अध्याय 17
"हेलो दादी !"
बड़े आराम से अपनी पुरानी यादों से अपने को अलग कर सरोजिनी ने मुड़ कर देखा ।
अरुणा आज लाल रंग की साड़ी पहने बहुत अच्छी लग रही थी।
"आओ !" सरोजिनी मुस्कुराते हुए बोली। "लाल रंग तुझ पर बहुत खिल रहा है बेटी!"
"थैंक्यू दादी" हंसते हुए अरुणा उसके पास आई। आज शाम को आप फ्री हैं ना ?"
सरोजिनी मुस्कुराई। "क्या प्रश्न है? सारे दिन ही मैं बेकार ही तो पड़ी हुई हूं?"
"फिर भी पूछ रही हूं। शाम को बाहर चलेंगे आ रही हो क्या ?"
"आती हूं ! कहां?"
"लालबाग। आज वहां रोज शो है। अम्मा-अप्पा को और कहीं जाना है। आप आइए ना।"
बेचारी इस लड़की को कोई दूसरा साथी नहीं मिला इस दया भाव से, "आऊंगी!" मुस्कुरा कर बोली।
आज शनिवार है उसे याद आया।
"आज घर में ही रहोगी ना?" बोली।
हाथों को ऊपर उठा कर सुस्ती छोड़कर, "करीब-करीब...." अरुणा बोली।
"अभी अप्पा के साथ साग सब्जी लेने जा रही हूं, वहां से आकर फिर सूती साड़ियों में कलफ लगाऊंगी, तेल लगाकर सिर धोना है । फिर साड़ियों को स्त्री करने देना है !"
"अरे बाप रे कितना काम !"
"मजाक कर रही हो !"
"नहीं, जिस तरह तुम बड़ी हुई हो उसके लिए तो यह ज्यादा ही है।"
"आपको भी तो लाड प्यार से बड़ा किया था। फिर बैल जैसे काम किया। उसमें और इसमें कोई संबंध है क्या ?"
"संबंध नहीं है। क्योंकि यह समय ही अलग है। हमारे जीने का तरीका ही दूसरा था। तुम तो आदमी पढ़ते हैं जैसे पढ़ी हो इसीलिए अंतर नहीं होना चाहिए क्या ?"
अरुणा का चेहरा हल्का सा काला पड़ा।
"मुझमें और आप में अंतर है दादी। इसीलिए तो मुझे एक हिस्सा मिलना चाहिए ऐसा जिद्द करने की सोचती हूँ। नहीं मिले तो झगड़ा करके गुस्सा होकर उसे छीनने की सोचती हूँ ।"
सरोजिनी बिना जवाब दिए उसे मौन होकर देखती रही ।
अरुणा अपने आप में बात कर रहे जैसे बोली "मेरे अंदर जो अंतर आया है उसे दूसरे लोग कब समझेंगे? विशेष रूप से आदमी लोग कब समझेंगे? उसे समझ कर उसके लिए एक इज्जत देना चाहिए ऐसा कब अपना समुदाय सोचेगा?"
अरुणा की आवाज यह कहते हुए गदगद हुई। उसकी आंखों में आंसू छलक आए।
सरोजिनी घबराई। यह बच्ची अब भी क्यों इस विषय पर बात करती हैं और भावनातिरेक में बहकर दुखी होती है।
उसे समाधान करने के लिए, उसके हाथ को धीरे से थपथपाया।
अरुणा अपने ही धुन में बोलती चली गई।
"यह न्याय नहीं है तो बताओ मैंने कुछ गलती की है जैसे मुझे ही नीचा दिखाते हुए ना रहे यह कब सीखेंगे ?"
सरोजिनी धीरे से बोली "समय बदल रहा है अरुणा, मैं जिस समय रही थी और तुम जिस समय रह रही हो उस में बहुत अंतर आया है उसे मैं देख रही हूं?"
'लड़कियों के मन में जो अंतर आया है वह आदमियों के मन में नहीं आया दादी। हमारे समाज में भी नहीं आया। इसीलिए तो एक बंद इमारत को तोड़कर बाहर आए जैसे बाहर खड़ी लड़कियां थक जाती हैं !"
"विरोध में खड़े होना इतना आसान नहीं है बच्ची। विरोध के लिए यदि तुम भी आती हो तो उसका सामना करने के लिए तुम्हें तैयार रहना चाहिए। उसे संभालने की होशियारी तुम्हें प्राकृतिक रूप से आनी चाहिए। तुमने जो किया है वह सही है ऐसा दूसरे सोचे वैसे परिस्थिति तुम्हें ही पैदा करनी है। मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं। परंतु धीरे-धीरे लोग बदलेंगे ऐसा मुझे विश्वास है। सभी लड़कियों के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है। शिक्षित होने से ताकत आती है। उस ताकत से समाज भी बदलेगा । उसे बदल देंगे। क्योंकि उसमें एक तुम भी हो।"
अपने आंखों में भरे हुए आंसुओं के साथ अरुणा ताली बजाकर हंसी।
"अरे बाप रे दादी, आप यदि पढ़ी होती तो पूरे शहर में तहलका मचा देती । कम से कम एक मंत्री तो बन गई होती।"
"इन सब सोच के लिए पढ़ने की जरूरत नहीं है। अनुभव ही बहुत है" कहकर सरोजिनी हंसी।
"अपनी कहानी को तो आप मुझे नहीं बता रही हैं....!"
"यह सब बताने लायक नहीं है बच्ची !"
"निश्चित रूप से कुछ है मुझे लगता है !"
सरोजिनी ने चकित होकर उसे देखा।
"कैसे बोल रही हो ?"
"दिनकर दादा को देखने के बाद लग रहा है !"
उसे हल्का सा सदमा लगा। अपने चेहरे ने और बात करने के ढंग से क्या उसे पता चल गया?
"अरे जा रे !" प्यार से बोली। "फिल्म देख-देख कर तुम कल्पना ज्यादा करने लगी हो ।"
"फिर कुछ नहीं है क्या ?"
"नहीं कुछ नहीं !"
"फिर तो आपकी कहानी में कोई इंटरेस्ट ही नहीं।"
"पिक्चर तो बिल्कुल बना नहीं सकते।"
कुछ भी न मालूम जैसे उस सीधी-सादी हंसी को अरुणा कुछ देर तक बड़ी उत्सुकता के साथ देखी।
"मुझे विश्वास नहीं हो रहा है दादी।"
"तुम्हें विश्वास करने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है क्योंकि मेरा जीवन बिना नमक-मिर्ची वाला था।"
"अरुणा !"
अंदर से कार्तिकेय की आवाज सुनाई दी।
अरुणा तुरंत उठ गई। "मैं चलती हूं दादी। अम्मा को गीजर ऑन करने के लिए कह देना।"
"आज मैं तुम्हारे सिर पर तेल लगाऊंगी।"
"राइटो !"
सरोजिनी उठ कर उसके साथ चल कर बाहर बरामदे तक आई। अरुणा और कार्तिकेय को जाते हुए देखकर वह बगीचे में जो कुर्सी थी उस पर बैठ गई।
अरुणा की बात सोच कर उसे हंसी आई। तमिल में कहावत है "सांप का दूध सांप ही जाने" इस तरह उसके अंदर कितनी शंकाएँ हैं सोचकर उसे आश्चर्य हुआ।
"दिनकर दादा को देखने के बाद निश्चित रूप से कुछ है लगता है !"
क्या कार्तिकेय ने भी ऐसा ही सोचा होगा? संकोच से उसका गाल हल्का लाल हो गया। "विरोधी" ऐसा अप्पा ने विशेष रूप से बोला था अम्मा की इतने सालों बाद उसे देखने की इच्छा है इसका कुछ मतलब है ऐसा कल्पना करेगा क्या?
"कुछ भी सोचने दो" वह अपने आप में बोली। "ये लोग अब मेरे बारे में कुछ भी सोचे तो क्या होगा ?"
दिनकर ने सोच-विचार कर ही पोती को मेरे पास भेजा। वे इतने साल कहां थे मुझे पता नहीं।
"एकदम से तमिलनाडु से नफरत करके उसे छोड़ आंध्र प्रदेश में चले गए...."
इसका मतलब आंध्र प्रदेश जाने के पहले एक घर रहा होगा ।
ऐसी नफरत होना है तो....
नफरत या डर? जल्दी से उसे एक बात याद आई।
"बेटा एक्सीडेंट में मर गया।"
आंखों फाड़कर उसने बाहर देखा। सभी बातें उसकी आंखों के सामने आने लगी। उसके मन की खिड़कियां खुली। "ओ" सोचते ही उसका दिल जोर से धड़कने लगा। नई बात जो समझ में आई उसे सोच उसका शरीर कांपने लगा।
उसे पुरानी बातें याद आनी शुरू हुई और उन्हें जोड़कर देखा।
धीरे-धीरे पहले समझ में नहीं आने वाली बातें अब उसके समझ में आने लगी।
उस समय कार्तिकेय आठ साल का था। जम्बूलिंगम का स्वभाव पहले जैसा ही था। परंतु सरोजिनी बदल गई थी। बच्चे को पैदा करके देने से उसकी कीमत सास की निगाहों में बढ़ गई थी। उसको भी बच्चे के तुतली बातें और उसका खेलना आदि ने सरोजिनी में एक नई शक्ति पैदा कर दी । तुम जो अपमान कर रहे हो उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा ऐसे उसने अपने कार्यों से जम्बूलिंगम को महसूस कराना शुरू कर दिया।
सासू मां को जंबूलिंगम का व्यवहार बुरा लगा।
"वह एक बेवकूफ है" मरते समय वह बोलने लगी। "वह मनुष्य की कीमत नहीं समझता है। रत्नम ने ऐसा कौनसा बड़ा काम कर दिया है पता नहीं। वह कितनी भी बेहुदी हरकतें करें तो यह बेहोश हुआ पड़ा रहता है। एक लड़का पैदा कर दें तो रिश्ता बढ़ जाता है? तुम्हें एक सन्यासी बना दिया उस पापी ने" ऐसा कहकर वह दुखी होती।"
सरोजिनी अपना मुंह ही नहीं खोलती। खोले भी तो "मैं तो तृप्ति से हूं ना" ऐसा कहती क्या ?
"तू भाग्यशाली है !" ऐसा कह के उसकी नजर उतारती । "तू मनुष्य नहीं देवी है। वरना एक साधारण स्त्री में इतनी सहनशक्ति कैसे होती।"
उसे चुपचाप अपने कमरे में बुलाकर अपने सब गहनों को लक्ष्मी, सरोजिनी का ही है ऐसा पत्र लिखकर उसे रजिस्टर कराने को बोला।
सास के मृत्यु के बाद जब सब काम खत्म हुआ तो उसे पिछवाड़े में एक रात वह सोई हुई थी तब जम्बूलिंगम और एक दूसरे आदमी की आवाज सुनाई दी। यहां से अंदर चली जाऊँ उसने सोचा। परंतु उसका शरीर बहुत ही थका हुआ था। "मैं सोई नहीं हूं उन्हें पता नहीं" उस धैर्य के साथ आलस में पड़ी हुई थी।
"काम खत्म हो गया स्वामी" वह आदमी बोला |
"कैसे?" जंबूलिंगम ने पूछा।
"छोटा बच्चा सड़क पर इधर-उधर जा रहा था तो ड्राइवर ने उसके ऊपर चढ़ा दिया।
"किसी को संदेह तो नहीं होगा ? अपनी गाड़ी है मालूम तो नहीं कर लेंगे?"
"इन बातों की फिक्र मत करिए। वह दूसरा जिला है। अपने नंबर प्लेट को भी बदल दिया ।
"लड़का कितने साल का था ?"
"चार साल का"
उस दिन समझ में ना आने वाली बात आज साफ उसके समझ में आई।
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