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एकांकी - एकलव्य

एकांकी नाटक

एकलव्य

रामगोपाल भावुक

(गाँव के चौराहे पर नीम के पेड़ के नीचे एक तख्त डला है, उस पर पीठासन रखा है। उस पर भीलराज हिरण्यधनु बैठे हैं। उनके समाने दाये हाथ की ओर उनके मंत्री चंदन खड़े हैं। मंच के नीचे धनुषवाण लिये उनका एक सैनिक खड़ा हैं। सामने से भील परिधान में धनुषवाण लिये एकलव्य का प्रवेश।)

एकलव्य- तात श्री प्रणाम।

हिरण्यधनु- प्रभु तुम्हारी रक्षा करें।

एकलव्य-तात श्री कुछ सोच रहे हैं?

हिरण्यधनु-हाँ, वत्स सोच रहा था। अब धर्म- कर्म की कहीं कोई बात शेष

नहीं है। कहते हैं जब धर्म-कर्म शेष नहीं रहते तब धरती

पापियों के बोझ से बोझिन मरने लगती है। देखना, इन

पापियों का अन्त शीध्र ही होगा।

एकलव्य- हमें इस तरह नहीं सोचना चाहिए तात श्री ।

हिरण्यधनु- क्यों नहीं सोचना चाहिए, एक तो उन्होंने तुम्हें अपना शिष्य

बनाने से इन्कार कर दिया। वे तुम जैसे नीच जाति के युवक को

राजकुमारों के साथ कैसे शिक्षा देते।......और तुम इतने सीधे

सच्चे निकले कि उस माटी के लौंदे को अपना गुरु मानकर

अभ्यास करते रहे। अरे! तुम्हारा तो अभ्यास ही गुरु है।

तुम्हें किसी अन्य भाव की आवश्यकता न थी। तुमने उनसे यह

क्यों नहीं कह दिया कि आप मेरे गुरु नहीं है। अरे! तुम्हारा गुरु

तो वह मूक प्रतिमा है, जिसके समक्ष तुमने अभ्यास किया है।

अरे! उनसे साफ-साफ कह देते कि वह मूक प्रतिमा कह दे तो मैं

अपना अगुष्ठ देने को तैयार हूँ।

एकलव्य- तात् श्री,आप यह क्या कह रहे हैं,मैंने प्रतिमा में आचार्य द्रोण की

ही प्राण प्रतिष्ठ की थी।

हिरण्यधनु- पगले, तुम इतने सीधे सच्चे निकले कि श्रम से कमाई साधना

को भी भेंट चढ़ा आये।

चन्दन- छमा करें महाराज, मुझे तो युवराज का अगुष्ठदान लेने में एक

राज दृष्टि गोचर हो रहा है। आज्ञा हो तो निवेदन करूँ?

हिरण्यधनु- कहें कहें महामात्य चन्दन, हम कौरवों और पाण्डवों में से नहीं,

जिनमें कोई भी सत्य का पक्ष लेने वाला ही नहीं है। वहाँ तो

आचार्यों तक के मस्तिष्क का दिवाला निकल गया है।

चन्दन- देव, मुझे तो लगता है कि हस्तनापुर के महाराज निषादों की

गौरव गाथओं से घवरा उठे हैं। तभी तो उन्होंने यह कृत्य हो

जाने दिया। राजकुमारों और आचार्य की भतृष्ना तक नहीं की।

अब उन्हें हमारा क्या डर? वे डर रहे थे तों युवराज एकलव्य

की बाण वर्षा से।

हिरण्यधनु- महामात्य, तुम ठीक कहते हो, अब तो हमें एक खुली सभा

अपनी जनता जर्नादन के समक्ष करना होगी, जिससे जनता

स्वयं दूध का दूध और पानी का पानी कर सके।

चन्दन- जी महाराज।

हिरण्यधनु- राज्यभर में दुहाई फिरवा दी जाये कि महाराज हिरण्यधनु

जनता जनार्दन से राज्य की नीतियों के सम्बन्ध में परामर्श

ग्रहण करना चाहते हैं।

चन्दन- जैसी महाराज की आज्ञा।

(कहते हुए चन्दन मंच से प्रस्थान कर जाता है। महाराज हिरण्यधनु उनके पीछे तथा एकलव्य उनके पीछे और उनके बाद प्रहरी भी मंच से चला जाता है।)

द्वितीय दृश्य

(उसी वृक्ष के नीचे पीठासन पर एक मिट्टी की बनी मूर्ति प्रतिष्ठित है।)

एकलव्य-(एकलव्य धनुषवाण लिए हुए मंच पर प्रवेश मूर्ति के समक्ष पहुँचते ही उनसे बातें करने लगता है।)

प्रणाम गुदेव........अब तो मुझे नये सिरे से धनुष से वाण चलाने का

अभ्यास करना होगा। आपकी पुरानी प्रतिमा तो अंगुष्ठदान के लिये

वहीं छोड़ आया हूँ। यहाँ आपका यह नया रूप ही मुझे नई शक्ति

देगा। गुरुदेव मैं उसी सच्ची लगन से साधना करता रहूँगा तो दिन

फिर वही स्थान पाकर दिखाऊँगा। लेकिन गुरुदेव अंगुष्ठ के अभाव

में बुद्धि कुण्ठित हो रही है। धनुष पर वाण रखा ही नहीं जा रहा

है। एक हूँक सी उठ रही है। गुरुदेव आप बुरा न माने तो एक बात

कहूँ! मेरे सभी परिजन आपका बहुत विरोध कर रहे हैं। मैं किस-

किस का मुँह बन्द करूँ? मैं.....मैं पुनः अम्यास करूँगा और

अम्यास के बल पर फिर असंभव को संभव कर दिखाऊँगा।

( यह कहकर उसने अपने तरकश में से तीर निकाला और उसे अपने

धनुष पर रखकर उसकी प्रत्यंचा खीचकर देखता हैं। अंगुष्ठ के अभाव में बाण का सिरा अपने आप तर्जनी और मध्यमा के मध्य दब जाता है। चेहरे पर प्रसन्नता की लकीरें उभरतीं हैं। शब्द निकलते हैं )

-गुरुदेव, प्रत्यांचा उतने वेग से नहीं खिच रही है, लेकिन आपका

धन्यावाद है कि आपने मुझे वाण चलाने का पथ सुझा दिया है।

अब तो तर्जनी और मध्यमा के बल पर पुनः अभ्यास करुँगा।

मैं... मैं अभ्यास से मुँह मोड़ने वाला नहीं हूँ। चलूँ तात श्री से

कह दूँ कि आप चिन्ता नहीं करें। मुझे धनुष से वाण चलाने की

नई राह मिल गई है। चलकर तात श्री कहूँ ,मुझे नई राह मिल

गई है।

( यह कहते हुए मंच से चला जाता है।)

तृतीय दृश्य

(बस्ती के उसी वृक्ष के नीचे, मंच को झाड- फूलों से सजाया गया है।

उस पर तीन पीठसान डले हैं। निषाद, भीलों के जत्थे मंच के सामने अपने

अपने धनुषवाण लिए बैठे हैं।)

जनता- महाराज हिरण्यधनु की जय।

युवराज एकलव्य की जय।

(सबसे पहले महामात्य चन्दन आकर मंच पर उपस्थित होते हैं। महाराज हिरण्यधनु और युवराज एकलव्य अपने अपने पीठसान पर विराजमान हो गये। उनके पीठासन पर विराजमान होते ही चन्दन मंच पर टहलते हुए दिख रहे हैं।)

चन्दन- महाराज की जय हो। जनता जनार्दन आपके समक्ष उपस्थित है।

कार्यवाही शुरू करने की आज्ञा दी जाये।

हिरण्यधनु- महामात्य, आज की कार्यवाही शुरू करें।

चन्दन- जैसी महाराज की आज्ञा।

(मंच पर टहलते हुए)

उपस्थित सज्जनों, हमारे युवराज धनुर्विद्या का अम्यास करने

में लगे थे कि इतने में पाण्डवों का प्रिय कुत्ता आकर हमारे

युवराज के अभ्यास में भूँक- भूँककर व्यवधान उत्पन्न करने

लगा। हमारे युवराज ने अपने शब्द बेधी बाणों से उसका पूरी

तरह से मुँह बन्द कर दिया। हम आज तक अपने श्रम शक्ति

से उपार्जित संसाधनों का शोषण कराते रहे हैं। अब ऐसा

समय आया है कि हममें एक प्रतिभा उत्पन्न हुई, आज

उसका शोषण हुआ तो यह वेदना असहय हो गई है।

अर्जुन से यह सब देखा न गया कि उससे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी

पैदा हो गया है तो उसने गुरुदेव की बात पकड़ली और

बोला-‘गुरुदेव आपने तो कहा था कि तुमसे श्रेष्ठ कोई

धनुर्धारी न होगा। यह तो अपने आपको आपका शिष्य

बतला रहा है।

(कुछ क्षण रुक कर पुनःचन्दन बोला)

इन बातों ने गुरुदेव को किंकर्तव्य विमूढ़ बना दिया। अर्जुन

ने अवसर का लाभ उठाया। गुरुदेव राज परिवार से बंधे है,

उन्होंने एकलव्य से गुरु दक्षिणा में अंगुष्ठ मांग लिया। यह

पीड़ा हमें असहय हो गई है।

जनता- हमारे युवराज ने अपना अंगुष्ठ दान में दे दिया है। अब हम

भी प्रतिज्ञा करते हैं कि धनुष से बाण संधान करते समय

अपने अंगुष्ठ का उपयोग नहीं करेंगे।

हिरण्यधनु- यह निर्णयकर आप लोग अपने गौरव और अपनी मर्यादा की

रक्षा किस प्रकार कर सकेंगे। जब यह खबर हस्तनापुर

पहुँचेगी,शत्रु के घर घी के दीपक जलेंगे। इस घटना के बाद

तो हम लोगों को आधीन रखना उन्हें सरल हो जायेगा।

हमारी जाति स्वतंत्रता प्रेमी है। इसी कारण जंगलों का

स्वच्छंद वातावरण हमने अपने रहने के लिये चुना

है। अब आप लोग अंगुष्ठ के अभाव में धनुष बाण का

उपयोग कैसे कर सकेंगे? आप लोगों का अब अस्तित्व

शेष कैसे रहेगा? बोलो......बोलो......चुप क्यों रह गये?

(कहते कहते उनका गला भर आया)

एकलव्य- (पीठासन से खड़े होकर)

मैं बोलने की अनुमति चाहता हूँ तात श्री।

हिरण्यधनु- कहो, अब तुम क्या कहना चाहते हो?

एकलव्य- देखो, आप लोगों ने जो प्रतिज्ञा की है, वह निषादवंश और

भील जाति के लिए गौरव की बात है। आज से हम सभी

वनबासी धनुष पर वाण चढ़ाते समय माध्यमा और तर्जनी

का उपयोग करेंगे। मैं यह अभ्यास करके देख चुका हूँ। कुछ

ही दिनों के अभ्यास के बाद हम अपने लक्ष्य का संधान कर

सकेंगे।

( यह सुन कर तो सभी मध्यमा और तर्जनी का उपयोग कर धनुष पर बाण

रखकर आकाश की ओर प्रत्यंचा खीचने लगे। एक स्वर से जय घोष सुनाई पड़ता है।)

जनता- युवराज एकलव्य की जय।

युवराज एकलव्य की जय।।

(यह सुनते हुए एकलव्य अपने पीठासन पर बैठ जाता है।)

हिरण्यधनु- अच्छी बात है, आप सभी तैयार हैं तो मुझे क्या? मैं तो

अब बूढ़ा हो चला हूँ। हाँ आप लोगों की इस प्रतिज्ञा से

आने वाली पीढ़ियाँ इस घटना को कभी भूल नहीं पायेगी।

युग- युग तक अनवरत रूप से यह बात चलती चली

जायेगी।अब सभी अपने अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान

करें और लक्ष्य की साधना में अपने आपको अर्पित कर दें।

जनता- महाराज हिरण्यधनु की जय।

युवराज एकलव्य की जय।

(एक एक करके सभी मंच से प्रस्थान कर जाते हैं। उसके बाद मंच के नीचे बैठे लोग भी अपने - अपने धनुषबाण को सम्हालते हुए वहाँ से चले जाते हैं ।)

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सम्पर्क- रामगोपाल भावुक कमलेश्वर कालोनी डबरा भवभूति नगर जिला ग्वालियर म. प्र. 475110 मो0 9425715707

tiwari ramgopal 5@gmai.com

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