आँख की किरकिरी - 7 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँख की किरकिरी - 7

(7)

विनोदिनी से भेंट होने के दूसरे दिन प्रसंगवश यों ही मजाक में महेंद्र ने आशा से पूछा - तुम्हारा यह अयोग्य पति तुम्हारी आँख की किरकिरी को कैसा लगा?

 महेंद्र को इसकी जबरदस्त आशा थी कि पूछने से पहले ही आशा से उसे इसका बड़ा ही अच्छा ब्यौरा मिलेगा। लेकिन सब्र करने का जब कोई नतीजा न निकला, तो ढंग से यह पूछ बैठा।

 आशा मुश्किल में पड़ी। विनोदिनी ने कुछ भी नहीं कहा। इससे आशा अपनी सखी से नाराज हुई थी। बोली - ठहरो भी, दो-चार दिन मिल-जुल कर तो कहेगी। कल भेंट भी कितनी देर को हुई और बातें भी कितनी हो सकीं।

 महेंद्र इससे भी कुछ निराश हुआ और विनोदिनी के बारे में लापरवाही दिखाना उसके लिए और भी कठिन हो गया।

 इसी बीच बिहारी आ पहुँचा। पूछा - क्यों भैया, आज किस बात पर विवाद छिड़ा हुआ है?

 महेंद्र ने कहा - देखो न, तुम्हारी भाभी ने कुमुदिनी या प्रमोदिनी जाने किससे तो जाने क्या नाता जोड़ा है लेकिन मुझे भी अगर उससे वैसा ही कुछ जोड़ना पड़े तो जीना मुश्किल जानो!

 आशा के घूँघट के अंदर घोर कलह घिर आया। बिहारी जरा देर चुपचाप महेंद्र की ओर ताकता रहा और हँसता रहा। बोला - भाभी, बात तो यह अच्छी नहीं। यह सब भुलाने की बातें हैं। तुम्हारी आँख की किरकिरी को मैंने देखा है, और भी अगर बार-बार देख पाऊँ, तो उसे दुर्घटना न समझूँगा, यह मैं कसम खा कर कह सकता हूँ। लेकिन इतने पर भी महेंद्र जब कबूल नहीं करना चाहते तो दाल में कुछ काला है।

 महेंद्र और बिहारी में बहुत भेद है, आशा को इसका एक और सबूत मिला।

 अचानक महेंद्र को फोटोग्राफी का शौक हो आया। पहले भी एक बार उसने सीखना शुरू करके छोड़ दिया था। उसने फिर से कैमरे की मरम्मत की, और तस्वीरें लेना शुरू कर दिया। घर के नौकर-चाकरों तक के फोटो लेने लगा।

 आशा जिद पकड़ बैठी- मेरी सखी की तस्वीर लेनी पड़ेगी।

 बहुत मुख्तसर में महेंद्र ने जवाब दिया- अच्छा!

 और उससे भी मुख्तसर में उसकी आँख की किरकिरी ने कहा - नहीं। आशा को इसके लिए फिर एक तरकीब खोजनी पड़ी।

 तरकीब यह थी कि आशा किसी तरह उसे अपने कमरे में बुलाएगी और सोते समय ही उसकी तस्वीर को ले कर महेंद्र एक खासा सबक देगा।

 मजे की बात यह कि विनोदिनी दिन में कभी सोती नहीं। लेकिन उस दिन आशा के कमरे में उसे झपकी आ गई। बदन पर लाल ऊनी चादर डाले, खुली खिड़की की तरफ मुँह किए, हथेली पर सिर रखे वह ऐसी सुंदर अदा से सोई थी कि महेंद्र ने कहा - लगता है, फोटो खिंचाने के लिए तैयार हुई है।

 दबे पाँव महेंद्र कैमरा ले कर आया। किस तरह से तस्वीर अच्छी आएगी, यह तय करने के लिए विनोदिनी को बड़ी देर तक बहुत अच्छी तरह देख लेना पड़ा। यहाँ तक कि कला की खातिर छिप कर सिरहाने के पास उसके बिखरे बालों को जरा-सा हटा देना पड़ा। नहीं जँचा तो उसे फिर से सुधार लेना पड़ा। कानों कान उसने आशा से कहा - पाँव के पास से चादर को जरा बाईं तरफ खिसका दो!

 भोली आशा ने उसके कानों में कहा - मुझसे ठीक न बनेगा, कहीं नींद न टूट जाए। तुम्हीं खिसका दो।

 महेंद्र ने चादर खिसका दी।

 और तब उसने तस्वीर खींचने के लिए कैमरे में प्लेट डाली। डालना था कि खटका हुआ और विनोदिनी हिल उठी, लंबा नि:श्वास छोड़ घबरा कर उठ बैठी। आशा जोर से हँस पड़ी। विनोदिनी बेहद नाराज हुई। अपनी जलती हुई आँखों से महेंद्र पर चिनगारियाँ बरसाती हुई बोली - बहुत बुरी बात है।

 महेंद्र ने कहा - बेशक बुरी बात है। लेकिन चोरी भी की और चोरी का माल हाथ न लगा, इससे तो मेरे दोनों काल गए। इस बुराई को ही लेने दीजिए, उसके बाद मुझे सजा दीजिएगा।

 आशा भी बहुत आरजू-मिन्नत करने लगी। तस्वीर ली गई। लेकिन पहली तस्वीर खराब हो गई। लिहाज़ा दूसरे दिन दूसरी तस्वीर लिए बिना फोटोग्राफर न माना। उसके बाद मित्रता के चिद्द-स्वरूप दोनों सखियों की एक साथ एक तस्वीर लेने की बात आई। विनोदिनी ना न कह सकी। बोली - यही लेकिन आखिरी है।

 यह सुन कर महेंद्र ने उस तस्वीर को बर्बाद कर दिया। इस तरह तस्वीर लेते-लेते परिचय काफी आगे बढ़ गया।

 बाहर से हिला-डुला दो तो दबी राख में आग फिर से लहक उठती है। आशा और महेंद्र की मुहब्बत का उछाह मंद पड़ता जा रहा था, वह तीसरी तरफ की ठोकर से फिर जाग पड़ा।

 आशा में हँसी-दिल्लगी की ताकत न थी, पर आशा उससे थकती न थी, लिहाज़ा विनोदिनी की आड़ में आशा को बहुत बड़ा आश्रय मिल गया। महेंद्र को हमेशा आनंद की उमंग में रखने के लिए उसे लोहे के चने नहीं चबाने पड़ते थे।

 विवाह होने के बाद कुछ ही दिनों में आशा और महेंद्र एक-दूसरे के लिए अपने को उजाड़ने पर आमादा थे - प्रेम का संगीत शुरू ही पंचम के निषाद से हुआ था, सूद के बजाय पूँजी ही भुना खाने पर तुले थे।

 अब उसकी अपनी कोशिश न रह गई। महेंद्र और विनोदिनी जब हँसी-मज़ाक करते होते, वह बस जी खोल कर हँसने में साथ देती। पत्ते खेलने में महेंद्र आशा को बेतरह चकमा देता, तो आशा विनोदिनी से फैसले के लिए गिड़गिड़ाती हुई शिकायत करती। महेंद्र कोई मज़ाक कर बैठता या गैरवाजिब कुछ कहता तो आशा को यह उम्मीद होती कि उसकी तरफ से विनोदिनी उपयुक्त जवाब दे देगी। इस प्रकार इन तीनों की मंडली जम गई।

 मगर इससे विनोदिनी के काम-धंधों में किसी तरह की ढिलाई न आ पाई। रसोई, गृहस्थी के दूसरे काम-काज, राजलक्ष्मी की सेवा-जतन- सारा कुछ खत्म करके ही वह इस आनंद में शामिल होती। महेंद्र आज़िजी से कहता - नौकर-महरी को काम नहीं करने देती हो, चौपट करोगी उन्हें तुम।

 विनोदिनी कहती- काम न करके खुद चौपट होने से यह बेहतर है। तुम अपने कॉलेज जाओ!

 महेंद्र - ऐसी बदली के दिन?

 विनोदिनी - न यह नहीं होने का... गाड़ी तैयार है, जाना पड़ेगा।

 महेंद्र - मैंने तो गाड़ी को मना कर दिया था।

 विनोदिनी ने कहा मैंने कह रखा था। कह कर महेंद्र की पोशाक ला कर हाज़िर कर दी।

 महेंद्र - तुम्हें राजपूत के घर पैदा होना चाहिए था, लड़ाई के समय अपने आत्मीय को कवच पहनाती।

 मौज-मजे के लिए कॉलेज न जाना, पढ़ाई में ढिलाई करना विनोदिनी कतई न सह पाती थी। उसके कठोर शासन से दिन दोपहर को विनोद एकबारगी उठ गया और साँझ का अवकाश महेंद्र के लिए बड़ा ही रमणीक और मोहक हो उठा। उसका दिन मानो अवसान के इंतज़ार में रहता।

 पहले बीच-बीच में रसोई समय पर न बनती और महेंद्र को कॉलेज न जाने का बहाना मिल जाता। अब विनोदिनी सारा इंतज़ाम खुद करके समय पर रसोई बनाती। खाना खत्म होता कि महेंद्र को खबर कर दी जाती- गाड़ी तैयार खड़ी है। पहले कपड़ों का इस तरतीब से रहना तो दूर रहा। यही पता न होता था कि वे धोबी के यहाँ हैं कि अलमारी की ही किसी गुफा में पड़े हैं।

 शुरू-शुरू में विनोदिनी इन बेतरतीबियों के लिए महेंद्र के सामने आशा को मीठा उलाहना दिया करती थी- महेंद्र भी उस बेचारी की ला-इलाज योग्यता पर स्नेह से हँस दिया करता। अंत में सखी के नेह से उसने आशा की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। घर की शक्ल बदल गई।

 अचकन का बटन नदारद है, आशा झट-पट कोई तरकीब नहीं निकाल पाती कि विनोदिनी आ कर अचकन उसके हाथ से झपट लेती और बात-की-बात में सी देती। एक दिन महेंद्र की परसी हुई थाली बिल्ली ने जूठी कर दी। आशा परेशान। देखते-ही-देखते विनोदिनी ने रसोई से जाने क्या-क्या ला कर काम चला दिया। आशा दंग रह गई।

 अपने खाने-पहनने, काम और आराम में, हर बात में तरह-तरह से महेंद्र को विनोदिनी के सेवा-स्पर्श का अनुभव होने लगा। विनोदिनी के बनाए रेशमी जूते उसके पाँवों में पड़े, विनोदिनी का बुना रेशमी गुलबंद गले में एक पति के पास जाती - उसमें कुछ तो होता आशा का अपना और कुछ किसी और का - अपनी वेश-भूषा के रूप और आनंद में वह अपनी सखी से मानो गंगा-यमुना-सी मिल गई है।

 बिहारी की अब वह कद्र न रही थी- उसकी बुलाहट नहीं होती। उसने महेंद्र को लिख भेजा - कल इतवार है, दोपहर को आ कर मैं माँ के हाथ का बना भोजन खाऊँगा। महेंद्र ने देखा, यह तो इतवार ही गोबर हो जाएगा। उसने जल्दी से लिख भेजा, इतवार को कुछ जरूरी काम से मुझे बाहर जाना पड़ेगा।

 फिर भी भोजन कर चुकने के बाद बिहारी खोज-खबर के लिए महेंद्र के यहाँ आया। नौकर से पता चला, महेंद्र कहीं बाहर नहीं गया है। महेंद्र भैया कह कर उसने सीढ़ी से आवाज दी और कमरे में दाखिल हुआ। महेंद्र बड़ा अप्रतिभ हो गया। सिर में बे-हिसाब दर्द है-कह कर उसने तकिए का सहारा लिया। यह सुन कर और महेंद्र के चेहरे का हाव-भाव देख कर आशा तो अचकचा गई। उसने विनोदिनी की तरफ इस आशय से ताका कि क्या करना चाहिए। विनोदिनी खूब समझ रही थी- मामला संगीन नहीं है, फिर भी घबरा कर बोली, बड़ी देर से बैठे हो, थोड़ी देर लेट जाओ! मैं यूडीकोलोन ले आती हूँ।

 महेंद्र बोला - रहने दो, उसकी जरूरत नहीं।

 विनोदिनी ने उस पर ध्यान न दिया। वहजल्दी से बर्फ-मिले पानी में यूडीकोलोन डाल कर ले आई। आशा को गीला रूमाल देती हुई बोली - उनके सिर पर बाँध दो!

 महेद्र बार-बार कहने लगा - अरे छोड़ो-छोड़ो! बिहारी हँसी रोक कर चुपचाप यह नाटक देखता रहा। मन में गर्व करते हुए महेंद्र ने कहा - कमबख्त बिहारी देखे कि मेरी कितनी इज्ज़त होती है!

 बिहारी खड़ा था। लाज से काँपते हाथों से आशा ठीक से पट्टी न बाँध पाई, लुढ़क कर यूडीकोलोन की एक बूँद महेंद्र की आँख से गिर गई। विनोदिनी ने आशा से रूमाल ले कर अपने कुशल हाथों से ठीक से बाँध दिया। सफेद कपड़े के दूसरे टुकड़े को यूडीकोलोन में भिगो कर धीमे-धीमे पट्टी पर निचोड़ने लगी। आशा घूँघट काढ़े पंखा झलती रही।

 स्निग्ध स्वर में विनोदिनी ने पूछा - महेंद्र बाबू, आराम मिल रहा है आवाज में इस तरह शहद घोल कर विनोदिनी ने तेज कनखियों से बिहारी को देख लिया। देखा, कौतुक से बिहारी की आँखें हँस रही हैं। उसको यह सब कुछ प्रहसन-सा लगा। विनोदिनी समझ गई, इस आदमी को ठगना आसान नहीं, इसकी पैनी निगाह से कुछ नहीं बच सकता।

 बिहारी ने हँस कर कहा - विनोदिनी भाभी, ऐसी तीमारदारी से बीमारी जाने की नहीं, और बढ़ जाएगी।

 विनोदिनी - मैं मूर्ख स्त्री, मुझे इसका क्या पता! आपके चिकित्सा-शास्त्र में ऐसा ही लिखा है, क्यों?

 बिहारी - लिखा तो है ही। सेवा देख कर अपना भी माथा दुखने लगा। लेकिन फूटे कपाल को चिकित्सा के बिना ही चंगा हो जाना पड़ता है। महेंद्र भैया का कपाल जोरदार है।

 विनोदिनी ने कपड़े का ओछा टुकड़ा रख दिया। कहा - न, हमें क्या पड़ी! दोस्त का इलाज दोस्त ही करे।

 बिहारी ने सोचा - ऊँहूँ! दूर-दूर रहने से अब काम नहीं चलने का। चाहे जैसे हो, इसके बीच अपने लिए भी जगह बनानी पड़ेगी। इनमें से किसी को यह पसंद तो न होगा, लेकिन फिर भी मुझे रहना पड़ेगा।

 बुलावे या स्वागत की अपेक्षा किए बिना ही बिहारी महेंद्र के व्यूह में दाखिल होने लगा। उसने विनोदिनी से कहा - विनोद भाभी, इस शख्स को इसकी माँ ने बर्बाद किया, इसकी बीवी बर्बाद कर रही है - तुम भी उस जमात में शामिल न हो कर इसे कोई नई राह सुझाओ।

 महेंद्र ने पूछा - यानी?

 बिहारी - यानी मेरे-जैसा आदमी, जिसे कभी कोई नहीं पूछता...

 महेंद्र - उसको बर्बाद करो! बर्बाद होने की उम्मीदवारी इतनी आसान नहीं बच्चू कि दरखास्त दे दी और मंजूर हो गई।

 विनोदिनी हँस कर बोली - बर्बाद होने का दम होना चाहिए बिहारी, बाबू!

 बिहारी ने कहा - अपने आप में वह खूबी न भी हो तो पराए हाथ से आ सकती है। एक बार देख ही लो पनाह दे कर!

 विनोदिनी - यों तैयार हो कर आने से कुछ नहीं होता - लापरवाह रहना होता है। क्या खयाल है, भई आँख की किरकिरी! अपने इस देवर का भार तुम्हीं उठाओ न!

 आशा ने दो उँगुलियों से उसे ठेल दिया। बिहारी ने भी इस दिल्लगी में साथ न दिया।

 विनोदिनी से यह छिपा न रहा कि बिहारी को आशा से मजाक करना पसंद नहीं। वह आशा पर श्रद्धा रखता है और विनोदिनी को उल्लू बनाना चाहता है, यह बात उसे चुभी।