अध्याय 14
सुबह उठते ही सरोजिनी को याद आया कि आज शनिवार है और कार्तिकेय की आज छुट्टी है । कल रात सोने जाते समय उसने बोला था।
"आपको जाना है बोला था ना, उस बुजुर्ग आदमी को देखने कल चलें ठीक है?"
"आपके लिए ही चल रहा हूं"ऐसा कह रहा है उसे लगा। 'इसके अप्पा ने इससे जाने क्या-क्या बोला होगा'यह सोचकर उसे फिक्र लगी। दिनकर मेरा विरोधी है इतना कह कर छोड़ दिया होगा क्या?
जंबूलिंगम की गुस्से वाली आंखें गुस्से से चौड़ी दिख रही थी। इस समय सोचने पर भी अजीब सा डर लगता है, सिनेमा के थिएटर में प्रभाकर को दूर से देखकर ही अरुणा का चेहरा काला पड़ गया था।
अरुणा इस डर से बाहर आ सकी। और चार-पांच साल में वह प्रभाकर के बारे में भूल जाएगी। मेरे जैसे मरने तक मार खाते नहीं रहना पड़ेगा। मेरे जाने की जगह न होने के कारण पति से मार खाकर उसके क्रोध के दंड को झेलना पड़ा....
दंड के बारे में सोचने से ही मुंह बंद करके रहना पड़ा था । उस जमाने में ऐसा ही रहना है ऐसा सभी लोग अपेक्षा करते थे। मुझे ऐसे रहने के लिए मजबूर किया यह अपेक्षा नहीं। इसी के लिए मुझे एक पदवी मिली 'देवी'। सास ने ही अपने मरते समय मुंह खोलकर यह देवी की पदवी मुझे दी.....
अभी उसबात को सोचकर सरोजिनी को हंसी आ रही है। रत्नम से उन्हें जो धोखा, घृणा हुई उसकी वजह से मुझे यह पदवी मिली। रत्नम इन्हें पोता पैदा करके देगी ऐसा सोच रहे थे इसीलिए उसका आदर-सत्कार कर रहे थे पर बेकार साबित हुआ। उसका इंतजार भी अब थोड़ा कम हुआ और मुझे कुछ सम्मान देने लगे। उसके बाद मेरे पेट में बच्चा है सोच कर उन लोगों की निगाहें ही बदल गई।
सरोजिनी स्वयं मुस्कुराई।
'यह बात तो सच है उसकी मदद के बिना मैं एक लड़का पैदा नहीं कर सकती थी।'
सरोजिनी ने एक थकान से दीर्घ श्वास लिया। उसने उठकर खिड़की के पर्दों को हटाया। तेज धूप आने से अपने आप में बोली 'कार्तिकेय को मैंने पैदा किया वह एक सवाल...... एक साधना थी।’
"अम्मा, मुंह धो लिया? कॉफी ले आए?"
मुरूगन की आवाज सुन सरोजिनी अपने स्वयं को वर्तमान में पाया।
"नहीं मैं आ रही हूं"कहती हुई बाथरूम में घुसी।
उन पुरानी कहानियों को गड्ढे में डाल देना ही अच्छा है। परंतु जो यादें हैं उन्हें इतनी सरलता से अंदर गाड़ देना संभव है कहां गाड़े? अकस्मात ही वे पंख लग गए जैसे उड़ने लगते हैं?
वह हमेशा से कुछ जल्दी ही ब्रश करके मुंह धो कर बाहर आई।
कार्तिकेय हमेशा की तरह डाइनिंग टेबल पर पेपर पढ़ता हुआ कॉफी पी रहा था। नलिनी उस दिन आईकोई तमिल पत्रिका को देख रही थी जैसे ही सास के आने का उसने महसूस किया, "मुरूगन, बड़ी अम्मा के लिए कॉफी लेकर आओ !"कहकर फिर से पत्रिका में ध्यान देने लगी।
"इतना इंटरेस्टिंग क्या है आज पत्रिका में?" कार्तिकेय ने पूछा।
नलिनी निगाहों को ऊपर कर आलस के साथ मुस्कुराई।
"कोई धारावाहिक है। आते ही पढ़ लूं तभी दूसरा काम होगा।"
"उसमें इतना क्या इंटरेस्ट है?"
"वही तो है लिखने वाले की होशियारी! कहानी तो मुझे पसंद नहीं। फिर भी बिना पढ़े नहीं रहा जाता!"
"पसंद नहीं तो छोड़ देना चाहिए ना?"सरोजिनी कहकर हंसी।
"मुझे पसंद नहीं आने का कारण, वह एक लड़की के भाग जाने की कहानी है। इन्हें ऐसी कहानी लिखनी चाहिए क्या? क्यों नहीं ये लोग अच्छी कहानी लिखते? अच्छे परिवार की लड़कियों की कहानी नहीं लिखनी चाहिए क्या?"
"उनके बारे में लिखो तो क्या तुम इतनी उत्सुकता से उसे पढ़ोगी?"कहकर कार्तिकेय हंसे।
"आखिर में कहानी कैसे जा रही है देखना है!"नलिनी बोली। "उस लड़की के व्यवहार में न्याय है ऐस संपादक जी कह रहे हैं ऐसा लग रहा है!"
आगे के संभाषण में भाग न लेकर सरोजिनी ने अपनी कॉफी पीना शुरु कर दिया।
"आज कितनी पत्रिकाएं आई हैं?"कार्तिकेय ने पूछा।
"सिर्फ एक क्यों?"
"अच्छी बात है। जल्दी से उसे खत्म कर अपने कामों की ओर ध्यान दो। सुबह नाश्ते के बाद उस दिनकर को देख कर आएंगे।"
"मैं क्यों? मुझे आना है, क्यों अम्मा?" अपनी भोंहों को ऊंचा कर नलिनी ने पूछा।
"अरुणा को साथ ले जाने की मैंने सोची। बुजुर्ग आदमी है, सब लोग जाए तो खुश होंगे।"
नलिनी थोड़ी देर बिना जवाब दिए पुस्तक में अपनी निगाहें डाले हुए बैठी थी फिर थोड़ी देर बाद फड़फड़ाते हुए बोली....
"मुझसे पूछे तो सिर्फ आप दोनों ही जाकर आइए। मेरा काम खत्म होने में समय लगेगा। अरुणा को लेकर जाओगे तो कई बातें होगी।'शादी हो गई क्या आदमी क्या करता है'ऐसे प्रश्न उठाएंगे। अपने गांव के उम्र दराज व्यक्ति से स्पष्ट बोल भी नहीं सकते। गांव जाएंगे तो पता नहीं क्या बोलेंगे? हम क्यों इन बेकार की बातों
को शुरू करें?"
इसकी सोच हमेशा एक ही तरफ रहती है ऐसे दुख के साथ सरोजिनी हल्के से मुस्कुराई।
"ठीक है, फिर मैं और कार्तिकेय ही जाकर आते हैं।"
"मुरुगन को चाहे तो लेकर जाइए। वह भी उनसे मिलना है बोल रहा था।"
"आकर खाना बनाऊं क्या?"बड़े खुश होकर बोला।
"सब्जी काट कर रख दो। आज मैं बनाती हूं"नलिनीबोली।
सरोजिनी आश्चर्य से उठी। अपने स्टेटस के जैसे दिनकर का परिवार नहीं है यही सोच कर नलिनी मुश्किल से अलग हो गई लगता है।
'उसका नहीं आना अच्छा ही है' उसने अपने मन में सोचा।
"मैं जाकर नहाती हूं"कहते हुए अपने कमरे के अंदर गई।
नहाकर बोलने वाले श्लोकों को कहकर खत्म किया । फिर दूसरी साड़ी पहनकर अपने को आईने में देखा "वह मुझे अभी पहचान नहीं पाएंगे" ऐसे रहती थी उन्होंने बोला था..."
"शक्ल में और जीवन में बहुत अंतर होता है ऐसा उस अम्मा के जीवन से मालूम करना चाहिए नहीं बोला?"
"हेलो दादी!"
सरोजिनी आईने में अरुणा की शक्ल देख कर मुस्कुराई।
"आओ कॉफी पी लिया?"पूछी।
"हो गया। आज क्या विशेष बात है? लाल रंग की साड़ी पर आप बहुत जच रही हो दादी!"
सरोजिनी ने अपनी शर्म को छुपाने के लिए साड़ी के पल्ले को ठीक करने लगी।
"इस उम्र में क्या जचूंगी" बड़बड़ाई।
"अपने गांव वाले को मिलने जा रही हो? मैं भी आ सकती हूं क्या?"अरुणा बोली।
"आ सकती हो!" खुश होकर सरोजिनी बोली।"एक बार अपनी अम्मा से पूछ लो, यदि वह कहे तो आओ।"
"अम्मा से क्यों पूछना है? यह बहुत अच्छी बात है? मुझे उस आदमी से मिलना चाहिए लगता है। अम्मा से तो मेरा एकविवाद हो चुका। मैं तलाकशुदा हूं यह उन से नहीं बोलूंगी कह दिया।"अरुणा हंसते हुए फिर बोली "उनके पूछें बिना..."इसे और उसने मिला लिया।
सरोजिनीने कुछ जवाब न देकर प्यार से अरुणा को गले लगा लिया।
"जहां तक मैं जानती हूं दिनकर बेकार की बातें पूछने वाला नहीं है बच्ची!"
"आपको उन्हें देखकर कितने साल हो गए दादी?"
"तुम्हारे पिताजी की उम्र जितना!"
"अरे बाप रे आपको उनकी याद है?"
"अपने घर अक्सर आते थे। इसलिए याद है।"
और यह आगे क्या-क्या पूछेगी ऐसा सोच सरोजिनी सौम्यता से बोली "आ रही हो तो तैयार हो जाओ अरुणा।जल्दी रवाना होंगे तो ही जल्दी वापस आ सकेंगे।"
उसके जाते ही सरोजिनी ने अपने बिंब को आईने में देख उसे आश्चर्य हुआ। मैंने कैसे लाल साड़ी पहनी?
मुरूगन बड़े उत्साह से गाड़ी के पीछे की सीट पर बैठकर गांव के जीवन के बारे में वर्णन कर रहा था। सरोजिनी बिना मुंह खोले मौन होकर मुस्कुराते हुए बैठी थी।
उस लड़की श्यामला ने जो पता दिया था गाड़ी उस और दौड़ने लगी और फिर एक छोटे से घर के सामने आकर खड़ी हुई तो घर को देखते हुए गाड़ी से उतरी।
गाड़ी की आवाज सुनकर श्यामला बड़े खुश होकर अंदर की तरफ मुड़ कर "नाना, जम्बूलिंगम जमींदार के घर से सब आए हैं!"वह बोली।
सरोजिनी का दिल जोर से धड़कने लगा।
अंदर घुसते ही दिनकर आराम कुर्सी में बैठे हुए दिखे।
कितनी दुबले हो गए हैं? ऐसे भ्रमित होती हुई दुख से उसका गला भर गया।
"आइए सरोजिनी अम्मा" दिनकर की आवाज में पुरानी गंभीरता दिखाई दी। "आप अच्छी हैं?"
सरोजिनी ने उनकी आंखों को देखा। उसमें अभी उपहास नहीं था उसे महसूस करके वह मुस्कुराई।
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