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नारी जग पहचान अधिकारी



माना, मनुस्मृति एक विवादास्पद गंर्थ के रुप में स्वीकृत किया जाता है, क्योंकि उसमें कुछ हिन्दु नियम कानूनों का ऐसा समाहित है, जो आज के परिवेश अनुसार उचित नहीं लगते, पर बात जब हम नारी चरित्र पर करते तो उसका ये श्लोक काफी महत्वपूर्ण हो जाता है।

" यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया : ।।

(यानी जहाँ नारी या स्त्रीजाति का आदर-सम्मान होता है, उनकीं आवश्यकताओं- अपेक्षाओं की पूर्ति होती है, उस स्थान,समाज, तथा परिवार पर देवतागण प्रसन्न रहते है।जहाँ ऐसा नहीं होता और उनके प्रति तिरस्कारमय व्यवहार किया जाता है, वहाँ देवकृपा नहीं रहती है और वहाँ संपन्न किये गये कार्य सफल नहीं होते है।)

हमारे देश में नारी की स्थिति काफी विचारणीय है, दो रुख समाज के हर समय, हर जगह आज भी नजर आते है। एक ओर जहाँ नारी को सम्मान दिलाने की बात करते, दूसरी ओर हम उस को अबला समझ अत्याचार करने से नहीं चूकते। तभी शायद किसी खास परिस्थिति के अधीन हो राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त को कहना पड़ा होगा।

"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों मे पानी"

राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त की ये पंक्तियां, नारी के एक पक्ष का मार्मिक चित्रण ही हम कह सकते है। अगर आज के संदर्भ के अनुसार, हमें नारी का विश्लेषण करना है, तो हमारी सोच या चिंतन को नई दिशा की ओर मोड़ना होगा। इतिहास गवाह है, भारतीय नारी सदा ही पुरुष प्रधान समाज में अपने त्याग के गुण के कारण पूज्यनीय रही है। कहते है, किसी पुरुष की महत्वकांक्षाओं की पूर्ति में नारी अपना अस्तित्व तक भुला देती है, यही शायद उसकी प्रमुख अच्छाई या भूल ही कह सकते है, जिसके कारण किसी ने उसकी आंतरिक शक्तियों को सही समय में नहीं पहचाना। शिव ने सती के अग्नि-दाह और राम ने सीता के त्याग के बाद ही जाना, नारी अद्धभुत चरित्र की होती, उसके अंतर्मन की थाह लेना बहुत मुश्किल काम है। इतिहास में अनेक ऐसे उदाहरण है जब नारी पुरुष के विजय और पतन का कारण बन जाती है। नारी के चरित्र की विशेषताओं को कभी भी सही ढंग से विश्लेषण शायद ही किया जा सके, पूर्वाग्रह से शंकित विश्लेषण ही ज्यादातर नजर आता है। अगर वर्तमान के सन्दर्भ में भारतीय नारी की बात करे तो अब वो नारी-शक्ति के स्वरुप में अपनी पहचान की ओर अग्रसर हो चुकी है। कुछ साहित्यकारों और विद्धवानों को छोड़कर हमारे देश में नारी को अबला के रुप में स्थापित करने की चेष्टा की गई, परन्तु पाश्चात्य देशों ने नारी- चरित्र को सन्तुलित रुप में देखा।


नारी के स्वरुप को लेकर Eleanor Roosevelt ने एक रोचक बात कही, उनके अनुसार, " A women is like a tea bag: you never know how strong it is until it's in hot water".

हकीकत भी, शायद यही है, नारी अनबुझ पहेली है, ऊपरी सतह पर कोमल दिखने वाली नारी भीतर में बहुत जगह से मजबूत होती है। एक माँ के स्वरुप में दोनों ही का अवलोकन किया जा सकता है। समय आ गया कि अब नारी के अस्तित्व का हम नये ढंग से मूल्यांकन करें और यह स्वीकार करने में संकोच न करे कि अब न नारी अबला है, न ही वो हालातों से मजबूर होने वाली कमजोर स्त्री है। कभी कभी लगता वो कह रही, पुरुष प्रधान समाज में, अब उसे शेरनी बन कर ही जीवन जीना है, जिससे उसका मान-सम्मान और बढ़ जाये। नारी के बारे में इतना कुछ लिखा जा चुका, फिर भी लगता कुछ तो है, जो नजरों और ख्यालों से चूक रहा है। ये लेख भी कहीं ये सांत्वना नहीं ले रहा, कि ये शायद कुछ अलग और विशिष्ठ अनुसंधान कर रहा है। हाँ, ये चेतावनी जरुर दे रहा, नारीवाद या नारीशक्ति का युग शुरु हो चुका है और पुरुष प्रधान समाज को उनको सही आदर देने की शुरुवात कर देनी चाहिए।

नारी के दैहिक निर्माण में प्रकृति ने उसे जो अलग दिया वो है, वो पुरुष को नहीं मिला, इसका जो प्रमुख कारण नारी की संयम शक्ति, पीड़ा सहने की। प्रसव के दौरान नारी सह-अस्तित्व के तहत पुरुष को भी जन्म देती और उसका साथ मरने तक नहीं छोड़ती, वो माँ, बहन के सफर से लेकर पत्नी तक का दायित्व निभाती और हर सम्बंध में संयम से अपनी भूमिका स्वीकार करती है।
सभ्यता से संस्कार तक की यात्रा में पुरुष की तरह कम उतेजित होकर हर जीवन को सार्थक करना चाहती है। प्रेम की परिभाषा भी नारी बिना अधूरी शायद इसलिए हो जाती कि वो बाहर से तो सुंदर होती, पर अंतर्मन के ममत्व से कभी कम नहीं होती।

नारी सुंदरता श्रेष्ठ है, क्यों ? अगर आपके दिमाग में है, तो हम नारीत्व की हल्की सी मीमांसा करते है, क्योंकि किसी को विशिष्ठता ऐसे ही हासिल नहीं होती है।

1. नारी की दैहिक सुंदरता आकर्षक व स्त्रीत्व से भर-पूर होती है।
2. नारी में मातृरूप होता, जिसमें भविष्य समाया रहता है।
3. नारी पुरुष को मानसिक रुप से विचलित करने की क्षमता रखती।
4. नारी स्वाभिमानी और अंहकारी दोनों प्रवृतियों की मालकिन होती।
5. नारी उदात्त प्रेयसी और पुरुष की प्रेरक शक्ति बनने की क्षमता रखती।

चिंतन करे, हमारे देश में नारी को पुरुष का जीवन-साथी या हमसफ़र क्यों माना गया ?, क्यों उसके पत्नी होने के अस्तित्व में धर्म को जोड़कर धर्म-पत्नी का अस्तित्व दिया गया ? क्यों उसे सात वचनो में बाँधा गया ? क्यों उसे पुरुष मुँह से जीवन भर सुरक्षा का आश्वासन दिलाया गया। इसका उत्तर हम शायद न्यायपूर्ण तरीके से न दे सके तो इस श्लोक पर ध्यान देना चाहिए।

संतुष्टो भार्यया भर्ता भत्रा भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुल नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ।।

"यानी जिस कुल में प्रतिदिन ही पत्नी द्वारा पति सन्तुष्ट रखा जाता है और उसी प्रकार पति भी पत्नी को संतुष्ट रखता है, उस कुल का भला सुनिश्चित है, यानी वो परिवार सुखी और प्रगति के लायक है"।

मुझे पता नहीं इस उत्तर से हम कितने संतुष्ट हो सकते है ? क्योंकि हम ऐसे प्रश्नों के लिए फ्रायड या अन्ये मनोवैज्ञानिकों के उत्तर को आज के दौर में ज्यादा सार्थक समझते है। कुछ पाश्चात्य वैज्ञानिक जिनमें फ्रायड का नाम भी लिया जा सकता, उन्होने स्त्री को शारीरिक तंत्र से ज्यादा, मन तंत्र से कम विश्लेषण किया, इसलिए उनके चिंतन को लोगो ने स्वीकार करने में हिचकिचाहट हुई। इसका प्रमुख कारण यही है, हम स्त्री को भोग की वस्तु ज्यादा समझते, उसके मन से लेना देना पुरूष सीमित ही रखने की कोशिश करता है।

The second sex, सिमोन द बोउआर द्वारा फ्रांसीस भाषा में लिखी गई बहुचर्चित पुस्तक है। इस पुस्तक की विशेषता और भी बढ़ जाती, क्योंकि इसमें संसार के सभी प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकों व साहित्यकारों के नारी- चिंतन सार को समाहित किया गया। जिनमे से कुछ नाम इस प्रकार है।
Alfred Adler, Andre Breton, Paul Claude, Colette, Havelock Ellis, Friedrich Engels, Sigmund Freud, Alfred Kinsey, D. H. Lawrence, Katherine Mansfield, Karl Marx, Emile Zola आदि। स्त्री अधिकार की समर्थन करने वाली सिमोन की ये पुस्तक नारी अस्तित्ववाद को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करती है। उनके अनुसार "स्त्री जन्म नहीं लेती है बल्कि जीवन को बढ़ने और समझने के लिए पैदा होती है"। लेखिका इस पुस्तक के द्वारा ये समझाना चाहती है कि कैसे पुरुषों ने नारी को समाज में "दूसरे" का दर्जा दिया है। वो कहती है कि
पुरुष ने नारी के चारों ओर झूठे नियम और कानून बनाकर उन्हें इस आश्वाशन में रखा है कि उनकी जगह पुरुष श्रेष्ठ है। लेखिका का मानना था कि ऐसा करके पुरुष ने स्त्रियों की परेशानियों को न समझने में अपना हित दिखता है। अपनी पुस्तक में उन्होंने ये भी लिखा कि स्त्रियों को कमजोर एवँ शारीरिक व मानसिक रुप से असामान्य माना गया है और इसी कारणवश स्त्रियों को कहीं भी उचित अवसर नहीं मिला है। नारी को हमेशा यह आश्वासन दिया गया कि वे कमजोर है, उन्हें स्थिर व सामान्य रहने के लिए पुरुषो के मार्ग-दर्शन पर चलना चाहिए।

सारांश, यही सही समझ में आता, नर और नारी दोनों ही प्रकृति प्रदान गुण और अवगुण से मजबूर होते हुए भी एक दूसरे के सम्मान के अधिकारी है। परिवर्तन के सिद्धांतों अनुसार नारी का सशक्त होकर उभरना पुरुष के लिए हितकारी ही साबित होगा, इससे एक स्वस्थ, सही समाज की रचना होगी, ये लेखक का मानना है।
लेखक ✍️ कमल भन्साली

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