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घुटन - भाग १९

जीतने के बाद तिलक फूलों के हार से लदा हुआ ओपन जीप में बैठा कॉलेज के छात्र-छात्राओं के बड़े समूह के साथ हवेली के सामने से गुजर रहा था। हवेली के सामने आते ही उनका कारवाँ रुक गया। वीर प्रताप आज अपनी बालकनी में नहीं रुक्मणी के साथ अपनी हवेली के गेट पर खड़े दिखाई दिए। उनके हाथों में गुलाब के फूलों से महकता हुआ एक बड़ा ही खूबसूरत हार था। यूँ तो वीर प्रताप पहले यह हार वरुण को ही पहनाना चाहते थे लेकिन तिलक की सच्चाई जानने के बाद अब वो हार वह अपने ख़ुद के बेटे के गले में डालना चाहते थे। कॉलेज के ट्रस्टी होने के नाते उन्हें यह करना था।

जीप में बैठे तिलक ने हाथ में फूलों का हार लिए गेट पर खड़े वीर प्रताप की तरफ़ देखा, वीर प्रताप पलकें झपके बिना तिलक को निहार रहे थे। आज पहली बार उनकी आँखें आपस में टकराई थीं। आँखें मिलते ही तिलक की आँखों की गहराई में क्रोध था, शिकायत थी और वीर प्रताप की आँखों में आँसुओं के साथ प्यार छलकता हुआ दिखाई दे रहा था। ऐसा लग रहा था मानो उनकी आँखें माफ़ी की गुहार लगा रही हों। यह ऐसा दृश्य था जिसमें दोनों की जिव्हा शांत थी लेकिन आँखें बोल रही थीं। ज्वार भाटे की तरह दोनों तरफ तूफ़ान उठा था। 

कुमुदिनी खड़े-खड़े कभी अपने भाई की तरफ़ देखती कभी पिता की तरफ़। रुक्मणी को तो अंदाज़ा ही नहीं था कि यहाँ एक रहस्यमयी कहानी चल रही है जो कॉलेज के नाटक की तरह कोई नाटक नहीं, जीवन की सच्ची घटना पर आधारित है। जिसमें एक राज़ है लेकिन वह राज़ रुक्मणी कभी नहीं जान पाएगी। तिलक को हार पहनाने के लिए वीर प्रताप आगे बढ़ रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो उनकी हिम्मत ही नहीं हो रही थी आगे बढ़ने की परंतु मौका था, दस्तूर भी था और शायद उनके मन में यह इच्छा भी थी कि वह अपने बेटे के गले में जीत का वह हार पहना दें। धीरे-धीरे ही सही वह तिलक के पास आए। उन्हें पास आता देख तिलक अपने आप सोचे समझे बिना ही नीचे उतर गया। उसके पिता होने के साथ ही साथ वह उस कॉलेज के ट्रस्टी जो थे।

वीर प्रताप ने उसे हार पहनाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया तब उनकी आँखों से आँसू छलक कर तिलक की हथेली पर गिर गए लेकिन तिलक की हथेली उन आँसुओं का वज़न संभाल ना सकी क्योंकि उन आँसुओं में भले ही पछतावा हो, पश्चाताप हो, माफ़ी हो लेकिन उनके वह आँसू तिलक की माँ रागिनी के आँसुओं के आगे तिलक को तुच्छ लग रहे थे। लेकिन फिर भी रागिनी के संस्कारों के कारण तिलक का हाथ उम्र का लिहाज करके वीर के पैरों को स्पर्श कर गया। लेकिन उसकी आँखों में अब भी क्रोध ही था। 

वीर प्रताप को उस स्पर्श में अपने लहू की ख़ुश्बू आ रही थी परन्तु आज भी उनमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह छाती ठोक कर यह स्वीकार कर लेते कि तिलक उनका बेटा है भले ही उनका मन कर रहा था कि उसे अपने सीने से लगा लें, बेटा कहकर पुकारें। वीर प्रताप आज वरुण की हार में अपनी जीत महसूस कर रहे थे, वह ख़ुश थे कि आज उनका बेटा इस इतने बड़े कॉलेज का प्रेसिडेंट है।

इसके बाद तिलक अक्सर हवेली के नीचे आकर हॉर्न बजाता और कुमुदिनी को अपने साथ अपने घर लेकर जाता। रागिनी कुमुदिनी को भी बहुत प्यार करती थी।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक

क्रमशः

 

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