Taapuon par picnic - 57 books and stories free download online pdf in Hindi

टापुओं पर पिकनिक - 57

मनप्रीत तब थोड़ा झिझकी जब आसपास से तीन- चार लोग उसे देखने लगे।
साजिद पीछे से उसे आवाज़ लगाता हुआ दौड़ा चला आ रहा था पर वो गुस्से में तमतमाई हुई बिना उसकी बात सुने पार्क के गेट की ओर चली आ रही थी।
मधुरिमा को लगा कि अगर साजिद उस तक पहुंच गया तो वो उसे रोकने की कोशिश करेगा और सड़क पर बेबात के तमाशा खड़ा हो जाएगा। इसलिए वह तेज़ी से अपने स्कूटर की ओर चली आ रही थी।
उधर साजिद ने कई बार उसे पुकारने के बाद जब जेब से निकाल कर स्कूटर की चाबी हवा में झुला कर उसे दिखाई तो मनप्रीत सकपकाई।
ओह! चाबी तो साजिद के पास ही है, वो जाएगी कैसे? विवश होकर वह वहीं खड़ी हो गई। आसपास कोई टैक्सी या ऑटोरिक्शा भी नहीं था कि वो उसमें सवार हो जाए।
लेकिन इस स्थिति में भी उसका गुस्सा रत्ती - भर भी कम नहीं हुआ था।
साजिद कम से कम चार- पांच बार सॉरी बोल चुका था और बार- बार कह रहा था कि ऐसा मज़ाक वो भूलकर भी दोबारा कभी नहीं करेगा।
फ़िर भी मनप्रीत का गुस्सा कायम था। वह मुंह फेरे हुए ही खड़ी थी।
साजिद ने उसके पास पहुंच कर उसे कंधे से पकड़ा और एक बार ज़ोर से भींच कर उसे चूम लिया। फ़िर वह झुक कर उसके पैरों को हाथ लगाने की कोशिश करने लगा। माफ़ कर दो... की याचना लिए।
- मेरी बात तो सुनो.. सॉरी यार, कहा न अब तुमसे मज़ाक भी नहीं करूंगा.. साजिद के ऐसा कहते ही आसपास से देख रहे लोग और कुछ सड़कछाप शोहदे लापरवाही से इधर- उधर तितर- बितर हो गए। वो शायद समझ गए कि ये तो सिंपली रूठने- मनाने का मामला है।
साजिद मनप्रीत का हाथ पकड़ कर खींचता हुआ उसे वापस पार्क के उसी कॉर्नर की ओर ले जाने लगा जहां वो दोनों कुछ देर से बैठे हुए थे।
असल में साजिद ने बैठे- बैठे मनप्रीत से एक छोटा सा मज़ाक कर दिया था और मनप्रीत बुरा मान कर उससे रूठ कर चल दी थी।
एक पेड़ की घनी और ठंडी छांव में पैर फ़ैला कर बैठी मनप्रीत की गोद में सिर रखकर साजिद लेटा हुआ था। मनप्रीत उसके बालों में हाथ फेरती जा रही थी और धीमी आवाज़ में साजिद को बताती जा रही थी कि मधुरिमा किस तरह आर्यन के बच्चे की मां बनने के हालात में पहुंच गई। उसमें तो इतनी हिम्मत भी नहीं थी कि इस बारे में अपने पापा- मम्मी को कुछ बता सके। वह जानबूझ कर ये राज नहीं खोलना चाहती थी कि आर्यन ने उसे किसी तरह धोखे में रख कर उसका फ़ायदा उठाया है। बेचारी अपने आप में ही सब सह कर घुट रही थी...पर आगोश के साथ दिल्ली से आए उसके जापानी दोस्त तेन ने मधुरिमा का ये होने वाला बच्चा गोद लेने की पेशकश कर दी।... इतना ही नहीं, तेन ने इसके लिए भारी रकम भी मधुरिमा को दी।
मनप्रीत तो किसी बड़े रहस्य की तरह अपनी सहेली की किस्मत का किस्सा साजिद को सुना रही थी किंतु मदहोशी में लेटे साजिद ने मनप्रीत से एक छोटा सा मज़ाक कर डाला... वह बोला- यार ये तो बढ़िया काम है। तेन को और चाहिएं क्या?
मनप्रीत का मुंह खुला का खुला रह गया। वह गुस्से साजिद की ओर देखने लगी।
साजिद भी जैसे आज अपनी प्रेयसी को छकाने के मूड में ही था। उसकी जांघ पर हाथ मारता हुआ बोला- अगर तुम साथ दो तो दो- चार बच्चों की सप्लाई तो हम भी कर सकते हैं!
बस, मनप्रीत तुनक गई। उसने लगभग धकेल कर साजिद का सिर अपनी गोद से हटाया और उठ कर पार्क के गेट की ओर चल पड़ी।
अगर सच में स्कूटर की चाबी मनप्रीत के ही पास होती तो वह वहां से फ़ौरन अकेली ही रवाना हो जाती। फ़िर महाशय अकेले इधर - उधर बगलें झांकते और पैदल चल कर घर आते।
पर उसे ये ध्यान ही नहीं रहा कि यहां उतरते ही स्कूटर की चाबी निकाल कर तो ख़ुद उसी ने जेब में रखने के लिए साजिद को दे दी थी।
साजिद के इतना मनाने और गिड़गिड़ाने के बाद मनप्रीत उसके साथ चली आई। अब साजिद पैर फ़ैला कर बैठा हुआ था और मनप्रीत उसकी गोद में सिर रखकर लेटी हुई थी।
साजिद की इस नरमी का फ़ायदा मनप्रीत ने तुंरत उठाया, झट से बोली- बस, मैं कुछ नहीं जानती, तुम आज ही अपने अब्बू अम्मी से बात करो और उन्हें अपने मन की बात बताओ... क्या भरोसा तुम लड़कों का.. सब एक जैसे होते हो। कल तुम भी आर्यन की तरह मुझे ज्ञान देकर अपने रास्ते चल दोगे!
- ए मैडम! अब साजिद ने बनावटी गुस्से के तेवर दिखाए... तड़प कर बोला- फ़िर कभी ऐसा मत कहना। मैं आर्यन की तरह अपने किसी करियर का दीवाना नहीं हूं... मेरी ज़िन्दगी का रास्ता तो बस यहीं तक जाता है... कहते - कहते साजिद की अंगुलियां शतरंज के प्यादों की तरह चलती हुई मनप्रीत की गर्दन से नीचे की ओर फिसलने लगीं।
- शैतान! ... मनप्रीत चहक कर उठ बैठी।
सामने से वही चटपटे चने वाला बूढ़ा चला आ रहा था जो अक्सर जोड़ों को यहां बैठे देख कर उनके आसपास मंडराता रहता था और तभी पीछा छोड़ता था जब उसके नींबू- मसालेदार चने ख़रीद लिए जाते।
साजिद और मनप्रीत को भी ये बहुत पसंद थे।
- एक बात पूछूं? मनप्रीत बोली।
- नहीं! साजिद बोला। फ़िर चने खाने में व्यस्त हो गया।
मनप्रीत खिसिया कर रह गई।
- नहीं रे, मज़ाक नहीं... सीरियसली एक बात बताओ। मनप्रीत ने साजिद से अनुनय सी की।
- क्या हुआ, बोलो। साजिद ने संजीदगी से कहा।
- तुम्हें पता है न, उस तेन ने मधुरिमा को बहुत सारे पैसे दिए हैं?
- हां, तो..
- अब मधुरिमा तो कुछ दिन बाद चली जाएगी। वो अपने साथ केवल ज़रूरत भर के पैसे ही लेकर जाएगी। वह चाहती है कि बाक़ी रुपए वो यहीं पर रख जाए। पर वो अपने मम्मी - पापा को कुछ नहीं बताएगी। वह बैंक में भी नहीं रखना चाहती उन पैसों को..
- फ़िर? साजिद ने कहा।
- यही तो, वह मुझसे कह रही है उन्हें रखने के लिए।
- ये तो अच्छी बात है। तुम उसकी बेस्ट फ्रेंड हो, तुम्हें उसकी मदद करनी ही चाहिए। साजिद बोला।
- नहीं यार, ये इतना आसान थोड़े ही है। रिस्क है न! मैं कैसे रखूंगी। मुझे भी तो मम्मी- पापा को ही देने पड़ेंगे। पर वो इसके लिए मना करती है।
- ठीक तो है, जब वो अपने पैरेंट्स को नहीं बता रही तो तुम्हारे पापा- मम्मी को क्यों बताने देगी? सब पूछेंगे नहीं, कि ये क्या चक्कर है? साजिद ने कहा।
- लेकिन फ़िर मैं कैसे रखूंगी? वैसे भी सब कुछ अनिश्चित है। न जाने कल क्या होगा, वो कब लौट कर आयेगी, आयेगी भी या नहीं। कहीं शादी करके वहीं बस तो नहीं जाएगी।
बात सुनता- सुनता साजिद अचानक चौंक पड़ा। चने का ख़ाली पत्ता फ़ेंक कर उसने रुमाल से हाथ साफ़ करते- करते देखा कि मनप्रीत रो रही थी।
- ए, ये क्या? क्या हुआ तुझे। पागल लड़की।
कहते हुए साजिद ने उसे अपने से चिपटा लिया।
बोला- यार, ये कोई बड़ी प्रॉब्लम थोड़े ही है, क्यों परेशान होती है? वो नहीं रखना चाहती बैंक में तो क्या, हम लोग तो रख सकते हैं। मैं बेकरी के नाम से फिक्स डिपॉज़िट बनवा कर तुझे दे दूंगा.. इतनी सी बात?
रोने से मनप्रीत की आंखों में लाली छा गई थी।
- क्या जीवन है! ये क्या कर लिया इस लड़की ने बैठे- बैठे? कल न जाने क्या होगा।
मनप्रीत को अपनी सहेली मधुरिमा की बेसाख्ता याद आ गई और वह तड़प उठी।


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