आँख की किरकिरी - 5 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँख की किरकिरी - 5

(5)

किसी पड़ोसी के पिंजरे की कोयलिया कूक उठी। महेंद्र ने उसी दम अपने सिर पर झूलते हुए पिंजरे को देखा। अपनी कोयल पड़ोसी की कोयल की बोली चुपचाप कभी नहीं सह सकती- आज वह चुप क्यों है?

 महेंद्र ने कहा - तुम्हारी आवाज से लजा गई है।

 उत्कंठित हो कर आशा ने कहा - आज इसे हो क्या गया।

 आशा ने निहोरा करके कहा - मजाक नहीं, देखो न, उसे क्या हुआ है?

 महेंद्र ने पिंजरे को उतारा। पिंजरे पर लिपटे हुए कपड़ों को हटाया। देखा, कोयल मरी पड़ी थी। अन्नपूर्णा के जाने के बाद खानसामा छुट्टी पर चला गया था। कोयल का किसी ने खयाल ही न किया था।

 देखते-ही-देखते आशा का चेहरा फीका पड़ गया। उसकी अगुलियाँ चल न सकीं- फूल यों ही पड़े रह गए। चोट तो महेंद्र को भी लगी, लेकिन नाहक ही रस भंग होगा, इसलिए उसने इसे हँस कर टाल जाने की कोशिश की। बोला - अच्छा ही हुआ। मैं इधर डॉक्टरी को निकलता और उधर यह कमबख्त कू-कू करके तुम्हें जलाया करती थी।

 कह कर अपने बाहु-पाश में लपेट कर उसने आशा को अपने पास खींच लेना चाहा। अपने को धीरे-धीरे उसके बंधन से छुड़ा कर आशा ने आँचल से मौलसिरी के सब फूल गिरा दिए। बोली - छि:-छि: अब देर क्यों? जल्दी जा कर माँ को ले आओ!

 इतने में दुतल्ले से महेंद्र भैया की पुकार सुनाई पड़ी। अरे रे, आओ... आओ... महेंद्र ने जवाब दिया। बिहारी की आवाज से उसका हृदय खिल उठा। विवाह के बाद वह इन दोनों के सुख का बाधक बन कर कभी-कभी आता रहा है, आज वही बाधा सुख के लिए निहायत जरूरी लगी।

 बिहारी का आना आशा को भी अच्छा लगा। वह जरा घूँघट खींच कर जल्दी से उठ बैठी। महेंद्र बोला - अरे, जा कहाँ रही हो, और कोई नहीं, बिहारी आ रहा है।

 आशा ने कहा - भाई साहब के लिए नाश्ता ले आऊँ?

 एक काम का मौका आ गया, इससे आशा का अवसाद कुछ हल्का हो गया।

 सास की कुशल के लिए घूँघट काढ़े वह खड़ी रही। बिहारी से अभी भी वह बोलती-चालती नहीं।

 अंदर कदम रखते ही बिहारी ने कहा - तौबा-तौबा! कैसे कवित्व के बीच आ टपका मैं! खैर फिक्र न करो भाभी, मैं बैरँग वापस जाता हूँ।

 आशा ने महेंद्र की तरफ ताका। महेंद्र ने पूछा - माँ की क्या खबर है, बिहारी?

 बिहारी बोला - माँ और चाची की चर्चा अभी क्यों भाई, काफी समय है।

 Such a night was not made for sleep nor for mothers and aunts.

 कह कर बिहारी लौट पड़ा। महेंद्र ने उसे जबर्दस्ती खींच कर बिठा दिया। बिहारी ने कहा - देख लो भाभी, कसूर मेरा नहीं है- यह मुझे जबरन खींच लाया है- पाप इसने किया है, अभिशाप मुझ पर न पड़े।

 आशा से कोई जवाब देते नहीं बनता, इसलिए ऐसी बातों से वह खीझ उठती है। बिहारी जान कर उसे तंग करता है।

 बिहारी ने कहा - घर की हालत आँखों से देख रहा हूँ - अब भी क्या माँ को लाने का वक्त नहीं आया?

 महेंद्र ने कहा - बेशक! हम तो उन्हीं की राह देख रहे हैं।

 बिहारी ने कहा - यही जताते हुए उन्हें पत्र लिखने में तुम्हें नाम का समय लगेगा, लेकिन उनकी खुशी का अंत न रहेगा। भाभी, उन दो मिनटों के लिए महेंद्र भैया को तुम्हें फुरसत देनी पड़ेगी, मेरी दरखास्त रही।

 आशा बिगड़ कर चली गई। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।

 महेंद्र बोला - जाने किस शुभ घड़ी में तुम दोनों की भेंट हुई थी - आखिर सुलह नहीं ही हो सकी- वही खट-पट।

 बिहारी ने कहा - तुम्हें तुम्हारी माँ ने तो बर्बाद किया ही, पत्नी भी बर्बाद करने पर तुली है। यही मुझसे नहीं देखा जाता, इसी से जब-तब कुछ कह देता हूँ।

 महेंद्र - मगर नतीजा क्या होता है उसका?

 बिहारी - नतीजा तुम्हारे लिए कुछ खास नहीं होता, मेरे लिए थोड़ा-बहुत होता है।

 बिहारी ने खुद बैठ कर महेंद्र से चिट्ठी लिखवाई और उस पत्र के साथ दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को लेने गया। राजलक्ष्मी समझ गई, चिट्ठी बिहारी ने लिखवाई है- मगर फिर भी उससे रहा न गया। साथ-साथ विनोदिनी आई।

 लौट कर उन्होंने घर की जो बदतर हालत देखी- तमाम यों ही गन्दा पड़ा, तितर-बितर- इसलिए बहू के प्रति उनका मन और भी खराब हो गया।

 लेकिन बहू में यह कैसा परिवर्तन! वह छाया-सी उनके पीछे डोलती-फिरती। कहें, न कहें, हरदम हर काम में हाथ बँटाने को मुस्तैद। आ-आ कर वह कह उठतीं- छोड़ो-छोड़ो, मिट्टी पलीद करके रख दोगी तुम! जो काम आता नहीं, उसमें हाथ क्या डालना?

 राजलक्ष्मी के जी में आया, हो न हो, अन्नपूर्णा के चले जाने से ही बहू की यह तरक्की हुई है। लेकिन फिर मन में आया, महेंद्र सोचेगा, चाची थीं तो मैं बीवी के साथ निष्कंटक मौज करता था और माँ का पहुँचना था कि विरह का दु:ख शुरू हो गया। इससे यही साबित होगा कि चाची उसकी शुभैषी रहीं, माँ सुख का काँटा है। रहने दो, अपने को क्या पड़ी।

 इधर कहीं महेंद्र दिन को बुला भेजता तो बहू जाने में आनाकानी करती। राजलक्ष्मी ही झिड़का करतीं- महेंद्र बुला रहा है, तुम टाल जाती हो! ज्यादा दुलार पाने का यही नतीजा होता है। जाओ, सब्जियाँ मैं देख लूँगी।

 फिर शुरू होता वही स्लेट-पेंसिल और चारुपाठ का झूठा नाटक। प्रेम के अकारण अभियोग से एक-दूसरे को दोषी ठहराना - किसका प्रेम ज्यादा वजनी है, इस पर निरर्थक वाद-विवाद। वर्षा के दिन को रात और चाँदनी रात को दिन बनाना।

 ऐसे में एक दिन विनोदिनी आशा के गले से लिपट कर बोली - बहन, तुम्हारा सौभाग्य अक्षय हो... जुग-जुग! लेकिन चूँकि मैं दुखिया हूँ, इसलिए क्या मेरी तरफ एक नजर ताकना भी गुनाह है?

 छुटपन से ही अपने आत्मीय के यहाँ पराई-सी पली थी, इसलिए लोगों के सामने आशा सदा संकुचित रहा करती। जुड़ी भौंहें और तीखी निगाह, अनिंद्य मुखड़ा और भरी हुई जवानी लिए जब विनोदिनी आई, तो खुद बढ़ कर उससे परिचय करने की हिम्मत आशा की न हुई।

 आशा ने गौर किया, राजलक्ष्मी से विनोदिनी को किसी भी तरह का संकोच नहीं। और मानो आशा को दिखा-दिखा कर राजलक्ष्मी भी उसका काफी आदर करतीं। यह भी देखा, घर के कामकाज में विनोदिनी पटु है, प्रभुत्व मानो उसके लिए बहुत ही सहज है, स्वभाव-सिद्ध नौकर-नौकरानियों से काम लेने, झिड़कने-फटकारने और हुक्म देने में उसे जरा सी हिचक नहीं होती। यह सब देख-भाल कर विनोदिनी के आगे आशा अपने को बहुत छोटा समझने लगी।

 वही सर्वगुण-संपन्न विनोदिनी जब खुद उससे नेह की भीख माँगने आई, तो उसका आनंद चौगुना हो उमड़ पड़ा। जादूगर के माया-तरु की तरह उसके प्रेम का बीज एक ही दिन में अकुराया, पत्तों से लद गया और फल-फूल उठा।

 आशा ने कहा - हम-तुम सखियाँ हुईं, एक कोई नाम रख छोड़ें हम अपना।

 विनोदिनी ने हँस कर पूछा - क्या आखिर? आशा ने बहुत-से अच्छे-अच्छे नाम गिनाए-हरसिंगार, कदम्ब, मौलसिरी...

 विनोदिनी बोली - ये सारे-के-सारे बड़े पुराने पड़ गए। इन दुलार के नामों की कोई कद्र नहीं।

 आशा ने पूछा - फिर तुम्हें कौन-सा पसंद है?

 हँस कर विनोदिनी ने कहा - आँख की किरकिरी।

 आशा कोई मीठा-सा नाम ही चाहती थी, लेकिन विनोदिनी की पसंद से उसने दुलार की इस गाली को ही कबूल कर लिया। बाँहों से उसकी गर्दन लपेट कर बोली - मेरी आँख की किरकिरी!

 और हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई।

 आशा को एक साथी की बड़ी जरूरत थी। प्यार का त्योहार भी महज दो आदमियों से नहीं मनता - मीठी बातों की मिठाई बाँटने के लिए गैरों की भी जरूरत पड़ती है।

 भूखी-प्यासी विनोदिनी भी नई बहू से प्रेम के इतिहास को शराबी की दहकती हुई सुरा के समान कान फैला कर पीने लगी। सूनी दोपहरी में माँ जब सोती होतीं, घर के नौकर-चाकर निचले तल्ले के आरामगाह में छिप जाते, बिहारी की ताकीद से महेंद्र कुछ देर के लिए कॉलेज गया होता और धूप से तपी नीलिमा के एक छोर से चील की तीखी आवाज बहुत धीमी सुनाई देती, तो कमरे के फर्श पर अपने बालों को तकिए पर बिखेरे आशा लेट जाती और पेट के नीचे तकिया रख कर पट पड़ी विनोदिनी उसकी गुन-गुन स्वर से कही जाने वाली कहानी में तन्मय हो जाती- उसकी कनपटी लाल हो उठती, साँस जोर-जोर से चलने लगती।

 विनोदिनी खोद-खोद कर पूछती और छोटी-से-छोटी बात भी निकाल लेती, एक ही बात कई बार सुनती, घटना खत्म हो जाती तो कल्पना करती कहती - अच्छा बहन, कहीं ऐसा होता तो क्या होता और यह होता तो क्या करती? इन अनहोनी कल्पनाओं की राह में सुख की बातों को खींच कर दूर तक ले जाना आशा को भी अच्छा लगता।

 विनोदिनी कहती- अच्छा भई आँख की किरकिरी, तुझसे कहीं बिहारी बाबू का ब्याह हुआ होता तो?

 आशा - राम-राम, ऐसा न कहो! बड़ी शर्म आती है मुझे। हाँ, तुम्हारे साथ होता तो क्या कहने! चर्चा तो तुमसे होने की भी चली थी।

 विनोदिनी - मुझसे तो जाने कितनों की, कितनी ही बातें चलीं। न हुआ, ठीक ही हुआ। मैं जैसी हूँ, ठीक हूँ।

 आशा प्रतिवाद करती। वह भला यह कैसे कबूल कर ले कि विनोदिनी की अवस्था उससे अच्छी है। उसने कहा - जरा यह तो सोच देखो, अगर मेरे पति से तुम्हारा ब्याह हो जाता! होते-होते ही तो रह गया।

 होते-होते ही रह गया। क्यों नहीं हुआ? आशा का यह बिस्तर, यह पलँग सभी तो उसी का इंतजार कर रहे थे। उस सजे-सजाए शयन-कक्ष को विनोदिनी देखती और इस बात को किसी भी तरह न भुला पाती। इस घर की वह महज एक मेहमान है- आज उसे जगह मिली है, कल छोड़ जाना होगा।

 तीसरे पहर विनोदिनी खुद अपनी अनूठी कुशलता से आशा का जूड़ा बाँध देती और जतन से श्रृंगार करके उसके पति के पास भेजा करती।

 इस तरह खामखाह देर कर देना चाहती।

 नाराज हो कर महेंद्र कहता, तुम्हारी यह सहेली तो टस से मस नहीं होना चाहती- घर कब जाएगी?

 उतावली हो आशा कहती, न-न, मेरी आँख की किरकिरी पर तुम नाराज क्यों हो। तुम्हें पता नहीं, तुम्हारी चर्चा उसे कितनी अच्छी लगती है - किस जतन से वह सजा-सँवार कर मुझे तुम्हारे पास भेजा करती है।

 राजलक्ष्मी आशा को कुछ करने-धरने न देतीं। विनोदिनी ने उसकी तरफदारी की, और उसे काम में जुटाया। विनोदिनी को आलस जरा भी नहीं था। दिन-भर एक-सी काम में लगी रहती। आशा को वह छुट्टी नहीं देना चाहती। एक के बाद दूसरा, वह कामों का कुछ ऐसा क्रम बनाती कि आशा के लिए जरा भी चैन पाना गैरमुमकिन था। आशा का पति छत वाले सूने कमरे में बैठा चिढ़ के मारे छटपटा रहा है- यह सोच कर विनोदिनी मन-ही-मन हँसती रहती। आशा अकुला कर कहती, भई आँख की किरकिरी, अब इजाजत दो, वह नाराज हो जाएँगे।

 झट विनोदिनी कहती, बस, जरा-सा। इसे खत्म करके चली जाओ! ज्यादा देर न होगी। जरा देर में आशा फिर उद्विग्न हो कर कहती- न बहन, अब वह सचमुच ही नाराज होंगे। मुझे छोड़ दो, चलूँ मैं।

 विनोदिनी कहती, जरा नाराज ही हुए तो क्या। सुहाग में गुस्सा न मिले तो मुहब्बत में स्वाद नहीं मिलता- जैसे सब्जी में नमक-मिर्च के बिना।

 लेकिन नमक-मिर्च का मजा क्या होता है, यह विनोदिनी ही समझ रही थी- न थी सिर्फ उसके पास सब्जी। उसकी नस-नस में मानो आग लग गई। जिधर भी नजर करती, चिनगारियाँ उगलतीं उसकी आँखें। ऐसी आराम की गिरस्ती! ऐसे सुहाग के स्वामी! इस घर को तो मैं राजा की रिसायत, इस स्वामी को अपने चरणों का दास बना कर रखती। (आशा को गले लगा कर) भई आँख की किरकिरी, मुझे बताओ न, कल तुम लोगों में क्या बातें हुईं। तुमने वह कहा था, जो मैंने करने को कहा था? तुम लोगों के प्यार की बातें सुन कर मेरी भूख-प्यास जाती रहती है।

 एक दिन आखिर आजिज आ कर महेंद्र ने माँ से कहा - यह अच्छी बात है, माँ? दूसरे के घर की एक जवान विधवा को घर रख कर एक भारी जिम्मेदारी कंधे पर लाद लेने की क्या पड़ी है? जाने कब क्या मुसीबत हो?

 राजलक्ष्मी ने कहा - अरे, यह तो अपने विपिन की बहू है, इसे मैं बिरानी थोड़े ही समझती हूँ।

 महेंद्र ने कहा - जो कहो, लेकिन यह अच्छा नहीं है। मेरी राय में इसे रखना ठीक नहीं।

 राजलक्ष्मी खूब जानती थीं कि महेंद्र की राय को ठुकराना आसान नहीं। इसलिए उन्होंने बिहारी से कहा - अरे बिहारी, तू एक बार महेंद्र को समझा कर देख! यह विपिन की बहू जब से यहाँ है, तभी से इस बुढ़ापे में मुझे थोड़ा आराम मिला है। वह पराई हो या जो हो, किसी से कभी ऐसी सेवा नहीं मिली।