भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 18 - अंतिम भाग सीमा जैन 'भारत' द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • मुक्त - भाग 4

        मुक्त -----उपन्यास की दर्द की लहर मे डूबा सास भी भारे छो...

  • इश्क दा मारा - 39

    गीतिका बहुत जिद करने लगती है।तब गीतिका की बुआ जी बोलती है, "...

  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

श्रेणी
शेयर करे

भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 18 - अंतिम भाग

18

नद्दी गांव

 मेकलोड़गंज से थोड़ा उपर जाने पर यह बर्फीली चोटी हमें दिखाई देती है। यह शिखर हमारे स्टे से भी दिखाई देता है। इसे पास से देखकर बहुत अच्छा लगा। यहां भी स्थानीय सामान की दुकानें, कुछ खाने-पीने की दुकानें थीं। स्थानीय लोगों का यही रोजगार का साधन है।

भागसूनाग : यह मैक्लोडगंज से दो किलोमीटर आगे है। यहां एक पौराणिक मंदिर है। इस मंदिर में पहाड़ों से बहकर पानी आता है। पर्यटक मंदिर के इस शीतल पानी में स्नान करके आनंद का अनुभव करते हैं। भागसूनाग में भी एक अच्छा मार्केट भी मौजूद है।

सेंट जॉन चर्च :

इस चर्च का निर्माण वर्ष 1863 में हुआ था। यह घने पेड़ों से घिरा हुआ खूबसूरत और प्राचीन चर्च है। जो पर्यटक मेकलोड़गंज आते हैं वो इस चर्च में भी जरूर आते होंगे। एक छोटा-सा, चारों ओर से देवदार के वृक्षों से घिरा यह एक खूबसूरत पिकनिक स्थल भी है।

ट्रेकिंग का लुत्फ

धर्मशाला में हम ट्रैकिंग का आनंद ले सकते हैं। यहां त्रियूंड और करेरी प्रमुख है। त्रियूंड मैक्लोडगंज से करीब नौ किलोमीटर दूर करीब 2,082 मीटर की उंचाई पर स्थित है। यहां से धौलाधार की विशाल पर्वत श्रृंखला बहुत करीब महसूस होती है। पर्यटक रात को यहां कैंपिंग का भी आनंद उठाते हैं।

भारत का राज्य हिमाचल प्रदेश बेहद खुबसूरत राज्यो में से एक है। हिमाचल का शाब्दिक अर्थ है ‘हिमालय की गोद में’ हकीकत में भी यह राज्य हिमालय की उत्तर पश्चिमी गोद में बसा है।

चौथे दिन ज्वालामुखी

एक बात मैंने हर दिन महसूस की कि हम अपनी यात्रा के खर्च को कितने तरीके से कम कर सकते हैं तो पब्लिक बस के टिकिट ने तो हर दिन मुझे बहुत खुशी दी। बस की भीड़, कैसे- कैसे लोग, अपनी साफ अलग टैक्सी इन सब गलतफहमियों से मैं बाहर आई।

 बचपन रोड़वेज की बस से बदनावर और रामपुरा जा कर बिता था। पर वो दौर कम जनसंख्या, कम प्रदूषण का दौर था। ग्लोबल वार्मिग, सन बर्न इन शब्दों से हम अनजान थे। 

 मैं ऑफ सीजन में घूमना ज्यादा पसंद करती हूं। सीजन शुरू होने के ठीक दस – पंद्रह दिन पहले। उस समय भी भीड़ तो काफी ही होती है। मुझे भीड़ से घबराहट होती है। आज का ऑफ सीज़न कल का पीक ही है। इस समय धर्मशाला का ऑफ सीजन था। अगले महीने से ये हाल होगा कि सड़क पर जाम लगते रहेंगे। जो वहां के स्थानीय लोगों के लिए एक मुश्किल है। मगर यात्री और रोजगार के अवसर के चलते इसका कोई रास्ता नहीं है। सड़कों को चौड़ा करना पहाड़ी रास्तों के लिए आसान नहीं है ।एक बार जो बन गया वह रास्ता अब जनसंख्या के दबाव को नहीं झेल पा रहा है।

ज्वाला रूप में मां सती

विश्व प्रसिद्ध शक्तिपीठ ज्वालामुखी मंदिर जिला कांगड़ा का सबसे बड़ा शक्तिपीठ है। यहां हर रोज ज्योति रूप में विराजमान मां सती के दर्शन के लिए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। नवरात्र के दौरान हर रोज हजारों श्रद्धालु मां के दर पर शीश नवाकर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

इतिहास :

ज्वालामुखी मंदिर को ज्वालाजी के रूप में भी जाना जाता है। यह जिला कागड़ा में कागड़ा शहर के दक्षिण में 30 किलोमीटर की दूरी पर है। यह मंदिर हिंदू देवी ज्वालामुखी को समर्पित है। इनके मुख से अग्नि का प्रवाह होता है। मंदिर में अलग-अलग सात ज्योतियां (आग की लपटें) हैं जो अलग-अलग देवियों को समर्पित हैं। जैसे महाकाली अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, बिंध्यावासनी, महालक्ष्मी सरस्वती, अंबिका और अंजी देवी।

 पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह मंदिर सती के कारण बना था। मंदिर काफी पुराना है, लेकिन लगातार इसकी शैली में बदलाव हुआ है। मां सती की यहां जीभ गिरी थी। ऐसे में यहां ज्वाला, मां के रूप में निकलती है। अकबर को अपने शासन के समय जब इस मंदिर के बारे में पता चला था तो उसने मां की ज्योतियों यानी आग की लपेटों को बुझाने के लिए मंदिर के ऊपर एक नहर बनाकर पानी छोड़ दिया था, फिर भी यह ज्योतियां नहीं बुझी थीं। उसके बाद अकबर ने इन्हें लोहे के बड़े ढक्कन (तवा) से बुझाने का भी प्रयास किया था, लेकिन यह उसे फाड़कर भी बाहर आई थीं। उसके बाद अकबर यहा नंगे पैर आया था और मां से माफी मांगते हुए यहां सोने का छत्र अर्पित किया था।

पांचवें दिन लोकल साइट

आज का दिन मैं आराम से अपने घर से बाहर निकली। कुछ लोकल जगह देखना, बाकी का समय अपने घर के पीछे बैठना ही मेरा प्रोग्राम था। एक दिन बाद वापस जाना है तो अब मुझे अपने वक़्त को सुकून के साथ जीना है।

वार मेमोरियल

हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिले के धर्मशाला में एक लोकप्रिय शहीदों की याद में बनाया गया युद्ध स्मारक है। जिसे वार मेमोरियल नाम दिया गया है। हिमाचल को वीरों की भूमि के नाम से भी जाना जाता है। जिस का अहम कारण यह है, की बहुत से हिमाचल के वीरों ने रणभूमि में दुश्मनों को अपने साहस और बहादुरी पराजित किया है। फिर चाहे वो 1962 का चीन-भारतीय युद्ध हो, 1965 भारत का पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध हो, या फिर 1971 का युद्ध, या 1999 में हुआ सबसे कारगिल का युद्ध हो, हिमाचल के वीरों से ने हर युद्ध में अपना अदम्य साहस और अपनी वीरता का बहुत ही अच्छा प्रदर्शन किया है।

हिमाचल के वीरों की बात की जाए तो बहुत से वीर भारत के लिए शहीद हुए हैं। एक ऐसे ही वीर जिन्होंने हिमाचल की देव भूमि में जन्म लिया, जो बल्कि हिमाचल के ही नहीं सम्पूर्ण भारत के पहले वीर है। जिन्हे परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। इनका नाम है,  मेजर सोमनाथ शर्मा! इन्हें भारत सरकार के द्वारा मरणोपरान्त परमवीर-चक्र से सम्मानित किया गया था। परमवीर-चक्र पाने वाले वे भारत के प्रथम व्यक्ति हैं। ऐसे ही बहुत से हिमाचल के वीरों ने देश के लिए अपना बलिदान दिया है, जिन को श्रद्धांजलि देने के लिए इस स्मारक का निर्माण हुआ।

यहां एक बहुत बड़ी दीवार है,जिसके ऊपर बहुत ही खूबसूरती से नक्काशी की गई है इस शिलालेख पर देश के महान वीरों के नाम कलाकृति के साथ लिखे गए है। यह स्मारक धर्मशाला शहर में स्थित है। मेरे स्टे से बाहर निकलते समय बस स्टॉप के बीच के रास्ते पर यह पड़ता था। जिसे मैं रोज ही देखती थी। घने पेड़ों से घिरा हुआ यह स्मारक अपने भव्य आकार और बेहद साफ व अपनी सजावट के कारण मुझे बहुत अच्छा लगा। यह स्थान यहां आये पर्टयकों का पसंदीदा स्थान है। यह स्थान धर्मशाला की चहल पहल के बीच में शांति और स्कून भरा भी है। धर्मशाला में युद्ध स्मारक काले पत्थर के तीन विशाल पैनलों से बना हुआ एक कलाकृति का रूप है, प्रत्येक पैनल की ऊंचाई 24 फिट है।

अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम :

यहां देश का सबसे सुंदर पर्वतों से घिरा और सजा अंतरराष्ट्रीय स्तर का स्टेडियम मौजूद है। यह भारत का सबसे उंचाई पर स्थित स्टेडियम है। वर्ष 2005 में बनकर तैयार हुए इस स्टेडियम में आईपीएल, टेस्ट व वनडे मैचों का आयोजन हो चुका है। यहां दर्शकों के बैठने की क्षमता 25 हजार है।

छ्ठा दिन घर पर आराम

आज मुझे दोपहर में यहां से निकाल जाना है। पठानकोट से मेरी ट्रेन रात के दस बजे थी। पर रात में स्टेशन पहुंचने की जगह मैं शाम तक ही जाना पसंद करूंगी। धर्मशाला से आखिरी बस शाम के पांच बजे चलती है। समय का मार्जिन लेकर मैं हमेशा चलती हूं। आखिर समय की भागदौड़, 'जब वी मेट’ वाला हाल मुझे पसंद नहीं है। वैसे भी करीना को तो शाहिद का हाथ मिल गया था। यहां हमारे लिए कौन परेशान होगा या ट्रेन ही छूट जायेगी। वैसे भी असली जिंदगी फिल्मी कैसे हो सकती है? यह रिस्क मैं अपनी तरफ से कभी नहीं लेती हूं।

कल रात को देवेश अपने घर चले गए थे। आज का दिन मैं घर में अकेली थी। मुझे घर की चाबी किसी पड़ोसी को देकर जाना था। कल एक नए गेस्ट आने वाले थे। अब वह भी मेरी तरह इस घर को खुद ही खोलकर आराम से रह लेंगे। विश्वास की एक अजीब-सी कड़ी जिससे सब अनजान जुड़े हैं और ये कड़ी कई सालों से इसी तरह आगे बढ़ रही है।

देवेश करीब एक सप्ताह बाद वापस आयेंगे। आज इस घर को बन्द करके, चाबी पड़ोसी को देकर मैं पैदल बस स्टॉप के लिए निकली। इस खूबसूरत घर को, इसके पीछे के चिनार के पेड़ों को, नद्दी के शिखर को, इन ठंडी हवाओं को अपने दिल, अपनी आंखों में एक बार फिर जी भर कर देख कर, अपनी यादों में बसा कर मैं घर से बाहर निकली।

गद्य की कोई भी विधा हो, यदि आत्मकथा को छोड़ दिया जाए तो कहानी, उपन्यास या लघुकथा ही क्यों न हो सबमें आधी हकीकत आधा फ़साना ही होता हैं। कुछ लेखक ने देखा, भोगा, कुछ जोड़ दिया। कोई संदेश दिया, कोई सुधार चाहा , जीवन को बेहतर बनाने की एक प्रक्रिया का नाम ही लेखन है। जो समाज और मन को शांति देने की कोशिश करता है, साथ ही साहित्य को समृद्ध करता है। साहित्य जीवन को दिशा देता है और आत्मा को तृप्त करता है। 

यात्रा- वृतांत कुछ -कुछ जीवित कहानियों या आत्मकथ्य जैसे ही होते हैं। सब कुछ देखा, भोगा और यादों में बसा लिए, कागज के पन्नों पर उतार दिया… कुछ परिवर्तन नहीं किया। मेरी भी ये तीन जीवित कहानियां हैं जिनके सारे पात्र व स्थान वास्तविक हैं। जिन्होंने मेरे मन और जीवन को सुकून से भर दिया। आशा करती हूं यात्रा आपके मन को भी वही सुकून दे जो मैंने पाया … यह ऊर्जा आगे की यात्राओं को सींचने का काम करेंगी…

आज मेरी पहली सोलो यात्रा पूरी हुई। अदिती की बात सच ही साबित हुई, अकेले घूमने पर जो सुकून मिलता है वो कुछ अलग ही होता है। हम सिर्फ प्रकृति से ही नहीं जुड़ते हैं हमें मानवता भी हंसती मुस्कुराती हुई मिलती है बिल्कुल मुस्कुराती हरियाली की तरह…