Suna Aangan - Part 1 books and stories free download online pdf in Hindi

सूना आँगन - भाग 1

आज वैजयंती की शादी की आठवीं सालगिरह थी। उन्नीस वर्ष की छोटी सी उम्र में ग्रेजुएशन पूरा होते ही उसका विवाह हो गया था। वह आगे पढ़ना चाहती थी, कुछ बनना चाहती थी लेकिन उसके पिता का तो केवल एक ही सपना था कि बिटिया के हाथ पीले कर दूँ। अच्छा सा लड़का और अच्छा परिवार उसे मिल जाए। उसका जीवन सुखी हो जाए बस उसके बाद फिर वह बेफिक्र हो जायें। अपने पापा के इस सपने को पूरा करने के लिए उसने अपने सपनों की आहुति दे दी। लग्न मंडप में बैठकर जहाँ माता-पिता ने रिश्ता जोड़ा, उसने स्वीकार कर लिया था।

अभिमन्यु के माता-पिता ऊषा और अशोक भी इस विवाह से बहुत ख़ुश थे। अभिमन्यु का छोटा भाई नवीन ग्रेजुएशन के अंतिम वर्ष में था। उसकी बहन नैना बारहवीं में पढ़ रही थी। विवाह के पश्चात वैजयंती का जीवन पूरे परिवार के साथ सुख और शांति के साथ बीत रहा था।

वैजयंती ने कभी भी नौकरी के लिए नहीं सोचा। परिवार की ज़िम्मेदारी में वह स्वयं को तो मानो भूल ही गई थी। उसका पति अभिमन्यु बैंक में नौकरी करता था। अभिमन्यु बहुत ही ख़ुश मिज़ाज और कड़ी मेहनत करने वाला इंसान था। उसने कई परीक्षाएं पास करके जल्दी प्रमोशन पा लिया और वह बैंक मैनेजर बन गया था। परिवार पर मानो ख़ुशियों की बारिश हो रही थी।

इसी तरह यह सुनहरा समय नदी के पानी की बहती धारा के समान आगे बढ़ता ही जा रहा था, उमंगो के साथ, ख़ुशियों के साथ। लेकिन जब ख़ुशी हद से ज़्यादा बढ़ जाती है तब दुःख उसके ऊपर हमला ज़रूर ही करता है। बस ऐसा ही अभिमन्यु के परिवार में भी हुआ।

अभिमन्यु हमेशा वैजयंती से कहता था, " वैजयंती कभी-कभी पता नहीं क्यों मुझे बहुत डर लगता है।"

"किस बात का डर अभि?"

"यदि मुझे कुछ हो गया, भगवान ना करे किंतु यदि कभी ऐसा कुछ हो जाए तो वैजयंती तुम पूरा जीवन यूँ ही मेरी यादों में तड़प-तड़प कर मत बिताना। मेरी आत्मा भी तब तो सुकून से नहीं रह पाएगी।"

"क्या कुछ भी बोलते रहते हो अभि।"

"बस मैं तो इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि ऐसा हो जाए तो तुम दूसरा विवाह कर लेना।"

"अभि… बंद करो अपनी बेफिजूल की बकवास।"

"यह बकवास नहीं है वैजयंती! एक विधवा का जीवन कितना मुश्किल होता है। क्या हम समाज में देखते नहीं हैं ।"

"छोड़ो इन बातों को अभि, कुछ ही दिनों में हमारी शादी की आठवीं सालगिरह आने वाली है। कैसे सेलिब्रेट करना है बोलो?"

"आने तो दो।"

कुछ ही दिनों में वह दिन भी आ गया। आज वैजयंती और अभिमन्यु की शादी की आठवीं सालगिरह थी। वह सुबह जल्दी उठ गए और नहा धोकर सुबह मंदिर गए। भगवान से अपने परिवार और अपने दांपत्य जीवन की ख़ुशियों के लिए प्रार्थना की।

घर लौटते समय वैजयंती ने अभिमन्यु से पूछा, "इतने तल्लीन होकर भगवान से क्या मांग रहे थे?"

"पहले तुम बताओ, तुमने क्या माँगा वैजयंती?"

"मैंने तो अपने बच्चों और पूरे परिवार की सलामती के लिए प्रार्थना की और हाँ मैं हमेशा इसी तरह अपनी मांग में सिंदूर और कलाइयों में रंग बिरंगी चूड़ियाँ पहनती रहूँ। "

"अब बताओ तुमने क्या माँगा?"

"मैंने भी परिवार की सलामती के अलावा यही माँगा कि तुम्हारे माथे की बिंदी हमेशा इसी तरह तुम्हारे माथे पर चमकती रहे। गले में मंगलसूत्र दमकता रहे, चूड़ियों की खन-खन और पायल की छन-छन की आवाज़ आती ही रहे।"

"अच्छा इसका मतलब तो यह हुआ अभि कि तुमने तुम्हारी ही लंबी उम्र की मांग की है।"

"हाँ बिल्कुल, तुम ऐसा समझ सकती हो। मैं जानता हूँ वैजयंती कि तुम्हारी हर ख़ुशी मुझसे ही तो है। मेरे बिना तुम नहीं और तुम्हारे बिना मैं भी नहीं। तुम्हारे माथे की बिंदिया हमेशा चमकती रहे का मतलब नहीं समझीं तुम? तुम भी ज़िंदा रहोगी तभी तो माथे की बिंदी चमकेगी ना… मतलब मैंने तो भगवान से एक साथ एक ही लाइन में दोनों के जीवन की मांग कर दी है।"

"हा हा हा तुम बहुत चालाक हो अभि।"

"क्या भगवान के सामने भी तुम? तुम नहीं सुधरोगे?"

"वैजयंती इसमें ग़लत क्या है यार। भगवान से तो हम जैसे चाहे, जो चाहे मांग सकते हैं।"

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक

क्रमशः

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