शीर्षक : उम्र का अंतराल ( Generation Gap )
यह तय है, मानव जीवन, युग की चेतना के अनुसार अपने स्वरुप को बदलता है। किसी एक मानव के लिए यह कतई संभव नहीं कि अपनी आवश्यकता अनुसार युग को बदल दे, इसके विपरीत उसे ही कहीं न कहीं अपना बदलाव करना पड़ता है। आज जीवन दिमागी उन्नति के कारण, तेज रफ़्तार से बदल रहा है। स्वभाविक परिवर्तन किसी भी जीवन को यह महसूस नहीं होने देता कि कोई अस्वभाविक बदलाव हो रहा है। कुछ समय पहले तक जीवन की यही बदलने की प्रक्रिया थी, इसका एक ही कारण हो सकता है, कि जीवन अपने विकास के दौर से गुजर रहा था।
शुरुआती जीवन का पहला परिवर्तन, अकेले आदमी से परिवार के रुप में हुआ होगा, ऐसा तथ्यों के आधार पर चिंतन करके कहा जा सकता है, हमारे पास परिवर्तन को नापने का इससे अच्छा और दूसरा माध्यम अभी उपलब्ध और सुलभ भी नहीं है। साथ में यह भी काफी हद तक सही भी लगता है, परिवार के बनने से जो जुड़ने की भावना पैदा हुई, वो आज तक हुए परिवर्तन के लिए काफी जिम्मेदार भी लग रही है। सवाल उठाया जा सकता है, हम परिवर्तन की इतनी चर्चा यहां क्यों कर रहे है ? जबाब सीधा साधा सा है, आज जीवन की बढ़ती कठिन परिस्थितयां और जटिलताएं हमें मजबूर कर रही है और दैनिक जीवन की सुख शान्ति इस परिवर्तन की वेदी पर अपनी बलि दे रही है। इस परिवर्तन से परिवार में अंतराल इन्सान की उम्र के अनुसार आ रहा है, जिसे हम हिंदी में "पीढ़ियों का अंतराल" और अंग्रेजी में "Generation Gap" कहते है।
संसार में हर परिवर्तन प्रत्येक इंसान को प्रभावित करता है, हम भी इससे वंचित नहीं रह सकते। पर सवाल यही है, क्या मानसिक रुप से हम इन सबको सही ढंग से जीवन में स्थापित सुगमता से कर पाते है ? सृष्टिकर्ता ने प्राकृतिक नियमों को अक्षुण रखा, उसकी गति को भी उसने समय के बदलते प्रभाव से काफी हद तक दूर ही रखा, इसका अनुभव हम समय पर होनेवाले दिन, रात, ऋतु परिवर्तन के समयबद्ध आने जाने से कर सकते है। परन्तु मानव अपना विकास करते करते अपने ही बनाये नियमों की प्रतिबद्धता के विरुद्ध जाकर काम करने लगा, और उसका प्रभाव उसके और उसकी सन्तानों के विचारों पर पड़ने लगा। दो समयकाल में पैदा हुए रिश्तों में पीढ़ियों का चिंतन अंतराल सामने आने लगा, जिसके कारण आपसी रिश्तों में शुभता की कमी झलकने लगी और जिंदगी की आंतरिक खुशियाँ धीरे धीरे कमजोर पड़ने लगी। इसका अनुभव भी आज की पारिवारिक स्थितियों के अवलोकन से दृष्टिगत होने लगा है। अर्थ की बढ़ती चाह इसका प्रमुख कारण बना हालांकि अर्थ की लाचारी, साधनों की अधिकता और उसके प्रति मानव का लगाव है। कुछ समय पहले एक विचार जीवन के क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण रहा कि " आदमी परिस्थितयों का दास है" अब मानव ने अपने दिमाग का विकास कर "परिस्थितियों को अपना दास" बना लिया है।
आखिर ऐसा क्या ?, इन दिनों हुआ कि पीढ़ियों के चिंतन में अंतराल आने लगा ? हम इसकी थोड़ी सी विवेचना कर लेते है, शायद आगे जाकर हम इस अंतराल के प्रभाव से पीड़ित पीढ़ी को कुछ हद तक सुरक्षित करने के लिए कोई रास्ता खोज सके। इसके लिए हमें पहले चर्चा को शुरुआती रुप देने के लिए यह तय करना होगा कि आखिर इस अंतराल से कौन सी पीढ़ी सबसे ज्यादा तनावग्रस्त है। हकीकत तो यही समझाती है, आज बूढ़े, बुजर्ग यानी परिवार के कभी मुखिया माने जाने वाले काफी अकेले, तन्हा और पृथक हो गये, इन्हे लोग पुरानी पीढ़ी के अंतर्गत लेते है। कुछ समय पहले जब विज्ञान इतना सक्षम नहीं था, तब जीवन संस्कारों के अंतर्गत ही चलता था। समस्याएं जब शुरु हुई जब विज्ञान की गति तेज हो गई और नये नये सुख और विलाश के साधनों का उपयोग इंसान करने लगा, निश्चित था रिश्तों को संवेदन रखने वाला प्रेम कम होने लगा और नई पीढ़ी को अपनी स्वतन्त्रता की सीमा खटकने लगी। हमें यहां उस कथन का सहारा लेना होगा जिसमें जार्ज ऑरवेल ने पीढ़ियों के अंतराल का प्रमुख कारण बताया " EACH GENERATION IMAGINE ITSELF TO BE MORE INTELLIGENT THAN THE ONE THAT WENT BEFORE IT, AND WISER THAN THE ONE THAT COMES AFTER IT" | यानी एक लाइलाज बीमारी जो सब को भोगनी पड़ेगी, समझदारी से कुछ इसका उपाय तलाशना जरूरी है, जो फिलहाल तो मुश्किल ही लग रहा है।
अगर हमें अपने देश के अंतर्गत पीढ़ियों के अंतराल की खाई की गहराई को समझना है, तो लगता है, हमारा जीवन दर्शन में, आपसी समझ, समय के विपरीत की सोच है। मसलन मेरे पिताजी 50 रुपया बचाने के लिए पचास मिनट तक चल सकते थे, आज 50 मिनट को बचाने के लिए मैं पचास रुपया खर्च कर सकता हूँ। यानी उस समय अर्थ उपयोगी था, आज समय। पहले संस्कार जीवन की छाप थी, आज अर्थ जीवन की इज्जत। हालांकि पश्चिम के देश GENERATION GAP से सन् 1960 के आसपास काफी प्रभावित हुए, जब वहां वैज्ञानिक उपकरण और साधनों का विस्तार और उपयोग शुरु हुआ, परन्तु धीरे धीरे उन्होंने इसको जीवन की जरुरत मान लिया। हमारे यहां इस बीमारी का पूर्व अनुमान चाणक्य जैसे विद्धान को पहले से हो गया, तभी उन्होंने कहा " पहले पांच सालों में अपने बच्चे को बड़े प्यार से रखे। अगले पांच साल उन्हें डाट- डपट के रखे। जब वह सोलह साल का हो जाए तो उसके साथ एक मित्र की तरह व्यवहार करें।आपके वयस्क बच्चे ही आपके सबसे अच्छे मित्र है"। हालांकि चाणक्य के कथन को पूर्ण रुप से आत्मसात करना कठिन है, क्योंकि हर उम्र का अपना सम्मान और संकोच होता है।
पहले भी नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में पूर्ण सामंजस्य सब क्षेत्रो में रहा है, ऐसा दावा बेमानी ही होगा, परन्तु एक बुनियादी फर्क को हम नजर अंदाज नहीं कर सकते कि उस समय की दोनों पीढ़ी जीवन में संस्कारो का महत्व जानती थी । आज यही एक फर्क दोनों पीढ़ियों को तनाव ग्रस्त कर रही है, एक को नहीं मिलने का, दूसरे को नहीं देने का। क्योंकि वर्तमान की पीढ़ी मन और आत्मा से जानती है, जो उन्होंने दिया नहीं वो उन्हें इस जीवन में कैसे मिलेगा। कबीर दास के इस दोहा पर नई पीढ़ी को सूक्ष्मता से चिंतन की जरुरत है।
" करता था तो क्यों रहा, अब काहे पछताय
बोया पेड़ बबूल का, आम खान से खाय ।
( "अगर तुम अपने आपको ही करता मानते थे, तो फिर जीवन में असफल ही क्यों हुए। इसका मतलब है, तुम कर्ता नहीं हो, कर्म के निमित्त हो। करण करावन-हार आज भी सृष्टि है, उसके नियमों के तहत ही जीवन को चलना है। कारणों का कारण वही है। तुम अपने अहंकार में आके कृतित्व का भाव नहीं रखते तो अपने आप को करता नहीं मानते। तब सुख दुःख भी नहीं पाते। अब जब परमात्मा की दी हुई शक्ति को ही तुमने अपना अहंकार बना लिया है।) बबूल का पेड़ ही तुमने बोया है, जिसमे कांटे ही कांटे है इसलिए आम कहाँ से खाने को मिलेगा। तुमने ऐसे काम क्यों नहीं किये जिससे जीवन में सुख मिले। तुम नियामक नहीं निमित्त थे और अपने को करता समझ बैठे। कर्म के अहंकार कर्म की आसक्ति की वजह से ही तुमने कष्ट पाया है। सकाम कर्म करने का तुमने दंभ पाला था, इसलिए अब कष्ट उठाना भी जरुरी है" )
पीढ़ियों के अंतराल को इतनी सह नहीं मिलती, अगर आज की शिक्षा में प्रेम, धैर्य, संयम, संस्कार, त्याग और नैतिकता का समावेश होता। इस सोच की कमी का प्रत्यक्ष उदाहरण है, " OLD AGE HOME " (वृद्धाश्रम) जो डिग्रियों से लेस पीढ़ी का समाधान है " GENERATION GAP" की समस्या का ।
✍️लेखक कमल भंसाली