रामायण, अमृत-तत्व- व्यक्तित्व निर्माण में Kamal Bhansali द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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रामायण, अमृत-तत्व- व्यक्तित्व निर्माण में

कभी अगर हमसे कोई कहे, इंसानों में "राम" की तलाश है, तो एकाएक ऐसे महापुरुष की काल्पनिक छवि हमारे नयनों में तैरने लगती है, जो अलौकिकता से भरपूर होती है। जब भी हम "राम" शब्द का उच्चारण करते है, या किसी के सन्दर्भ में उसका प्रयोग करते है, तो उसमें अगर "श्री" शब्द जोड़ देते है, तो हमें ख्याल आ जाता है, कि हम मर्यादा पुरुषोतम राम का उच्चारण कर उन्हें याद कर रहे है। एक बात इससे साफ़ सी हमारे दिमाग में छा जाती है, कि हम किसी ऐसे इंसान के व्यक्तित्व की बात कर रहे है, जो आज के आधुनिक युग में साधारणतय दुर्लभता से नजर आता है। इसका कारण खोजना कहां तक सही होगा ? यह कहा नहीं जा सकता। पर सोचा जा सकता है, व्यक्तित्व निर्माण में "श्रीराम" जैसे गुण ही तो काम आते है। कहनेवाले कह गए, " शिष्टता में ही विशिष्टता समाहित होती है"। इसके साथ ये बात भी स्पष्ट हो जाती है कि सात्विक व्यक्तित्व की कुछ अलग ही पहचान होती है, जो आकर्षक और लुभावना होती है तथा जिसमें शिष्टता के साथ मर्यादा भरा व्यवहार नजर आता है। तय है, राम देव पुरुष थे, उनमें सर्वगुण थे या नहीं, कह नहीं सकते, पर एक गुण ने उनके व्यक्तित्व की हर कमी को उनका गुण बना दिया, उसे हम संयम कह सकते है। सवाल यह भी किया जा सकता है, उन्हें मर्यादा पुरुषोतम राम के नाम से क्यों याद किया जाता है। इस के उत्तर की तलाश में हमें रामायण की इस चोपाई पर गौर करना होगा, जिसमे राम नाम की महिमा का कारण समाहित है।

बंदउँ नाम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को ।।
बिधि हरि हरमय बेद प्राण सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो ।।

यानी राम नाम की वन्दना करता हूँ, जो कि अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा को प्रकाशित करने वाला है। "राम" नाम ब्रह्मा, विष्णु, महेश और समस्त वेदों का प्राण स्वरुप है, जो कि प्रकृति के तीनों गुणों से परे दिव्य गुणों का भण्डार है।

इस चौपाई का अगर आज के सन्दर्भ से हम विश्लेषण करे तो आज का युग भी काफी कुछ वैसा ही नजर आता है, जहां राम जैसा व्यक्तित्व चमत्कार का नहीं आत्मिक विकास का जीवन केंद्र बिंदु समझा जाता है। फर्क इतना ही है, राम आत्मा से अपनी पवित्रता को अग्नि की तरह अपने विचारों से उज्ज्वल रखते, सूर्य की तरह प्रकाशित करते और चन्द्रमा की तरह शीतलता और मर्यादा से उन विचारों को कर्म में परिवर्तन कर देते, और उस कर्म का फल शीतल चांदनी की तरह जग को निर्मल और सहजता का अहसास करा देता। आज के बदले युग के इंसान के पास इन तीन तत्वों की विरासत की समझ नहीं होने के कारण वो इस व्यक्तित्व के आसपास अपने को नहीं पाता।

आज आधुनिक युग का दौर है, कुछ लोग इसे कलयुग भी कहते है। पूछा जा सकता है, आखिर राम के व्यक्तित्व को आज क्यों टटोला जा रहा है ? सवाल के जबाब में इतना ही कहना पर्याप्त हो सकता है, युग कोई भी है, या रहा है, इंसान में सबको राम की ही तलाश होती है, रावण की नहीं। हालांकि रावण के भी पास ज्ञान, भक्ति, शक्ति, वैभव पराक्रम सब कुछ था, फिर भी उसे कहीं सम्मान और इज्जत नहीं मिली, किस कारण ? यही प्रश्न आज हमारे सामने खड़ा है, इस युग के पास किसी भी चीज की कमी नहीं है, फिर भी इंसानियत को हम क्यों ढूंढ रहे है, क्यों आंतकवाद से हम ग्रसित हो रहे है। हमारा व्यक्तित्व को वो प्रखरता क्यों नहीं नसीब हो रही है, जिसकी हमें चाहना ही नहीं जरुरत भी है। आज विश्वास, सत्य, दैनिक जीवन से क्यों पलायन कर रहे है, मर्यादा ,संस्कार , प्रेम जीवन से विमुख हो रहे है। राम भी इंसान थे, बिना साधनों के अति शक्ति शाली राक्षसों व उनके राजा रावण का वध किया, जब उनके सामने कोई विकल्प नहीं रहा। रावण को उन्होंनें शत्रु नहीं, ज्ञान होते हुए भी भटका हुआ दिशा गुम समझा। अंतिम समय में जब रावण को अपनी बिछड़ती चेतना में जब जीवन की गलतियों का पश्चाताप होना शुरु हुआ, तो लक्ष्मण से उन्होंने कुछ इस तरह कहा:

" जाओं, इस संसार में नीति, राजनीति और शक्ति का महान ज्ञानी विदा ले रहा है,उसके पास जाओं और कुछ शिक्षा लों, लक्ष्मण गए, रावण ने आँख खोली देखा भी, पर कुछ नहीं कहा, लक्ष्मण वापस आ गए। तब मर्यादा पुरुषोतम ने कहा, ज्ञान प्राप्त करने के लिए चरणों के पास खड़ा होना चाहिए, न की सिर की ओर" ।"आज के सन्दर्भ इस बात की पुष्टि इतनी ही हो सकती है, कि खतरनाक आंतकवाद को बढ़ाने वाले अति शिक्षित भ्रमित लोग ही है। जिन्होंने शिक्षा की उच्चतम श्रेणी तो हासिल की, पर आत्मिक ज्ञान में शून्य ही रहें। दहशत फैलाने वाले खुद ही दहशत के शिकार होकर अमूल्य जीवन की सारी सार्थकता से अनजान रह जाते है।

लक्ष्मण दुबारा विनम्रता से सरोवर होकर रावण के पास पँहुचे, तो महाज्ञानी ने कहा, जीवन में तीन बातों का सदा ध्यान रखना।

1. शुभस्य शीघ्रम...कोई भी शुभ कार्य को करने में देरी नहीं करनी चाहिए, पता नहीं कब जीवन डोर टूट जाए।

2. शत्रु को कभी कमजोर न समझो....मैंने भूल की बिना साधनों की सेना मेरा क्या बिगाड़ सकती, आलस्य से आपकी क्षमताओं को नहीं समझ सका।

3. अपना राज किसी को भी नहीं बताना चाहिए....अगर जीवन में कोई रहस्य हो तो उसे यथासंभव गुप्त ही रखना उचित होगा। अगर विभीषण मेरे रहस्य उदगार् नहीं करता, तो शायद पराजय का सामना इतनी जल्दी नहीं होता।

तथ्य की बात यह भी है, श्री राम को ज्यादा इंसानी सहायता की जगह दूसरे प्राणियों का सहयोग मिला, यानी आत्मा की पवित्रता कम क्षमताओं वालों के पास क्षय कम होती है । तय है, राम का चरित्र चाहे काल्पनिक हो या वास्तविक हमारे लिए क्यों न हों, पर जीवन मीमांसा के लिए उत्तम है। आज हम भी अपने व्यक्तित्व को उसी सन्दर्भ में अगर तलाशते है, शायद कोई ऐसा तत्व हमारे सामने आ जाए और जिससे हमार जीवन की सार्थकता बढ़ जाए।

सबसे पहले हम शुरु करते है, उनके जीवन का वो प्रथम मर्यादित कदम से, जो उन्होंने अपने पिता के वचन को निभाने के लिए उठाया। घटनाकर्म का उल्लेख यहां नहीं करना ही सही होगा, क्योंकि रामयण से हम अनजान नहीं है। आज इस तरह की सन्तान कल्पना मात्र तो नहीं कही जा सकती, पर दुर्लभता के अंतर्गत ही रखी जा सकती। राम ने पितृ तत्व को समझा, और अपने अस्तित्व के ऋण को चुकाना कर्तव्य माना, यही उनका अग्निमय चिंतन ने उनको महानता की और अग्रसर कर दिया। क्योंकि इसी चिंतन के बदौलत उनकी समझ में आ गया, त्याग में जो सुख है, वो भोग में नहीं। हम यही गलती कर रहे है, हम भोग को ही आनन्द समझ रहे, त्याग को तो दूर से प्रणाम करते है। आखिर ऐसा क्यों ? राम भी इन्सान थे, हम भी इन्सान है, इसे हम इंसानी भटकाव नहीं मान सकते , हा चिंतन का भटकाव कहना ही सही होगा, और चिंतन का भटकाव आत्मा की पवित्रता, मन की शुद्धता, और संयमित मर्यादित कर्म से नियंत्रण में आ सकता है।

आखिर इसकी क्या वजह हो सकती है, कि हम राम के व्यक्तित्व से लगाव रखते है, पर जब बनने की बात आती है, तो राम की जगह रावण बन जाते है।

नेताओं को ही लीजिये, कितनी सहजता से वो चुनाव से पहले वो रामराज्य की बात करते है, मानों वो आज के युग के राम है। चुनाव जीतने के बाद पता नहीं क्यों उनका कार्य और रुप रावण को भी शर्मिंदा कर देता है ? सीधी सी बात है, राम बनने के लिए पहली शर्त ही वो नहीं निभाते, अपने वचनों के प्रति उनकी वो भावना लुप्त हो जाती है, जो रामायण के प्रमुख तत्व "प्राण जाय, पर वचन न जाय" में समाहित है। व्यक्तित्व की पहचान में आज इस तत्व को चाहे हम कसौटी न माने, पर बात जब राम जैसे व्यक्तित्व की करेंगे तो निसन्देह हमें अपने शब्दों, वचनों, और शपथ की गरिमा तो रखनी चाहिए। कहते है, शिक्षा जीवन को सही परिभाषित करती है, परन्तु देखा गया ज्यादा पढ़े लिखे ही अपनी कर्तव्य शपथ को भूलकर भ्रष्टाचार के दलदल में फंस जाते है।

भारतवर्ष को यह सदा गर्व रहा है, वो मर्यादा पुरुषोतम राम का जन्म स्थान है, यहां आज भी हम हर एक में राम तलाशते है,... पर तलाश करते पता नहीं हर समय रावण का ख़ौफ़ सही "राम तत्व" को क्यों नहीं सामने आने देता, जबकि श्रीराम हमारे अंदर ही रचे बसे है ..जय श्री राम की वन्दना सहित...क्रमश......लेखक "कमल भंसाली"