भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 10 सीमा जैन 'भारत' द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 10

10…

लद्दाख

मेरी यात्रा में आप मेरे साथ अब एक कदम पीछे चलेंगे… लेह लद्दाख की ओर… यही मेरी दूसरी यात्रा थी।

लद्दाख के लिए मुझे दिल्ली से फ्लाइट लेनी थी। इस समय आदित्य नोएडा में ही रह रही थी। मैं एक दिन पहले ही दिल्ली पहुंच गई थी। मैंने अदिति के साथ पूरा दिन एंजॉय किया। हमने बर्मीज खाना खाया। चांदनी चौक से मेरे बुटीक के लिए शॉपिंग की। सुबह 5:00 बजे मेरा फ्लाइट था। रात में पहनने के लिए मैंने क्या डिसाइड किया यह तो मुझे याद नहीं, मगर मेरी जींस और मेरा टीशर्ट आदिति ने मुझे निकाल कर दिया और जब मैं वह पहन कर खड़ी हुई तो उसने मुझे बिल्कुल छोटे बच्चे की तरह चेक किया और कहा "ठीक है।"

 यह वह एहसास है जो बहुत किस्मत वालों को ही मिलता है। हमारे बच्चे एक उम्र के बाद हमें पेरेंट्स की तरह ट्रीट करते हैं। यह अहसास मेरे जीवन का सबसे बड़ा धन है खैर... आदिति को याद करते या उसके बारे में बोलते हुए मेरे शब्द भीगने लगते हैं।

 एयरपोर्ट के लिए हमनें शेयरिंग केब बुक की थी। अपने साथ की सवारियों को छोड़ते हुए जब हम टर्मिनल 3 के रास्ते तक जाते उसके ठीक पहले ही मेरे केब वाले ने केब रोकते हुए कहा कि "आपकी बुकिंग तो यहीं तक की है।"

 "यह कैसे हो सकता है?"

 "मैडम, इसके आगे जाना हो तो पैसे एक्स्ट्रा लगेंगे।" कहकर उसने गाड़ी बन्द कर दी। इस समय अब इस ड्राइवर से बहस का कोई मतलब नहीं है। यह बात उसके बात करने के लहज़े से ही समझ में आ गई थी। मैंने केब के हेल्प लाइन नंबर पर बात की मुझे ऑपरेटर से उम्मीद थी कि वह मेरी बात समझेगा।

 मगर उसने कहा कि "मैडम रात का समय, आप अकेली हो आपका फ्लाइट मिस हो जाए इससे बेहतर है कि आप इसको एक्स्ट्रा 150 रुपए दे दीजिए।” मैंने केब यहीं तक के लिए बुक की थी और टर्मिनल 3 यहां से दूर है। उसने मेरे इन दोनों सवालों के जवाब नहीं दिए थे। मैं इससे संतुष्ट नहीं थी। मगर अब कोई रास्ता नहीं बचा है इसलिए मैंने केब वाले को 150 रूपए दिए और मैं टर्मिनल 3 पर करीब एक मिनट में ही पहुंच गई।

 यह कहना कि रात का समय है और मैं अकेली हूं और मुझे बहस नहीं करना चाहिए! मुझे बहुत बुरा लगा था क्योंकि बात सही और गलत की थी और मैं मेरे हिसाब से कहीं भी गलत नहीं थी। बुकिंग के समय हमने डेस्टिनेशन टर्मिनल-3 ही डाला था। उसके बावजूद उस समय घूम कर आने के बाद मैंन केब की कंपनी को अपनी यह पूरी शिकायत बताई और साथी ऑपरेटर के व्यवहार के बारे में और उस ड्राइवर के बारे में भी बताया।

 पहली बात, जो उनकी तरफ से कही गए कि 'जब आपकी कोई शिकायत होती है, तो वह 36 घंटे के अंदर आपको रजिस्टर करनी होती है। आपने 36 घंटे के अंदर यदि शिकायत दर्ज नहीं की है। हम आपकी शिकायत पर काम कैसे करें?’

 जब मैंने उनको बताया कि 'लद्दाख में नेटवर्क काम नहीं करता है। ( वहां सिर्फ पोस्ट-पेड सिम ही काम करती है। जो देश की सुरक्षा के कारणों से उचित भी है।) और यदि मुझे शिकायत दर्ज करनी है तो लद्दाख से लौटने के बाद ही कर सकती थी। इसीलिए अब मैं 8 दिन बाद अपनी शिकायत दर्ज करवा रही हूं। 

कंपनी ने मेरी पूरी शिकायत सुनी, मुझे रिफंड वापस मिला। जिसकी मुझे बहुत खुशी हुई। साथ ही मैंने उनको यह फीडबैक भी दिया कि 'जब कोई व्यक्ति ऑपरेटर से सहायता मांगे तो उसे आप महिला हैं और रात के समय अकेले हैं इसकी बात मान लीजिए कहकर गलत व्यक्ति का साथ नहीं देना चाहिए।’ उन्होंने मेरी बात के साथ अपनी सहमति जताई, जो मुझे पसंद आई।

 कैब का किस्सा एयरपोर्ट में जाने के बाद मैं भूल गई। फ्लाइट से जुड़ी सारी फॉर्मेलिटी पूरी करने के बाद मैं खिड़की वाली सीट पर अपनी फ्लाइट में बैठ गई।

कुछ सालों पहले मैंने खिड़की से लेह का जो नज़ारा देखा था, उसका मुझे इंतजार था। थोड़ी ही देर में चट्टानों के विविध रंगों से सजे पर्वत दिख रहे थे। मैंने कई देशों के पर्वत देखे हैं। पर लेह के पर्वत में एक अजीब-सा आकर्षण महसूस करती हूं। बहुत बड़े, चौड़े, जमीन पर पसरे हुए पर्वत मुझे किसी राजा जैसे लगते हैं। विशाल और शानदार!

 लगता है कि चट्टानों के ये टुकड़े अपने आप पर गर्व करते हैं। मुझे ये पर्वत बोलते से लगते हैं।। कुछ चंद सेकेंड के बाद बर्फ़ के पहाड़ दिखने लगे। उफ़्फ़, इस नैसर्गिक सौंदर्य का कैसे बखान करूँ? बर्फ़ के पर्वत तो ऐसे लग रहे थे जैसे किसी ने इन पर आइसिंग शूगर लगा कर इन्हें सजा दिया हो। हर एक को बहुत जतन से संवारा है। और ये पर्वत भी बड़े आराम से इस श्रृंगार को अपने ऊपर सजाए एकदम शांत और संतुष्ट दिख रहे थे। संतुष्टि और गर्व यह हम सबके जीवन की भी जरूरत है। अब इसकी कितनी मात्रा हमारे भीतर है, वही हमारी पहचान है। रूप से ज्यादा भाव हमें परिभाषित करते हैं। और परिभाषा तो सोच से ही बनती है।

 पर्वत पीछे छूट गए अब शहर के मकान, मोनेस्ट्रिस और संगम दिखाई दे रहे थे। इतनी ऊपर से नदी एक महीन लकीर जैसी ही दिख रही थी। जिसका रंग हरे काँच जैसा था। उस बालू की जमीन पर वह ऐसी लग रही थी जैसे किसी ने हाथ से एक सुंदर घुमाव दे कर उस ज़मीन पर नदी बना दी हो। प्रकृति से बड़ा चित्रकार कोई नहीं है। हम सब इस प्रकृति से ही पेंटिग सीखते हैं। फिर भी इसके जैसे रंग और घुमाव बनाने की कोशिश ही करते हैं।

 जीवन को बड़े कैनवास पर देखो तो हम ख़ुद, बहुत छोटे हो जाते हैं और हमसें विशाल, सुंदर दूसरी कई चीजें नज़र आने लगती हैं। यहां सब कुछ आगे बढ़ता है वो जो हमें पसंद है या नापसंद है। फ्लाइट ने लेंड किया हम लेह की जमीन पर आ गए।

अपने हॉस्टल का एड्रेस टैक्सी वाले को बताया और एक प्री -पेड टैक्सी लेकर मैं अपने स्टे पर जा पहुंची। लद्दाख की सुबह, इतनी ताज़ी, हल्की और खुशनुमा लग रही थी कि उसे शब्दों में बयान करना थोड़ा मुश्किल ही होगा। अब हम हवा की ताजगी को लिखकर कैसे बता सकते हैं? सामने धुले हुए बादल, आकाश, पर्वत सब एकदम नये, मुस्कुराते हुए लग रहे थे।

हमारे होटल के पास की जमीन पर किसी का खेत था। सुबह-सुबह किसान खेत में बुवाई कर रहा था। किसान हल चला रहा था। वो हल में वहाँ का बहुत ताकतवर चौपाया याक, को जोतते हैं। साथ में एक महिला लद्दाखी वस्त्र पहनें साथ में चल रही थी। उसने एक लंबा कोट जैसा कुछ पहन रखा था। जिसके जेब में से वह बीज बिखेरती जा रही थी।

इस जगह जहाँ हमें चलने में भी थकान लगती है। वह पुरुष कोई गीत गा रहा था। बहुत ऊँचे, मीठे स्वर में। मुझे लगा प्रकृति ही मुझे ये गीत सुना रही है। मेरा स्वागत कर रही है। मेहनत के साथ, बुनियादी सुविधाओं के साथ भी जीवन कितना मधुर हो सकता है?

कमरे में अपना सामान रखने के बाद जब मैं बाहर आई तो मैंने रिसेप्शन पर कहा कि ‘आप बाहर एक कुर्सी लगवा सकते हैं क्या? मैं बाहर बैठकर चाय पीना पसंद करूंगी!’

‘जी मैं, करवा देती हूं!’ रिसे्शनिस्ट ने कहा

 मेरे कमरे में दो बंक बेड थे। जो इस समय खाली थे। मेरे रूम पार्टनर धूमने निकल गए थे। जब मैं चाय पीने के लिए बाहर आई तो एक बड़े ही सुंदर अंब्रेला के नीचे कुछ कुर्सियों और एक टेबल को देखकर बहुत अच्छा लगा। मैंने तो सिर्फ एक कुर्सी मांगी थी और उन्होंने एक अच्छी सेटिंग ही कर दी। जो आगे के आठ दिन सिर्फ मुझे ही नहीं बाकी के लोगों के लिए भी उपयोगी रही।

 मैंने अपनी साथियों के साथ वहां बैठकर कई बार बातें कीं, हमनें साथ में चाय – नाश्ता भी किया। उनको तो मैंने सिर्फ धन्यवाद दिया पर मन में जो भाव आया वो इससे कहीं ज्यादा था। अनजान जगह, अनजान व्यक्ति भी हमारी भावनाओं की कितनी कद्र कर सकता है यह एक ऐसा अनुभव है जो हमारी यादों के खज़ाने में हमेशा मुस्कुराता रहता है।

खैर, आज का दिन मुझे लोकल मार्केट तक जाना है। बाकी का दिन यहीं, अपने हॉस्टल में बिताना है। मुझे आज कोई जल्दी नहीं थी। लद्दाख में ऑक्सीजन की कमी के कारण पहला दिन आसपास में ही घूमने की सलाह दी जाती है। यहाँ से भी ज्यादा ऊंचाई पर जाने पर साँस लेने में तकलीफ हो सकती है।

करीब दस साल पहले

हमें होटल के स्टाफ ने कहा था कि “आज का दिन हम ऊंचाई पर न जाएं!”

“हम बहुत कंफर्टेबल हैं। हमको अभी भी कोई दिक्कत नहीं हो रही है। इसलिए हमको तो अभी ही जाना है।” हम मां – बेटी का उत्साह से भरा जवाब था। रास्ते तक तो सब ठीक था। हम उन सुन्दर रास्तों को एंज्वॉय करते हुए आगे बढ़ रहे थे। पर जैसे ही मैं खारदुंगला पास आने पर गाड़ी से उतर कर थोड़ा आगे बढ़ी, मुझे सांस लेने में दिक्कत आई। इतना भारीपन महसूस हुआ कि वापस गाड़ी में आकर बैठने में भी मैं थक गई।

 लौटते समय मैं पूरे रास्ते गाड़ी में आदिति की गोदी में सर रखकर लेटी हुई ही वापस आई थी। मुझे लग रहा था कि मेरे शरीर से पूरी ऊर्जा किसी ने निचोड़ ली हो। अपनी जिद पर हम चले तो गए। पर जब लौट कर आने के बाद मैं कमरे में निढ़ाल होकर सो गई।

 जब आंख खुली तो मैंने देखा आदिति मेरे सामने कुर्सी लगा कर बैठी हुई थी। वह बहुत चिंतित थी। मुझसे बोली “अब हम कल कहीं भी घूमने नहीं जायेंगे। तुम्हारे होंठ रास्ते में नीले लगने लगे थे।“

“अब मैं काफ़ी अच्छा महसूस कर रही हूं! हम नीचे चलकर डिनर लेते हैं।“ मैंने उसे समझाते हुए कहा। उसका डर मैं समझ रही थी। उसके लिए मुझे स्वस्थ देखना बहुत जरूरी था।

होटल का स्टाफ बहुत ही मिलनसार था। उन्होंने हमसे पूछा कि “हमारी दिन भर की यात्रा कैसी रही?”

अदिति ने उन्हें वह सब बताया जो हुआ था। उस फाइव स्टार होटल में हमारा स्टे से लेकर टैक्सी तक सब कुछ बुक था। हमें बफे लेना था। पर जब उन्हें मेरी खराब तबीयत की बात पता चली तो उन्होंने मुझे ग्रीन गार्लिक का सूप लाकर दिया। साथ ही खाने के लिए कुछ चीजें अलग से लेकर आये थे।

वहां के मैनेजर ने मेरे लिए कोई टेबलेट भी मंगवाकर दी। उन लोगों की मदद हमारे लिए एक यादगार है। उस रात मुझे नींद अच्छी आई। सुबह अदिती को मैंने विश्वास दिलाया कि “अब हम घूमने जा सकते हैं।” पेंगाग लेक तक का रास्ता और वहां की खूबसूरती मेरे मन में ऐसी बसी थी, की मुझे दोबारा देखने के लिए लद्दाख जाना पड़ा।

 होटल में हमारा ऑनलाइन पेमेंट पहले ही हो चुका था। कुछ एक्स्ट्रा पेमेंट देने के लिए मैंने उन्हें अपना कार्ड दिया। मेरा कार्ड नहीं चला। मेरे पास कैश इतना नहीं था कि बचे हुए होटल के पैसों का मैं पेमेंट कर पाती। 

मैंने मैनेजर से कहा “अब क्या करें?”

मैनेजर ने कहा “आप बिल्कुल परेशान ना हो! यदि आपको पैसों की जरूरत है तो आप मुझसे ले लीजिए!” मैनेजर के यह शब्द मेरे लिए एक बहुत बड़ी सांत्वना और उनका विश्वास था। साथ ही सम्मान जो उन्होंने अनजान पर्यटकों को दिया था। मैंने उनसे पैसे तो खैर नहीं लिए। और दिल्ली आते ही उनका पेमेंट भी किया था। साथ ही उनको धन्यवाद का मेल भी किया था।

दिल्ली एयरपोर्ट पर पति हमें मिलने वाले थे। लद्दाख में बिताए हुए यह दिन वहां की खूबसूरती ही नहीं, वहां के होटल के स्टाफ की सहृदयता और अपनेपन हमारी यादों का हिस्सा थी। जो हम कभी नहीं भूल सकते हैं। यह आज के करीब 10-12 साल पहले की बात है। हमारी पहली यात्रा ने हमें बहुत सुखद यादें दी थीं, जो हमारी मन को आज भी ताजा कर देती हैं।