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दहशत में वर्तमान

विषय : दहशत में वर्तमान ( एक अनुसंधान युक्त विश्लेषण )

Truth is forever" सत्य सदा रहता, वक्त बोल कर कह नहीं सकता, पर अहसास तो करा देता। सवाल ये नहीं कौन सहमत और कौन सहमत नही, कौन इस कथन को अंदर से किस हद तक स्वीकार करता ? परंतु समय कह रहा, स्वीकार करों या नहीं, मेरी धुरी तो यही है, इस पर ही मेरा अस्तित्व घूमता है, पर हर चक्र में कुछ नये घटनाक्रम के साथ हर एक के लिए अलग, अलग रुप में।

विज्ञान के बढ़ते चरणों की आहट से प्रभावित इंसानियत को आज कालचक्र से एक अनचाहा झटका मिला और इंसान सोचने पर मजबूर कर दिया, क्या ईश्वर ही एक सत्य है, ? जिस वर्तमान पर अपना दावा करता, सही में क्या वो उसकी सत्ता स्वीकार करेगा ? क्या वो ही दुनिया का असली मालिक है ? संसार का लगभग हर देश "करोना" नाम के जानलेवा वाइरस का शिकार हो चुका है। इस नाम से ये तथ्य हमें ये सोचने को मजबूर कर रहा कि " करो ना करो विश्वास तुम्हारी हस्ती अभी भी संसार बनाने वाले पर निर्भर करती", तुम उस के लिए, अब भी तुच्छ हो।

प्रकृति प्रदत्त प्राण, हर प्राणी में है, उसी द्वारा कुछ अनजाने विश्लेषण हम को जरुर करने चाहिए, इसे पूर्ण प्रमाणित करने का दावा, हालांकि,कोई नहीं कर सकता परन्तु चिंतन की कुछ विशिष्ठ धाराओं से जुड़ने में क्या हर्ज हो सकता है। हम सर्वप्रथम विज्ञान की उस स्वीकृति को स्पष्ट रुप से समझ लेना चाहिये जब सभी देशों ने स्वीकार किया, हमारे वैज्ञानिको के पास अभी इस बीमारी का कोई प्रमाणित इलाज भी नहीं और न ही इसके बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए कोई साक्षात उपाय। आखिर कहां गई विज्ञान की चेतना जो चाँद तक पँहुचने की शक्ति तो रखता पर एक छोटे से जीवाणु के हानिकारक प्रभाव को रोकने में अभी तक ख़ास सफल नहीं हो सका। अगर कुछ बचाव है, तो हमारा उन्हीं से अलग रहना, जिनका कोई खास महत्व हमारे जिंदगी में हमने कभी भी संजीदगी से नहीं लिया, इस नई साधन युक्त दुनिया में। आपसी असम्मान जनक व्यवहार, नगण्य आंतरिक प्रेम और स्वच्छ, साफ न रहने की आदत तो हमारी जीवन शैली का अहम हिस्सा बन चुकी है। इसलिए आज मानव जीवन थका सा अपना अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा, क्यों ?

क्या हमें यह महसूस नहीं हो रहा, प्रकृति की असीम कृपा हम पर जो रही, उसमें कुछ कमी तो हो रही है। पिछले कुछ सालों के प्रकृति के व्यवहार का हम अध्धयन करे, तो सहज ही हम ये स्वीकार कर सकते, कुछ तो है, जो इंसानी व्यवहार के अनुरुप बदल रहा है। हम किसी निष्कर्ष पर पंहुचने का दावा तो अभी नहीं कर पाएंगे अगर हमारी वर्तमान जीवन पद्धति पर हम स्वयं ही अनुसन्धान करने का साहस न करे। शायद वक्त रहते हमें समझ में आ जाये, हम ही अपने दुश्मन है, हमारी बिगड़ी हुई जीवन शैली ने इस असहज कीटाणु को जन्म दिया है। इसका सबसे पहला कारण हमारा विवेक शून्य होते जाना।

हकीकत की शपथ लेकर हमको यह समझना होगा, हमने अपने ही शरीर और आत्मा को सही रुप से समझने की चेष्टा ही कब की ? अगर हम स्वयं के लिए जरुरत की सारी जिम्मेदारियों को सही ढंग से निभाते, तो शायद हम आज इस विपति से ग्रसित नहीं होते क्योंकि हमारी सात्विक रहती जिंदगी ऐसे वायरस को पैदा ही नहीं होने देती।

उपरोक्त कथन की सत्यता पर प्रश्न किया जाय उससे पहले कुछ सवालों के उत्तर को तलाशना, हमें अपने ही सन्दर्भ में होगा। हम क्या है ? हमे इस संसार में क्यों इंसानी शरीर के आकार में भेजा गया ? किसी सन्दर्भ में क्या कुछ विशेष हम करने के लिए आये ? क्या कुछ भूल या चूक हम से हुई या हो रही है ?
इंसानी देह प्राप्त करना यह तो तय है, सौभाग्य है। इसे स्वस्थ रखना कर्तव्य और जीवन लक्ष्य है।
देह विशिष्ठ तो है, पर बाहरी और आंतरिक
कमजोरियों के कारण कम सक्षमता के कारण बार बार संकट ग्रसित हो जाती है। आखिर क्यों ? चलिए जान लेते देह की सरंचना का सत्य जो हमने शास्त्रों के मध्यम से प्राप्त हुआ और विज्ञान ने भी उसे स्वीकार किया।
शरीर, जिस्म, तन, काया, वदन और तनु आदि कई शब्द है, जिनका हम उपयोग देह के सम्बंध में करते है। देह की सरंचना सर्व प्रथम हमने नहीं की, प्रकृति का स्वयं का ही कोई चमत्कार है। हम दावा तो कोई नहीं कर सकते पर आंशिक रुप से हर सजीव प्राणी को ये अधिकार जरुर प्राप्त हुआ, कि दैहिक आनन्द से ही हम देह के बीज का रोपण करे, जिससे किसी भी प्राणी की नस्ले इस संसार से लुप्त न हो, परन्तु उनके लिए स्वस्थ पर्यावरण को आवश्यक आधार तय किया गया, जिनसे उनकी प्रजनन शक्ति में कमी न हो। दुःख यही है, स्वच्छ पर्यावरण की आवश्यकता को जानते हुए भी इंसान की अति साधनों की चाह ने उसे इस जानकारी से विमुख कर दिया, नतीजन इंसानी विकास के साथ कई दूसरे प्राणीयों की नस्ले खत्म होने लगी और कुछ की होने के कगार पर है।

इस विषय पर हम सयुंक्तराष्ट्र की उस रिपोर्ट पर गौर करते जिसमें कहा गया कि आनेवाले तीस साल में कुछ एक चौथाई स्तनपायी जीव विलुप्त हो सकते। इसका प्रमुख कारण विकास के नाम पर जंगलों को नष्ट कर देना और दुनिया के एक हिस्से से जानवरों की प्रजातियों को दूसरे इलाकों में ले जाकर छोड़ देने से जैव सन्तुलन का बिगड़ जाना। इस रिपोर्ट में आगे बताया गया कि जानवरों और वनस्पतियों की ग्यारह हजार से ज्यादा प्रजातियों के लुप्त होने की संभावना है। इसमें एक हजार स्तनपायी जीव, एक चौथाई पक्षियों की और पांच हजार पौधों की किस्मे शामिल है।

हम यह न समझे कि मानव इस खतरे से बाहर है। सोचिये जब अभी स्पर्श से ही हमारी जान को खतरा है, अगर हवाओं में कहीं से कोई जानलेवा कीटाणु अपना अस्तित्व बना लेगा, तब .....सोचिये, चिंतन कीजिये...तब तक यहीं ठहर जाते।
लेखक: कमल भंसाली

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