Bepanaah - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

बेपनाह - 2

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वैसे इस थिएटर ने उसकी कुछ समय के लिए तकलीफ़ें कम की थी, वहाँ पर अपनी अपनी फील्ड के एक से बढ़कर एक बड़ा कलाकार, हर उम्र और हर रंग रूप के, कुछ दिनों में उसको बड़े मजे आने लगे, सब उस से बातें करते । सबको वो न जाने क्यों इतनी प्यारी लगती । वो सुबह छह बजे घर से रिहर्सल के लिए निकल जाती । मम्मी भी खुश कि चलो ग्यारह बारह बजे तक सोने वाली लड़की अब सुबह पाँच बजे उठ जाती है और अच्छे से नहा धोकर तैयार हो कर जाती है और शुभी तो सच में बेहद खुश थी उसे तो जैसे कोई चिंता ही नहीं रही थी । मन हमेशा खुश खुश ही रहता लेकिन जब भी जरा सी कोई तकलीफ होती तो शुभी को उसकी याद आती, उसका प्यार याद आता, उसकी बातें याद आती और आंखे अपने आप छलछला जाती, आँसू बहने लगते । वो उधर से अपना मन हटाने की जितनी कोशिश करती, पर मन हटता ही नहीं । बस ऐसा महसूस होता कि वो एक दिन वापस लौट आयेगा। हाँ जरूर आएगा क्योंकि उसके लाख चाहने पर भी उसे उस जैसा कोई भी नहीं लगता था, कोई भी नहीं ।

जब सब कलाकार ब्रजेश सर के घर पर जाते थे तो उनके बड़े से ड्राइंग रूम में सब लोग सोफ़े, कुर्सी, दीवान पर बैठ जाते । उनकी पत्नी जिनको सब लोग भाभी जी ही कहते थे, वे सबके लिए काँच के गिलासों में पानी लेकर आ जाती सब लोग भाभी जी नमस्ते, गुड मॉर्निंग और आदाब कहते । वे बड़े प्यार से मुस्कुराती हुई सर हिलाती । एकदम सफ़ेद रंग, सुंदर नाक नक्शे, पतली छरहरी काया वाली आँखों पर मोटा सा चश्मा चढ़ाये रखती थी जितनी वो सुंदर थी, उससे भी ज्यादा उनका प्यारा व्यवहार था। शुभी सोचती इतने सारे लोगों को अपने घर में रोजाना देखकर भी वे कभी गुस्सा क्यों नहीं होती? कैसे सारे काम खुशी खुशी कर लेती हैं ? हालांकि घर में काम करने के लिए कई नौकर और मेड थी लेकिन उनसे वे ऊपर के काम कराती थी, किचन के अधिकतर काम वे खुद ही देखती और कुछ कुछ उसकी मम्मी की तरह ही अपने आप को व्यस्त रखने के लिए अपना ब्यूटी पार्लर चलाती थी। उनके घर में सब कुछ कितना करीने से सजा संवरा और साफ सुथरा रहता है । कहीं कोई गंदगी या अस्त व्यस्त नहीं । ऐसा नहीं कि केवल ड्राइंग रूम ही सजा हुआ रहता था बल्कि उनका पूरा घर ही इसी तरह से था। जब तक प्ले के सारे कलाकार इकटठे नहीं हो जाते, तब तक सर रिहर्सल शुरू नहीं करते, जो देर से आता उसकी डांट भी लगाते और हमेशा शुभी की तारीफ करते हुए कहते, कि देखो इस लड़की को, इसे आज तक कभी देर से आते हुए नहीं देखा है हमेशा समय से पहले ही आ जाती है !” वो खुश होती और सर को इम्प्रेस करने के लिए और भी अच्छे से काम करती जबकि अभी उसे थिएटर की एबीसीडी भी नहीं आती थी। सर इतने अच्छे तरीके से एक एक बात सिखाते जैसे कि कैसे बोलना है ? कहाँ से आवाज निकालनी है और पैरों के मूवमेंट कैसे लेने हैं पूरे दो घंटे की पक्की कसरत होती। रिहर्सल करते करते वो थक जाती, पर हिम्मत कभी नहीं हारती, बराबर मन से लगी रहती, अगर उसे समझ नहीं आता तो कितनी ही बार गलत करती लेकिन सर उससे कभी नाराज नहीं होते बल्कि उसे बार बार समझाते, ऐसा नहीं कि उनको गुस्सा नहीं आता था पर वे महिलाओं और लड़कियों की बहुत इज्ज़त करते थे और जितने भी लडके आते, उनको डांटते और अक्सर नाराज भी हो जाते लेकिन उसने कभी उनके मुंह से बेहूदा बाते नहीं सुनी, कोई गलत बात नहीं, कोई गाली गलौज नहीं । वे जितने शांत दिखते उससे भी ज्यादा उनके अंदर गुस्सा भरा हुआ था और वे हुनर की पूरी खान थे । न जाने कितने गुण उनके अंदर भरे हुए थे । जब कभी वे मूड में होते तो अपने किस्से सुनाने बैठ जाते फिर उस दिन रिहर्सल कैंसिल और उनके किस्सों में कब दो घंटे निकल जाते पता ही नहीं चलता था। सर बताते कि वे बचपन से यह काम कर रहे हैं। तीन साल की उम्र से अपनी नाटक मंडली के साथ में महीनों घर से दूर रहते और जगह जगह जाकर नाटक करते थे । उसके मन में उनके लिए बहुत ही ज्यादा आदर के भाव रहते और उसको वे बिल्कुल अपने पिता जैसे ही लगते थे। शायद वे भी उसे अपनी बेटी समझते थे, तभी वे भी उसे बेहद प्यार देते, हमेशा बेटा बेटा कहकर ही बात करते थे ।

शुभी हमेशा समय से पहले पहुँचती ! एक तो जल्दी जाने से सर को कभी शिकायत नहीं होती दूसरे मम्मी भी खुश, बिना किसी फीस के इतना कुछ सीखने को मिल रहा था । पूरे दो घंटे की रिहर्सल के बाद उनकी मेड सब लोगों के लिए चाय नाश्ता लगा देती । सभी को इसका ही इंतजार रहता था क्योंकि रिहर्सल करते हुए इतना थक चुके होते थे और सुबह सुबह घर से सभी इतनी जल्दी खाली पेट ही निकलते भी थे और इस चाय नाश्ते का सारा क्रेडिट जाता था भाभी जी को, जो स्वयं अपने हाथो से चाय बनाती और बड़े बड़े वौल्स में मठरी, सेव, नमकीन और बिस्कुट निकाल कर रखती ! सच कहूँ तो उस नाश्ते में जो आनंद आता था वो अवर्णनीय है ।

बड़ा अच्छा समय गुजर रहा था, वो काफी हद तक ज़िंदगी को जीने लगी थी और अतीत से उबर चुकी थी लेकिन कभी अकेले बैठती और पल भर को भी उसे सोचती तो उसकी आँखें नम हो जाती और कभी कभी बेतहाशा आँसू बहाने लगती, उसे न जाने क्यों अभी भी यह अहसास होता कि वो हमेशा उसके आसपास है। काश कि वो जीवन में आ जाये, क्या उसे पता नहीं कि वो कितना खास है कितना अहम है उसके लिए और उसके जीवन के लिए । भले ही वो मिले या न मिले लेकिन रिश्ता तो बनाए रखता।

वो अपने बहते हुए आंसुओं को किसी तरह से रोकती और दिल को काबू में करती, अपने मन को हटाने के लिए दौड़ के मम्मी के पास पहुँच जाती जो बड़ी तल्लीनता से घर के कामों में लगी होती ! उस दिन भी उस ने मम्मी से कहा, “मम्मी आप यह आचार जैम का काम बड़े लेबल पर शुरू कर दो, इतना अच्छा बनाती हो हाथों हाथ बिक जायेगा और पैसों की सारी समस्या भी हल हो जाएगी !”

पापा के न रहने पर उनकी पेंशन ही सहारा था लेकिन वो सारे खर्चे कहाँ पूरे कर पाती वैसे कम पैसो की वजह से मम्मी के चेहरे पर एक उदासी सी बनी रहती थी। मम्मी शुभी की यह बात सुनकर हँसती और कहती, “बेटा, मैं बना तो दूँगी लेकिन इन्हें प्रमोट कौन करेगा और मैं अकेले कहाँ देख पाऊँगी बड़ा बिजनेस ?

“अरे मम्मी घर के बाहर बोर्ड लगा लो, कोई लेने आयेगा, तो उसे अगर पसंद आया फिर वो बार बार लेने आयेगा, साथ ही और लोगों को भी बतायेगा।

“हाँ बेटा तू कहती तो ठीक है !” मम्मी उसकी बचकानी बात पर खुश होकर कहती और ज़ोर से हँसती ! कितनी प्यारी लगती हैं मम्मी यूं खुलकर हँसती हुई ! जबसे पापा नहीं रहे मम्मी अक्सर उदास ही रहती हैं !

अब वे दोनों खूब खुलकर बातें करते और हँसते ! वो मम्मी को अपनी बातें बताती और वे अपनी !

मम्मी को लगता कि वो सही हो गयी है ! शुभी का मन अब भटकता नहीं है लेकिन दिल के भीतर जो घाव था उसे किसी को कैसे दिखाया जा सकता था जो कभी कभी रिसने लगता था ! वो सोचती यह प्यार क्यों होता है ? कोई अंजाना क्यों इतना प्यारा, इतना अपना सा लगने लगता है ? क्यों हमारे जीवन का वो ही सब कुछ बन बैठता है और हम सब भुला देते हैं ?

आज सर ने सुबह बुलाया और कहा, “कि अब कल से हम सब लोग खुले में रिहर्सल करेंगे जिससे हमें स्टेज कवर करना आयेगा ।” फिर सब लोग अगले दिन से उस खुले हुए पार्क में जाने लगे जहां पर आम जन का आना प्रतिबंधित था । वहाँ पर बहुत अच्छी तरह से तैयारी हो रही थी और रिहर्सल के ठीक दो घंटे के बाद यहाँ पर भी सर के घर से चाय आ जाती । कभी भाभी जी, कभी उनका नौकर या कोई भी चाय नाश्ते का समान लेकर आ जाता था । सच में उस समय जो स्वाद उस चाय और नाश्ते में आता वो स्वाद दुनिया की किसी चीज में नहीं लगता था । अब प्ले को स्टेज पर उतारने के कुछ ही दिन शेष बचे थे इसलिए सब लोग थोड़ा ज्यादा समय देने लगे थे । किसी किसी दिन तो सब लोग पूरे दिन नाटक की तैयारियां करते रहते क्योंकि रिहर्सल के अलावा और भी बहुत सारे काम थे जो सब लोगों को मिलकर ही करने थे, जैसे - ड्रेस, ज्वेलरी, मेकअप, नाटक में सेट लगाने के लिए चीजें और पोस्टर आदि आदि । जब सब लोग पूरे दिन काम करते तो सर सभी लोगों का खाना अपने घर से बनवा कर खिलवाते थे । पीली वाली तहरी, पूरी सब्जी और साथ ही समोसे भी बार बार मंगवाते । खाना पीना, मस्ती और रिहर्सल इन सबके बीच ही जिंदगी झूल रही थी । इतना काम करने के बाद भी काम का कोई प्रेशर नहीं था, सब कुछ मजे मजे में हो जाता क्योंकि सभी लोग मिलजुल कर काम करते थे । आखिर हमारा प्ले स्टेज पर पहुँचा खूब तारीफ़ें, वाहवाही और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच पूरे ढाई घंटे का नाटक चला । कोई भी कहीं उठकर नहीं गया, सब अपनी सीट पर डटे हुए बैठे रहे । और अंत में सबकी मेहनत रंग ले लायी थी और नाटक सर्वश्रेष्ठता के मापदण्डों पर खरा उतरा । सभी को प्राइज और सम्मान मिला, साथ ही मानदेय भी । अब नाटक के खत्म होते ही फिर से जिंदगी में सूनापन सा गया ।

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