बंद खिड़कियाँ - 7 S Bhagyam Sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बंद खिड़कियाँ - 7

अध्याय 7

सरोजिनी स्वयं तैयार होकर अपने कमरे में अरुणा का इंतजार कर रही थी।

दोपहर का खाना खाकर थोड़ी सी नींद निकालने के बाद कॉफी पीने जब उठी तब अरुणा घर आ गई थी। उसका चेहरा थका हुआ होने पर भी वह उत्साहित थी।

उसे देखते ही "हेलो दादी" हंसते हुए बोली।

"मुझे अमेरिका की एंबेसी में नौकरी मिल गई।"

अरुणा उससे गले मिलकर हंसी।

"मैं भूली ही नहीं, टिकट लेकर आई हूं !"

"शंकर आ रहा है क्या ?"

"नहीं हम दोनों लोग ही हैं।"

अरुणा ने झुक कर दादी को मजाक से देखा।

"क्यों पूछ रही हो दादी ?"

"ऐसे ही पूछा। छोटे हो तुम दोनों जाते समय मैं क्यों आऊं !"

"यह दादी बहुत तेज है" ऐसा सोच एक नजर से अरुणा, दादी को देखकर हंसी।

"हम दोनों के जाते समय एक आदमी क्यों इसलिए शंकर नहीं आया।"

"होशियार लड़का है" कहकर सरोजिनी हंसी। "तुम जाकर थोड़ा नाश्ता करके तैयार हो। मैं भी तैयार होती हूं।"

"मुझे सिर्फ काफी ही चाहिए।" मुरूगन को आवाज देकर कुर्सी को खींच कर बैठ गई।

"अम्मा कहां है दादी ?" धीरे पूछी।

"पता नहीं। आज सहेलियों के घर में किट्टी पार्टी है लगता है...."

अरुणा को बकवास लगा।

"इस अम्मा को तो दूसरा कोई काम नहीं है। किट्टी पार्टी में चिटफंड से ही रुपए जमा करना है क्या ? यह पिछड़ा हुआ काम ही नहीं है। बहुत ही खतरनाक रिश्ता है यह।"

सरोजिनी बिना जवाब दिए कॉफी पी रही थी।

"एक-दूसरे की बातें ही यही होती है। अपने स्टेटस, अपने रुपयों के बारे में ढिंढोरा पीटने के लिए इस तरह की भीड़ जमा होती हैं।"

"आज नहीं जाऊंगी ऐसे ही पहले नलिनी बोल रही थी। बार-बार फोन आने की वजह से गई होगी" धीरे से सरोजिनी बोली।

"हां... आज जाने की इच्छा ना होने का कारण है ना" अरुणा बोली। "मेरे विषय के बारे में सभी लोग पूछेंगे उसका डर, संदेह और संकोच के कारण नाटक करने की उन्हें आदत सी पड़ गई।"

सरोजिनी ने उसके हाथ को धीरे से दबाया।

"लड़कियों के बारे में सोचे तो मुझे धोखा होता है दादी। साधारणत: सभी लोग औरतो को परेशान करने वाली समस्याओं को ठीक तरह से यथार्थ भाव से नहीं देखते क्यों पता है दादी ?"

सरोजिनी समर्थन में हंसी। "मालूम है बच्ची। लड़कियों को ही लड़कियों के ऊपर दया भाव नहीं है।"

"बिल्कुल ठीक बोला आपने" गुस्से से अरुणा आगे बोली।

"मैं बिल्कुल भी सहन न करने के कारण ही पति से अलग होकर आई हूँ ऐसा अम्मा और उनकी सहेलियां नहीं सोचेंगी। मुझमें ही कोई कमी है ऐसा ही वे आपस में बात करेंगी। हम सब एक साथ, अर्थात् लड़कियों का समुदाय अपने अंदर एक हीन भावना रखते हैं उसे दूर कर दूसरों की गलतियों को बताना बंद करना होगा और मिलकर रहे तभी हमारे लड़कियों का विमोचन होगा दादी। नहीं तो कभी विमोचन नहीं होगा। सिर्फ आदमियों को ही कहने से कोई दोष नहीं है।"

सरोजिनी सौम्यता से बोली “दूसरी लड़कियां तुम्हारे बारे में क्या सोच रही हैं वह मुख्य बात नहीं है बेटी। तुम्हारे अंदर कोई भी असमंजस नहीं रहना चाहिए। तुमने जो फैसला किया है वह सही है तुम असमंजस में नहीं हो ऐसा मुझे लगता है |" 

“मुझे किसी तरह का असमंजस नहीं है दादी।” सिर झुका कर अरुणा बोली।

"फिर बेकार में परेशान मत हो | तुम्हारे कमाने के बाद सब ठीक हो जाएगा। जीभ को मोड़कर बात करने वाले सब भूल जाऐंगे। जाकर अपने चेहरे को धो कर अच्छी तरह से ड्रेस करके आओ।"

जवाब में अरुणा हंसी तो उसमें एक अपनत्व का पता चला।

"चलो आप भी तैयार हो जाओ।"

सरोजिनी एक मुस्कान के साथ अपने कमरे में चली गई। "इस बच्ची को अपनी पुरानी जिंदगी को पूरी तरह से भूलना चाहिए," वह अपने आप में कहने लगी।

दिमाग व्यस्त रहेगा तो कमी का एहसास नहीं होगा। नहीं तो खाली दिमाग शैतान का घर हो जाता है ‌। वैसे शैतान कोई बन जाए तो मैं उसकी गलती नहीं मानूंगी। दूसरा रास्ता नहीं था ऐसा ही वह सोचती है ।

सिर्फ सुबह गर्म पानी के चूल्हे को जलाने, नाश्ता तैयार करने हैं, चटनी पीसने, खाने के लिए सब्जी काटने और उसे पकाने में शरीर ही काम में आता है और दिमाग का काम नहीं होता तो भी जो हो रहा है उसका मौन हिसाब रखता ही रहेगा। यह मौन हिसाब जब विश्वरूप धारण कर शैतान में परिवर्तित हो जाता है तो जब उस पर कोई ध्यान नहीं देता। तब वह शैतान सहन न कर सकने के कारण वह ढीठ हो जाता हैं उसे देख सभी लोग घबरा जाएंगे...

बाहर जाने को तैयार हो खिड़की के पास एक कुर्सी पर बैठकर सरोजिनी को हंसी आई।

दूसरी तरफ मौन होकर सिर झुका कर खड़ी सरोजिनी नजर आई।

अंदर जंबूलिंगम नई पत्नी के साथ मस्ती कर रहा था। उसका नाम रत्नम है जो सरोजिनी को पसंद नहीं। कोई नाचने वाली जैसे नाम है । कोई सुंदर जैसे भी नहीं है। सिर्फ उसकी छाती बहुत बड़ी दो नारियल रखे हुए जैसे भारी हैं। यही जंबूलिंगम के नजर में आया होगा ऐसा सरोजिनी नफरत के साथ सोची। रत्नम की तकदीर से जंबूलिंगम अब घर पर देर से नहीं आता। घर में जब भी होता है कमरे को बंद करके नई पत्नी के साथ ही रहता है । रत्नम को इन सब की जरूरत है ऐसा सरोजिनी ने सोचा। दूसरे दिन सरोजिनी को जो थकावट होती थी वह उसमें दिखाई नहीं दे रही है। यह बिल्कुल राक्षस किंगर वंश की है ऐसा सरोजिनी को लगता था।

"एक लड़का पैदा करके दे दो ऐसे नई बहू के सामने मैंने एक शर्त रख दी " ऐसा मेरी सास अपनी सहेलियों से बोलकर हंसती थी। सरोजिनी मौन होकर अपने कामों में लगी रहती थी। वंश को एक वारिस देने की जिम्मेदारी होने की वजह से नई बहू को रसोई में काम करने के लिए नहीं भेजते क्योंकि वह थक न जाए इस बात का मां-बेटा दोनों बहुत ध्यान रखते थे। कई गाड़ियों में भरकर इसका दहेज भी आया यह भी एक कारण होगा ऐसा सरोजिनी ने सोचा।

सरोजिनी जल्दी-जल्दी से रसोई के कामों में लगी हुई थी। एक और नारियल को घिसने पर ही चटनी के लिए पूरा पड़ेगा।

नारियल को तोड़कर जैसे ही गर्दन को ऊंची की तो जंबूलिंगम दरवाजे पर खड़े दिखाई दिए।

उसको कारण समझ में नहीं आने से दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसे आमने-सामने देखे ही कई दिन हो गए थे। रत्नम के आने के बाद नीले रंग के वेलवेट के गद्दे को उसने छुआ भी नहीं वह उसका नहीं था। बच्चे बड़े हॉल में लाइन से सोते थे उनके साथ ही उसे जमीन पर सोना होता था। क्यों यह बात बच्चों ने भी कभी नहीं पूछा। यह भी एक मजाक है । यहां पर बड़ी शांति है। पीट दिया जैसे अच्छी नींद आती है। जंबूलिंगम के आने का इंतजार की भी जरूरत नहीं होने से टाइम से खाने का काम खत्म हो जाता है। फिर भी उसके साथ धोखा हुआ और अपमान किया जैसे उसके मन के अंदर एक भूत सवार हो गया था।

जंबूलिंगम के जरी वाले धोती के नीचे काले पैरों को देखते हुए वह खड़ी रही।

"इधर आ मैं आकर खड़ा हुआ हूं दिखाई नहीं दे रहा?" उसने गर्जना की। "रत्ना के कमर में बहुत दर्द हो रहा है उसे अरंडी का तेल लगाकर मालिश कर दे और गर्म पानी डालकर उसे नहलाओ ...."

आश्चर्य और अपमान से उसका चेहरा लाल हुआ।

"यहां बहुत काम है" वह बड़बड़ाई। "बच्चे नाश्ते के लिए आ जाएंगे। मरगथम को भेजती हूं।" किसी तरह बोली।

वह गुस्से में आकर उसके गाल पर एक चांटा मारा।

"कामवाली को बुलाने के लिए मुझे पता नहीं है ? वह बाथरूम में हैं जल्दी से जाओ। काम का कुछ भी होने दो।

रत्नम को कोई भी शर्म है ऐसा नहीं लगा। एक स्टूल पर बिल्कुल नंगी बैठी हुई थी। इसके कमर में कुछ नहीं हुआ उसके समझ में आया। अपने महत्व को बताना और मुझे समझाने के लिए ही यह नाटक है ऐसा मुझे लगा। उसे तेज गुस्सा आया। चूल्हे पर गर्म पानी बहुत देर से गर्म हो रहा था उस चूल्हे की लकड़ी को उठाकर इसके छाती पर दे मारूँ ऐसे उसके मन में एक भूत सवार हुआ।

"चलें दादी ?"

सरोजिनी धीरे से अपने स्थिति में लौटी।

"क्यों दादी आपका चेहरा क्यों लाल हो रहा है ? आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या? अरुणा बोली।  

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