अभी तक आपने पढ़ा अभिमन्यु की मृत्यु के बाद उसका दोस्त सौरभ अक्सर उनके घर आने लगा। इसी बीच नवीन का विवाह भी उसकी मन पसंद लड़की वैशाली के साथ हो गया। अब पढ़िए आगे -
उसकी पत्नी वैशाली, वैजयंती की तरह नहीं थी। वह बहुत ही महत्वाकांक्षी थी और एक आई टी कंपनी में काम करती थी। उसे अपना कैरियर बहुत आगे तक ले जाना था। इसीलिए वह घर परिवार की तरफ़ कम ही ध्यान देती थी।
वैजयंती ने ऊषा के लाख समझाने के बाद भी सफेद साड़ी से अपना रिश्ता नहीं तोड़ा था। अब तक तो सब की आदत भी हो चुकी थी उसे यूँ ही देखने की किंतु पहले नैना और फिर नवीन के विवाह पर भी उसे उसी हाल में देखकर परिवार में तो सब दुःखी थे ही साथ ही हँसती खिलखिलाती वैजयंती को श्वेत वस्त्रों में इस तरह उदास देख कर अब सौरभ भी बहुत दुःखी हो जाता था।
सौरभ की अब तक कहीं भी शादी ना हो पाई थी। अच्छी लड़की की तलाश में सभी के अंदर कमी निकालने वाला सौरभ धीरे-धीरे वैजयंती की ओर खिंचता जा रहा था। उसे लग रहा था कि यदि वह चाहे तो फिर से वैजयंती की सूनी ज़िंदगी में बहार ला सकता है। उसके श्वेत वस्त्रों में रंग भर सकता है। वह अभि के परिवार का बहुत ख़्याल रखने लगा था। अपने मन की बात कहे तो किस से कहे समझ नहीं पा रहा था। अशोक और ऊषा से कहने में डरता था। सौरभ ने अपना पक्का मन बना लिया था कि वह वैजयंती से ही इस बारे में बात करेगा।
वैजयंती को सौरभ के व्यवहार से यह पता चल गया था कि उसके मन में क्या चल रहा है। इसलिए उसके सामने वह कम ही आती थी किंतु अशोक और ऊषा को उसका अपने घर आना बहुत अच्छा लगता था।
वैजयंती के लिए तो अभि सब कुछ सूना करके चला गया था। अभि के द्वारा लाया गया मंगलसूत्र वैजयंती ने अपने पास बहुत संभाल कर रखा था। रात होती तो एक कमरे में नवीन और वैशाली, एक कमरे में अशोक और ऊषा। अकेली अपने कमरे में आँसू बहाते हुए अभि की यादों और तस्वीर के साथ होती थी वैजयंती।
एक दिन ऊषा ने अशोक से कहा, "अजी सुनते हो उम्र बीतती चली जा रही है। मुझे हरिद्वार जाकर गंगा स्नान करने का बड़ा मन है। कभी ले चलो ना वरना अपनी इच्छा मन में दबाकर ऐसे ही किसी दिन मैं ऊपर चली जाऊँगी। तब तुम दुःखी हो जाओगे कि मेरी इच्छा पूरी नहीं कर पाए। यदि अभि ज़िंदा होता तो अब तक चारों धाम की यात्रा करवा देता पर शायद मेरे भाग्य में तो बस यूँ ही घर में ही घुट-घुट कर रहना लिखा है। नवीन तो अभी छोटा ही है। यह जिम्मेदारियाँ उसे कहाँ समझ आती हैं।"
अशोक और ऊषा की बातें सुनकर वैजयंती ने कहा, "माँ आप चिंता मत करो आपका बड़ा बेटा नहीं है तो क्या हुआ, आपकी यह बेटी तो है ना माँ। मैं आज ही आप दोनों के जाने के लिए पूरी व्यवस्था कर देती हूँ। सीनियर लोगों के ग्रुप अक्सर साथ में जाते ही रहते हैं।"
“ठीक है बेटा।"
वैजयंती ने उनके जाने की पूरी व्यवस्था कर दी। एक महीने का टूर था, ऊषा और अशोक तो चार धाम की यात्रा पर निकल गए।
एक दिन दोपहर को लगभग तीन बजे सौरभ उनके घर आया। नवीन और वैशाली भी अपने ऑफिस गए हुए थे। वैजयंती ने दरवाज़ा खोला। उसे देखते से वैजयंती के मुँह से निकल गया, "पापा जी और माँ तो तीर्थ यात्रा पर गए हैं।"
इतना कहते हुए वह दरवाज़ा बंद करना चाहती थी किंतु सौरभ ने कहा, "कोई बात नहीं आप मुझे एक गिलास पानी पिला दो।"
वैजयंती कैसे मना करती। उसने कहा, "ठीक है।"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः