अभी तक आपने पढ़ा फ़ोन पर पुलिस इंस्पेक्टर ने नवीन को अभिमन्यु की मृत्यु की ख़बर सुनाई। वैजयंती यह सुनकर बेहोश हो गई। माता-पिता, भाई-बहन बेसुध होकर रो रहे थे। नवीन को अस्पताल से अभिमन्यु का पार्थिव शरीर पोस्टमार्टम के उपरांत सौंप दिया गया था। अब पढ़िए आगे –
अपने दिल पर पत्थर रखकर नवीन अभिमन्यु के पार्थिव शरीर को घर ले लाया। सौरभ, उदय और उसके मित्रों ने अभि के पार्थिव शरीर को गाड़ी से नीचे निकाला। अब तक नवीन का धैर्य का बाँध टूट चुका था। वह फफक-फफक कर रो पड़ा। घर में से सभी बाहर निकल कर आने लगे। अब तक तो घर में भीड़ एकत्रित हो चुकी थी। सब बाहर आ गए किंतु अभि की माँ ऊषा और वैजयंती की हिम्मत ही नहीं हो रही थी, बाहर आकर उस दर्दनाक दृश्य को देखने की।
दोनों का दुःख असीम था एक का पति तो एक का बेटा उन्हें छोड़ कर हमेशा-हमेशा के लिए दूर जा रहा था। कौन किसको सांत्वना दे फिर भी ऊषा हिम्मत करके वैजयंती के पास आई और बोली, "बेटा वैजयंती चलो बाहर … "
"नहीं माँ … ," कहकर वैजयंती ऊषा के गले लग गई। ऊषा ने छोटी सी बच्ची की तरह उसे अपने सीने से चिपका लिया। दोनों एक दूसरे के गले लग कर रो रही थीं।
तभी वैजयंती ने कहा," माँ मैं बाहर नहीं आऊँगी। मैं अभि का वही हँसता मुस्कुराता चेहरा अपनी आँखों में बसाकर रखना चाहती हूँ। जो जीवन भर मेरे साथ रहेगा। मैं उसका यह चेहरा नहीं देख पाऊँगी, मुझे माफ़ कर देना माँ।"
"नहीं बेटा एक बार देख लो चल कर वरना बाद में तुम्हें अफ़सोस होगा।"
"नहीं माँ यदि देख लूँगी तो मुझे ज़्यादा अफ़सोस होगा।"
घर में अभि का पार्थिव शरीर लाकर पूरे रीति-रिवाज के साथ उसे अंतिम यात्रा के लिए तैयार किया गया। अभि के पार्थिव शरीर को देखकर ऐसा लग रहा था मानो किसी ने ज़बरदस्ती उसे उस शैया पर सुला दिया हो जिस पर सोने के लिए अभी उसकी उम्र बहुत कम थी। जवानी में इस तरह की मौत देखकर हर आँख रो रही थी और उस ट्रक चालक को बद्दुआ दे रही थी।
ऊषा को भी कुछ समय के लिए अभि के पार्थिव शरीर के नज़दीक ले गए। उन्होंने अपने बेटे को ख़ूब प्यार किया। उसका माथा चूमकर रोते हुए कहने लगी, "कहाँ चला गया बेटा, क्यों चला गया, कैसे जियँगे हम सब। वैजयंती को कैसे संभालूं मैं? क्या कहूँ उससे?" सब ने उन्हें संभाला और उन्हें दूसरे कमरे में लेकर चले गए।
वैजयंती बाहर नहीं आई अभि को अंतिम यात्रा के लिए ले जाने लगे। तब अशोक यह कह कर रो पड़े, "मैं अपने बेटे को कंधा कैसे दूँ? मेरी तो बाजुएँ ही टूट गईं हैं, वही तो मेरा सहारा था। मुझ में इतनी शक्ति नहीं है," कहते हुए उन्होंने पार्थिव शरीर को कंधा देने की कोशिश की लेकिन वह वहीं ज़मीन पर गिर पड़े। उन्हें कुछ लोगों ने उठाया किंतु वह अर्थी को कंधा नहीं दे पाए। उसके बाद अभिमन्यु का अंतिम संस्कार भी हो गया।
जब सब घर वापस आए तब तक लाल रंग की साड़ी में सजी-धजी वैजयंती सफेद वस्त्रों में आ चुकी थी। खाली गला, खाली हाथ, सूना माथा और लाल-लाल रोती हुई आँखों से एक कोने में वह अभि की तस्वीर लिए बैठी थी। ऊषा जब अंदर आई तो यह दृश्य देखकर मानो उसके ऊपर तो वज्रपात ही हो गया था। अपनी लाड़ली वैजयंती को इस तरह देखकर वह ख़ुद को संभाल नहीं पाईं और इस सदमे से वह चक्कर खाकर गिर पड़ीं। नैना तथा दूसरे रिश्तेदारों ने उन्हें संभाला और होश में लेकर लाए।
उसके बाद ऊषा ने कहा, "नैना वैजयंती से बोलो, मैं उसे इस तरह नहीं देख पाऊँगी। वह कोई दूसरी साड़ी पहन ले।"
नैना ने कहा, " हाँ माँ मैं भाभी को समझा दूँगी। आप अपना ख़्याल रखिए।"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः