ढलती उम्र में रहे बेखबर Kamal Bhansali द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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ढलती उम्र में रहे बेखबर

Health is wealth" यानी स्वास्थ्य ही धन है। ये कथन जीवन का प्रमुख सत्य है। इस कथन का प्रयोग हम सभी कभी न कभी स्वास्थ्य के सन्दर्भ में जब-तब बात करते है, तो जरुर करते है। परन्तु यह भी सत्य है, जीवन की प्रारम्भिक अवस्था से इसकी अवहेलना भी करते है, जीवन की दूसरी तरह की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए। बिरले ही होते जो दूसरे तरह की आकांक्षाओं के लिए अपने स्वास्थ्य के साथ समझौता नहीं करते। जब बात स्वास्थ्य की कर रहे तो यह समझना जरुरी हो जाता कि स्वास्थ्य के अन्तर्गत शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्थितियों की मीमांशा होनी चाहिए। सन्ध्या काल तभी श्रेष्ठ होता जब जीवन किसी भी प्रकार की ख़ास बीमारी से ग्रस्त नहीं होता, जिससे हमारी मानसिक स्वास्थ्य अवस्था किसी भी तरह निराशा की अनुभूति न करे। हमारी जीवन व्यवस्था जब तक अव्यस्थित नहीं होती हम हर प्रकार का आनन्द इस काल में भी सहजता से प्राप्त कर सकते।

माना मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य है, परन्तु उसका उम्र से कोई लेना देना नहीं वो किसी भी उम्र के प्राणी को कभी भी प्राप्त हो सकती है। बिना पूर्ण जीवन जीने वाली मौत को हम आकस्मिक मृत्यु कहते, और लगभग पूर्ण उम्र प्राप्त मौत को हम जीवन सुधार की प्रक्रिया के अंतर्गत ही रखते। एक लम्बी उम्र प्राप्त इंसान को जब उसकी आखरी इच्छा के बारे में पूछा जाता तो स्वभाविक रुप से एक ही उत्तर आता कि उसका जीवन अपनी आखरी मंजिल बिना किसी दूसरे की सेवा के शांत हो जाये यानी कि वो शांति के साथ बिना किसी दूसरे को दुःख दिये, इस संसार से चला जाये। अतः तय है कि अंतिम समय तक स्वस्थ रहना जरुरी होता है।

हम दर्शन शास्त्र या कोई भी धार्मिक शास्त्र के ज्ञाता से जब जीवन के सुखमय होने के बारे में पूछते है, तो उत्तर लगभग एक ही आता आत्मा की पवित्रता और शरीर के प्रति स्वस्थ प्रयासों का निरन्तर अनुमोदन कर उन्हें क्रियावन्त करना। माना उत्तर सहज है, पर पालन करना खासकर आज के समय में सहज नहीं लगता क्योंकि आधुनिक साधनों ने जीवन का दिमागी प्रयोग इतना बढ़ा दिया कि शारीरिक रुप से जीवन प्रायः निष्क्रिय सा हो गया। नतीजा दिमागी तनाव का बढ़ना और स्थूल शरीर के वजन का बढ़ना। इससे मानवीय परिवर्तिया शुष्क हो जीवन को निराशा के अंधेरों से उभरने नहीं देती।

जीवन को अगर समझना है, तो हमें सबसे पहले हमारे अकिंचन शरीर की गतिविधियों को समझना होता है। अगर इस बारे में कोई सर्वे कराया जाय तो शायद आंकड़ों में हमारा देश निचले स्तर पर खड़ा दिखाई देगा। जिस देश में स्वास्थ्य इंश्योरेंस के प्रीमियम को फ़ालतू या मजबूरी का खर्चा माना जाय, उस देश का स्वास्थ्य भगवान भरोसे ही चलता। अब कुछ चिंतन में हमारे बदलाव आ रहा है, शिक्षा के प्रति ज्यों ज्यों हमारी रुचि बढ़ रही, स्वास्थ्य और पर्यावरण पर सरकारी निति के साथ हमारी शरीर के प्रति जागरुकता भी बढ़ रही है, यह एक अच्छी बात है।

चूँकि हमारा इस लेख का विषय हमारा संध्या काल यानी हमारे बुढ़ापे से सम्बंधित है, अतः हम इस सच्चाई को सहर्ष स्वीकार कर लेते कि अगर हम आर्थिक रुप से सक्षम नहीं तो पहला तनाव हमारी असुरक्षा से शुरु होता। इन परिस्थितियों में जब हम किसी छोटी सी बीमारी को लेकर डाक्टर के पास जाते तो बिना किसी कारण के हम अपनी कई आंशकाओ से स्वयं को ग्रसित कर लेते। हमारे देश की सामाजिक व्यवस्था के हिसाब से हम पहले अपने परिवार के प्रति चिंतित होते, फिर अगर कोई गंभीर बिमारी अगर आ जाती तो डाक्टरों की फीस, महंगी दवाइयों की कल्पना से असहज हो जाते। तब हमें अहसास होता हमने एक बहुमूल्य शरीर की कीमत को कभी सही ढंग से नहीं आँका। इस लेख का उद्धेश्य कहीं भी डराना नहीं अपितु स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही न बरतने की सलाह है, क्योंकि बढ़ती उम्र को कोई नहीं रोक सकता।

आइये, हम अपने कदम इस सोच के साथ आगे बढ़ाते कि जीवन का विशिष्ठ और शिष्ट अध्याय काल जीवन का अंतिम चरण ही होता क्योंकि जितने ही श्रेष्ठ अनुभव जीवन अपनी यात्रा के दौर में संग्रह करता उनका सही उपयोग इसी काल में बिना किसी रोक टॉक और झिझक के कर सकता है। ये मत सोचिये कि आप की शारीरिक और मानसिक स्थिति सहानभूति के लायक हो गई। ईवा लोंगरिया, जो एक कलाकार है, उनका मानना है कि " It's a myth that you can't have it all...You can have it all- just may be not all at the same time".
दरअसल, बुढ़ापा कोई चिंता का विषय नहीं, अपितु सूक्ष्मता से जीवन को समझकर चलने की अवस्था है।

उम्र की गिनती कभी नहीं करनी चाहिए, हाँ, सरकार से मिलती हुई सुविधाओं के उपयोग के लिए, अपना जन्म-वर्ष जरुर याद रखिये, वो हमारे अधिकार के अंतर्गत आता है। बाकी यही सोचिए, आप अभी 18 वर्ष के है और बाकी आप के अनुभव के वर्ष है। उम्र के दिमागी ख्याल है, अगर आप इस बारे में कोई विचार नहीं करते तो जीवन पर कोई प्रभाव पड़ता नजर नहीं आयेगा।
लेखक: कमल भंसाली