कुमुदिनी कुछ भी नहीं कह पा रही थी। उसके मन में इस समय दुःख और क्रोध का संगम हो रहा था। दुःख तिलक और रागिनी के लिए और क्रोध अपने पिता वीर प्रताप के लिए। उसकी आँखों से कुछ आँसू क्रोध के टपक रहे थे, कुछ दुःख के और कुछ प्यार के। रागिनी कुछ भी समझ नहीं पा रही थी लेकिन तिलक ने ऐसा किसी बड़ी वज़ह के कारण ही किया होगा, वह जानती थी।
कुमुदिनी बिना कुछ कहे कमरे से बाहर निकल गई। उसके पीछे-पीछे तिलक भी बाहर आ गया और उसने कहा, "कुमुद रोओ मत, चलो मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ देता हूँ।"
कुमुदिनी इस समय शायद कुछ भी सोचने समझने की हालत में नहीं थी। फिर भी बाइक पर बैठने के पहले वह वापस कमरे में गई तो रागिनी के पास जाकर उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो गई।
उसकी आँखों में आँसू और दोनों हाथों को आपस में जुड़ा देखकर रागिनी ने उसके दोनों हाथों को अपने हाथों में लेकर नीचे किया और दोनों कुछ पल एक दूसरे को देखती रहीं। उसके बाद रागिनी ने कुमुदिनी को अपने सीने से लगाते हुए कहा, "कुमुदिनी बेटा इस राज़ को राज़ ही रहने देना।"
कुमुदिनी कुछ ना कह पाई और बाहर जाने के लिए मुड़ी तो देखा तिलक भी वहाँ खड़ा होकर अपने आँसुओं को पोंछ रहा था। फिर वह बाइक पर बैठ गई। तिलक उसे छोड़ने हवेली तक आ गया। यह शाम का वही समय था जब वीर प्रताप अक्सर अपनी बालकनी में आते थे। तिलक ने हवेली के सामने पहुँच कर अपनी बाइक रोक दी। ऊपर से वीर प्रताप और रुक्मणी दोनों ही देख रहे थे। कुमुदिनी ने देख लिया था कि उसके पिता बालकनी में खड़े हैं। बाइक से उतर कर नीचे खड़े होकर वह तिलक के गले लग गई। उसकी बाँहों में उसे एक बड़े भाई का प्यार मिल रहा था।
उसने धीरे से कहा, "भैया"
तिलक ने उसके माथे का चुंबन लेते हुए कहा, "तुम्हारे पापा देख रहे हैं।"
"तो देखने दो उन्हें और सोचने दो। तुम्हारा उस दिन का नाटक देख कर वह यह तो समझ ही गए होंगे कि तुम उनके बेटे हो। हमें इस तरह देखकर उन्हें चिंतित होने दो भैया।"
यह दृश्य देखकर वीर प्रताप और रुक्मणी दोनों ही सन्न रह गए लेकिन दोनों के मन में अलग-अलग प्रकार की चिंता का विचरण हो रहा था।
रुकमणी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, " वीर यह क्या कर रही है कुमुदिनी, खुली सड़क पर खुले आम। उसे हमारा भी डर नहीं है देखो तो, चलो नीचे चलते हैं। ये लड़का तो वही नाटक वाला लग रहा है। उसकी इतनी हिम्मत, हमारे घर के सामने हमारी लड़की के साथ ऐसी हरकत कर रहा है। यही तो हमारे वरुण के खिलाफ़ चुनाव में भी खड़ा हुआ है। इस समय ही इसे हमारे शहर से बाहर का रास्ता दिखा दो।"
वीर प्रताप को काटो तो खून नहीं उनके शरीर के रोएं खड़े हो रहे थे। वह नहीं जानते थे कि तिलक ने कुमुदिनी को सब कुछ बता दिया है। वीर प्रताप ने कहा, "रुकमणी रुक जाओ इस समय आवेश में आकर कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है। हमारी बेटी उसके साथ है, उसे ऊपर आने दो। पहले हमें कुमुद से बात करनी चाहिए।"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः