भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 17 सीमा जैन 'भारत' द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 17

17

कांगड़ा किला :

धर्मशाला से 18 किलोमीटर दूर कांगड़ा में स्थित ऐतिहासिक कांगड़ा किला, इतिहास में अमर है। यह एक ऐसा किला है, जिसको जीतने के लिए कई मुगल राजाओं ने यहां हमला किया था। इसे दुनिया के सबसे पुराने किलों में से एक माना जाता है।

मां ब्रजेश्‍वरी देवी मंदिर, कांगड़ा :

यह स्थान धर्मशाला से 18 किलोमीटर दूर है। यह 51 शक्तिपीठों में से एक है। मां के इस शक्तिपीठ में ही उनके परम भक्त ध्यानु ने अपना शीश अर्पित किया था। इसलिए मां के वे भक्त जो ध्यानु के अनुयायी भी हैं, वे पीले रंग के वस्त्र धारण कर मंदिर में आते हैं।

धर्मशाला में खाने का स्वाद:

तिब्बती संस्कृति का रंग यहां के खानपान में भी मिलता है, पर यदि आप कांगड़ा घाटी के इस शहर का स्थानीय स्वाद लेना चाहते हैं तो यह आपको मिलेगा यहां के खास व्यंजन ‘धाम’ में। चना मधरा, चने की दाल, तेलिया माह के साथ धाम को लोग खूब पसंद करते हैं। यहां पर तिब्बती लोगों द्वारा बनाए गए मोमोज भी खूब पसंद किए जाते हैं। जो लगभग हर पहाड़ी जगह पर मिलते हैं। उबला हुआ भोजन बेहतर व अच्छा भी होता है।

दूसरे दिन पालमपुर

सुबह अपना नाश्ता करने के बाद मैं पालमपुर के लिए निकली। देवेश जो यहां एक साल से रह रहे थे। मुझसे रोज सुबह पूछ ही लेते थे कि मैं आज कहां जाने वाली हूं। साथ ही उस जगह से जुड़ी जानकारी मुझे जरूर देते। आज बस मुझे किसी दूसरी तरफ से लेनी थी। साथ ही यदि मुझे कोई जरूरत हो तो देवेश के मित्र वहां हैं, मैं उनसे कोई सहायता ले सकती हूं। उन्होंने मुझे बताया।

 पालमपुर पहुंच कर पहले मैंने बैजनाथ का शिवा मन्दिर देखा। कल दशहरा था।। मन्दिर में अनुष्ठान हुआ था। साथ ही मन्दिर को बहुत ही सुंदर गेंदे के फूलों सजाया गया था। आज के मार्बल के बने नए मन्दिरों में वो महक नहीं मिलती है जो इन प्राचीन पत्थरों से बने मन्दिरों में मिलती है।

 साथ ही गेंदे के फूलों से सजाया गया मन्दिर भीतर व बाहर से महक रहा था। पृष्ठ भूमि में पर्वतों के साथ हरियाली हो तो नजारा अद्भुत ही होगा। वहां कुछ देर बैठ कर आसपास के नज़ारे का मैंने आनंद लिया। उसके बाद मुझे पालमपुर की मोनेस्ट्री और कुछ जगह भी जाना था जो करीब एक घंटे का रास्ता था।

पालमपुर शहर 

पालमपुर समुंद्र तल से 1400 मीटर की ऊंचाई पर बसा एक खुबसूरत शहर और हिल स्टेशन है। पालमपुर का नाम स्थानीय पुलुम शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ‘बहुत सा पानी’। पालमपुर अपने सुहावने मौसम, बर्फीली पहाड़ियों, हरी भरी घाटियों, और मीलों फैले चाय बागानों की सुंदरता से हमको आकर्षित करता है। किसी समय में यह स्थल अंग्रेजो की प्रमुख सैरगाह हुआ करता था।

सन् 1905 में आए भीषण भूकंप से यहा जान-माल की काफी क्षति हुई थी। इसलिए अंग्रेजों का इस स्थान से मोहभंग हो गया था। इस घटना के बाद से वे अपने बागों को स्थानीय लोगों को सस्ते दामो में बेचकर अपने मुल्क रवाना हो गए थे। आज लगभगटी हजार हेक्टेयर जमीन में फैले यह चाय के बागान पालमपुर की शान है। इन्ही विशाल बागो के कारण पालमपुर ‘टी सिटी’ के नाम से विश्वभर में प्रसिद्ध है।

 पालमपुर का खाना

पालमपुर की रात्रा के दौरान आप हिमाचली खाने के साथ साथ पंजाबी खाना, साउथ इंडियन खाना आदि का भी स्वाद ले सकते हैं।

पालमपुर का मौसम

पालमपुर पहाडी क्षेत्र होने तथा हिमायल की गोद में बसा होने के कारण यहा का मौसम साल भर ठंडा रहता है। गर्मियों में पालमपुर का तापमान 15℃ से 29℃ तक रहता है जो सर्दीयो के मौसम में अत्यधिक ठंडा हो जाता है सर्दीयो में पालमपुर का तापमान 18℃ से -2℃ तक गिर जाता है। बर्फबारी का आनंद लेने वाले पर्यटक यहां सर्दियों में दिसंबर और जनवरी में जा सकते है वर्षा ऋतु में भी यहां अधिक बारिश होती है।

न्यूगल पार्क

यह पार्क न्यूगल नदी के 150 मीटर ऊपर एक पहाड़ी टीले पर स्थित है। यहां छोटी सी हिमानी नहर के साथ घास का लॉन भी है। अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण यह स्थल पर्यटको को दूर से ही आकर्षित करता है। पालमपुर पर्यटन स्थल सूची में यह स्थल प्रमुख स्थान रखता है।

विंध्यवासिनी मंदिर

यह भव्य मंदिर न्यूगल पार्क से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए बस एंव टैक्सी की सुविधा उपलब्ध है। यहां का वातावरण बेहद शांत व मनोरम है। तभी मुंबई के कई फिल्म निर्माता यहां के शांत वातावरण में फिल्मांकन करना पसंद करते है। यह मंदिर पालमपुर के पर्यटन स्थल में धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है।

घुघुर

यह स्थल पालमपुर से एक किलोमीटर की दूरी पर है। यहा संतोषी माता, काली माता, और रामकृष्ण के मंदिर दर्शनीय है।

लांघा

लांघा एक रमणीक स्थल है। समुंद्र तल से इसकी ऊंचाई 7000 फुट है। यहा जखणी माता का एक मंदिर है। जो देखने योग्य है। मंदिर के साथ एक गोलकार मैदान है। यहां दूर-दूर से आये पर्यटक पिकनिक मनाना पसंद करते है। यहां से प्रकृति के दृश्य बडे ही मनोरम दिखाई पडते है। मंदिर के नीचे बहती नीले पानी की नदी में चमकते पत्थर बडे आकर्षक दिखाई देते है।

गोपालपुर

यह पालमपुर के पर्यटन स्थल में रमणीक स्थल है। यहां एक चिड़ियाघर है। जहां आप शेर, भालू, हिरण, खरगोश, याक, बारहसिंघा, जंगली बिल्ली आदि वन्य जीवों के साथ- साथ अनेक प्रकार के वन्य प्राणियों को बेहद करीब से देख सकते हैं।

आर्ट गैलरी

इस आर्ट गैलरी को देखने विश्व भर से लोग आते है। यहां शोभा सिंह के बनाए चित्र में सोहनी महिवाल, कांगडा दुल्हन तथा गुरूनानक देव के चित्रों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की है।

पालमपुर का प्रसिद्ध त्यौहार होली

रंगो के त्योहार होली को पालमपुर में राज्यस्तरीय दर्जा प्राप्त है। पालमपुर की होली विश्वभर में प्रसिद्ध है। यहां इस त्यौहार को देखने के लिए देश विदेश से सैलानी आते हैं। इन दिनों यह शहर दुल्हन की तरह सजाया जाता है। देर रात तक होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों से यहां का खुबुसरत वातावरण बेहद संगीतमय हो जाता है। इन दिनों पालमपुर के सभी होटल, गेस्ट हाउस व धर्मशालाएं सैलानियों से भरे रहते है।

पालमपुर हिमाचल प्रदेश राज्य के कांगडा जिले के अंतर्गत आता है। पालमपुर धौलापुर पर्वत श्रृंखला से घिरा हुआ है। पालमपुर से धौलापुर पर्वत श्रृंखला की बर्फ से ढकी चोटियां दिखाई पडती है। पालमपुर में आप चाय फैक्ट्री में चाय को बनते हुए देख सकते हैं। चाय फैक्ट्री में भ्रमण के लिए फैक्ट्री प्रशासन से अनुमति लेनी पडती है। पालमपुर से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर दलाई लामा का निवास स्थान है।

खरीदारी

पालमपुर की सैर के दौरान आप यहा की चाय की की विभिन्न प्रकार की वैराटी के आलावा हिमाचली हस्तकला व तिब्बती हस्त कला से निर्मित विभिन्न प्रकार के समानो की खरीदारी यादगार के तौर पर कर सकते हैं।

ताशिजिंग मोनेस्ट्री

मोनेस्ट्री बहुत सुंदर थी। बुद्ध के मन्दिर उसने रंगो के कारण बहुत लुभावने लगते हैं। बुद्ध की मूर्ति तो हर जगह एक-सी ही लगती है। बस आसपास का सौंदर्य उनको एक अलग पहचान दे देता है। यहां चारों दिशाएं इस जगह के सौंदर्य को बढ़ा रही थी। हर दिशा में पर्वत, क्रिसमस ट्री, खुला धुला आकाश, निर्मल बादल इस जगह को एक अजीब सी शांति और आनंद से भर रहे थे।

 आज मुझे लौटने में देरी हो गई। मैंने एक दुकान से चाय खरीदी थी। अब पालमपुर के चाय बागान से वहां की चाय तो लेनी ही थी। बस मैं बैठकर मैंने ढलते सूरज का आनंद लिया। पर्वतों से विदा लेता सूरज बहुत सुंदर लग रहा था। वैसे भी पर्वतीय इलाकों के सन सेट पॉइंट जरूर होता है जहां से डूबते सूरज को देखने लोग जाते हैं। उसकी विदाई और रंगों के खेल को देखना सब पसंद करते हैं।

धर्मशाला में अपने स्टॉप पर उतरते समय रास्ते का अंधेरा मुझे थोड़ा चिंतित कर गया। रास्ते पर स्ट्रीट लाइट तो थी पर सड़क सुनसान ही थी। पहाड़ों पर सूरज ढलते ही जीवन की रफ्तार धीमी हो जाती है। मैंने देवेश को फोन लगाया कि 'मैं घर के सामने वाले रास्ते से आ जाऊं या आगे पेट्रोल पंप वाले रास्ते से घर आऊं?'

 'आप वहीं रुकें मैं आपको लेने आ रहा हूं।' बस कुछ मिनट ही बीते की देवेश मुझे लेने आ गए। कोई इतनी आत्मीयता से सहयोग दे तो अच्छा लगता है। ये अनजाने साथी जो कुछ पल का सुकून देते हैं कि ये यादें हमारे जीवन की महक बन जाते हैं। जब लद्दाख में क्रिस्टीन ने मेरे पहले सोलो ट्रेवलिंग के अनुभव को सुना तो वह पूछ बैठी – ‘ उसने आपकी इतनी सहायता क्यों कि?’

‘ क्योंकि वे जानते थे कि यह यह मेरी पहली सोलो यात्रा है।’ मेरे मुंह से सहज ही यह जवाब निकला।

क्रिस्टीन ने शरारत भरे अंदाज में कहा ‘ऐसा लगता तो नहीं।’

 हम चारों बहुत जोर से हंसे। वक़्त पीछे जा चुका था और मेरी नज़र तो उस समय अपने आप में और प्रकृति में ही गुम थी। पता नहीं…उसने क्या सोचा था। जो घटित नहीं हुआ उसके बारे में क्या सोचना, वैसे भी प्रेम का एक रूप जिसने मानव मन को सबसे ज्यादा दुःख दिया है, वो हीर- रांझा का प्रेम ही था बाकी के रूप में तो मानवता में ही प्रेम बसता है। वही हम सबके जीवन की जरूरत है। कदम -कदम पर मानवता मिल जाए तो रास्ता आसान लगने लगता है।

तीसरे दिन -मैकलोडगंज

धर्मशाला से मैकलोडगंज बहुत पास है। सिर्फ दस किलोमीटर, कुछ लोग तो वहां पैदल भी जाते हैं। देवेश भी वहां पैदल कई बार जा चुके हैं। मैंने आज भी जाने के लिए बस ही पसंद की थी। हां, वहां जाकर आसपास की जगह देखने के लिए टैक्सी ले ली थी। मैकलोडगंज में बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा का सेंटर है। वहां पर विश्व के हर कोने से लोग आते हैं।

यह मैक्लोडगंज के एक छोर पर स्थित है। यहां दलाईलामा का आवास भी है। बौद्ध धर्म से संबंधित सैकड़ों पांडुलिपियां भी यहां देखी जा सकती हैं। इसके साथ ही तिब्बती संग्रहालय भी देखने लायक स्थान है।

मोनेस्ट्री की ओर जाने का रास्ता बड़ा ही खूबसूरत है। एक पतली सी सड़क जिस पर एक कार तो जा सकती है। उसके दोनों तरफ छोटी- छोटी दुकानें हैं। जिनपर हाथ से बने रंग -बिरंगे ऊनी सामान व बुद्ध की मूर्ति व कई तरह के आकर्षक सामान बिक्री के लिए उपलब्ध थे। पहाड़ी महिलाएं अपनी दुकान पर सामान भी बेचती साथ ही बुनाई भी करती रहती थीं। अपने काम के प्रति समर्पण व सरलता पहाड़ियों की पहचान है।

आज यहां से कुछ मोजे, टोपी मैंने भी खरीदे। वाजिब कीमत और रंगों को चुनने की एक बड़ी रेंज, किस रंग को लें और किसे छोड़ दें, यह मेरी मुश्किल रही। हर दिन करीब चार बजे मैं अपने स्टे पर पहुंच जाती थी। खाने का सामान लेकर।

मेरा सामान देखकर देवेश मुझे कहते थे –‘ आपको घर आने के लिए बहुत पैदल चलना पड़ता है आप खाने का सामान क्यों लाते हो? जो चाहिए मुझे कह दीजिए मैं लेकर आ जाऊंगा। वैसे भी खाने का सामान जो भी रखा है आप ले लीजिए।’ किचन में जितना भी खाने का सामान फ्रीजर, फ्रिज या कहीं भी रखा था उन्होंने मुझे सब दिखाया था। ये उनका अपनापन था। अब वो सब याद करती हूं तो लगता है मुझे अपनी हर यात्रा में सहयोग ज्यादा ही मिला।