भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 16 सीमा जैन 'भारत' द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 16

16

धर्मशाला

धर्मशाला भारत के हिमाचल प्रदेश प्रान्त का शहर है, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता के अलावा बौद्ध मठों के लिए जाना जाता है। बर्फ से ढंका हिमालय। यहाँ की नदियां और यहाँ की मनमोहक वादियां आपका मन मोह लेती है। ये एक बहुत ही छोटा शहर है। वैसे ये दो हिस्सों में बंटा हुआ है। पहला हिस्सा लोअर धर्मशाला है जिसे हम धर्मशाला के नाम से जानते हैं। दूसरा हिस्सा अपर धर्मशाला है जिसे हम मैक्लोडगंज के नाम से जानते हैं। धर्मशाला से मैकलोडगंज की दुरी करीब 10 किलोमीटर है। 

धर्मशाला की ऊंचाई 1,250 मीटर (4,400 फीट) और 2,000 मीटर (6,460 फीट) के बीच है। यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, जहां पाइन के ऊंचे पेड़, चाय के बागान और इमारती लकड़ी पैदा करने वाले बड़े वृक्ष ऊंचाई, शांति तथा पवित्रता के साथ यहां खड़े दिखाई देते हैं। वर्ष 1960 से, जब से दलाई लामा ने अपना अस्‍थायी मुख्‍यालय यहां बनाया, धर्मशाला की अंतरराष्‍ट्रीय ख्याति भारत के छोटे ल्हासा के रूप में बढ़ गई है।

पहला दिन

धर्मशाला मेरी पहली सोलो यात्रा थी। उस याद करूं तो अपने डरपोक मन पर हंसी आती है। मुझे ग्वालियर से दिल्ली – पठानकोट – धर्मशाला जाना था। ग्वालियर से दिल्ली तो कोई चिंता नहीं थी। अदिती के पास ही जाना था। मगर उससे आगे पठानकोट की ट्रेन रात की दस बजे और सुबह पांच बजे मुझे पठानकोट फिर वहां से धर्मशाला के लिए बस लेनी थी। आज तक मैंने इंदौर और दिल्ली तक की यात्रा ही अकेले की थी। इंदौर मायका और दिल्ली अपने व्यवसाय के लिए जाने में कभी टेंशन नहीं हुई।

मगर अब सब कुछ अकेले...एक बार तो मन में आया कि सारी बुकिंग ही कैंसिल कर देती हूं। कैसे अकेले यह सब कर पाऊंगी। मैंने अदिती को अपना डर बताया भी तो वह बोली – ‘डरने की कोई जरूरत नहीं है। सब ठीक होगा। तुम ध्यान से हर काम करना।’

अब उसके आगे कुछ नहीं कह पाई। जब दिल्ली में अदिती मुझे पुरानी दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर छोड़ कर गई तो मैं स्टेशन के वेटिंग रूम में जाकर बैठ गई। मेरे पास मेरे धर्मशाला के होम स्टे के होस्ट के मैसेज थे। मैं किस समय वहां पहुंचने वाली हूं? कैसे आ रही हूं और मेरे स्टे का मैप उन्होंने शेयर किया था।

साथ ही कोई परेशानी हो तो बात करने को भी कहा था। मैंने मेरे होस्ट देवेश को उनके सारे सवालों के जवाब दिए। अब मन में डर जैसी कोई बात नहीं लग रही थी। ट्रेन टाइम पर थी। मेरे आसपास की सीटों पर एक कपल और उनके साथ परिवार का एक व्यक्ति था। उस महिला के पति की कोई सर्जरी हुई थी और उन्हें आराम की जरूरत थी। मैंने अपनी लोअर बर्थ उनको दे दी ताकि पति पत्नी आमने -सामने रह पाए।

उन्होंने मेरी इस सहायता का इतना लिहाज किया कि जब हम सुबह पांच बजे पठानकोट उतरे तो वह महिला बोली 'अब आप इस समय कैसे धर्मशाला जाओगी? आप हमारे घर चलो। सुबह आराम से चले जाना।'

'मैंने उनको शुक्रिया के साथ मना किया कि मुझे अभी जाने में कोई परेशानी नहीं होगी।'

किसी अनजान को घर चलने का न्यौता मुझे थोड़ा अजीब लगा। खैर, पठानकोट रेलवे स्टेशन से शेयरिंग ऑटो बस स्टैंड तक जाते हैं जो सुबह के समय के लिए सुरक्षित भी है। पर उसकी भीड़ देखकर मैंने अकेले एक ऑटो लिया और बस स्टैंड पहुंच गई। मेरे साथ रास्ते में दूसरे ऑटो भी चल रहे थे तो मुझे ठीक लगा। सुबह भी होने को ही थी।

बस स्टैंड की रौनक ने मन को सुकून दिया। चाय पी कर धर्मशाला जाने वाली बस में मैं बैठ गई। बस एकदम खाली थी। 6 बजे बस सिर्फ चार यात्रियों को लेकर निकल पड़ी। मैंने मन में सोचा इतना घाटा उठाकर भी समय से बस चलाना तो बड़ी बात है। पर मैं गलत साबित हुई।

बस शहर से बाहर निकलते ही हर पांच - दस मिनिट बाद रूक जाती और अधिकतर स्टूडेंट उसमें बैठते जा रहे थे। मेरे गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही पूरी भर चुकी बस खाली भी हो गई थी। सरकारी बस का फायदा आज समझ आया। बहुत सस्ता और सुलभ!

यदि मैं टैक्सी लेती तो शायद तीन हजार रुपए तो देने ही होते। उसकी जगह सिर्फ साठ रुपए में यात्रा करना मुझे आश्चर्य और खुशी दे गया। मैंने कंडक्टर को अपने स्टे की जगह का नाम बता कर पूछा कि 'मुझे कहां उतरना है?' 

उन्होंने मुझे मेरी जगह के हिसाब से बोला 'यहां आप उतर जाइए! यहां आपको चिलघारी सबसे पास पड़ेगा।' 

मैं बस से उतरकर वहां आसपास बैठे कुछ कश्मीरी लोगों में से एक व्यक्ति से अपने स्थान के बारे में पूछा 'उसने कहा कि इस जगह को तो मैं जानता हूं। आप चाहे तो हम पैदल ही चलते हैं। पास ही है। आपका लगेज मैं उठा लेता हूं।’

 मैंने कहा - 'ठीक है।’

और उस व्यक्ति के साथ मैं चल पड़ी। एक जगह बस्ती आने पर उसने कहा 'यह आपकी जगह है। अब जहां जाना है वहां फोन लगा लीजिए। तो वह आपको समझा देंगे कि हम कौन से रास्ते से आगे बढ़े।’

मैंने देवेश को फोन लगाया। उन्होंने मुझे रास्ता समझाया। वैसे भी मेरे व्हाट्सएप पर देवेश ने जो मैप शेयर किया था उसे भी मैं फॉलो किया था। पर हम एक पॉइंट पर पहुंच कर रुक गए। मैंने देवेश को दोबारा फोन लगाया।

मैंने कहा- 'मुझे रास्ता अब समझ नहीं आ रहा है। यहां से कहां जाऊं?’

उसने कहा आप वहीं रुकें। मैं बाहर आता हूं।’

 हम जहां खड़े थे उसके पीछे के एक मकान से निकलकर देवेश बाहर आए। मतलब हम ठीक जगह ही खड़े थे पर उस घर तक पहुंचने का रास्ता समझ नहीं आ रहा था। क्योंकि उस घर में जाने के लिए इसी घर के अंदर से ही रास्ता था दूसरी तरफ जाने के लिए।

कश्मीरी व्यक्ति को पैसे देकर मैं अपने होमस्टे में अंदर आई। एक सुंदर सा बंगला, जिसका ड्राइंग रूम एकदम साफ व व्यवस्थित था। एक सोफ़ा, कुछ किताबें, राइटिंग टेबल उसके आगे छोटा सा डायनिंग रूम और उसके अंदर एक छोटा-सा किचन था। मेरा कमरा डायनिंग रूम के सामने ही था। देवेश ने मुझे मेरा कमरा दिखाते हुए कहा - 'यह आपका कमरा।'

'अच्छा है।' कहकर मैंने अपना इकलौता बैग उसमे रख।

देवेश ने कहा - ' आप चाय लेंगी या कॉफी?'

'कुछ भी चलेगा।'

देवेश ने हमारे लिए काफी बनाई। साथ ही मुझे बिस्किट भी दिए। बहुत प्रेम व आदर के साथ सब एक ट्रे में रखकर।

होमस्टे के बारे में मेरी सोच थी कि यहां होस्ट न हो तो कोई सर्वेंट होते होंगे। मगर यहां ऐसा कुछ नहीं था। एक चार बेडरूम वाला बंगला जिसमें सिर्फ दो कमरे ही गेस्ट के लिए हैं। एक में देवेश, जो यहां करीब एक साल से रह रहे हैं। गवर्मेंट के स्टेटिस्टिक्स विभाग में काम करते हैं और यूपीएससी की तैयारी भी कर रहे हैं। कोई भी गेस्ट आए तो वे ही सब सम्हाल लेते हैं। वैसे भी होमस्टे में स्टे का पैसा तो पहले ही दे दिया जाता है।

उन्होंने मेरे लिए अपना नीचे वाला कमरा मेरे लिए खाली किया और ऊपर शिफ्ट हो गए थे। इस बार मेरी बुकिंग अदिति ने करवाई थी तो उसने रूम तभी फाइनल किया जब ओनर की ओर से नीचे वाले कमरे की सहमति मिली थी। लगातार सीढ़ियां चढ़ने पर मुझे पैरों में तकलीफ होती है। देवेश की शिफ्टिंग का कारण मुझे अब समझ में आया।

मुझे कॉफी देकर देवेश अपने कमरे में चले गए। मैंने थोड़ा आराम किया फिर बाहर जाने के लिए तैयार होना शुरू किया। मैंने अदिती से बात की कि सुबह 'यहां पर देवेश ने मुझे कॉफी दी और यहां कोई भी सर्वेंट नहीं है। खाना भी देवेश का पर्सनल ही है।’

तो अदिती ने मुझे कहा कि 'पहली चाय तो उसने दे दी तो ठीक है। अब आप अपना खाने का सारा सामान बाहर से ले आना।' होमस्टे में अधिकतर लोग अपना खाना खुद ही अरेंज करते हैं। लेकिन कभी होस्ट होता है तो वह अपनी तरफ से दे देता है या वह एक सर्वेंट भी रख देता है। पर यहां कुछ भी नहीं था। सब खुद ही करना होगा। पर देवेश भी गेस्ट हैं तो उससे लेना कुछ ठीक नहीं होगा।

 मैं तैयार हो ही रही थी देवेश ने मेरे कमरे में नॉक किया जब मैंने दरवाजा खोला तो उसने कहा 'मैं ऑफिस जा रहा हूं। आप चाहे तो मैं आपको बाहर तक छोड़ देता हूं।' 

मैं बाहर निकली तो देवेश बोले 'आप कुछ नाश्ता ले लीजिए।’

उन्होंने मुझे किचन में रखी खाने की हर चीज बताई साथ ही कहा 'आप अपने लिया कुछ बना लीजिए।' मैंने ब्रेड को सेक कर खा लिया। सोचा इस समय कुछ खा कर निकलना ही ठीक होगा।

'वैसे आप का आज का प्रोग्राम क्या है? आपने कोई लिस्ट बनाई है क्या?' 

'मुझे आज कांगड़ा जाना है यदि पब्लिक ट्रांसपोर्ट मिलता है तो मैं वहीं लेना पसंद करूंगी।’

 'सामने जो सड़क दिखाई दे रही है वहीं से आपको बस मिल जाएगी।'

उसने मुझे डाइनिंग रूम से बाहर की तरफ एक दरवाजा खुलता था, वहां से सड़क दिखाई।

'ये तो अच्छा है। मुझे बस से ही जाना है।' आज का मेरा बस का अनुभव अच्छा था। मैंने सोचा आज बस में जाकर देखते हैं। यदि अच्छा लगा तो रोज़ बस से ही घूमना ठीक रहेगा।

घर के पीछे की इस जगह से बहुत सुंदर नजारा दिखता था। साथ ही सड़क भी दिखाई देती थी। उसी दरवाजे पर रोज़ाना जब मैं शाम के समय बैठी रहती तो एक ब्राउन पोमेरियन आने लगा था। अपनी कुं-कुं की आवाज से मुझे लगा वह खाना मांग रहा है।

मैंने उसे दो ब्रेड दी। वह उसने नहीं खाई। बाद में देवेश ने बताया कि वह आगे वाले घर का ब्राउनी है। और इस घर से उसे रोज ब्रेड अंडे के साथ मिलती है जो उसकी आदत बन चुकी है इसीलिए उसने सिर्फ ब्रेड नहीं खाई थी। एक दिन मैं बाहर जा रही थी तो आगे वाले अंकल ने मुझे कहा 'आज नवमी की पूजा है। शाम को भंडारा होगा। जिसमें आप भी आइए।'

मैंने कहा 'जरूर आती हूं।' पर उस दिन मैं पालमपुर से लौटने में लेट हो गई थी। मंदिर में भंडारा खतम हो चुका था। 

आज पहले दिन मैं बस से कांगड़ा गई। पब्लिक ट्रांसपोर्ट को लेना पर्यावरण की दृष्टि से बहुत अच्छा है। 

इस बंगले की दो चाबी है। एक देवेश ने मुझे दी। और मुझे बस स्टॉप तक छोड़ दिया। साथ ही मुझे रास्ता भी समझाया। जिस रास्ते से हम घर से निकले उसे याद करवाते हुए। उन्होंने मुझे बस स्टॉप पर ड्रॉप किया। 

 मुझे दो मिनट ही खड़े रहना होगा रहना पड़ा होगा कि कांगड़ा के लिए बस मिल गई? मेरे साथ कुछ स्थानीय लोग भी शामिल थे। पब्लिक ट्रांसपोर्ट में मैं बहुत समय बाद बैठी थी। शादी के बाद मैंने कोई भी यात्रा कभी बस में नहीं की थी। हमारी अधिकतर यात्राएं कार से ही हुई थी।

बचपन में एक बार कार में बैठना के लिए मैंने बाबूजी से कहा था। वो एक शादी में दूल्हे के साथ कार में बैठने की मेरी पहली अनुभूति होती मगर हमारे रिश्तेदार ने बाबूजी को मना कर दिया कि इसमें उनकी बेटी बैठ रही है और अब जगह नहीं है। बाबूजी का वो उतरा हुआ चेहरा मुझे आज भी याद है।

हमारे रिश्तों की समीपता खून से नहीं पैसे से ही होती है। ये जीवन का बहुत पुराना सबक है जो मैंने अपने बचपन में हमेशा महसूस किया था। साफ मन नहीं, भरी जेब ही रिश्तों की पूंजी होती है। नहीं तो दुनिया उपयोग करके भूल जाती है। किसी की अच्छाई उसकी गरीबी के कारण या कोई मजबूरी होती है, अधिकतर यही सोच होती है।

 यात्रा सड़क या नदी के दो किनारों जैसी ही होती हैं जिसमें एक भीतर और एक बाहर साथ साथ चलती है। फ़र्क सिर्फ़ इतना ही होता है कि नदी के दो किनारे या सड़क के किनारे कभी नहीं मिलते पर यात्रा में दो किनारे साथ -साथ ही चलते हैं। ये हमेशा मिलकर ही यात्रा को पूरा करते हैं। 

वक़्त बदला, आज मैं कार को अपनी मर्ज़ी से पीछे छोड़कर, बस में बहुत सुकून महसूस कर रही हूं। बस में बैठने के मेरे पिछले दिन के अच्छे अनुभव ने ही मुझे आज के लिए भी प्रेरित किया था। आज पर्यावरण की दृष्टि से भी यह ठीक ही है कि जब एक ही दिशा में को जाना हो तो अलग-अलग दस कारों की जगह एक बस में जाना प्रदूषण को कम करने के साथ पैसों की एक बहुत बड़ी बचत भी है।

हिमाचल की बात करें तो यहां के लोगों का पर्यटकों के प्रति एक अजीब-सा सम्मान है। यहां मैंने हर बार बस ही ली। बस में लोगों के साथ उनकी सज्जनता और शांति के साथ बैठना मुझे बहुत अच्छा लगा।

आज मैंने कांगड़ा में माता का मंदिर और किला देखा। यहां एक जैन मन्दिर भी है। जो किले के रास्ते में ही है। मैंने उसके दर्शन किए। लौटते समय कांगड़ा में एक पिज्जा खाया। एक पिज्जा साथ में लिया। घर शाम का समय लौटते समय रास्ते में किराने की दुकान से मैंने फल और सब्जी सब कुछ खरीदा। दूध का पैकेट भी लिया। मुझे याद था कि मुझे अपने खाने का इंतजाम खुद ही करना है।

मैंने घर जाकर अपना खाना बनाया और डाइनिंग रूम के बाहर की तरफ वाले दरवाजे को खोलकर बैठ गई। ये जगह मुझे भा गई थी। बाहर ही चीड़ के घने पेड़, हरियाली और ठंडक का अहसास, एक तरफ से पर्वत की चोटी दिखाई देती थी।। (Naddi) जो मेरे आने के दो दिन पहले बारिश के कारण बर्फ से ढक गई थी। वो शिखर यहां से सुंदर लगता था। घर बैठकर इतने सुन्दर नजारे देखने को मिल जाए इससे सुंदर घर क्या होगा? ऐसे ही घर की चाहत मुझे भी है जहां प्रकृति का साथ भरपूर हो।

इस होमस्टे में अधिकतर वहीं लोग आते हैं जो यहां एक दो महीने रहते हैं। एक इत्मीनान और सुकून का समय बहुत लोगों की जरूरत होता है।

देवेश ने बताया 'यहां लंबे समय तक ठहरने वालों में विदेशी ही होते हैं। कोई भी भारतीय एक जगह इतने समय रहना पसंद नहीं करता है।' 

मेरी समझ में इसके दो कारण है एक तो भारतीय विदेश जाना ज्यादा पसंद करने लगे हैं। साथ ही कम समय में ज्यादा जगह देखने वाली सोच उन्हें सुकून के साथ एक जगह नहीं रहने देती है। एक जगह को ज्यादा समय, उनकी चाहत नहीं होती है। अपने पर्यटक स्थलों से जुड़ी जानकारी मैंने दी है। पर मेरा मुख्य उद्देश्य यात्रा के साथ उस जगह को महसूस करना ही होता है। वैसे भी पर्यटक स्थलों से जुड़ी भरपूर जानकारी हमें हर जगह मिल ही जाती है। उस जानकारी से अलग होता है तो एक अहसास जो हमनें महसूस किया वही हमारी यात्रा को एक यादगार निशानी दे जाता है।