टापुओं पर पिकनिक - 90 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टापुओं पर पिकनिक - 90

दुनिया कितनी छोटी है।
पहचाने हुए रास्ते...सब लोग कहीं तो मिलेंगे, कभी तो मिलेंगे!
आगोश की मम्मी ने बेटा खोया था।
और आज उन्हें बेटे का दोस्त मनन दामाद के रूप में मिल गया।
उनकी लखनऊ वाली बहन की बेटी मान्या शादी करके जब जयपुर आई तो मनन की ही दुल्हन बन कर।
और सच पूछो तो शादी करके आई भी कहां, उसकी तो शादी भी यहीं से हुई। डॉक्टर साहब के बंगले से!
मान्या के माता- पिता को बड़ा आराम रहा। उनका दामाद बारात लेकर जिस बंगले में आया वो तो उसका बचपन से देखा - भाला, अपने दोस्त का ही घर था।
आराम से शादी करके वो लोग तो वापस लखनऊ लौट गए पर आगोश की मम्मी, यानी मान्या की मौसी को ऐसा लगा मानो उनके घर में ही बहू आ गई हो।
उनका अकेलापन बांटने वाले बेटी- दामाद उनके लिए विधाता की दी हुई सौगात की तरह आए।
वही हुआ। घर से शादी होने से कई तरह के ख़र्चे हुए। पर जब मान्या के पिता ने बेटी के हाथ पीले हो जाने के बाद डॉक्टर साहब को मान स्वरूप कोई एकमुश्त राशि देने की पेशकश की तो उन्होंने बात को हंसी में ही उड़ा दिया।
आगोश की मम्मी ने जब मान्या को सुन्दर सा सेट भेंट में दिया तो वो ख़ुद इस असमंजस में थीं कि वो बेटी को विदा की सौगात दे रही हैं या बहू को मुंह दिखाई।
यही उलझन मनन की भी थी कि वो अब अपने दोस्त के घर का बेटा है या दामाद।
बहरहाल सभी को पसंद आया ये रिश्ता।
शादी में एक बार फ़िर सबको एकसाथ जुड़ने का अवसर मिला।
शादी समारोह इस बंगले से संपन्न होने का एक बड़ा लाभ ये भी हुआ कि पिछले बहुत समय से आगोश के चले जाने के बाद से ही जो घर उपेक्षा और अनदेखी से उजाड़ सा पड़ा था, उस पर इस बहाने एक बार फ़िर रंग - रोगन हो गया। बंगला फ़िर से दमकने लगा।
आर्यन अपने दोस्त मनन की शादी में नहीं आ सका था। मनन ने उसे फ़ोन किया तो पता चला कि आर्यन का आना नहीं हो सकेगा।
इन दिनों आर्यन मुंबई में था भी नहीं। इस बार उसे एक बड़ी चुनौती मिली थी।
एक मशहूर सिने- निर्माता ने उसे अपनी एक ऐसी फ़िल्म के लिए साइन किया था जिसकी लगभग सारी ही शूटिंग विदेशों में होने वाली थी।
फ़िल्म की कहानी पढ़ कर आर्यन रोमांचित था और उसने अपने अन्य छिटपुट कामकाज को रोक कर कई दिनों का लगातार समय उस प्रॉजेक्ट को दिया था।
उसे इसी फ़िल्म के सिलसिले में लोकेशन देखने जाने का आमंत्रण निर्माता की ओर से दिया गया था।
आर्यन प्रोड्यूसर के बताए स्थानों को देखते हुए घूमता रहा पर उसने मन ही मन इसके लिए जगह का चुनाव कर भी लिया था।
कुछ महीनों पहले वो तेन और मधुरिमा के पास जापान जाकर उन लोगों से मिल भी आया था।
बस, आर्यन का दिल अपने प्रोड्यूसर को तेन और आगोश की खरीदी हुई उसी जगह पर लाने का था जो नज़दीक के छोटे- छोटे टापुओं में बंटी हुई थी।
फ़िल्म की कहानी एक ऐसे षडयंत्र की थी जो सुनसान जंगलों में रहने वाले आदिवासियों, समुद्री डाकुओं तथा कुछ महत्वाकांक्षी धनाढ्य लोगों के परस्पर संघर्ष पर आधारित थी।
दिलचस्प बात ये थी कि निर्माता इस फ़िल्म में एक बिल्कुल नया प्रयोग करना चाहता था।
उसे एक ऐसे पशु- ट्रेनर से उसके सिखाए हुए जानवरों से फ़िल्म में काम करवाने का प्रस्ताव मिला था जो दुनिया भर से कुछ विचित्र पशुओं को खरीद कर पालता था और उन्हें विभिन्न मानव षड्यंत्रों में सहयोग करने के लिए प्रशिक्षित करता था।
इन पशुओं में सिंगापुर से इंडोनेशिया के बीच फैले अजीबोगरीब नस्ल के जानवर तथा विभिन्न दुर्लभ मछलियां थीं। उसने एक निर्जन टापू पर इनके रहने तथा सीखने का एक मनोरम कृत्रिम जंगल तैयार किया था।
उस ट्रेनर ने एक शाम बातों में आर्यन को बताया कि उसे एक दैवी वरदान प्राप्त है। वह किसी भी शख़्स को देख कर ये बता सकता है कि उसका मस्तिष्क अपनी कार्य प्रणाली में किस जानवर से मिलता- जुलता है। उसका कहना था कि हम सभी किसी न किसी प्राणी प्रजाति से अपने मस्तिष्क की ध्वनि तरंगों में समानता रखते ही हैं। फ़िर हम जिस जानवर के क़रीब होते हैं उसकी आदतें हमारे व्यवहार में भी सहज ही आती हैं। गीदड़ से समानता रखने वाले लोग कितने भी तंदुरुस्त हों, पर डरपोक होते ही हैं।
बाघ से मिलते- जुलते मस्तिष्क वाले इंसान को हर बात में ख़ुद को अलग ट्रीटमेंट मिलने की दरकार रहती है।
इस रोचक तथ्य को कथानक के ताने - बाने में पिरोया गया था।
आर्यन इसी आर्टिफिशियल जंगल को दिखाने और लंबे शूट के लिए तेन के उन टापुओं का इस्तेमाल करना चाहता था।
ये टापू शहरी क्षेत्रों से बहुत दूर होने के कारण बेहद शांत और एकांत स्थल तो थे ही, बेहद ख़ूबसूरत भी थे।
अपने प्रोड्यूसर और पशुओं के इस इंस्ट्रक्टर को आर्यन ने तेन से भी मिलवाया था।
दो दिन के बाद वो लोग तो वापस चले गए और आर्यन कुछ दिनों के लिए तेन और मधुरिमा के साथ वहीं रुक गया।
तनिष्मा भी अब आर्यन से काफ़ी हिल - मिल गई थी और इधर- उधर घूमने की ज़िद में उसका पीछा आसानी से छोड़ती ही नहीं थी।
यहां आकर आर्यन मानो ये भूल ही गया था कि वो मुंबई में निरंतर व्यस्त रहने वाला एक कामयाब अभिनेता है। अपनी उस दुनियां को वो अपने स्टाफ के भरोसे छोड़ आया था।
आर्यन के प्रोड्यूसर को ये जगह काफ़ी पसंद आई थी और वह बाक़ी सभी व्यवस्थाएं करने, अनुमतियां आदि लेने में व्यस्त हो गया था।
फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह थी-
एक निर्जन वन में एक आदमी ने अपने छोटे से परिवार को लेकर अपनी जीविका के लिए विभिन्न जानवर पाल रखे हैं। उसे इधर - उधर भटकते हुए खौफ़नाक स्थानों पर ऐसे दुर्लभ जंतुओं को ढूंढने, उन्हें पकड़ने और पालने का शौक़ है। वो उन्हें तरह- तरह के करतब सिखाता रहता है।
इसी टापू से लगते हुए एक छोटे से दूसरे टापू पर बीहड़ में ऐतिहासिक कंदराओं में कुछ समाज विरोधी तत्वों ने अपना ठिकाना बना रखा है। वे यहां विचित्र जीवन जीते हैं। ऐसा लगता है कि ये लोग अलग- अलग देशों से आते हैं और यहां अपने धन को रखने और अन्य षडयंत्रों को अंजाम देने की योजना बनाते रहते हैं। ये लोग आधुनिक, संपन्न लोग हैं जो विभिन्न मॉडर्न से लेकर बाबा आदम के ज़माने तक के साधनों से यहां आना- जाना करते रहते हैं।
ऐसा लगता है जैसे ये राजनेताओं अथवा बड़े व्यावसायिक लोगों के लिए काम करने वाले लोग हैं।
तीसरी ओर कुछ समुद्री डाकू हैं जिनका काम इस तरफ़ से निकलने वाले जहाजों को लूटने या नुकसान पहुंचाने का है। ये सब भी सामाजिक जीवन से छिटके हुए लोग हैं, समाज कंटक।
कथानक का मुख्य आधार ये है कि इन तीनों ही स्थानों व समूहों में एक- एक व्यक्ति के रूप में नायक की तीन भूमिकाएं हैं।
एक बड़ी दुर्घटना के बाद ये रहस्योद्घाटन होता है कि ये तीन व्यक्ति आपस में सगे भाई हैं जो शुरू से ही अलग अलग परिवेश में रहने के कारण आपस में एक दूसरे को नहीं पहचानते।
क्लाइमैक्स में उस वक्त इस बात का खुलासा होता है कि वो तीनों सगे भाई हैं, जब वे एक ही शक्तिशाली व्यक्ति को मारने में एक दूसरे का साथ देते हैं। कहानी के अंत में दर्शकों के लिए एक ज़बरदस्त सस्पेंस तो है ही, ये रोचक तथ्य भी है कि ऐसे समय विभिन्न पालतू जानवर कैसा व्यवहार करते हैं।
पशुओं का ट्रेनर, ऐतिहासिक कंदराओं का केयर- टेकर और सागर दस्युओं का युवा सरगना मिल कर अपनी मुहिम को पूरा करते हैं।
प्रोड्यूसर और फाइनेंसर के बीच एक अहम मतभेद अभी बाकी था जिसका समाधान जल्दी ही अपेक्षित था।
प्रोड्यूसर इन तीन सगे भाइयों की भूमिका में अकेले आर्यन को ही ट्रिपल रोल में लेना चाहता था लेकिन फाइनेंसर फ़िल्म को मल्टी स्टारर बनाने की तर्ज़ पर दो और लड़कों को लेने पर ज़ोर दे रहे थे।
फ़िल्म के बजट पर इस तरह एक बड़ा सा प्रश्न वाचक लग गया था।
तेन के रंग - ढंग देख कर प्रोड्यूसर साहब इस मसले पर काफ़ी आशान्वित हो चले थे।