आँख की किरकिरी - 6 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँख की किरकिरी - 6

(6)

बिहारी ने कोई जवाब न दिया। वह जा कर महेंद्र से बोला, यार, विनोदिनी की भी सोचते हो?

 महेंद्र ने हँस कर कहा - सोच कर रात की नींद हराम है। अपनी भाभी से पूछ देखो, विनोदिनी के ध्यान से इन दिनों और सब ध्यान टूट गया है।

 घूँघट की आड़ से आशा ने महेंद्र को चुपचाप धमकाया। बिहारी ने कहा - अच्छा, दूसरा विषवृक्ष चुन्नी उसे यहाँ से निकाल बाहर करने को छटपटा रही है। घूँघट से आशा की आँखों ने फिर उसे झिड़का।

 बिहारी ने कहा - निकाल ही बाहर करो तो लौट आने में कितनी देर लगती है! अरे, विधवा का विवाह रचा दो, विष के दाँत एकबारगी टूट जाएँगे।

 महेंद्र बोला - विवाह तो कुन्द का भी कर दिया गया था।

 बिहारी ने कहा - इस उपमा को अभी छोड़ो! विनोदिनी की बात कभी-कभी मैं सोचा करता हूँ। तुम्हारे यहाँ तो जिंदगी-भर यह रह नहीं सकती और इनके यहाँ का जंगल किसी के लिए भी वनवास है।

 विनोदिनी आज तक महेंद्र के सामने नहीं गई, पर बिहारी ने उसको देखा है। उसने सिर्फ इतना समझा है कि यह स्त्री जंगल में छोड़ने लायक नहीं है। लेकिन शिखा घर के दीए में एक तरह से जलती है, और दूसरी तरह वह घर को आग भी लगा देती है। महेंद्र के मन में यह शंका भी थी।

 महेंद्र ने इस बात पर बिहारी की खूब खिल्ली उड़ाई। बिहारी ने भी इसका जवाब दिया। लेकिन उसके मन ने समझा था कि यह स्त्री खिलवाड़ करने की नहीं, उसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती।

 राजलक्ष्मी ने विनोदिनी को सावधान कर दिया। कहा - देखना बेटी, बहू से इतनी मिठास न रखना! तुम गाँव-घर से गृहस्थ के यहाँ रही हो- आजकल के चाल-चलन को नहीं जानतीं। बुध्दिमती हो, समझ-बूझ कर चलना!

 इसके बाद विनोदिनी ने आशा को दूर-ही-दूर रखा। कहा - मैं भई होती कौन हूँ! मेरी जैसी स्त्री से अगर आप अपनी इज्जत बचा कर चलना नहीं चाहते तो कब क्या हो जाएगा, कौन कह सकता है?

 आशा निहोरे-विनती करती, गिड़गिड़ाती, रोती-पीटती, लेकिन विनोदिनी एकदम अडिग। बातों से आशा आकंठ भर उठी, मगर विनोदिनी ने तरजीह न दी।

 इधर महेंद्र के बाजू शिथिल हो गए। जो अनियम और उच्छृंखलता पहले उसे कौतुक-सी लगती थी, वही अब धीरे-धीरे उसे दुखाने लगी। आशा की सांसारिक अपटुता से उसे खीझ होती, लेकिन जबान खोल कर कहता नहीं।

 प्यार की जलती हुई सेज पर आँख खोल कर धीरे-धीरे घर-गृहस्थी के धंधों, लिखाई-पढ़ाई में ध्यान दे कर महेंद्र ने करवट बदली। अपनी चिकित्सा-संबंधी किताबों का उसने जाने कहाँ-कहाँ से उद्धार किया और अपने कोट-पतलून को धूप दिखाने की चेष्टा की।

विनोदिनी जब बिलकुल ही पकड़ में न आई, तो आशा को एक तरकीब सूझी। बोली, भई आँख की किरकिरी, तुम मेरे पति के सामने क्यों नहीं आती, भागती क्यों फिरती हो?

 विनोदिनी ने बड़े संक्षेप में लेकिन तेज स्वर में कहा - छि:!

 आशा बोली - क्यों? माँ से मुझे पता चला है, तुम हम लोगों की गैर नहीं हो।

 गंभीर हो कर विनोदिनी ने कहा - संसार में अपना-पराया कोई नहीं होता। जो अपना मानता है, वही अपना है और जो पराया समझता है, वह अपना होते हुए भी पराया है।

 आशा ने देखा, यह बात लाजवाब है। वास्तव में उसके पति विनोदिनी के साथ ज्यादती करते हैं, सचमुच उसे गैर समझते हैं और नाहक ही उससे खीझा करते हैं।

 उस दिन साँझ को आशा ने बड़े नाजो-अंदाज से पति के सामने छेड़ा- तुम्हें मेरी आँख की किरकिरी से परिचय करना पड़ेगा।

 महेंद्र हँस कर बोला, तुम्हारे साहस की बलिहारी!

 आशा ने पूछा - क्यों, इसमें डर किस बात का?

 महेंद्र - अपनी सखी की जिस गजब की खूबसूरती का जिक्र किया करती हो वह तो खतरे से खाली नहीं।

 आशा ने कहा - खैर, वह मैं देख लूँगी। तुम उससे बोलोगे या नहीं, इतना बता दो।

 विनोदिनी को देखने का कौतूहल महेंद्र को भी था। फिर भी यह आग्रह उसे ठीक नहीं लग रहा था।

 हृदय के नाते के बारे में महेंद्र के उचित-अनुचित का आदर्श औरों की अपेक्षा कुछ कड़ा था। इसके पहले वह विवाह की बात नहीं सुनना चाहता था, इसलिए कि कहीं माँ के अधिकार पर आँच न आए। और अब आशा के संबंध की रक्षा वह इस तरह से करना चाहता कि किसी पराई औरत के लिए मन में जरा-सा कौतूहल न पैदा हो। प्यार के मामले में वह बड़ा वैसा-सा है, लेकिन पक्का- इस बात का उसे मन-ही-मन नाज भी था। यहाँ तक कि वह चूँकि बिहारी को अपना दोस्त कहता, इसलिए दूसरे किसी को भी वह मित्र नहीं मानना चाहता। कोई उसकी ओर खिंच कर आता भी तो वह जबर्दस्ती उसकी ओर से लापरवाही दिखाता और बिहारी के सामने उस बेचारे का मजाक उड़ाते हुए अपनी उदासी जाहिर करता। बिहारी कहीं एतराज करता तो महेंद्र कहता, यह तुमसे हो सकता है। कहीं भी जाते हो, तुम्हें मित्रों की कमी नहीं रहती, मगर मैं हर किसी को मित्र नहीं मान सकता।

 ऐसे महेंद्र का मन जब इधर एक अपरिचिता की ओर कौतूहल और व्यग्रता से बरबस खिंच जाया करता, तो अपने आदर्श के आगे वह नीचा हो जाता। सो वह विनोदिनी को घर से हटाने के लिए अपनी माँ को तंग करने लगा।

 महेंद्र ने कहा - रहने भी दो चुन्नी, तुम्हारी किरकिरी से गप-शप की फुर्सत कहाँ है अपने पास? पढ़ने के वक्त किताबों से नाता और फुर्सत की घड़ियों के लिए तुम हो- इस बीच... !

 दोनों के बीच में विनोदिनी के लिए सुई की नोक-भर भी जगह छोड़ने को महेंद्र तैयार नहीं था, यह बात उसके गर्व का विषय बन बैठी। उसका वह गर्व आशा से सहा नहीं जाता, पर आज उसने हार कबूल कर ली। कहा - खैर, मेरी ही खातिर तुम मेरी किरकिरी से बोलो!

 आशा के आगे अपने प्रेम की दृढ़ता और श्रेष्ठता प्रमाणित करके अंत में बड़ी कृपा करके वह विनोदिनी से बात करने को राजी हुआ।

 दूसरे दिन सुबह आशा गई और सोई हुई विनोदिनी से लिपट गई। विनोदिनी बोली - यह कैसा गजब! चकोरी आज चाँद छोड़ कर मेघ के दरबार में?

 आशा ने कहा - तुम लोगों की यह कविता मेरी समझ में नहीं आती, फिर गोबर में नाहक घी क्या डालना! जो इन बातों का जवाब दे सकता है, चल कर एक बार उसे सुनाओ!

 विनोदिनी ने पूछा - आखिर वह रसिक है कौन?

 आशा ने कहा - तुम्हारे देवर- मेरे पति। मजाक नहीं, तुमसे बातें करने के लिए वह मुझे परेशान कर रहे हैं।

 विनोदिनी अपने मन में बोली - बीवी के हुक्म से मेरी बुलाहट हुई है और मैं सिर पर पाँव रख कर भागी जाऊँगी- ऐसी समझा है मुझे!

 विनोदिनी किसी भी तरह तैयार न हुई। आशा पति के सामने बड़ी लज्जित हुई।

 मन-ही-मन महेंद्र इस पर बड़ा नाराज हुआ, मेरे सामने आने में एतराज! मुझे दूसरे मामूली लोगों-सा समझती है? और कोई होता तो जाने कब, कितने बहानों से विनोदिनी से मिलता, बोलता-चालता। लेकिन महेंद्र ने इसकी कभी कोशिश तक न की, इसी से विनोदिनी को क्या मेरा परिचय नहीं मिला? वह एक बार भली तरह जान लेती तो समझ जाती कि मुझमें और दूसरे किसी पुरुष में क्या फर्क है।

 दो दिन पहले विनोदिनी भी कुढ़न से बोली थी, इतने दिनों से इस घर में हूँ और महेंद्र एक बार मुझे देखने की कोशिश भी नहीं करता! बुआ के कमरे में होती हूँ तब भी वह किसी बहाने अपनी माँ के पास नहीं आता। ऐसी लापरवाही किस बात की। मैं कोई जड़ पदार्थ हूँ! मैं आदमी नहीं... स्त्री नहीं! कहीं वह मुझे जान पाता तो पता चलता कि उसकी प्यारी चुन्नी और मुझमें क्या फर्क है!

 आशा ने तरकीब सुझाई- तुम कॉलेज गए हो, यह कह कर मैं उसे अपने कमरे में ले आऊँगी कि अचानक बाहर से तुम आ जाना! बस, कोई बस न चलेगा।

 महेंद्र ने पूछा - आखिर किस गुनाह के लिए उसे इतनी बड़ी सजा?

 आशा बोली - मुझे गुस्सा आ गया है- तुमसे मुलाकात करने में भी आपत्ति! उसकी अकड़ तोड़ कर ही रहूँगी।

 महेंद्र बोला - तुम्हारी प्यारी सखी को देखे बिना मैं मरा नहीं जा रहा हूँ। मैं यों चोरों की तरह मिलना नहीं चाहता।

 आशा ने महेंद्र का हाथ पकड़ कर विनती की- मेरे सिर की कसम तुम्हें, एक बार, बस एक बार तो तुम्हें यह करना ही पड़ेगा। जैसे भी हो, उसकी हेकड़ी तो भुलानी ही पड़ेगी। फिर तुम्हारा जैसा जी चाहे करना।

 महेंद्र चुप रहा। आशा बोली - मेरी आरजू है, मान जाओ!

 महेंद्र को भी ललक हो रही थी। इसीलिए बेहद उदासी दिखा कर वह सहमत हुआ।

 शरत की धुली दोपहरी। महेंद्र के कमरे में विनोदिनी आशा को कार्पेट के जूते बनाना बता रही थी। आशा अनमनी-सी बार-बार बाहर ताक-ताक कर गिनती में भूल करके अपना बेहद सीधापन दिखा रही थी।

 आखिर तंग आ कर विनोदिनी ने उसके हाथ का कार्पेट झपट कर गिरा दिया और कहा - यह तुम्हारे बस का नहीं, मैं चलती हूँ, काम पड़ा है।

 आशा ने कहा - बस, जरा देर और देखो, अब भूल नहीं होगी।

 आशा सीने से लग गई।

 इतने में दबे पाँव महेंद्र आया और दरवाजे के पास विनोदिनी के पीछे खड़ा हो गया। आशा सिलाई पर आँखें गाड़े हुए ही धीरे-धीरे हँसने लगी।

 विनोदिनी ने पूछा - एकाएक हँसी किस बात पर आ गई?

 आशा से और न रहा गया। वह खिलखिला पड़ी और विनोदिनी के बदन पर कार्पेट फेंक कर बोली, तुमने ठीक ही कहा, यह मेरे बस का नहीं। और विनोदिनी से लिपट कर और जोर से हँसने लगी।

 विनोदिनी पहले ही ताड़ गई थी। आशा की चंचलता और हाव-भाव से उससे छिपा कुछ न था। वह यह भी खूब जान गई थी कि महेंद्र कब चुपचाप उसके पीछे आ कर खड़ा हो गया। निरी नादान बन कर उसने अपने को आशा के आसान जाल में फँसने दिया।

 अंदर आते हुए महेंद्र ने कहा - मैं बदनसीब ही इस हँसी से क्यों वंचित हूँ।

 चौंक कर विनोदिनी ने माथे पर कपड़े का पल्ला डाला और उठने लगी। आशा ने उसका हाथ धर दबाया।

 महेंद्र ने कहा - या तो आप बैठिए, मैं चला जाता हूँ, या फिर आप भी बैठिए, मैं भी बैठता हूँ।

 जैसा कि आम तौर से औरतें करती हैं, छीना-झपटी, शोर-गुल करके विनोदिनी ने शर्म की धूम नहीं मचाई। उसने सहज ही सुर में कहा - आपके ही अनुरोध से बैठती हूँ, लेकिन मन-ही-मन अभिशाप न दीजिएगा।

 महेंद्र ने कहा - अभिशाप दूँगा। दूँगा कि आप में देर तक चलने की शक्ति न रह जाए।

 विनोदिनी ने कहा - इस अभिशाप से मैं नहीं डरती। क्योंकि आपका देर तक ज्यादा देर का नहीं होगा, शायद अब खत्म भी हो चला।

 और उसने फिर उठ कर खड़ा होना चाहा। आशा ने उसका हाथ थाम लिया। कहा - सिर की सौगंध तुम्हें, और कुछ देर बैठो!

 आशा ने पूछा, अब सच-सच बताना, मेरी आँख की किरकिरी कैसी लगी तुम्हें?

 महेंद्र ने कहा - बुरी नहीं।

 आशा बहुत ही क्षुब्ध हो कर बोली, तुम्हें तो कोई अच्छी ही नहीं लगती।

 महेंद्र - सिर्फ एक को छोड़ कर।

 आशा ने कहा - अच्छा, परिचय जरा जमने दो, फिर देखती हूँ, अच्छी लगती है या नहीं।

 महेंद्र बोला - जमने दो? यानी ऐसा लगातार चला करेगा रवैया?

 आशा ने कहा - भलमनसाहत के नाते भी तो लोगों से बोलना-चालना पड़ता है। एक दिन की भेंट के बाद ही अगर मिलना-जुलना बंद कर दो, तो क्या सोचेगी बेचारी? तुम्हारा हाल ही अजीब है। और कोई होता तो ऐसी स्त्री से दौड़ कर मिला करता और तुम हो कि आफत आ पड़ी मानो!

 औरों से अपने इस फर्क की बात सुन कर महेंद्र खुश हुआ। बोला - अच्छा यही सही। मगर ऐसी जल्दबाजी क्या? मैं कहीं भागा तो नहीं जा रहा हूँ, न तुम्हारी सखी को भागने की जल्दी है- लिहाजा, बीच-बीच में भेंट हुआ ही करेगी और भेंट होने पर भलमनसाहत रखे, इतनी अक्ल तुम्हारे पति को है।

 महेंद्र ने सोचा था, अब से विनोदिनी किसी-न-किसी बहाने जरूर आ जाया करेगी। लेकिन गलत समझा था। वह पास ही नहीं फटकती कभी, अचानक जाते-आते भी कहीं नहीं मिलती।

 अपनी स्त्री से वह इसका जिक्र भी न करता कि कहीं मेरा आग्रह न झलक पड़े। बीच-बीच में विनोदिनी से मिलने की स्वाभाविक और मामूली-सी इच्छा को छिपाए और दबाए रखने की कोशिश में उसकी अकुलाहट बढ़ने लगी। फिर विनोदिनी की उदासीनता उसे और उत्तेजित करने लगी।