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घुटन - भाग १४

पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था। ना जाने कितने ही हाथों में रुमाल थे जो अपनी आँखों से बहते आँसुओं को पोंछते-पोंछते अपनी क्षमता खो चुके थे, पूरे भीग चुके थे।

तभी स्टेज के पीछे से आवाज़ आई, " बहुत-बहुत धन्यवाद, इस नाटक के लेखक थे तिलक रागिनी गुंजन।" 

यह नाम सुनते ही वीर प्रताप के होश उड़ गए, उनके हाथ में जो पानी का गिलास था वह उनके हाथ से छूट कर ज़मीन पर गिर गया और उस गिलास का पानी उनका कुर्ता गीला कर गया। उस गीले कुर्ते पर उनकी आँख से कुछ आँसू टपक कर गिर गए। रुकमणी तो ख़ुद के आँसू पोंछने और ताली बजाने में व्यस्त थी इसलिए वह वीर को इस समय देख नहीं पाई। रुमाल से अपने आँसुओं को पोंछ कर वह उन्हें छुपाने की कोशिश करने लगे। वह अब जान गए थे कि यह नाटक उन्हें उनके पाप का एहसास दिलाने के लिए किया गया है। उनकी तरह दिखने वाला वह लड़का और कोई नहीं उनका अपना बेटा है, उनका अपना खून। लेकिन अब यह बात वह किसी से भी कह नहीं सकते थे, ना पत्नी से, ना बेटी से और ना उनमें इतनी हिम्मत थी कि वह तिलक गुंजन के पास जाकर छाती ठोक कर यह कह सकें कि मैं तुम्हारा बाप हूँ बेटा।

उधर रागिनी लेखक के रूप में तिलक का नाम उजागर होते ही वहाँ से उठकर जाने लगी। जाते-जाते दूर से ही सही लेकिन वर्षों बाद आज एक झलक उन्हें वीर प्रताप सिंह की दिखाई दे गई। वीर प्रताप खड़े होकर इधर-उधर देख रहे थे। वीर प्रताप की आँखों की पुतलियाँ शायद इधर-उधर घूम कर रागिनी को देखना चाह रही थीं पर वह वहाँ नहीं थी।

तिलक आज बेहद ख़ुश था कि उसने अपना वादा जो उसने अपनी माँ और ख़ुद से किया था, वीर प्रताप को एहसास दिलाने का, वह पूरा किया। तिलक पर्दे के पीछे से वीर प्रताप का उतरा चेहरा और आँखों के आँसुओं को देखकर थोड़ा सा चैन और सुकून महसूस कर रहा था।

इस नाटक को देखने के बाद वीर प्रताप अपने परिवार के साथ अशांत मन से एक बेचैनी लेकर घर वापस लौटे। वह रात भर सो नहीं पाए और करवटें बदलते रहे। आज उन्हें रागिनी के साथ बिताया हर पल याद आता रहा। वह आज रागिनी से पूछना चाह रहे थे कि आख़िर इतना बड़ा राज़ उसने क्यों छुपाया? लेकिन इसका उत्तर भी उनकी बेवफाई ने उन्हें ख़ुद ही दे दिया।

अब कॉलेज का दूसरा वर्ष शुरू हो गया और अब तिलक अपने दूसरे लक्ष्य की तरफ़ बढ़ रहा था। यह लक्ष्य था कॉलेज के प्रेसिडेंट के लिए चुनाव लड़ने का। इस चुनाव में वीर प्रताप के भाई का बेटा वरुण भी तिलक के खिलाफ़ चुनाव में खड़ा हो रहा था। वरुण वीर प्रताप का बहुत ही प्रिय था और वह उसे राजनीति में उतारना चाह रहे थे।

वीर प्रताप एक दिन अपनी बालकनी पर खड़े थे। तिलक अक्सर उसी होटल में चाय पीने आया करता था और होटल की छत पर जाकर उस जगह बैठता जहाँ से बालकनी स्पष्ट दिखाई देती थी। आज भी वह आकर उसी जगह पर बैठा। आज तिलक को वीर ने उस जगह बैठा देख लिया।

वीर का मन कर रहा था कि जाकर तिलक से मिलें, उसके सर पर हाथ फिरायें, उसे अपने सीने से लगायें लेकिन यह सब कुछ अब उनके लिए इतना आसान नहीं था। उनका अपना परिवार था, शहर में आदर सत्कार था, सम्मान था। लेकिन अपने जीवन का वह भूतकाल जिसे वह बहुत पीछे छोड़ आए थे भविष्य बनकर उनके सामने खड़ा था। वर्तमान उन्हें डरा रहा था। कभी-कभी भूतकाल में की हुई ग़लती जो इंसान उस समय तो कर देता है परंतु उस ग़लती का असर उसके भविष्य पर पड़ेगा। शायद उस समय वह यह सोच भी नहीं पाता। कुछ गलतियाँ ऐसी होती हैं जो हो गईं तो हो गईं; ना फिर उन्हें सुधारने की गुंजाइश होती है और ना ही पश्चाताप के लिए कोई रास्ता होता है। आज वीर प्रताप अपनी ग़लती के लिए पछता रहे थे पर अब उनके हाथ से बाजी निकल चुकी थी।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक

क्रमशः

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