बंद खिड़कियाँ - 15 S Bhagyam Sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बंद खिड़कियाँ - 15

अध्याय 15

"आप अच्छे हैं?" सरोजिनी ने धीमी आवाज में पूछा उसके मन में थोड़ी घबराहट हो रही थी।

"ओ ! बहुत अच्छी तरह से हूँ कोई कमी नहीं, अभी मेरे दांत भी नकली नहीं है वही है" दिनकर के हंसी में 50 साल फिर से फिसल के चले गए।

"रसोई में रहने पर भी लाल रंग की साड़ी अच्छी लगती है "उसके शब्द सुनाई दे रहे जैसे उसे भ्रम हुआ।

दिनकर कार्तिकेय की तरफ इशारा कर "यही आपके बेटे हैं?"बोले

तुरंत सरोजिनी अपने को संभाल कर मुस्कुरा दी।

"हां, कार्तिकेय इसका नाम है। 'ये वे' ऐसा सम्मान देने की क्या जरूरत है ? यह आपके बेटे जैसा है।"

दिनकर के नजर में एक उत्सुकता और खुशी दिखाई दी। उठ कर कार्तिकेय की हाथों को पकड़ा फिर "आओ बेटा यहां बैठो, तुम्हारे आने से मुझे बहुत खुशी हुई।" कहकर अपने पास के कुर्सी पर उन्हें बिठाया।

"यह मेरी पोती, अरुणा है" सरोजिनी ने अरुणा के कंधे को पकड़ते हुए बोला।

"वानक्कम दादा" कहते हुए अरुणा दोनों हाथ जोड़कर मुस्कुराई।

दिनकर ने उसे बड़े प्यार से देखा।

"छोटी उम्र में तुम्हारी दादी भी बिलकुल ऐसी ही थी |" बोले।

मुस्कुराते हुए बैठी सरोजनी पर एक नजर डालकर, "अभी भी आपको याद है क्या, 50 साल हो गए आपको देखे दादी बता रही थी?" सरोजिनी बोली।

"बहुत अच्छी तरह याद है। तुम्हारे दादाजी और मैं जिस समय पक्के दोस्त थे उस समय अक्सर तो क्या रोज ही जमींदार जी के महल में जाने की मुझे आदत थी।"

कार्तिकेय और अरुणा दोनों ही मौन बैठे हुए थे जिस पर ध्यान ना देकर अपने ढंग से दिनकर बात करे जा रहे थे।

"पोंगल त्योहार पर, जमींदार जी के महल में बहुत बड़ा फंक्शन होता था। एक महीने पहले से ही घर में तैयारियां शुरू हो जाती। जमींदार की पत्नी होने पर भी सरोजिनी अम्मा चावल को फटकारने से लेकर मिठाईयां बनाने तक सब कुछ वही करती थी।"

सरोजिनी संकोच से हंसी।

"यदि मुझे जमींदार की पत्नी हूँ इसका किसी ने मुझे एहसास कराया होता तो मैं जमींदारनी जैसे सम्मान से रहती ?"

यहां पर और कोई भी है यह ना सोच कर दिनकर और सरोजिनी अपने विचारों में मुस्कुराते हुए एक दूसरे को देखते हुए बैठे थे।

"वह समय ऐसा था।" धीमी आवाज में दिनकर बोले, "जमींदार का मतलब एक स्टेटस में रहना ऐसा ही सोचते थे। बहू और पत्नी को उनके स्थान पर ही रखना चाहिए उस समय ऐसे ही सोचने का जमाना था...."

"मैं सबको भूल गई साहब" सरोजिनी मुस्कुराते हुए बोली "मुझे जो जगह दिया था उससे ज्यादा ही मैंने ले लिया मुझे अभी ऐसा लगता है।"

दिनकर ने उसे कुछ सोचते हुए देखा।

"मेरे मन में भी कोई दुख नहीं है ।"

"कोई दुख भी क्यों होना चाहिए साहब ?" बोलकर आगे बोली "आप ही ने तो सफाई दी थी ना वह जमाना ही ऐसा था। इतना ही अपने को मिलेगा मालूम होने के बाद आशा कहां होती है ? अपने कर्तव्य को यदि मैं पूरा नहीं करती तब मुझे दुख होता। अपनी जमीन के लिए कोई वारिस नहीं है सास को दुख था। जब उसे भी दूर कर दिया फिर मुझे कोई दुख नहीं है।"

दिनकर ने जल्दी से सिर उठाकर उसे मुड़कर देखा। सिर झुका कर धीमी आवाज में बोले "आप एक असाधारण औरत हो सरोजिनी अम्मा।"

दोनों ही लोग अपनी भावनाओं को बाहर उड़ेलने में संकोच कर रहे हो ऐसा एक-दूसरे को देखते हुए बैठे रहे।

उसी समय याद आया जैसे सरोजिनी दिनकर से बोली "आपको मरगथम की याद है? उसका लड़का है ये मुरूगन। मरगथम मर गई। यह हमारे साथ ही है।"

"मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है," कह कर दिनकर हंसे। "आम के पेड़ पर एक भी कैरी को पकने नहीं देते थे तुम इसके लिए जंबूलिंगम से कितनी मार खाते थे !"

मुरुगन शर्म से हंस दिया।

"उसके बाद बड़ी अम्मा दवाई लगाती थीं। वह दया नहीं करती तो मैं आज मनुष्य जैसे खड़ा नहीं हो पाता। सचमुच में अम्मा एक देवी ही हैं। नहीं तो बड़े साहब के गुस्से को कौन सहन कर सकता ?"

"हे भगवान ! ऐसा बोलना ठीक नहीं मुरूगन भगवान भी नाराज हो जाएंगे । मैं बहुत साधारण स्त्री हूं। मुझमें बहुत से दोष और कमियां है...."

"हां दादी" अरुणा बोली। "हां ऐसे मुंह बंद करके बैठे रहे इसमें कोई देवी वाली बात हो मुझे नहीं लगता...."

कार्तिकेय ने मुंह नहीं खोला। अपने अप्पा के बारे में किसी का बोलना उनको पसंद नहीं आया जैसे वे मौन रहें।

"उस जमाने में और कोई रास्ता नहीं था बच्ची!" दिनकर अरुणा को देखकर बोले। "परंतु तुम्हारी दादी स्वाभिमानी थी। समय आने पर इतनी तकलीफ में भी अपने स्वाभिमान को दिखाए बिना नहीं रहती थी ।"

सरोजिनी ने अपना सिर झुका लिया।

"आखिर तक मेरे विषय में वे नहीं बदले...."

"वे बदलेंगे ऐसा आपने सोचा क्या सरोजिनी अम्मा ?"

"नहीं" बड़े तसल्ली से सरोजिनी बोली। "अभी भी उनमें मुझे कोई कमी पता नहीं चला सहाब। कभी-कभी मुझे उनको सोच कर दया आती है।"

"जंबूलिंगम को सोचकर?" गुस्से से दिनकर बोले। फिर कार्तिकेय को देखकर "माफ करना भैया। तुम्हारे अप्पा की कमियों को गिना रहे हैं ऐसा गलत मत समझना। मैं और जम्बूलिंगम दोनों साथ में बड़े हुए हैं। साथ-साथ पढ़े हैं । हमेशा से ही उसे ज्यादा अहंकार था। परंतु मेरे साथ वह बहुत मिलकर रहता था। मेरी बात का सम्मान देता था। कितना भी नजदीक का दोस्त हो फिर भी एक हद तक ही अच्छी बात को बता सकते हैं। एक बड़े जमींदार के वारिस बन जाने से उसके अधिकार बहुत ज्यादा होने पर उसको मैं क्या कह सकता हूं? गलत सहवास में पड़ गया। वेश्या के घर में पीकर पड़े होने पर मैं उसे ढूंढ कर घर पर लाकर छोड़ता। सरोजिनी अम्मा बिना खाना खाए उसके लिए इंतजार करती रहती। इन्होंने कितनी मार खाई होगी, कितना अपमान सहा होगा परंतु इन्होंने कभी बाहर कुछ नहीं कहा फिर भी मुझे सब बातों का पता था । जो अन्याय किया है वही कम नहीं है करके दूसरी शादी और कर ली।"

"अब यह सब क्यों ?" सरोजिनी धीरे से बोली। "हम लोगों की जिंदगी अब खत्म होने वाली है। उनकी तो खत्म हो गई।"

"वह ठीक है" दिनकर बोले। "पूरी जिंदगी व्यर्थ हो जाने के बाद उसके बारे में बात करके क्या फायदा ? फिर भी कुछ बातें भूलने की सोचें तो भी भूल नहीं पाते, 50 साल हो जाए तो भी भूल नहीं पाते। इसीलिए यहां आए हैं तो इस समय आपको और आपके बेटे को देखने की मेरी इच्छा हुई।"

"आपको मैंने देखा नहीं" कार्तिकेय बोले। "बड़ा आश्चर्य होता है मुझे पता भी न देकर आप ऐसे कहां चले गए ? अप्पा के मौत के बाद आपको सूचना देने का हमने प्रयत्न किया था। आपका पता है हमें पता नहीं था।"

एक क्षण के लिए सरोजिनी को देखकर दिनकर ने सिर झुका लिया।

"खेती-बाड़ी मकान सब कुछ चले जाने के बाद मनुष्य का पता क्या है?" हल्के मुस्कान के साथ बोले।

"कुछ दिन पास के क्षेत्र में रहा। मेरा एक लड़का पैदा हुआ। 5 साल का बच्चा सड़क पर खेल रहा था। एक गाड़ी आकर टकराने से वह मर गया।"

"कितने साल पहले ?" अधीरता से सरोजिनी ने पूछा।

"मुझे भी याद नहीं है अम्मा" थके हुए आवाज में दिनकर बोले।

"उसके बाद तमिलनाडु की हवा भी नहीं चाहिए सोचकर आंध्रप्रदेश में चला गया। इस शहर में आप लोग रहते हैं ऐसा एक गांव के आदमी ने जो अकस्मात आया था उसने बताया। तब मैंने पते को लिखकर रख लिया था।"

सरोजिनी के चेहरे से मुस्कुराहट गायब हो गई।

"कितने दिन आप यहां रहेंगे?" ये प्रश्न बड़ी मुश्किल से पूछा।

"कल ही रवाना हो रहा हूं।'

"इतनी जल्दी क्यों ?"

"जल्दी ? मुझे यहां आए हुए एक महीने से ज्यादा हो गया!"

"बहुत सोचकर ही श्यामला को सरोजिनी अम्मा के पास भेजा। इस शहर में आकर आपको और भैया को देखे बिना जाने का मेरा मन नहीं किया।"

अपनी भावनाओं को भूलकर सरोजिनी हल्के से मुस्कुराई।

"दोबारा कब मिलेंगे पता नहीं, पता दे दो तो पत्र तो लिख सकते हैं।"

"मैं देती हूं" कहकर श्यामला लिख कर दी।

कार्तिकेय चलते समय उन्हें प्रणाम कर संकोच से बोला "आपको किसी भी तरह की मदद की जरूरत हो तो मुझे बिना संकोच के बोलिएगा!"

दिनकर उनके कंधे को वात्सल्य के साथ पकड़ा। "अब मुझे क्या चाहिए बेटे? यम आकर ले जाने का समय आ गया है। आज मेरा मन भरा हुआ है। यही मेरे लिए बहुत है" वे बोले।

घर वापस आए तो सरोजिनी का मन वर्तमान से भूतकाल की ओर जाकर खड़ा हो गया।

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