आँख की किरकिरी - 11 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँख की किरकिरी - 11

(11)

इस बीच और एक चिट्ठी आ पहुँची -

 तुमने मेरे पत्र का जवाब नहीं दिया? अच्छा ही किया, सही बात लिखी तो नहीं जाती तुम्हारा जो जवाब है, उसे मैंने मन में समझ लिया। भक्त जब अपने देवता को पुकारता है तो देवता क्या जबान से कुछ कहते हैं? लगता है, दुखिया की तुलसी को चरणों में जगह मिल गई।

 लेकिन भक्त की पूजा से कहीं शिव की तपस्या टूटती हो तो मेरे हृदय के देवता, नाराज न होना! वरदान दो या न दो, आँखें उठा कर निहारो या न निहारो, जान सको या न जान सको - पूजा किए बिना भक्त की दूसरी गति नहीं। इसलिए आज भी दो पंक्तियाँ लिख भेजती हूँ - हे मेरे पत्थर के देवता! तुम अडिग ही रहो!

 महेंद्र फिर जवाब लिखने बैठा। लेकिन पत्र को आशा को लिखते हुए कलम की नोक पर जवाब विनोदिनी का आ जाता। चालाकी से इधर-उधर की हाँकते उससे लिखते हुए नहीं बनता। लिख-लिख कर बहुत-से पन्ने फाड़ डाले। एक लिखा भी गया तो उसे लिफाफे में भर कर आशा का नाम लिखते हुए अचानक किसी ने उसकी पीठ पर चाबुक जमाया- बेईमान! विश्वस्त बालिका से इस तरह दगा! महेंद्र ने पत्र को टुकड़े करके फेंक दिया और बाकी रात मेज पर दोनों हथेलियों में मुँह छिपाए अपने को मानो अपनी ही नजर से छिपाने की कोशिश करता रहा।

 तीसरा पत्र! रूठना जो कतई नहीं जानता, वह भी क्या प्यार करता है? अपने प्यार को अनादर और अपमान से बचाए न रख सकूँ तो वह तुम्हें दूँगी कैसे?

 शायद तुम्हारे मन को ठीक-ठीक समझ नहीं पाई हूँ, तभी इतनी हिम्मत कर सकी हूँ। तुम छोड़ गए तो भी मैंने ही बढ़ कर चिट्ठी लिखी जब तुम चुप हो गए थे, तब भी मन की कह गई हूँ। मगर तुम्हारे साथ अगर गलती की है, तो वह भी क्या मेरा ही कसूर है? शुरू से आखिर तक सारी बातें एक बार दुहरा कर देखो तो सही कि मैंने जो कुछ समझा था, वह तुम्हीं ने नहीं समझाया क्या?

 चाहे जो हो, गलत हो या सही, जो लिखा है, वह मिटने का नहीं, जो दिया है, वह वापिस नहीं ले सकूँगी, यही शिकायत है। छि:-छि: ऐसी शर्म भी नारी के नसीब में आती है। लेकिन इससे यह हर्गिज न समझना कि जो प्यार करती है, वह अपने प्यार को बार-बार अपमानित कर सकती है। साफ बताओ कि मेरी चिट्ठी की चाहत नहीं हो तो बताओ और इसका जवाब न मिला तो यहीं तक बस।

 महेंद्र से और न रहा गया। मन में बोला - खूब नाराज हो कर ही घर लौट रहा हूँ। विनोदिनी का खयाल है, मैं उसे भूलने के लिए घर से भाग खड़ा हुआ हूँ। उसकी इस हेकड़ी को भुलाने के लिए ही महेंद्र ने उसी दम घर लौट जाने का संकल्प किया।

 इतने में बिहारी आ गया। उसे देखते ही महेंद्र के मन की उमंग दुगुनी हो गई। अब तक संदेहों के चलते बिहारी से उसे ईर्ष्या होती रही थी और दोनों में गाँठ पड़ती जा रही थी। चिट्ठी पढ़ने के बाद और ज्यादा आवेग में उसने उसकी आगवानी की।

 लेकिन बिहारी का चेहरा आज उतरा हुआ था। महेंद्र ने सोचा, बेचारे ने इस बीच विनोदिनी से जरूर मुलाकात की होगी और वहाँ से ठोकर खा कर आया है! उसने पूछा - क्यों भाई, इस बीच मेरे घर गए थे कभी?

 बिहारी ने कहा - वहीं से हो कर आ रहा हूँ अभी।

 मन-ही-मन बिहारी की पीड़ा का अनुमान करके महेंद्र को अच्छा न लगा। उसने मन में कहा - अभागा! किसी महिला ने कभी उसे नहीं चाहा। फिर भी उसने बातचीत शुरू करते हुए पूछा - कैसे हैं सब?

 इस बात का जवाब देने के बजाय वह बोला - घर छोड़ कर अचानक यहाँ!

 महेंद्र ने कहा - इधर लगातार नाइट-डयूटी पड़ रही है - वहाँ दिक्कत हो रही थी।

 बिहारी बोला - नाइट-डयूटी तो इसके पहले भी पड़ी है, मगर घर छोड़ते तो नहीं देखा कभी?

 महेंद्र ने हँस कर कहा - क्यों, कोई शक हो रहा है।

 बिहारी बोला - मजाक न करो। तुम्हें कहीं नहीं रहना है। चलो इसी वक्त घर चलो।

 घर जाने को तो वह तैयार ही बैठा था मगर बिहारी ने आग्रह किया तो वह मना कर गया, गोया घर जाने की उसे जरा भी इच्छा नहीं। बोला - पागल हुए हो, मेरे एक साल पर पानी फिर जाएगा।

 बिहारी ने कहा - देखो महेंद्र भैया, मैं तुम्हें तब से देखता आया हूँ, जब तुम छोटे-से थे। मुझे फुसलाने की कोशिश न करो! तुम जुल्म कर रहे हो।

 महेंद्र - जुल्म कर रहा हूँ, किस पर, जज साहब!

 बिहारी नाराज हो कर बोला - तुम सदा दिल की तारीफ करते आए हो, अब तुम्हारा दिल कहाँ गया?

 महेंद्र - फिलहाल तो अस्पताल में है।

 बिहारी - चुप रहो! तुम यहाँ हँस-हँस कर मुझसे मजाक कर रहे हो और वहाँ तुम्हारी आशा तुम्हारे कमरों में रोती फिर रही है।

 आशा के रोने की बात सुन कर अचानक महेंद्र को धक्का लगा। अपने नए नशे में उसे इसकी सुध न थी कि दुनिया में और भी किसी का सुख-दु:ख है। वह चौंका! पूछा - आशा क्यों रो रही है?

 बिहारी ने अपनी आँखों जो कुछ देखा, आदि से अंत तक कह सुनाया। उसे याद आ गया कैसे विनोदिनी से लिपट कर आशा की आँखें बह रही थीं। उसका गला रुँध गया। महेंद्र को खूब पता था कि आशा का मन वास्तव में किधर है!

 महेन्द्र बोला - खैर चलो। गाड़ी बुला लो!

 महेंद्र घर पहुँचा। उसका चेहरा देखते ही आशा के मन का सारा संदेह कुहरे के समान एक ही क्षण में फट गया। अपनी चिट्ठियों की बात सोच कर महेंद्र के सामने मारे शर्म के वह सिर न उठा सकी। इस पर महेंद्र ने शिकवा किया- ऐसे आरोप लगा कर तुमने चिट्ठियाँ लिखीं कैसे!

 और उसने जाने कितनी बार पढ़ी हुई वे तीनों चिट्ठियाँ अपनी जेब से निकालीं। आशा ने गिड़गिड़ाकर कहा - तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, इन चिट्ठियों को फाड़ फेंको!

 महेंद्र से उन चिट्ठियों को ले लेने के लिए वह उतावली हो गई। महेंद्र ने उसे रोक कर चिट्ठियों को जेब के हवाले किया। कहा - मैं काम से गया और तुमने मेरा मतलब ही नहीं समझा? मुझ पर संदेह किया?

 छलछलाती आँखों से आशा बोली - अबकी बार मुझे माफ कर दो! आइंदा ऐसा न होगा।

 महेंद्र ने कहा - कभी नहीं?

 आशा बोली - कभी नहीं।

 महेंद्र ने उसे अपने पास खींच कर चूम लिया। आशा बोली - लाओ, चिट्ठियाँ दे दो, फाड़ डालूँ!

 महेंद्र बोला - रहने दो उन्हें।

 आशा ने विनय से यह समझा- मेरी सजा के रूप में इन्होंने चिट्ठियाँ रख ली हैं।

 चिट्ठियों के चलते आशा का मन विनोदिनी की तरफ से जरा ऐंठ गया। पति लौट आए, यह खबर वह विनोदिनी से कहने न गई, बल्कि उससे कतराती रही। विनोदिनी इसे ताड़ गई और काम के बहाने बिलकुल दूर ही रही।

 महेंद्र ने सोचा - अजीब है! सोचा था, अबकी बार विनोदिनी को मजे से देख पाऊँगा- उलटा ही हुआ। फिर उन चिट्ठियों का मतलब?

 महेंद्र ने अपने मन को इसके लिए सख्त बनाया कि नारी के दिल को अब कभी समझने की कोशिश नहीं करेगा। सोच रखा था, विनोदिनी पास आना भी चाहेगी तो मैं दूर-दूर रहूँगा। अभी उसके जी में आया, न, यह तो ठीक नहीं हो रहा है- सचमुच ही हम लोगों में कोई विकार आ गया है। खुले दिल की विनोदिनी से बातचीत, हँसी-दिल्लगी करके संदेह की इस घुटन को मिटा डालना ही ठीक है। उसने आशा से कहा - लगता है, मैं ही तुम्हारी सखी की आँख की किरकिरी हो गया। उनकी तो अब झाँकी भी नहीं दिखाई पड़ती।

 उदास हो कर आशा बोली - जाने उसे क्या हो गया है!

 इधर राजलक्ष्मी आ कर रोनी-सी हो कर बोलीं- बेटी, अब तो विपिन की बहू को रोकना मुश्किल हो रहा है।

 महेंद्र चौंकते मगर अपने पर नियंत्रण करते हुए उसने पूछा - क्यों माँ?

 बेटा, वह तो अबकी बार अपने घर जाने के लिए अड़ गई है। तुझे तो किसी की खातिरदारी आती नहीं। एक पराई लड़की अपने घर आई है, उसका अगर घर के लोगों-जैसा आदर-मान न हो तो रहे कैसे?

 विनोदिनी सोने के कमरे में चादर सी रही थी। महेंद्र गया। आवाज दी - किरकिरी!

 विनोदिनी सम्हलकर बैठी। पूछा - जी! महेंद्र बाबू!

 महेंद्र बाबू ने कहा - अजीब मुसीबत है! ये हजरत महेंद्र बाबू कब से हो गए!

 अपनी सिलाई में आँखें गड़ाए हुए ही विनोदिनी बोली - फिर क्या कह कर पुकारूँ आपको?

 महेंद्र ने कहा - जिस नाम से अपनी सखी को पुकारती हो- आँख की किरकिरी!

 और दिन की तरह विनोदिनी ने मजाक करके कोई जवाब न दिया। वह अपनी सिलाई में लगी रही।

 महेंद्र ने कहा - लगता है, वही सच्चा रिश्ता है, तभी तो दुबारा जुड़ पा रहा है।

 विनोदिनी जरा रुकी। सिलाई के किनारे से बढ़ रहे धागे के छोर को दाँतों से काटती हुई बोली - मुझे क्या पता, आप जानें!

 और दूसरे जवाबों को टाल कर गंभीरता से पूछ बैठी- कॉलेज से एकाएक कैसे लौट आए।

 महेंद्र बोला - केवल लाश की चीर-फाड़ से कब तक चलेगा?

 विनोदिनी ने फिर दाँत से सूत काटा और उसी तरह सिर झुकाए हुए बोली - तो अब जीवन की जरूरत है?

 महेंद्र ने सोचा था, आज विनोदिनी से बड़े सहज ढंग से हँसी-मजाक करूँगा लेकिन बोझ इतना हो गया कि लाख कोशिश करके भी हल्का जवाब जुबान पर न आ सका। विनोदिनी आज कैसी दूरी रख कर चल रही है, यह देख कर महेंद्र उद्वेलित हो गया। इच्छा होने लगी, एक झटके से इस रुकावट को मटियामेट कर दे। उसने विनोदिनी की काटी हुई वाक्य-चिकोटी का कोई जवाब न दिया - अचानक उसके पास जा बैठा। बोला - तुम हम लोगों को छोड़ कर जा क्यों रही हो? कोई अपराध हो गया है मुझसे! विनोदिनी इस पर जरा खिसक गई। सिलाई से सिर उठा कर उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें महेंद्र की ओर लगा कर कहा - काम-धन्धा तो हर किसी को है। आप सब छोड़ कर कहीं और रहने चले दिए। वह क्या किसी अपराध से कम है।

 महेंद्र को कोई अच्छा जवाब ढूँढ़े न मिला। जरा देर चुप रह कर पूछा - ऐसा क्या काम पड़ा है कि गए बिना होगा ही नहीं?

 बड़ी सावधानी से सुई में धागा डालती हुई वह बोली -काम है या नहीं, यह मैं ही जानती हूँ। आपको उसकी फेहरिस्त क्या दूँ!

 महेंद्र खिड़की से बाहर चिंतित-सा बड़ी देर तक एक नारियल की फुनगी पर नजर टिकाए चुप बैठा रहा। विनोदिनी चुपचाप सिलाई करती रही। यह हाल कि फर्श पर सुई गिरे, तो आवाज सुनाई दे! बड़ी देर बाद महेंद्र अचानक बोल उठा। हठात जो निस्तब्धता भंग हुई, विनोदिनी चौंक पड़ी। उसकी उँगली में सुई चुभ गई।

 महेंद्र ने पूछा - किसी भी तरह से न रुक सकोगी?

 सुई चुभी उँगुली का खून चूसती हुई विनोदिनी ने कहा - विनती किस बात की? मैं रही न रही, आपको क्या फर्क पड़ता है।

 कहते-कहते उसका गला भर आया। फिर झुक कर वह सिलाई में लग गई। लगा, उसकी पलकों की कोर में आँखों की हल्की-सी रेखा झलक पड़ी है। माघ का अपराह्न उधर शाम के अँधेरे में खोने लगा था।

 लमहे-भर में महेंद्र ने विनोदिनी का हाथ दबा कर रुंधे और सजल स्वर में कहा, अगर इससे मेरा कुछ बिगड़ता हो तो रुकोगी?

 विनोदिनी ने झट से हाथ छुड़ा लिया। थोड़ा सरक कर बैठ गई। महेंद्र चौंका। अपनी अंतिम बात अपने ही कानों में व्यंग्य-जैसी गूँजती रही। दोषी जीभ को उसने दाँत से काटा फिर कुछ कहते न बना।

 घर में सन्नाटा छाया था, तभी आशा आ गई। विनोदिनी झट कह उठी, खैर, तुम लोगों ने जब मेरी अकड़ इतनी बढ़ा रखी है, तो मेरा भी फर्ज है कि तुम लोगों की एक बात मान लूँ। जब तक विदा नहीं करोगे, मैं यहीं रहूँगी।

 पति की कामयाबी से फूली न समाती हुई आशा सखी से लिपट गई। बोली - तो फिर यही पक्का रहा! तीन बार कबूल करो कि जब तक हम विदा नहीं करते, तब तक रहोगी, रहोगी, रहोगी।

 विनोदिनी ने तीन बार कबूल किया। आशा ने कहा -भई किरकिरी, रहना तो पड़ा, फिर नाकों चने क्यों चबवाए? अंत में मेरे पति से हार माननी ही पड़ी।

 विनोदिनी हँस कर बोली - भाई साहब, हार मैंने मानी कि तुमने मानी?

 महेंद्र को जैसे काठ मार गया हो। लग रहा था, जैसे उसका अपराध तमाम कमरों में बिखरा पड़ा है। उसने गंभीर हो कर कहा - हार तो मेरी ही हुई है।