुछ न समझ सकी। मौत की बात सुनकर दुखी होकर कहा - छि:, ऐसा नहीं कहते, बहन!

 गाड़ी मिली। बिहारी फिर कोच-बक्स पर जा बैठा। विनोदिनी चुपचाप ही बाहर की तरफ देखती रही - चाँदनी में अवाक पेड़ों की पाँत दौड़ते हुए घने छाया-प्रवाह की तरह उसकी आँखों से हो कर गुजरने लगी। आशा गाड़ी के एक कोने में सो गई और महेंद्र सारी राह उदास बैठा रहा।

 पिकनिक के दिन जो वाकया गुजरा उसके बाद फिर महेंद्र में विनोदिनी को अपनाने की चाहत बढ़ने लगी। लेकिन दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को फ्लू हो गया। बीमारी कुछ खास न थी, फिर भी उन्हें तकलीफ और कमजोरी काफी थी। विनोदिनी रात-दिन उनकी सेवा में लगी रहती।

 महेंद्र बोला - माँ के सेवा-जतन में यों दिन-रात एक करोगी, तो तुम्हीं बीमार पड़ जाओगी।

 बिहारी ने कहा - आप नाहक परेशान हैं, भैया! ये सेवा कर रही है, करने दो। दूसरा कोई ऐसी सेवा थोड़े ही करेगा।

 महेंद्र बार-बार मरीज के कमरे में आने-जाने लगा। एक आदमी काम कुछ नहीं करता, लेकिन हर घड़ी पीछे लगा फिरता है, यह बात विनोदिनी को अच्छी न लगी। तंग आ कर उसने दो-तीन बार कहा - महेंद्र बाबू, यहाँ बैठे रह कर आप क्या कर रहे हैं? जाइए, नाहक क्यों कॉलेज से गैर-हाजिर होते हैं?

 महेंद्र उसके पीछे लगा डोलता है, इसका विनोदिनी को नाज था। खुशी थी। लेकिन फिर भी ऐसा क्या, बीमार माँ के बिस्तर के पास भी क्षुब्ध बैठे रहना - उसका धीरज टूट जाता, घृणा होती। अपने ऊपर किसी काम की जिम्मेदारी रहने पर वह और किसी बात का खयाल नहीं करती। जब तक खिलाना-पिलाना, रोगी की सेवा, घर के काम-धंधे की जरूरत रहती - किसी ने उसे कभी ढीला-ढाला नहीं देखा और खुद भी काम-काज के समय निकम्मापन पसंद नहीं करती।

 कभी-कभी जरा देर को, माँ का हाल पूछने के लिए बिहारी आ जाया करता। कमरे में कदम रखते ही वह समझ जाता कि काहे की जरूरत है, कहाँ कौन-सी चीज की कमी है, उसकी आँखें तुरंत ताड़ जातीं और लमहे भर में सब कुछ ठीक करके वह कमरे से निकल जाता। विनोदिनी समझ रही थी कि मेरी सेवा को बिहारी श्रद्धा की नजर से देखता है। लिहाजा बिहारी के आने से उसे जैसे विशेष पुरस्कार मिलता था।

 महेंद्र नियम से कॉलेज जाने लगा। एक तो उसका मिजाज ही बड़ा कड़वा हो गया, उस पर यह कैसा परिवर्तन! समय पर खाना तैयार नहीं होता, साइस जाने कहाँ गायब रहता, मोजे का छेद धीरे-धीरे बड़ा होता जाता। ऐसी गड़बड़ में उसे पहले - जैसा आनंद नहीं आता। जब जिस चीज की जरूरत हो, उसी क्षण उसे पा जाने से आराम कैसा होता है, इस बारे में वह कई दिन पहले ही स्वाद चख चुका था। अब उसकी कमी से आशा की जहालत में मजा खत्म हो गया - चुन्नी, मैंने बाहर तुमसे कहा कि मेरे नहाने के पहले ही कुरते में बटन लगा रखना, अचकन, पतलून ठीक करके रखना - मगर यह कभी नहीं होता। नहा कर बटन लगाने और कपड़े ढूँढ़ने में ही मेरा घंटा भर निकल जाता है।

 शर्मसार हो कर आशा कहती - मैंने बैरे से कह दिया था।

 ...बैरे से कह दिया था! खुद कर लेतीं तो कौन-सा गुनाह हो जाता! कभी जो तुमसे कोई काम हो!

 आशा पर मानो गाज गिरी। ऐसी झिड़की उसे कभी नहीं सुननी पड़ी। उसकी जबान पर या मन में यह जवाब न आया कि मेरी इस जहालत के तुम्हीं तो जिम्मेदार हो। उसे तो मालूम ही न था गृह-कार्य की कुशलता अभ्यास के अनुभव से आती है। वह सोचा करती थी कि अपनी अयोग्यता और निर्बुद्धिता के कारण ही मैं कोई भी काम ठीक से नहीं कर पाती। जब-जब महेंद्र ने विनोदिनी की उपमा दे कर आशा को धिक्कारा है, उसने उसे विनम्रता से स्वीकारा है।

 कभी-कभी आशा बीमार सास के आस-पास चक्कर काटती, कभी-कभी शरमायी-सी दरवाजे के पास खड़ी हो जाती। उसकी इच्छा होती कि अपने आपको वह गृहस्थी के उपयुक्त बनाए, कुछ काम करके दिखाए, परंतु उससे कोई भी कैसी मनोवेदना उसमें भीतर-ही-भीतर बढ़ रही थी, लेकिन अपनी अस्पष्ट व्यथा और अजानी आशंका को वह साफ समझ नहीं पाती। वह खूब महसूस कर रही थी कि उसे चतुर्दिक का सब कुछ बर्बाद हो रहा है। लेकिन यह सब कैसे बना था और नष्ट ही कैसे हो रहा है और कैसे इसका प्रतिकार हो - वह नहीं जानती। रह-रह कर यही कहने को जी चाहता कि मैं अयोग्य हूँ, - मेरी मूढ़ता की तुलना नहीं हो सकती।

 अब तक तो पति-पत्नी दोनों घर के एक कोने में दुबके कभी बोल-बतिया कर कभी यों ही चुपचाप मजे में दिन बिताते रहे। मगर जब विनोदिनी न होती तो आशा के साथ अकेले बैठ कर महेंद्र बात ही न कर पाता।

 महेंद्र ने बैरे से पूछा - किसकी चिट्ठी है?

 बिहारी बाबू की।

 किसने दी है?

 बहूजी (विनोदिनी) ने।

 देखूँ जरा। चिट्ठी ले ली। जी में आया, फाड़ कर उसे पढ़े। उलट-पलट कर देखा, फिर बैरे की तरफ फेंक दिया।

 बरामदे में कुछ देर चहलकदमी करके कमरे में आ कर महेंद्र ने देखा, कमरे की दीवार पर टँगी एक तस्वीर की डोरी टूटने वाली है और इसकी वजह से तस्वीर टेढ़ी हो गई है। आशा को डाँटते हुए महेंद्र ने कहा - तुम कुछ भी नहीं देखतीं। इस तरह सारी चीजें बर्बाद हो रही हैं।

 दमदम के फूलों का जो गुच्छा बना कर विनोदिनी ने पीतल की फूलदानी में सजाया था, वह आज भी वहीं सूखा पड़ा है। महेंद्र कभी इन बातों पर गौर नहीं करता था, आज उसकी निगाह उस पर पड़ी। बोला - जब तक विनोदिनी आ कर फेंक न दे, यह पड़ा ही रहेगा।

 उसने फूल-समेत फूलदानी उठा कर बाहर फेंक दी। ठन-ठन बजती वह सीढ़ी पर लुढ़कती जा पड़ी। आशा मेरे मन के लायक क्यों नहीं रहती, क्यों वह मेरे मन-मुताबिक काम नहीं करती?

 महेंद्र बाहर निकला। जा कर फूलदानी उठा लाया। कोने में एक मेज पड़ी सीढ़ी पर बैठ कर उसी टेबल पर कोहनी टिकाए हाथों पर सिर रखे सोया रहा।

 अँधेरा होने पर कमरे में बत्ती आई, लेकिन आशा नहीं। महेंद्र छत पर जोर-जोर से चहल-कदमी करने लगा। रात के नौ बजे, महेंद्र के सूने कमरे में आधी रात का सन्नाटा छा गया - आशा फिर भी न आई। महेंद्र ने बुलावा भेजा। सकुचाई-सी आ कर वह छत पर दरवाजे के पास ठिठक गई। महेंद्र पास गया - उसे छाती से लगा लिया। पति के कलेजे से लग कर वह जोरों से रो पड़ी - अपने को जब्त न कर सकी, आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। कलेजे से लगा कर महेंद्र ने उसके बालों को चूमा - मौन आसमान के सितारे चुपचाप देखते रहे।

 रात को महेंद्र ने बिस्तर पर बैठ कर बताया - कॉलेज में मेरी रात की डयूटी लगी है, कुछ दिनों के लिए मुझे कॉलेज के ही आस-पास कहीं डेरा लेना पड़ेगा।

 आशा सोचने लगी - गुस्सा शायद रह ही गया है? मुझ पर नाराज हो कर तो नहीं जा रहे? आखिर निगुनी मैं। पति को घर से रुखसत करके ही रही! मेरा तो मर जाना ही अच्छा था।

 लेकिन महेंद्र के हाव-भाव में गुस्से का कोई लक्षण न दीखा। बड़ी देर तक वह चुप रहा। आशा के मुखड़े को कलेजे से लगा कर उँगली से बालों को चीरते-चीरते उसके जूड़े को ढीला कर दिया। पहले प्यार से महेंद्र इसी तरह आशा का जूड़ा खोल दिया करता था - आशा इस पर एतराज करती थी। आज मगर उसने चूँ भी न की। अचानक उसके कपाल पर आँसू की एक बूँद टपक पड़ी। महेंद्र ने उसका मुँह अपनी ओर फेर कर स्नेह से रुँधे स्वर में पुकारा - चुन्नी!

 आशा को कोई जवाब न मिला। अपने कोमल हाथों से उसने कस कर महेंद्र को दबा लिया। महेंद्र ने कहा - मुझसे गलती हो गई, माफ कर दो।

 अपने फूल-से सुकुमार हाथ से महेंद्र के होंठों को दबाती हुई वह बोली - छि:, ऐसा न कहो! तुमने कोई कसूर नहीं किया। कसूर मेरा है। मुझे दासी के समान फटकारो। मुझे अपने पाँवों में रहने लायक बना लो!

 जिस दिन जाना था, सुबह जगते समय महेंद्र ने कहा - चुन्नी, मेरी रतन, तुम्हें मैं अपने हृदय में सबसे ऊपर रखूँगा। कोई तुमसे आगे नहीं जा सकेगा।

 कलेजे को कड़ा करके सब तरह का त्याग करने को तैयार हो कर उसने पति से अपनी एक निहायत मामूली-सी माँग की। बोली - मुझे रोज-रोज चिट्ठी लिखना!

 महेंद्र ने पूछा - तुम भी लिखोगी?

 आशा ने कहा - मैं क्या लिखना जानती हूँ?

 उसके कान के पास की लट को सरकाता हुआ महेंद्र बोला - तुम अक्षय कुमार दत्ता से भी अच्छा लिख सकती हो - जिसे चारुपाठ कहते हैं!

 आशा ने कहा - मजाक रहने दो, हाँ।

 जाने के पहले आशा महेंद्र का सामान सहेजने लगी। मोटे-मोटे गरम कपड़ों की तह बनाना कठिन था, बक्स में सबका सामान और भी कठिन। दोनों ने मिल कर दबा-दुबूकर जो एक बक्स में आ जाता, उसे दो बक्सों में रखा। फिर भी भूल से जो चीजें छूट गईं, उनकी कई गठरियाँ अलग से बन गईं। इससे आशा शर्म महसूस करती रही, तो भी आपस की छीना-झपटी और हँस-हँस कर एक-दूसरे को दोषी ठहराने में आनंद के पिछले दिन लौट आए। यह तैयारी विदाई की है, जरा देर के लिए आशा यह भूल गई। साईस कम-से-कम दस बार जता गया कि गाड़ी तैयार है, मगर कौन सुनता है। अंत में खिन्न हो कर बोला - खोल दो घोड़ों को।

 सुबह से तीसरा पहर हो गया और अब साँझ होने को आई। तब कहीं एक-दूसरे की सेहत का खयाल रखने की ताकीद करके, नियम से चिट्ठी लिखने का बार-बार वादा कराके भारी हृदय लिए दोनों जुदा हुए।