आँख की किरकिरी - 10 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँख की किरकिरी - 10

(10)

दो दिन हुए, राजलक्ष्मी उठने-बैठने लगी हैं। शाम को बदन पर एक मोटी चादर लपेटे विनोदिनी के साथ ताश खेल रही थी। आज उसे कोई हरारत न थी। महेंद्र कमरे में आया। विनोदिनी की तरफ उसने बिलकुल नहीं देखा। माँ से बोला - माँ, कॉलेज में मेरी रात की डयूटी लगी है। यहाँ से आते-जाते नहीं बनता - कॉलेज के पास ही एक डेरा ले लिया है। आज से वहीं रहूँगा।

 राजलक्ष्मी अंदर से रूठ कर बोलीं - जाओ, पढ़ाई में हर्ज होगा, तो रह भी कैसे सकते हो!

 बीमारी तो उनकी जाती रही थी, लेकिन जैसे ही उन्होंने सुना कि महेंद्र जा रहा है, अपने को बीमार और कमजोर महसूस करने लगीं। विनोदिनी से कहा - जरा तकिया तो इधर खिसका दो, बिटिया!

 और वह तकिए का सहारा ले कर लेट गई। विनोदिनी धीरे-धीरे उनके बदन पर हाथ फेरने लगी।

 महेंद्र ने उनके कपाल पर हाथ रखा, नब्ज देखी। माँ ने अपनी कलाई हटा ली। कहा - नब्ज से क्या खाक पता चलता है! तू फिक्र मत कर, मैं ठीक हूँ।

 कह कर उन्होंने बड़ी बमुश्किल करवट बदली।

 विनोदिनी से महेंद्र ने कुछ न कहा। राजलक्ष्मी को प्रणाम करके वह चला गया।

 विनोदिनी ने सोचा, आखिर माजरा क्या है? मान या गुस्सा या डर, पता नहीं क्या? मुझे यह दिखाना चाहते हैं कि वह मेरी परवाह नहीं करते? बाहर जा कर रहेंगे? अच्छा, यही देखना है, कितने दिन?

 लेकिन खुद उसके मन में भी बेचैनी लगने लगी।

 वह रोज ही उस पर नया फंदा फेंका करती, तरह-तरह के तीरों से वेधा करती थी। उस काम के चुक जाने से वह छटपटाने लगी। घर का नशा ही उतर गया। महेंद्र-विहीना आशा उसके लिए बिलकुल स्वाद-रहित थी। आशा को महेंद्र जितना प्यार करता था, वह विनोदिनी के प्यार के भूखे हृदय को मथा करता था। जिस महेंद्र ने उसके जीवन की सार्थकता को चौपट कर दिया, जिसने उस जैसी नारी की उपेक्षा करके आशा - जैसी मंदबुद्धि बालिका को अपनाया - उस महेंद्र को विनोदिनी चाहती है या उससे चिढ़ती है, उसे इसकी सजा देगी या अपने हृदय में एक आग लहकाई है, वह आग ईर्ष्या की है या प्रेम की या दोनों की मिलावट है, यह वह सोच न पाती। वह मन-ही-मन तीखी हँसी हँस कर कहती - मुझ-जैसी गत किसी भी स्त्री की नहीं हुई होगी। मैं यही नहीं समझ सकी कि मैं मारना चाहती हूँ कि मरना। लेकिन चाहे जिस वजह से भी हो, जलने के लिए या जलाने के लिए, महेंद्र की उसे नितांत आवश्यकता थी। गहरा नि:श्वास छोड़ती हुई विनोदिनी बोली - बच्चू जाएगा कहाँ? उसे आना पड़ेगा। वह मेरा है।

 घर की सफाई के बहाने शाम को आशा महेंद्र के कमरे में उसकी किताबें, उसकी तस्वीर आदि सामानों को छू-छा रही थी, अपने अँचरे से उन्हें झाड़-पोंछ रही थी। महेंद्र की चीजों को बार-बार छू कर, कभी उठा कर कभी रख कर अपने बिछोह की साँझ बिता रही थी। विनोदिनी धीरे-धीरे उसके पास आ कर खड़ी हो गई। आशा शर्मा गई। छूना तो उसने छोड़ दिया और कुछ ऐसा जताया मानो वह कुछ खोज रही है। विनोदिनी ने हँस कर पूछा - क्या हो रहा है, बहन?

 होठों पर हल्की हँसी ला कर बोली - कुछ भी नहीं।

 विनोदिनी ने उसे गले लगाया। पूछा - भई आँख की किरकिरी, देवर जी इस तरह घर से चले क्यों गए?

 विनोदिनी के इस सवाल से ही आशा शंकित हो उठी। कहा - तुम्हें तो मालूम है। जानती ही हो, काम का दबाव रहता है।

 दाहिने हाथ से उसकी ठुड्डी उठा कर, मानो करुणा से गल गई हो इस तरह सन्न हो कर उसने आशा को देखा और लंबी साँस ली।

 आशा का दिल बैठ गया। वह अपने को अबोध और विनोदिनी को चालाक समझा करती थी। विनोदिनी के चेहरे का भाव देख कर उसके लिए सारा संसार अंधकारमय हो गया। विनोदिनी से साफ-साफ कुछ पूछने की उसकी हिम्मत न पड़ी। दीवार के पास एक सोफे पर बैठ गई। विनोदिनी भी बगल में बैठी। उसे अपने कलेजे से जकड़ लिया। सखी के इस आलिंगन से वह अपने आपको सम्हाल न सकी। दोनों के आँसू झरने लगे। दरवाजे पर अंधा भिखारी मँजीरा बजाता हुआ गा रहा था, तरने को अपने चरणों की तरणी दे माँ, तारा!

 बिहारी महेंद्र की तलाश में आया था। दरवाजे पर से ही उसने देखा, आशा रो रही है और विनोदिनी उसे अपनी छाती से लगाए उसके आँसू पोंछ रही है। देख कर बिहारी वहाँ से खिसक गया। बँगले के अँधेरे कमरे में जा कर बैठ गया। दोनों हथेलियों से अपना सिर दबा कर सोचने लगा, आशा आखिर रो क्यों रही है? जो बेचारी स्वभाव से ही कोई कसूर करने में असमर्थ है, ऐसी नारी को भी जो रुलाए उसे क्या कहा जाए। विनोदिनी की उस तरह की सांत्वना, निस्वार्थ सखी-प्रेम को देख कर अभिभूत हो गया।

 वह बड़ी देर तक अँधेरे में बैठा रहा। अंधे भिखारी का गाना जब बंद हो गया तो वह पैर पटक कर खाँसता हुआ महेंद्र के कमरे की तरफ बढ़ा। द्वार पर पहुँचा भी न था कि आशा घूँघट काढ़ कर अंत:पुर की ओर भाग गई।

 अंदर पहुँचते ही विनोदिनी ने पूछा - अरे, क्या आपकी तबीयत खराब है, बिहारी बाबू?

 बिहारी - नहीं तो।

 विनोदिनी - फिर आँखें ऐसी लाल क्यों हैं?

 बिहारी ने इस बात का जवाब नहीं दिया। पूछा - विनोद भाभी, महेंद्र कहाँ गया?

 विनोदिनी गंभीर हो कर बोली - सुना है, कॉलेज में काम ज्यादा है। इसलिए उन्होंने वहीं कहीं पास में डेरा ले लिया है। अच्छा, मैं चलूँ!

 अनमना बिहारी दरवाजे के सामने राह रोक कर खड़ा हो गया था। चौंक कर वह जल्दी से हट गया। शाम के वक्त बाहर से सूने कमरे में इस तरह विनोदिनी से बात करना लोगों को अच्छा न लगेगा।- अचानक इसका ध्यान आया। उसके जाते-जाते बिहारी इतना कह गया - विनोद भाभी, आशा का खयाल रखिएगा। सीधी है बेचारी। उसे किसी को न तो चोट पहुँचाना आता है, न चोट से अपने को बचाना।

 अँधेरे में बिहारी विनोदिनी का चेहरा न देख पाया - उसमें ईर्ष्या के भाव जग आए थे। आज बिहारी पर नजर पड़ते ही वह समझ गई थी कि आशा के लिए उसका हृदय दु:खी है। विनोदिनी आप कुछ नहीं! उसका जन्म आशा को सुरक्षित रखने, उसकी राहों के काँटों को बीनने के लिए ही हुआ है! श्रीमान महेंद्र बाबू आशा से विवाह करें, इसीलिए किस्मत की मार से विनोदिनी को बारामात के बर्बर बंदर के साथ वनवास लेना पड़ेगा। और श्रीमान बिहारी बाबू से आशा की आँखों में आँसू नहीं देखे जाते, सो विनोदिनी को अपना दामन उठाए सदा तैयार रहना पड़ेगा! वह महेंद्र और बिहारी को एक बार अपने पीछे की छाया के साथ धूल में पटक कर बताना चाहती है कि यह आशा कौन है, और कौन है विनोदिनी! दोनों में कितना फर्क है! दुर्भाग्य से विनोदिनी अपनी प्रतिभा को किसी पुरुष-हृदय के राज्य में विजयी बनाने का अवसर नहीं पा सकी, इसलिए उसने जलता शक्तिशैल उठा कर संहार मूर्ति धारण की।

 बड़े ही मीठे स्वर में विनोदिनी बिहारी को कहती गई - आप बेफिक्र रहें, बिहारी बाबू! मेरी आँख की किरकिरी के लिए इतनी चिंता करके आप नाहक इतना कष्ट न उठाएँ।

 जल्दी ही महेंद्र को एक चिट्ठी मिली। उस पर पहचाने अक्षर देख कर वह चौंक गया। दिन में झमेलों के कारण उसने उसे खोला नहीं - कलेजे के पास जेब में डाल दिया। कॉलेज के लेक्चर सुनते हुए, अस्पताल का चक्कर काटते हुए यक-ब-यक उसे ऐसा लग आता कि उसके कलेजे के घोंसले में मुहब्बत की एक चिड़िया सो रही है। उसे जगाया नहीं कि उसकी मीठी चहक कानों में गूँज उठेगी।

 शाम को अपने सूने कमरे में महेंद्र लैंप की रोशनी में आराम से कुर्सी पर बैठा। अपनी देह के ताप से तपी उस चिट्ठी को बाहर निकला। देर तक उसने उसे खोला नहीं, मगर गौर से देखता रहा। उसे पता था कि खत में खास कुछ है नहीं। ऐसी संभावना ही नहीं कि आशा अपने मन की बात सुलझा कर लिख सकेगी। उसके टेढ़े-मेढ़े हरफों और आड़ी-तिरछी पंक्तियों से उसके मन के भावों की कल्पना कर लेनी होगी। आशा के कच्चे हाथों, बड़े जतन से लिखे अपने नाम में महेंद्र को एक रागिनी सुनाई पड़ी - साध्वी नारी के मन के गहन बैकुंठ से उठने वाला पावन प्रेम-संगीत।

 दो ही चार दिनों की जुदाई से महेंद्र के मन का वह अवसाद चला गया। सरल आशा के नवीन प्रेम की स्मृति फिर ताजा हो गई। इन दिनों गिरस्ती की रोजमर्रा की असुविधाएँ उसे खिझाने लगी थीं, अब वह सब मिट गया, बस कर्म और कारणहीन एक विशुद्ध प्रेमानंद की जोत में आशा की मानसी मूर्ति उसके मन में जीवंत हो उठी।

 महेंद्र ने लिफाफे को इत्मीनान से खोला। उसमें से चिट्ठी निकाल कर अपने गाल और कपाल से लगाई। महेंद्र ने जो खूशबू कभी आशा को भेंट की थी, अकुलाए नि:श्वास-सी उसी की महक खत में से निकल कर महेंद्र के प्राणों में पैठ गई।

 खत खोल कर पढ़ा। अरे, जैसी टेढ़ी-मेढ़ी पंक्तियाँ हैं, वैसी भाषा तो नहीं है! हरफ कच्चे, मगर उनसे बातों का मेल कहाँ? लिखा था-

 प्रियतम, जिसे भूलने के लिए घर से चल दिए, इस लिखावट से उसकी याद क्यों दिलाऊँ? जिस लता को मरोड़ कर माटी में फेंक दिया, किस हया से वह फिर धड़ को जकड़ कर उठने की कोशिश करे! जाने वह मिट्टी में मिल कर मिट्टी क्यों न हो गई!

 लेकिन इससे तुम्हारा क्या नुकसान है नाथ, लमहे भर को याद ही आ गया तो! उससे जी को चोट भी कितनी लगेगी! मगर तुम्हारी उपेक्षा काँटे-सी मेरे पंजर में चुभ कर रह गई है! तुम जिस तरह भूल बैठे, मुझे भी उसी तरह भुलाने की तरकीब बता दो।

 नाथ, तुमने मुझे प्यार किया था, यह क्या मेरा ही कसूर था! ऐसे सौभाग्य की मैंने स्वप्न में भी आशा की थी क्या? मैं कहाँ से आई, मुझे कौन जानता था? मुझे नजर उठा कर न देखा होता, मुझे अगर यहाँ मुफ्त की बाँदी बन कर रहना होता, तो मैं क्या तुम्हें दोष दे सकती थी? जाने मेरे किस गुण पर तुम खुद ही बिना मेघ के बिजली ही कड़की, तो उस बिजली ने सिर्फ जलाया ही क्यों? तन-मन को बिलकुल राख क्यों न कर डाला?

 इन दो दिनों में बेहद सब्र किया, बहुत सोचती रही, लेकिन एक बात न समझ सकी कि यहाँ रह कर भी क्या तुम मुझे ठुकरा नहीं सकते थे? मेरे लिए भी क्या घर छोड़ कर जाने की जरूरत थी? क्या मैं तुम्हें इतना घेरे हूँ? मुझे अपने कमरे के कोने में, दरवाजे के बाहर फेंक देने पर भी क्या मैं तुम्हारी नजर में आती? यही था, तो तुम फिर गए क्यों? मेरे कहीं जाने का क्या कोई उपाय न था? बह कर आई थी, बह कर चली जाती...

 यह चिट्ठी कैसी! भाषा किसकी थी, महेंद्र को समझते देर न लगी। महेंद्र उस पत्र को लिए स्तंभित रहा।

 बड़ी देर तक सोचता रहा। खत को उसने कई बार पढ़ा। कुछ दिनों तक जो दूर के आभास की तरह रहा, आज वह साफ प्रकट होने लगा। उसकी जिंदगी के आसमान के एक कोने में जो धूमकेतु छाया था, आज उसकी उठी हुई पूँछ आग की रेखाओं में जलती हुई दिखाई पड़ी।

 चिट्ठी यह असल में विनोदिनी की है। भोली आशा ने इसे अपनी बात समझ कर लिखा है। पहले जिन बातों को उसने कभी सोचा नहीं, विनोदिनी के लिखाने से वे ही बातें उसके मन में जाग उठीं। जो नई वेदना पैदा हुई, उसे इस खूबी के साथ आशा तो हर्गिज जाहिर नहीं कर सकती थी। वह सोचने लगी, सखी ने मेरे मन की बात को ऐसा ठीक-ठीक कैसे समझ लिया! और, इतना ठीक से जाहिर कैसे किया! वह अपनी अंतरंग सखी को और भी मजबूत सहारे की तरह पकड़ बैठी। क्योंकि जो बात उसके मन में है, उसकी भाषा उसकी सखी के पास है - इतनी बेबस थी वह!

 महेंद्र कुर्सी से उठा। भवों पर बल डाला। विनोदिनी पर क्रोध करने की कोशिश की। मगर बीच में आशा पर गुस्सा आ गया। आशा की मूर्खता तो देखो, पति पर यह कैसा जुल्म! वह फिर बैठ गया और इस बात के सबूत में उस खत को फिर से पढ़ गया। अंदर-ही-अंदर खुशी होने लगी। यह समझ कर उसने चिट्ठी को पढ़ने की बहुत चेष्टा की, मानो वह आशा की ही लिखी हो। लेकिन इसकी भाषा किसी भी तरह से भोली आशा की याद नहीं दिलाती। दो ही चार पंक्तियाँ पढ़ते ही सुख से पागल कर देने वाली एक झाग भरी शराब-जैसा संदेह मन को ढाँप लेता। प्रेम की इस प्रतीति ने महेंद्र को मतवाला बना दिया। उसे लगने लगा चाहे खुद के प्रति हिंसा करके ही मन को किसी और तरफ लगा दे। उसने मेज पर जोरों का मुक्का मारा और उछल कर खड़ा हो गया। बोला - हटाओ, चिट्ठी को जला डालें। चिट्ठी को वह लैंप के करीब ले गया। जलाया नहीं, फिर एक बार पढ़ गया। अगले दिन नौकर कागज की बहुत-सी राख उठा ले गया था, लेकिन यह राख आशा की चिट्ठियों की न थी, उसके उत्तर की कई अधूरी कोशिशों की राख थी, जिन्हें अंत में महेंद्र ने जला दिया था।